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उत्तराखण्ड की शिक्षा प्रणाली पर कुछ विचार …. Posted on सितम्बर 11, 2008 by
प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI अचानक इन्टरनेट पर घुमते हुए मैं उत्तराखंड के एक इन्टरनेट फोरम पर जा पहुँचा । यंहा बढ़िया चर्चा जारी थी कई तरह के विचार उत्तराखंड की शिक्षा प्रणाली पर थे । कुछ विचार मैं आपके सामने पेश कर रहा हूँ । ज्यादा और पूरा पढने के लिए मेरा पहाड़.कॉम[ पर क्लिक करें । पहले यह कविता को ध्यान से पढ़े । शायद यह पूरी व्यवस्था का सीधा प्रसारण है एकल शिक्षक वाले स्कूलों का । बताता चलूँ की ज्यादातर सरकारी स्कूल शिक्षकों की कमी से जूझ रहें हैं ।
मैं व्यथित हूँ शिक्षा के स्तर से
बयां करूँ क्या अपनी पाठशाला का
जहाँ कक्षायें पांच हैं पर अध्यापक एक
पाठशाला की जिम्मेदारियों से
सरकारी आदेशों के भार से
समय से पहले बूढा होता अध्यापक
कर भी नही पता पढाने का श्री गणेश
अभी तक नही समझ सका वह शासन प्रशासन का आदेश
जन गणना, गाँव गणना, पशु गणना, और सालों साल मत गणना,
होते इसी अध्यापक को निर्देश
मैंने सोचा चलो पूछें हाल चाल
मर्साब नमस्कार, सब कुशल मंगल जवाब दे नही पता रुआं सा जाता है
मर्साब उवाच:- दर्द एक हो तो बताऊँ
यहाँ एक में अनेक समाये है
कैंसर के दर्द से भी भयंकर एकल अध्यापक का दर्द है
फ़िर भी सुनाता हूँ आपबीती
समय पर पाठशाला खोलता हूँ
तब बच्चे नही मैं ही होता हूँ
प्रथम कर्तव्य की आहुति से बच्चों की राह मैं ताकता हूँ
शिवगण कहूँ या फ़िर राम सेना किसी तरह प्रार्थना करा देता हूँ
एक एक की उपस्थिति लेकर कक्षाओं को नही सजा पाता हूँ
मेरी कलम, दवात, कापी किताब
मर्साब वह लिखता है न पढ़ता है
मर्साब पेशाब जाऊँ,
वह मुझे मारता है
सुनते सुनते सिर पकड़ लेता हूँ
फ़िर दिन के भोजन के लिए बच्चो की गिनती करता हूँ
हिसाब लगाकर चावल दाल लकडी पानी का इंतजाम करता हूँ
इसी चक्कर में मध्यांतर हो जाता है
मध्यांतर के बाद थक जाता हूँ
राम सेना शांत कैसे रहे कुर्सी पर पीठ टिका देता हूँ
कभी कभी मुझे लगता है सरकार की ओर से नियुक्त प्रशिक्षित ग्वाला हूँ
जो पेड़ की छाँव में बैठा भेड़ बकरियों को ही चारा रहा
अपनी विवशस्तता पर आंसू बरबस यों ही पी लेता हूँ
अगला विचार
पब्लिक स्कूल में जो शिक्षक होते है उनका शिक्षा का स्तर क्या है १० वी या १२ वी फ़िर भी वे बच्चो को अच्छा पड़ते है/ क्यो / सरकार प्राथमिक विद्यालयो में भी शिक्षक बी टी सी होते है फ़िर भी बच्चो को उस ढंग से नही पढाते है जैसा उनको प्रशिक्षण दिया गया है/ सरकारी पदाधिकारी है कौन क्या कर सकता है/ मुझे तो हैरानी तब हुई जब सरकारी अध्यापको के बच्चे पब्लिक स्कूल में पढ़ने जाते है/ एक और बानगी देखिये अभिभावकों की/ जब बच्चा सरकारी स्कूल में पढ़ने जाता है तो बिना बाल बनाये, बिना पालिस का जूता, घर के दरवाजे तक भी उसको नही छोड़ने नही जाते है अब वाही बच्चा जब पब्लिक स्कूल में जाता है- बालो में कंघी करेगे, कपडे साफ पहनायेगे, स्कूल के गेट तक छोड़ने जायेगें , लेन भी जायेगे एक सज्जन का विचार था …….
हमारे प्रदेश की शिक्षा नीति के बारे में क्या कहना! प्राइमरी स्कूल बन गये हैं बाल होटल। वैसे भी अब सरकारी प्राइमरी स्कूल में या तो गरी़ब तबके के ही छात्र आते है क्योंकि जो भी सक्षम आदमी है वह गांव-घरों में खुले अंग्रेजी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाना अपनी शान समझ्ते हैं, भले ही वहां गांव के प्राइमरी स्कूल से भी दोयम दर्जे की पढ़ाई होती है। क्योंकि प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने वाला शिक्षक कम से कम B A, BTC तो होता है और उसी गांव में अंग्रेजी स्कूल के टीचर और मैडम इंटर पास बेरोजगार ही होते हैं। अब बात प्राइमरी स्कूलों की शिक्षा प्रणाली की। बेचारा वहां का मास्टर स्वीपर भी खुद है, चौकीदार भी खुद है, राशन लाने वाला भी वह और मास्टर तो है ही। हमारा शासन तंत्र पता नहीं क्यों इस बात को नहीं समझ पाता है कि प्राइमरी स्कूलों में जो सुविधायें दी जानी चाहिये, वह क्यों नहीं दी जाती हैं? वहां के मास्टर को सबसे पहले आकर स्कूल खोलना है, श्याम-पट साफ करने हैं, और मिड डे मील के लिये भोजन माता को राशन देना है, इस सब के अतिरिक्त उसे कई तरह के कागजात भी तैयार करने होते हैं। अगर वह इन सब कामों को छात्रों से कराये तो लोगों को आपत्ति है कि हमारे बच्चों से काम कराया जा रहा है और अगर वह खुद करे तो कहा जाता है कि पढ़ाता नहीं है। सोचने की बात यह है कि इतने सारे कामों को वह कैसे करे। जहां पर दो-तीन अध्यापक हैं वहां तो ठीक है, लेकिन हमारे प्रदेश के और खासतौर पर पहाड़ों में एकल अध्यापक ही प्राथमिक स्कूलों में हैं। बच्चों का ध्यान सिर्फ और सिर्फ भात पकने तक ही सीमित रह गया है। गरीब लोग बच्चों को इसलिये ही स्कूल भेजते हैं कि कम से कम उनका बच्चा एक समय तो पेट भर सके। दूसरे पहलू की ओर चर्चा को मोड़ते हुए सज्जन का कहना था ……..
छह घंटे की पढ़ाई के लिए एक तो भारी भरकम ट्यूशन फीस, ऊपर से कोचिंग के नाम पर और मोटी रकम और वह भी स्कूल टाइम में ही। तर्क भी ऐसा दिया जा रहा कि अभिभावकों के न तो गले उतर रहा और न ही वे विरोध कर पा रहे हैं। वाह भई, बड़ी दूर की कौड़ी निकाल कर लाए हैं पब्लिक स्कूल। पब्लिक स्कूलों के इस तरह के खेल से अभिभावक ही नहीं राज्य सरकार भी परेशान है। पर स्कूल प्रबंधन हैं कि मनमानी से बाज आते नहीं दिख रहे हैं। अभी तक आमतौर पर इन स्कूलों में मनमाफिक फीस लेने की शिकायतें अभिभावकों की तरफ से मिलती रहीं, लेकिन अब इन स्कूलों में स्कूल टाइमिंग में ही कोचिंग कराना सामने आया है और वह भी एक्सट्रा रकम लेकर। टयूशन फीस, लाइब्रेरी फीस और कंप्यूटर फीस के नाम पर अच्छा-खासा शुल्क लेने वाले कुछ पब्लिक स्कूलों ने अब आईआईटी और मेडिकल स्कूलों की प्रवेश परीक्षा के लिए कोचिंग भी शुरू कर दी है। स्कूलों की यह पहल उनके ही लिए सोने पर सुहागा साबित हो रही है।
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आप का क्या कहना है शायद इतने प्रश्न-वाचक चिन्हों को लगाना समीचीन हो।