From : from Pooran Kandpal <kandpalp@yahoo.com>
व्यथित पर्यावरण
(पर्यावरण दिवस (५ जून पर विशेष )
तूने मेरे पर्वतों को खोद कर झुका दिया,
वर्फीली चोटियों को हीन हिम से कर दिया,
दिनोदिन मेरे शिखर का रूप बिखरने है लगा,
निहारने निराली छटा जन तरसने है लगा.
चीर कर तन तूने मेरा रंग हरित उड़ा दिया,
कर अगिनत घाव तन पर श्रृंगार है छुड़ा दिया,
तरुस्थल को मेरे तूने मरुस्थल है बना दिया,
जल जमीन जंगल खजाना सारा दोहन कर दिया.
जल, मल से रंग रहा है, देख पलकें खोल कर,
पी रहा हर घूंट में तू विष के बूटी घोल कर,
लालसा मृदु पेय जल की मन में तेरे रह गई,
लुप्त होती शुष्क सरिता खुद हूँ प्यासी कह गई.
बन के दानव जंगलों को रौंदता तू जा रहा,
फटती छाती को तू मेरी कौंधता ही आ रहा,
काट वन-कानन तो तू कंक्रीट वन बना रहा,
उखाड़ उपवनों को मेरे ईट तरु लगा रहा.
कंद फल जड़ी बूटियां नित लुप्त होते जा रहे,
जीव मेरे वक्षस्थल के गुप्त होते जा रहे,
पिक बयां भ्रमर गुंजन को तरसता रह जायेगा,
प्रकृति के स्वस्थ संतुलन की
जो सोच तू ना कर पायेगा.
चाहता तू जी सके इस धरा में अमन चैन से,
वृक्ष बंधु मान ले लगा ले अपने नैन से,
कोटि पुण्य पा जायेगा एक वृक्ष के जमाव से,
स्वच्छ पर्यावरण में फिर जी सकेगा चाव से.
बर्बादी वह है तेरी जिसे तरक्की कह रहा,
पर्यावरण की पर्त पर कहर तू वरपा रहा,
संभल जा नहीं तेरा अस्तित्व ही मिट जायेगा,
कर प्रदूषित मेरा तन तू कहाँ टिक पायेगा.
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पूरन चन्द्र कांडपाल
(लेखक- स्मृति लहर 'व्यथित पर्यावरण')