Author Topic: Mera Pahad In Press/Electronic Media : मेरा पहाड़ प्रेस में  (Read 53006 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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e: Home / जन आन्दोलन, राज्य प्राप्ति आन्दोलन / युवाओं ने जीवित रखा गैरसैंण का मुद्दा  युवाओं ने जीवित रखा गैरसैंण का मुद्दाBy नैनीताल समाचार on December 28, 2010
  प्रवीण कुमार भट्ट
इस पखवाड़े उत्तराखंड राज्य के गठन को दस साल पूरे हो जायेंगे। एक दशक के इस सफर में कई बुनियादी और बड़े सवाल पीछे छूट गये हैं जिनका हल खोजा जाना अभी बाकी है। इन्हीं में से एक सवाल उत्तराखंड की असली राजधानी का भी है। पृथक राज्य की लड़ाई के साथ ही आंदोलनकारियों ने तय किया था कि इस राज्य का नाम ‘उत्तराखंड’ और इसकी राजधानी ‘गैरसैंण’ होगी, लेकिन राज्य गठन के दौरान भाजपा ने इस अवधारणा को छिन्न-भिन्न करते हुए राज्य को ‘उत्तरांचल’ और देहरादून को अस्थायी राजधानी बना दिया। तब से लेकर आज तक प्रदेश की राजधानी का मुद्दा हल नहीं हो पाया है। अब तो राज्य आंदोलनकारी, क्षेत्रीय दल और संगठन भी इस मुद्दे को भूल गये हैं। भले ही गैरसैंण के सवाल पर कहीं से कोई आवाज न आ रही हो लेकिन उत्तराखंड के कुछ युवा इंटरनेट के माध्यम से इस सवाल को मजबूती से उठा रहे हैं। ‘मेरा पहाड़ डॉट काम’ द्वारा गैरसैण राजधानी के सवाल पर शुरू किये गये ‘उत्तराखंड की राजधानी गैरसैंण’ फोरम में चल रही बहस में अब तक 400 लोग भाग ले चुके हैं। सबसे ताजा टिप्पणी में पिथौरागढ़ के पंकज सिंह महर ने लिखा है, ‘‘समस्या अगर उत्तराखंड की राजधानी को लेकर है तो उसका समाधान गैरसैंण है।’’
मेरा पहाड़ बेवसाइट में ‘उत्तराखंड की राजधानी गैरसैण’ फोरम की शुरूआत करने वाले इंजीनियर हेम पंत का कहना है कि उत्तराखंड और उत्तराखंड से बाहर रहने वाले उत्तराखंडियों को गैरसैंण के सवाल पर जागरूक करने के लिए इस फोरम की शुरूआत की गयी है। बाहर रह रहे अधिकांश लोग यह नहीं जानते कि देहरादून उत्तराखंड की अस्थायी राजधानी है। 2009 में गैरसैंण राजधानी के सवाल पर ‘क्रियेटिव उत्तराखंड’ द्वारा दिल्ली से गैरसैंण की यात्रा के संयोजक रहे हेम पांडे मानते हैं कि जब एक जल विद्युत परियोजना के लिए नई टिहरी का नया शहर बस सकता है तो एक प्रदेश की राजधानी के लिए गैरसैंण क्यों नहीं। वे कहते हैं कि उत्तराखंड राज्य का आंदोलन गैरसैंण राजधानी को आधार बनाकर ही किया गया था, लेकिन अब इसे महज एक मुद्दा बना दिया गया है।
फोरम से जुड़े दिनेश बिजल्वाण कहते हैं कि गैरसैंण उत्तराखंड के लोगों द्वारा प्रस्तावित राजधानी है। लेकिन दुर्भाग्य है कि लोकतंत्र में राजनीति एक शक्ति होती है। उसी शक्ति को इस विषय से अरुचि हो गयी है, जिससे यह मात्र एक मुद्दा बनकर रह गया।
फोरम में गैरसैंण राजधानी के सवाल पर लिखा गया है कि ‘‘गैरसैंण जगह नहीं, आत्मा है उत्तराखंड की।’’ इसी तरह से एक टिप्पणी में याद दिलाया गया है कि दीक्षित आयोग के सामने भी 64 प्रतिशत लोगों ने गैरसैंण को राजधानी के लिए उपयुक्त बतलाया गया था। फोरम की एक विशेषता यह है कि इसमें गैरसैंण के लिए रचे गये गीतों और कविताओं को भी जगह दी गयी है। आप फोरम में गैरसैंण के सवाल पर गाया गया गीत ‘तुमनी सुना, मिन सुन्याली’ और दिनेश ध्यानी की कविता ‘गर हो सके तो गैरसैंण की बात कर’ भी पढ़ सकते हैं। दिनेश ध्यानी लिखते हैं, ‘‘करनी है भाषण नहीं बात कर/ समय से साक्षात्कार कर/और कुछ नहीं सुनना हमें/ बात छिड़ी है गैरसैंण की/ उसकी बात कर/ तुम्हारे अपने सरोकार/ तुम्हारी अपनी सरकार/ हमारी गैरसैंण की बात/ जनता को गैरसेंण की दरकार/गैरसैंण हमारा अपना है…/ गैरसैंण की बात कर/ गैरसैंण की बात कर।’’
फोरम से जुड़े धीरज अधिकारी का कहना है कि बीते साल बिपिन त्रिपाठी की पुण्यतिथि 28 अगस्त को दिल्ली से रुद्रपुर, द्वाराहाट, चौखुटिया होते हुए गैरसैंण तक यात्रा निकाली गयी थी, जिसमें 50 से अधिक समाजकर्मियों, साहित्यकारों, पत्रकारों और आंदोलनकारियों ने भाग लिया था। उन्होंने कहा कि गैरसैंण राजधानी के लिए पूरी तरह उपयुक्त है। बस राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है। उन्होंने कहा कि यात्रा में शामिल लोगों ने गैरसैंण में वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली की प्रतिमा के सामने राजधानी गैरसैंण की प्रतिबद्धता दोहरायी थी, जो अभी पूरा होना बाकी है।
इसके अलावा सोशल नेटवर्किंग साइट “ऑरकुट’ पर गैरसैंण के सवाल पर जोरदार बहस चल रही है। वहाँ भी सैकड़ों लोग इस मुद्दे पर बात कर रहे हैं। उत्तराखंड के युवाओं का यह प्रयास, कम से कम इंटरनैट पर राजधानी के मुद्दे को जीवित रखे हुए है।

पंकज सिंह महर

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म्यर पहाड़-२ म्यूजिक एलबम पर एक खबर आज के हिन्दुस्तान टाईम्स, देहरादून संस्करण में छपी है।

KAILASH PANDEY/THET PAHADI

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Wow daju, bahut badiya....

हेम पन्त

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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पंकज सिंह महर

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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 उत्तराखंड का पांचवा क्रिकेटर उन्मुक्त चंद ठाकुर
 
  • प्रवीन कुमार भट्ट
   
   
      देहरादून। आईपीएल के पिछले सीजन में जब युवा मनीष पांडे ने सीजन का पहला सैकड़ा जमाया तो सभी उसकी यह कहकर चर्चा कर रहे थे कि यह खिलाड़ी मूल रूप से उत्तराखंड के बागेश्वर का रहने वाला है। इसी प्रकार इस बार आईपीएल में उत्तराखंड का एक और सितारा अपनी चमक बिखेरने को तैयार है और वह है उन्मुक्त चंद ठाकुर। इस बार दिल्ली डेयरडेविल्स की ओर से इस क्रिकेट खिलाड़ी को मौका मिला है। मूल रूप पिथौरागढ़ जिले के रहने वाले और दिल्ली में रह रहे उन्मुक्त चंद को आईपीएल में दिल्ली डेयरडेविल्स की ओर से खेलने के लिए चुना गया है। पिथौरागढ़ जिले के खड़कूभल्या गांव के उन्मुक्त चंद के पिता भरत चंद ठाकुर एक शिक्षक हैं।
बाराखंबा रोड स्थित मार्डन स्कूल में 12 वीं का छात्र 17 वर्षीय उन्मुक्त इससे पहले दिल्ली की टीम के लिए अंडर 15, 16 और 19 के मैच खेलने के साथ ही रणजी एकदिवसीय भी खेल चुका है। पिछले सीजन में उन्मुक्त में अंडर 19 खिलाड़ियों में सर्वाधिक 435 रन बनाये, जिसमें 2 शतक और एक हाफ सैंचुरी शामिल है। रणजी में उसने रेलवे के खिलाफ 151 रन बनाए। इन तमाम कामयाबियों के कारण उन्मुक्त का चयन बीसीसीआई की अंडर 19 टीम के लिए भी हुआ है जहां वह नार्थ जोन की ओर से खेलेगा। प्री बोर्ड की परीक्षाओं के बावजूद उन्मुक्त इन दिनों आईपीएल की तैयारियों लगा हुआ है।
यहां मनीष पांडे और भारतीय टीम के कप्तान महेन्द्र सिंह धौनी की बात करना भी जरूरी होगा। अल्मोड़ा में धौनी का पैतृक गांव है। इसी प्रकार दिल्ली रणजी के लिए खेलने वाले गढ़वाल एक्सप्रेस के नाम से मशहूर पवन सुयाल और राबिन विष्ट भी उत्तराखंड के ही हैं। उन्मुक्त चंद ने मेरा पहाड़ फोरम के लाइव चैट में शुक्रवार को उत्तराखंड और देश भर के 100 से अधिक लोगों के सवालों के जबाव दिए। उसका कहना था कि वह अपने प्रदर्शन को जारी रखना चाहता है। धौनी के विषय में किये गये एक सवाल के जबाव में उसने कहा कि अभी उसकी उनसे मुलाकात नहीं हुई है लेकिन वह उनसे मिलने का इच्छुक है। इस चैट में फ्रांस के एक उत्तराखंडी कर्नल नेगी ने भी भाग लिया। फोरम के संचालक हेम पंत ने बताया कि उन्मुक्त चंद भविष्य में भी लाइव चैट के लिए आएंगे।
इस प्रकार उत्तराखंड की पांच क्रिकेट प्रतिभाएं महेन्द्र सिंह धौनी, मनीष पांडे, उन्मुक्त चंद, पवन सुयाल और राबिन विष्ट इन दिनों राष्ट्रीय फलक पर अपनी चमक बिखेर रहे हैं। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि उत्तराखंड क्रिकेट को अभी तक बीसीसीआई की मान्यता नहीं मिल पाई है। इसका कारण यहां की क्रिकेट एसोसिएशनों का आपसी झगड़ा है।


(Soure - www.swatrantaawaj.com


 

हेम पन्त

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"राष्ट्रीय सहारा"  की खबर

पंकज सिंह महर

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द सन्डे पोस्ट के निम्न लिंक से साभार-
http://www.thesundaypost.in/misaal.php

 मिसाल

 
विरासत सहेजने की मुहिम
 
 राज्य गठन के दस साल बाद अब जब पहाड़ की जनता सरकार और नेताओं से पूरी तरह निराश हो चुकी है, यहां के युवाओं का प्रयास उम्मीद जगाता है। इसकी एक बानगी बागेश्वर में सरयू-गोमती तट पर लगने वाले उत्तरायणी मेले में दिखी। देश-विदेश में रहने वाले प्रदेश के युवा 'क्रिएटिव उत्तराखण्ड म्यर पहाड़' का गठन कर पहाड़ की विरासत को बचाने के साथ राज्य के जमीनी सवालों को उठा रहे ह
बागेश्वर के उत्तरायणी मेले से उठने वाले चेतना के स्वर अभी धीमे नहीं पड़े हैं। सरयू-गोमती के संगम में लगने वाले इस मेले का जितना सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व है उतना ही समाज को नई दिशा देने के लिए यहां के संकल्प। आजादी के दौर में सरयू- बगड़ में कुली बेगार के खिलाफ उठी चेतना ने आंदोलनों का जो फलक तैयार किया वह अब नयी पीढ़ी के लिये प्रेरणा का काम कर रहा है। बगड़ में राजनीतिक और सामाजिक संगठनों के लगने वाले मंच अब एक-दूसरे को गलियाने के लिये इस्तेमाल होते हैं। सरकार इस मेले पर लाखों रुपये खर्च करती है। मेला समिति अभी तक कोई ऐसा दस्तावेज तैयार नहीं कर पायी है जिससे बागेश्वर के अतीत को समझा जा सके। ऐसे समय में प्रवास में रह रहे युवाओं की संस्था 'क्रिएटिव उत्तराखण्ड म्यर पहाड़' ने जिस तरह यहां के अतीत और आंदोलनों को याद किया वह उम्मीद जगाता है कि आने वाले दिनों में विरासत को अक्षुण्ण रखने की मुहिम जारी रहेगी।

उल्लेखनीय है कि बागेश्वर में मकर संक्रान्ति पर उत्तरायणी का पौराणिक मेला लगता है। यह धार्मिक, सांस्कृतिक और व्यापार मेले के रूप में प्रसिद्ध है। आजादी के दौर में अंग्रेजों के दमन का हथियार बना कुली बेगार कुमाऊं के लोगों के लिये किसी अभिशाप से कम नहीं था। इसके प्रतिकार में १४ जनवरी १९२१ को सरयू-गोमती के संगम पर कुमाऊं केसरी बद्रीदत्त पांडे के नेतृत्व में कुली बेगार प्रथा के खिलाफ आंदोलन की शुरुआत हुयी। इस ऐतिहासिक द्घटना ने जहां उस समय आजादी के आंदोलन में महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में कार्य किया वहीं बाद में पहाड़ के आंदोलनों के लिये संकल्पों की जमीन भी बनी। कई आंदोलनों की शुरुआत और नारे उत्तरायणी में सरयू-गोमती के बगड़ से निकले। समय के साथ अब यह मेला भी बाजारवाद की चपेट में है। सरकारी मेले में तब्दील होने के साथ इसका सांस्कृतिक, धार्मिक स्वरूप तो समाप्त हो ही रहा है, अब ऐतिहासिक महत्व भी किसी को याद नहीं आ रहा। सरकार ने नगरपालिका को इस मेले को संपन्न कराने की जिम्मेदारी सौंपी है। इसके लिये जो समिति बनी है उसमें जनप्रतिनिधि, सामाजिक कार्यकर्ता, राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि, बुद्धिजीवी, पत्रकार और प्रशासन से जुड़े अधिकारी शामिल हैं। प्रतिवर्ष समिति में बढ़ती सदस्यों की संख्या और बजट ने इसे जनता से और दूर कर दिया है। इस बार भी वही हुआ जैसा पिछले कुछ वर्षों से मेला समिति का रवैया रहा है। राज्य के मुख्यमंत्री के स्वागत की औपचारिकतायें, भारी पुलिस बल, मेले से राजनीतिक लाभ उठाने की जुगत के बीच यह मेला अपनी पहचान खो रहा है। इस बार मेले में पुलिस ने एक मामूली झगड़े में हिरासत में लिये एक युवक को इतना पीटा कि उसकी मौत हो गयी।

बागेश्वर की थाती को बचाने के लिये राजधानी दिल्ली में काम कर रही युवाओं की संस्था ने महत्वपूर्ण काम किया। सरयू-गोमती बगड़ में संस्था ने अपने सहयोगी संगठनों 'म्यर पहाड़' और 'सार्थक प्रयास' के संयुक्त तत्वावधान में एक प्रदर्शनी का आयोजन किया। इस प्रदर्शनी में बागेश्वर के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आंदोलनों से संबंधित दस्तावेज रखे गये थे। संगठन ने अपने पोस्टरों की श्रृंखला में कुली बेगार से जुड़े पांच स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के पोस्टर भी जारी किये। इन पोस्टरों में कुमाऊं केसरी बदरीदत्त पांडे, मोहन सिंह मेहता, तुलसी रावत, बिशनी देवी साह और हरगोबिन्द पंत थे। इस मौके पर टिहरी के जननायक श्रीदेव सुमन, उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन के प्रणेता ऋषिवल्लभ सुन्दरियाल, सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक और उत्तराखण्ड क्रान्ति दल के संस्थापक डॉ ड़ीडी पंत, प्रखर समाजवादी एवं उत्तराखण्ड राज्य के नारे से पहली बार विधायक बने जसवंत सिंह बिष्ट और समाजवादी एवं उत्तराखण्ड राज्य परिकल्पना के थिंक टैंक माने जाने वाले विपिन त्रिपाठी के पोस्टर भी प्रदर्शनी में लगाये गये। प्रदर्शनी के मंच पर बागेश्वर से संबंधित एक स्मारिका, प्रवास में रह रहे युवाओं द्वारा लिखे और स्वयं गाये गये गीतों की एक सीडी का लोकार्पण किया गया। देश और देश से बाहर 'क्रिएटिव उत्तराखण्ड' पिछले छह वर्षों से लगातार अपनी विरासत को अक्षुण्ण रखने में जुटा है। इससे पहले संगठन ने टिहरी में जननायक श्रीदेव सुमन, पौड़ी के चौबटाखाल में ऋषिवल्लभ सुन्दरियाल और द्वाराहाट में विपिन त्रिपाठी की पुण्यतिथि पर इस तरह के आयोजन किये हैं। दिल्ली से लेकर अमेरिका तक संस्था लगातार अपनी जड़ों को ढूंढ़ने का प्रयास कर रही है। क्रिएटिव उत्तराखण्ड डाट कॉम, मेरा पहाड़ डाट कॉम और हिसालू डॉट कॉम के माध्यम से भी ये युवा पहाड़ को नई दृष्टि से देखने का प्रयास कर रहे हैं।

क्रिएटिव उत्तराखण्ड के संस्थापक और संयोजक दयाल पांडे ने बताया कि 'संस्था पिछले छह वर्षों से लगातार पहाड़ के इतिहास और संस्कृतिबांध पर अपना ध्यान केन्द्रित कर रही है। यहां के सांस्कृतिक, सामाजिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक योगदान को जो सम्मान मिलना चाहिये था वह नहीं मिला है। हमारी सरकारें भी ऐसा नहीं होने देती हैं। जब हमने इस दिशा में काम करना शुरू किया तो व्यापक समर्थन हमको मिला। इस समय प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से देश और विदेश के एक हजार युवा हमारे इस मिशन से जुड़े हैं। असल में हम एक बेहतर और संपन्न उत्तराखण्ड का सपना देख रहे हैं, इसलिये हमें लगा कि पहले हमें अपनी समृद्ध विरासत के संरक्षण के लिये काम करना चाहिये। अमेरिका से आये संस्था के संस्थापक डॉ ़ शैेलेश उप्रेती ने बताया कि हमने पहले छोटी सांस्कृतिक गतिविधियों से इसकी शुरुआत की थी। हमने थीम पर आधारित कार्यक्रम दिये। लोगों ने इसे सराहा। नैनीताल में २००५ में पहाड़ के बुद्धिजीवियों और आंदोलनकारियों ने हमारी साइट का विमोचन किया। बागेश्वर पर केन्द्रित स्मारिका, दो सीडी और तीन किताबें अभी तक संस्था प्रकाशित कर चुकी है। अमेरिका में कई संगठनों के साथ मिलकर हमने पहाड़ को जानने-समझने का प्रयास किया है।'

प्रवास में रह रहे पहाड़ के इन युवाओं ने पहाड़ के सवालों को भी प्रमुखता से उठाया है। गैरसैंण को राजधानी बनाने के लिये एक अभियान चलाया है। प्रतिवर्ष ३० अगस्त को दिल्ली से गैरसैंण की यात्रा की जाती है। इस अभियान में नेट के माध्यम से अब तक चार हजार से अधिक लोग जुड़ चुके हैं। बांधों के खिलाफ एक बड़ा अभियान युवाओं ने चलाया है। 'हिमालय बचाओ, हिमालय बसाओ अभियान' के तहत कई ऐसे कार्यक्रम संस्था कर रही है जो पहाड़ के नियोजन के साथ जुड़े हैं। अब इन युवाओं ने नई हिमालयी नीति की वकालत करते हुये पूरे देश के हिमालयी राज्यों के लिये ब्लू प्रिंट बनाने का काम किया है।

पिछले साल नौ नवंबर को हिमालय दिवस पर गांधी पीस फाउंडेशन में एक प्रदर्शनी भी लगाई गई। इस मौके पर हुये सेमिनार में संस्था ने मध्य हिमालय की हालत पर अपना पक्ष रखा। इसमें सुन्दरलाल बहुगुणा, डॉ क़र्ण सिंह, सांसद प्रदीप टम्टा, काशी सिंह ऐरी, विधायक पुष्पेश त्रिपाठी, विधायक एवं पूर्व मंत्री किशोर उपाध्याय, राधा बहन, असम के सांसद सहित विभिन्न संगठनों के प्रतिनिधियों ने शिरकत की। पिछले वर्ष उत्तराखण्ड में आयी प्राकृतिक आपदा के समय क्रिएटिव उत्तराखण्ड ने कई संगठनों के साथ मिलकर आपदा राहत का काम किया। इसमें प्रभावितों को तात्कालिक मदद के अलावा इस पर नीति बनाने के लिये व्यापक सर्वेक्षण तथा पहाड़ में और किस्म की आपदाओं पर भी विचार करने के लिये काम करना शुरू किया।

इन कार्यक्रमों के संयोजक हेम पन्त ने निराशा व्यक्त करते हुये कहा कि 'हमारे जननेताओं और नीति-नियंताओं में कुछ बेहतर करने की इच्छाशक्ति मर गयी है। हमारा अनुभव कहता है कि पहाड़ में विकास का जो मॉडल लाया गया है उसे परिवर्तित कर देने भर से ही सारी समस्याओं का हल निकल सकता है। सरकारें जितना पैसा खर्च करती हैं उस पर कई संपन्न उत्तराखण्ड बनाये जा सकते हैं। दुर्भाग्य से सत्ता में आने वाले लोगों के पास ऐसी समझ नहीं है।' उन्होंने हैरानी व्यक्त करते हुये कहा कि 'बागेश्वर में जो कार्यक्रम हमने दिये थे उसका वहां के मीडिया के लिये कोई महत्व नहीं था। आखिर जनता कैसे कोई रास्ता निकाले इस पर नए सिरे से सोचना होगा।'

 
 
 
 
 

हेम पन्त

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देहरादून से प्रकाशित हिन्दी दैनिक "हिन्दुस्तान" में आज क्षेत्रीय बोली-भाषाओं के संवर्धन के बारे में एक लेख छपा है.. इस लेख में मेरा पहाड़ फोरम द्वारा कुमाउनी-गढवाली भाषा के विकास के लिए किये जा रहे प्रयासों का भी वर्णन है..

 

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