Author Topic: Articles By Bhisma Kukreti - श्री भीष्म कुकरेती जी के लेख  (Read 722035 times)

Bhishma Kukreti

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Best  of  Garhwali  Humor , Wits Jokes , गढ़वाली हास्य , व्यंग्य )
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परम्परिक वस्त्र टी शर्ट -जीन की जगह ब्रा -बिकनी में मंदिर प्रवेश पर बबाल !
देव पूजन में पारम्परिक पीजा काटने की जगह चॉकलेट काटने पर उठे सवाल !
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 चबोड़ , चखन्यौ , ककड़ाट  :::   भीष्म कुकरेती
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(स्थान -गढ़वाल कु गढ़पुर गाँव , समय -सन 2050 )
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 गांववासी पैल प्रवास्यूं तैं गाळी दींद छा बल यी प्रवासी अपण गाँव नि  आंदन , अपण कूड़ पुंगड़ नि संबळदन।   गांववासी प्रवास्यूं तै तून दींद छा बल अपण कुलदेवता पुजणो बि नि आंदन।   त कवि -साहित्यकार प्रवास्यूं मजाक उडांद छा बल प्रवासी बड़ा क्रूर , घमंडी ह्वे गेन जु गाँव बिसरि गेन।
   अब गाँव वळ परेशान छन बल क्वी मैना इन खाली नि जांद कि द्वी चार प्रवासी ड्यार नि आवो।  चकबंदी अर ऑर्गेनाइज्ड ओउटसोरिंग ऐग्रिकल्चर मैनेजमेंट एजेंसीज व ऊंक लेबर की सायता से हरेक प्रवासीन अपण पुंगड़ पटळ संबाळी येन।  अब हरेक प्रवासी एजेंसियों मदद से प्रीमियम फसल उगांद अर एक नाळी  जमीन से लाखों कमांद।  हरेक प्रवासी आउटसोर्सिंग एजेस्यूं मदद से बहुउद्येस्य फसल ही नि उगांद अपितु अंडा , मधु , हर्बल मेडिसिन , प्रीमियम क्राफ्ट उद्यम बि दगड़म करणु च। अब भूमि बंजर ना अपितु एक एक इंच भूमि का वास्ता महाभारत हूण मिसे गे।  गाँव वासी  आउटसोर्सिंग एजेंसियूं का धुर विरोधी ह्वे गेन।  हर मैना देहरादूनम  क्वी ना क्वी संगठन आउटसोर्सिंग  ऐग्रो एजेंस्यूं विरोध मा  चक्का जाम करणु रौंद। हवाई यात्रा सुलभ हूण इ मुंबई का प्रवासी बि हर शुक्रवारौ कुण रात गाँव आंद अर सोमवारौ कुण मुंबई औफिस ज्वाइन करणो  चल जांद।  विदेश से बि प्रवासी हर मैना गांव पौंछि जांद।  यां से गांवक सन 1960 से 2045 तक निर्मित सामाजिक विन्यास तहस नहस हूणु च।  गढ़वाल का सामाजिक चिंतक नया सामजिक विन्यास इ भयभीत छन अर यूंक बुलण च बल यु नयो समाज गढ़वाल का वास्ता घातक च।  ग्रामीण पत्रकार संघ बि प्रवास्यूं द्वारा आउटसोर्सिंग माध्यम से कृषि व ततसंबंधी उद्यम से काफी खफा च अर हर रोज विरोध मा रिपोर्ट छापणा रौंदन।  अर उत्तराखंड सरकार पैल्या की तरां सियीं इ रौंदी।  सरकार तब बि सियीं रौंद छे जब गाँव की कृषि भूमि बांज पड़ गे छे अर अब जब प्रवासी अपण बल बूता पर सामाजिक विन्यास तै तुड़णा छन , अर गढ़वाल से अंदा दुंद पैसा कमाणा छन तब बि सरकार सियीं च।
            गढ़वाल का साहित्यकार तो हर रोज फेसबुक मा आउटसोर्सिंग ऐजेस्यूं विरोध मा कविता पोस्ट्याणा इ रौंदन।
    प्रवास्यूं द्वारा बार बार परिवार सहित ड्यार आण अर कुलदेवता पूजा कराण से बि पारम्परिक धार्मिक संस्कृति खतम हूणै कगार पर च।  कुछ दिन पैल लोग क्या सुंदर नागरजा , ग्विल , नरसिंग पुजणो निमित पीजा काटद छा अब प्रवास्यूं का कारण पारम्परिक पीजा नि काटे जांद अपितु पूजा मा लम्बा बड़ा बड़ा चॉकलेट काटे जांदन।  पीजा कटर अब इतिहास की वस्तु ह्वे गे अर चॉकलेट कटर अब हर घर की रौनक ह्वे गे।  नागराजा पूजन मा बेल्जियम कु चॉकलेट काटे जांद , ग्विल्ल क घड्यळ म स्विट्जरलैंड का चॉकलेट ही काटे जांद त नरसिंग जी तैं केवल हॉलैंड का ही  चॉकलेट पसंद च।
     पारम्परिक चाउमीन परसाद की जगा अब अफ्रीकी भोजन उगानी अर फुफु बांटे जांद।
   गढ़वाली संस्कृति पर सबसे बड़ो धक्का तब लग जब स्त्रियोंन पारम्परिक गढ़वाली वस्त्र याने टी शर्ट -जीन्स  की जगा ब्रा अर बिकनी पैरिक मंदिरों मा पूजा करणो रिवाज शुरू कार ।  भौत विरोध ह्वे , कखि कखि तो पारम्परिक पहनावा टी शर्ट -जीन्स की जगह स्त्रियों द्वारा ब्रा -बिकनी पैरण पर हाथापाई बि ह्वे किन्तु अंत मा बिकनी अर ब्रा की ही जीत ह्वे।  सरकार गढ़वाल की  पवित्र संस्कृति नाश पर अबि बि सियीं च।  कुनगस त यु हूणु च की गढ़वास्यूं स्त्री बि ब्रा अर बिकनी मा घड्यळम नाचदन।  सरकार तै कुछ नी पड़ीं च कि गढ़वाली संस्कृति याने टी शर्ट -जीन्स संस्कृति रसातल कु जाणी च।
     जागर्यूंन बि अब कृष्ण -राधा जमुना जल खेल , कृष्ण -रुक्मणि विवाह , अर्जुन द्वारा सुभद्रा भगाणो  जागर मा राधा , रुक्मणि अर सुभद्रा तैं ब्रा बिकनी पैराये आल।  सरकार अबि बि सियीं च अर जागर्युं विरुद्ध कुछ नि करणी च।
    गढ़वाली भाषाई साहित्यकार व पत्रकार पारम्परिक वस्त्र टी शर्ट व जीन्स  संस्कृति बचाणो भरसक प्रयत्न करणा छन किन्तु सरकार की उपेक्षा से लगद नी कि टी शर्ट -जीन्स संस्कृति बचली।
     
     
   


16/1 / 2018, Copyright@ Bhishma Kukreti , Mumbai India ,

*लेख की   घटनाएँ ,  स्थान व नाम काल्पनिक हैं । लेख में  कथाएँ , चरित्र , स्थान केवल हौंस , हौंसारथ , खिकताट , व्यंग्य रचने  हेतु उपयोग किये गए हैं।
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दिनेश कंडवाळौ ड्यार बसनणम भ्यूंळ -खड़िक मध्य  करुणामय बातचीत  किलै ?
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 चबोड़ , चखन्यौ , ककड़ाट  :::   भीष्म कुकरेती   

बांदर - तुमन बि सूण बल साइकिलबाड़ी - किमसारौ , उदेपुरौ  दिनेश कंडवाल रिटायरमेंट का बाद अपण गाँव बसणो आणु च।
स्याळ  -कुछ पता नी।  अचकाल त मनिख बुल्द कुछ हौर च अर करदु कुछ हौर च।  अचकाल त यी गढ़वळि फेसबुक्या फोटक बाज ह्वे गेन।
बांदर -नै नै सच्ची ड्यार बसणु च।  मि त चॉकलेट , नमकीन अर पव्वा क खातिर वैक कूड़ जिना  गे छौ मि त दिनेशौ साफ़ कर्युं कूड़ अळग जैक पटाळ खपचैक ऐ ग्यों।  अबि वैन भितर कुछ नि धार।
स्याळ - मतलब सच्ची बसणु  च।  ह्यां बखर बि पाळल कि  ना ? चिनख -चनख ! हैं ?
बांदर -तेरी अर मनिखों नजर चिनखों डौण्यूं पर रौंद।  मि त किमसार जिना जाणु  छौं लंच टैम ह्वे गे।  लोगुन प्रेसर कुकर पर भात पकै ह्वे ह्वाल।  एकादक भितर कुछ त मीलल।
स्याळ -मि त बण्वस जिना जाणु छौं।  धनसिंगौ बखर बियाण वळ छौ।  क्वी चिनख इ हाथ लग जावो।
(द्वी चल जांदन )
खड़िक - मेरा पिया  घर आया , मेरा पिया घर आया।  दिनेश घर आया
भ्यूंळ (भीमल )- ये बुड्या खड़िक ! सोळा सालै बिरहणि तरां क्या छे कुतकणी बल मेरा पिया  घर आया ?
खड़िक - अरे जन दिनेशक दादि मेरी भुकि पींद  छे तनि अब दिनेश मेरी भुकि प्याल।  पचास -साठ  साल ह्वे गेन मनुष्य स्पर्श दिख्यां।  आह जब दिनेशै दादी मि तैं मलासादि छे , मेरी भुकि पींदी छे तो अहा क्या रोमांच आंद छौ , रोमांच , आनंद ही आनंद। उफ़ वो आनंद अब दिनेशौ स्पर्श से प्राप्त होलु।
भ्यूंळ  - झूठ साला खड़िक।  वा तेरी भुकि नि पींदी छे ना ही त्वे तैं मलासदी छे अपितु त्यार ग्वाळ इथगा म्वाट छौ कि चढ़द दैं वींक मुख त्यार ग्वाळ , तेरी फौंट्युं   पर लग जांद छौ।  अर तू समजद छौ कि वा तेरी भुकि पीणी छे या त्वे मलासणि च। 
खड़िक -चुप कर , चुप कर , मि तैं भूतकाल मा जाण दे।  अहा वो आनंद , वो असीम आनंद , वाह वो परमानंद! हौर डाळयूं चेतना दाथी देखिक रूंदी छे कि अकाल मृत्यु आण वळ च किन्तु  मेरी चेतना दिनेशै ददि हथ पर दाथी या थमळि देखिक प्रसन्नता मा हिलोर मारदी छे।  मीन त यु आनंद दिनेशै बूडददि दाथी , थमळि से बि कथगा बार ले छौ।  जनि दिनेशैक बूड ददि या ददि की थमळ दिख्यांद छे कि मेरी जीव चेतना प्रसन्न हूंद छे कि वा अपण घासौ बान मि तैं छिंडारली , काटली अर कटण -छंटण -छिंडारण से मेरी उमर दिन प्रतिदिन बढ़दी जाली।  अहा वो रोमांच अब दिनेश से प्राप्त होलु।
भ्यूंळ (जोर कु किराट )  - नि दिला याद , नि दिला वो आनंद का हिलोर।  मीन दिनेशै बूड ददि क हस्त स्पर्शौ चरमानंद नि ले पर वैक ददि अर कुछ दिन वैक ब्वे क हस्त स्पर्श का आनंद लियुं च।  श !श !श्यू ! अहा वो ऊंक मे पर चिपटण , ऊंक लौंफ्याण अर हर साल मे तैं छिंडारण।  वो वो ! चरमानंद मिल्दो छौ कि मेरी उमर बढ़ली। किंतु जनि दिनेशै ब्वे देस क्या गे क्वी मनिख स्पर्श ना , क्वी भुकि ना अर क्वी छिंडारण ना।  बस एक हस्त स्पर्श की प्रतीक्षा। हाय ! हाय ! यी गाँव वळ परदेस गेन अर हम तै अनाथ , बेबस छोड़ी गेन।
खड़िक - अर अब ! इथगा सालों से लगलों झाड़ तौळ दब्युं छौं।  अब त क्वी हम तै छिंडारो ना सै किन्तु हमर मथि जंगली लगलों जाळ से मुक्त तो कराओ कि जां  से हम अकाल मृत्यु से बच जौवां।
दूर डांड बिटेन बांज की आवाज - अरे हमर बि सी हाल छन।  जंगली लगलों तौळ ज्यूंरा की जग्वाळ।  त्रासदी ही त्रासदी।
भ्यूंळ  - मि बि यूं लगलों बोझ से  अदमर ह्वे ग्यों।  उना यूं गाँव वळुंन खेती बंद कर दे तो हमर जलड़ुं कुण हवा बि बंद ह्वे गे
खड़िक - अहा  हौळ देखिक बि मेरी चेतना प्रसन्न हूंदी छे बल हौळ लगण , निराई गुड़ाई से हमर नजीकै मिट्टी मा हवा इना ऊना होली।  क्या दिन छा  वो।
भ्यूंळ  - अब त पचास साल  ह्वे गेन नई हवा की सुरसराट अनुभव कर्यां।  वू.. फ ..फ   .... वा सरसराट   ....
खड़िक - चलो अब फिर इ मेरी चेतना मा  नई ऊर्जा संचारण हूण लग गे  कि अब दिनेश हमर मथि लगलुं जाळ साफ़ करवाल  ,  हम तै छिडरवाल। . अति आनंद।
भ्यूंळ  -चरमानंद , चरमानंद , चरम ..
तिमलौ डाळ  (अट्टाहास )-  वाह भै वाह  ! आज द्याख बल वनस्पति बि मनिखों तरां कपोलकल्पना म रत हूंद। वनस्पति जु छ याने ऐज इट इज पर विश्वास करद अर तुम कल्पना तै जिंदगी समजण लग गेवां ?
खड़िक - क्या मतलब ? दिनेश हम तैं नि कटवाल ?
भ्यूंळ  - हाँ हम तैं नि छिंडवारल ?
तिमल - पर किलै वु तुमर सुद्द ल्यालु ? वै तैं क्या पड़ीं च कि हम तैं दिनेश छिंडवारल ?
खड़िक - कनो वै दिनेश तैं गौड़ुं कुण हमर घासै जरूरत नि ह्वेली ?
तिमल - हाँ गौड़ ह्वाल तो अवश्य ही हम तिन्युं जरूरत दिनेश तैं पोड़ली।
भ्यूंळ  -तो वो दूधक बान अवश्य ही गौड़ पाळल कि ना ?
खड़िक - हाँ बोल  बोल।  दिनेश गौड़ पाळल कि ना ?
तिमल - ना।  बिलकुल ना आज गौड़ पाळिक दूध पीण मैंगो ह्वे गे।
भ्यूंळ  - तो दिनेश दूध कखन प्यालु ?
खड़िक -हाँ बोल दिनेश दूध कखन प्यालु  ?
तिमल - अब पॉलीथिन बैग या टेट्रापैक पर दूध मिल जांद तो गौड़ कु पाळल ?
भ्यूंळ --खड़िक (भयंकर किराट ) हे भगवान ! तो हमन इनि खुंडेक मोर जाण ?

17/1 / 2018, Copyright@ Bhishma Kukreti , Mumbai India ,

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Myths and Religious Importance of Panyyan, Himalayan wild Cherry in Uttarakhand (Nirankar Puja)
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Plant Myths, Religious Importance, and Traditions in Uttarakhand (Himalaya) - 13
By: Bhishma Kukreti, M.Sc. (Botany) (Mythology Research Scholar)
Botanical name – Prunus ceraoides
Local name –Panyyan
Hindi Name –Padma
Sanskrit Name –Padmaka, Charu, kaidara
Economic benefits – Important for rich nectar for bee keeping; drum stick, stick, resin, fodder, fuel; bark paste for relieving contusion, medicines for uterus disease   
                   Myths, Religious Importance and Traditions
      Painyyan or Himalayan wild cherry is very sacred tree of Uttarakhand.  The tree stick are used for drum playing (drum and Thali).
 The stick is also kept at Nirankar Thau (Place of Nirankar deity).
   When there is Nirnkar or bad devta Puja  (Ghadela), the person whom Nirankar enters (Nirankar Pashwa) is taken on Pinus or Dwala in a processon  to a sacred Panyyan tree. There is drum and Thali play in the procession. The procession ends at Panyyan tree. Then it is said that Garud and snake come there near the tree. After seeing Garud and snake, the Ghadela and other ritual performances are completed. The Painyyan/payyan or Himalayan wild Cherry tree also worshipped.
 Painyyan leaves are inserted into garland as for good luck or auspicious in nature.
 Painyya/Payan twig are used in Marriage Rituals and those twig are dug on four corner of Vedi.
 Madan Swarup Singh Rawat reports that there are many folklore and songs describing Panyyan in Garhwal (Himalaya a Regional Prospective pages -45)
Krihna Kumar Mamgain and Madhuri Barthwal offered following folk songs about Painyyan/Panyan –
सेरा की मींडोली
नै डाली पंयां जामी ।
दुपत्ति ह्वे ग्याया
नै डाली पंयां जामी ।
चल पांणि चढ़ौला
नै डाली पंयां जामी । .
 M.N. Gaur informed following folk song lines –
पैंय्या डाली फूलि ग्येनी,झम झमा झम,झम झमा झम ...ह्यूवालि काँठी झूमि ग्येनी,चम् चमा चम्, चम् चमा चम्
People very rarely cut the tree for wood purpose.  However, the handle of sickle always is liked .
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Myths and Religious Importance of Timla, Gular,Elephant ear Fig 
in Uttarakhand  (Tantra, mantra and karmkand)
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Plant Myths, Religious Importance, and Traditions in Uttarakhand (Himalaya) – 14
By: Bhishma Kukreti, M.Sc. (Botany) (Mythology Research Scholar)
Botanical name – Ficus auriculata
Local name – Timal, Timla, Timul
Hindi Name – Gular
Sanskrit Name – Udambara
Economic benefits –There are tens of medical uses of Elephant Ear fig in Garhwal. People use leaves for plate making and fodder. The tree is used for fuel too.  People use raw fruits for vegetable and ripe fruits for eating.
                   Myths, Religious Importance and Traditions
There a couple of uses of Timla, Timul, Timal or Elephant fig in Uttarakhand.
                 Timla in Hindu Astrology  ज्योतिष शास्त्र में गूलर
           In Hindu Astrology Gular, or Timla or Elephant fig is connected with rohani nakshtra. Shukra (one of Nine Graha)  is boss of Gular and Anjir. 
                      Kalash Sthapana कलश  स्थपना में में गूलर
  In karmkand, kalash thapan is important ritual performance. The Elephant fig is one of Panhvat or five plants – Mango, Peepal, Banyan , Pakar and Udambar ( Timla)
                Dry Twig of Timal, Timla, Timul in Havan हवन /यग्य में गूलर
   Dry twigs of Timal, timlu, Timla are used a sacrificing twigs along with twigs of Peepal, Mango for Havan or yagya.
 In old age, kings used to perform yagya with ‘gular samidha’ with honey, wine and Gud  for getting rain in drought. 
 Gular Samhita is also used in getting the kingdom of the enemy

                                  Mool Pujan  मूल दोष पूजन में गूलर
  If a child is born in Mool Nakshatra , Vedic Karmkandi Brahmin suggests for ritual performance of Mool Nakshatra after five years. Elephant ear fig is one of the puja (ritual) ingredients for performing Mool Puja.
                                 Elephant Ear Fig in Ucchatan Tantra-Mantra-Yantra तंत्र व मन्त्र में में गूलर
  Tantrik or Mantrik use Elephant ear Fig wood for Uchatan mantra performance. Uchatan Mantra with Tantra is used for distracting the focus of enemies and opponents.
   There are two mantras for purifying the twelve inch Timala wood .
‘Om namo bhagvate rudray karalay amuk putr bandhavaissah sheeghr mucchataya tha:, Tha: Dha:.
or
  “Oum Shreem Shreem Shreen swaha”
After purifying the wood, the wood is dug in house of opponent or where uchatan is required.
                  Elephant ear fig uses in Atharvarn tantra  अथर्वेद मन्त्र में गूलर प्रयोग
   Vedic Tantric use Elephant ear fig root for performing Atharvarn Tantra, by performing Athavarn tantra , the subject get  hidden gold or wealth., prosperity and children. On Ravi –Pushp yog, the root of Fig is purified by  Arthothapan mantra of Atharveda. Then the root is put in gold Tabij.
 One of mantra is –Om malakshmaye cha vidamah  vishnu patnaye ch dheemihi tanno Lakshmi prachodayat . This Mantra ritual  is performed on graham on eclipse day.
     Elephant Ear Fig , gular or timla in  Dattatraya  Mantra –Tantra  दत्तात्रय तन्त्र –मन्त्र में गूलर
  In Dattatray mantra and Tantra Performance, the person sits under Gular, Timla tree and recites mantra  mostly on Gurupushya yog day.
  If not in Uttarakhand, in other partस of India  followers of Dattatray keep Gular , Timla twig at the time of building foundation.
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Myths, Religious Importance of Indian Sarsaparilla Anantmool, Anant Mul in Uttarakhand
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Plant Myths, Religious Importance, and Traditions in Uttarakhand (Himalaya) - 15
By: Bhishma Kukreti, M.Sc. (Botany) (Mythology Research Scholar)
Botanical name –Hemidesmus indicus
English Name –Indian Sarsaparilla
Local name – Anantmul ,Anantmool,
Hindi Name – Anant Mool
Sanskrit Name –Anant
Economic benefits – Medicinal values in disorder of indigestion , asthma, cough fertility, dysentery, fever , menorrhagia etc. 
                   Myths, Religious Importance and Traditions
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     Ananta Mool for Mangal (Marsh)  Grah Shnati मगल गढ़ शांति
                When a person is affected by non-favor from Marsh (Mangal Dosh) star, the astrologer or Karmkandi Brahmin suggests to  tie Anatmool root by a red tag and purify the both and put on left arm of female and right arm of males on Ravipushya Nakshatra of Sunday.
 There are mantras for uprooting the root, purification nd when the root is tagged.
             Anant Mul in Mool Shanti Karmkand  मूल शांति पूजा
  Anantmul is also used in Mul Shanti Puja
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जसपुर के नाव /नाओ /नावो डांड  पर शिल्पकारों का कब्जा (Jaspur, Dwarikahl block History)
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(गंगासलाण का इतिहास व वैशिष्ठ्य श्रृंखला )
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  आलेख : भीष्म कुकरेती
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 जसपुर गाँव में कई सामाजिक क्रांतियां  हुईं या कहें तो लोगों ने अपने अधिकारों के लिए कई लड़ाइयां लड़ीं , कुछ जीते कुछ अनिर्णीत रह गयीं।
  भूमिहीन द्वारा सँजैत भूमि छीनो या भूमि हस्तगत करना भी एक तरह का संघर्ष ही होता है या भूमिहीन द्वारा दूसरे की जमीन हथियाना भी तो संघर्ष  ही है ।  जसपुर गाँव में दो भूमि अधिग्रहण ऐतिहासिक हैं।  एक तो जसपुर के शिल्पकारों द्वारा नाओ /नाव /नावो डांड पर कब्जा कर उसे कृषि लायक बनाना और दूसरा सौड़ गाँव वालों द्वारा ग्वील गाँव वालों के कब्जे वाले क्षेत्र कळसूण (जसपुर का अंग ) पर कब्जा।
    आज मै नावो डांडे पर चर्चा करुंगा।
  नावो डांड जसपुर के उत्तर में दो ढाई मील पर  एक विशेष डाँड है।  नावो डांड गुडगुड्यार गदन के  ऊपर और लयड़ डांड के नीची वाला भूभाग है। नाव डांड  की एक और विशेषता है कि यहां बारामासा पानी है  शायद इसीलिए इस भूभाग को नाव डांड कहा जाता है और दो मील पश्चिम व एक मील पूर्व में कहीं भी भद्वाड़  हो उस समय  मवेशियों को पानी पिलाने यहीं लाना पड़ता था।  नाव मे  पानी ना होता तो पुरयत , भटिंडा , बांजै  धार और लयड़  में भद्वाड़ करना कठिन हो जाता। 
इस भूभाग पर जो भी खेत हैं उन पर केवल शिल्पकारों का ही कब्जा है और नीचे जखमोलाओं का कब्जा है। दिखने -सुनने में तो सरल  लगता है कि इस भूभाग पर शिल्पकारों का कब्जा है। गढ़वाली राज से लेकर गोरखा राज तक शिल्पकारों को जमीन पर कब्जा देने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था।  अंग्रेजों के जमाने में  शिल्पकार सवर्णों को वन भूमि को कृषि भूमि बनाने में सहायता करते थे किन्तु अपने आप जंगल की भूमि नहीं हथिया सकते थे। अंग्रेजी सरकार के प्रोत्साहन के कारण ही  जो भी खेत आज दिख रहे हैं उनका 60 प्रतिशत हिस्सा अंग्रेजों के समय में ही  हस्तगत किया गया ।  जंगल काट कर कृषि भूमि बनाने हेतु   अंग्रेजी  शासन ने ही जनता को प्रोत्साहन दिया था।  किन्तु तब भी शिल्पकार पीछे रहे क्योंकि समाज में इसे बर्जित माना जाता था।
   किन्तु जसपुर में नाव डांड की कृषि भूमि पर शिल्पकारों  का कब्जा है। नावो  डांड पर शिल्पकारों के कब्जे पर मुझे जसपुर  के सवर्णो से तीन कथाएं मिलीं। चूँकि इन कथ्यों की पुष्टि करने वाला  कोई  नहीं है तो मैं  इन कथ्यों को लोककथा ही मानकर चल रहा हूँ।
    पहला कथ्य है कि जसपुर के सवर्णों की सहमति से शिल्पकारों ने नावो डांड की खुदाई की और कृषि भूमि तैयार की।  बात हजम होने लायक नहीं है।  जिस गाँव में --एक कुकरेती मुंडीत वालों ने  एक मुट्ठी बंजर सँजैत जमीन (घीड़ी ) में मकान बनाया तो गाँव  वालों ने उन पर मुकदमा ठोक डाला। यह मुकदमा बीस तीस साल  चला। उस गाँव वालों से शिल्पकारों को सरलता से कृषि भूमि खोदने देना नामुमकिन लगता है।
    एक कथ्य है कि शिल्पकार कुल्हाड़ी , तलवार लेकर भूमि खोदने गए।  तो उन्होंने इस तरह भूमि छीनी।  इस कथ्य में भी तर्क नहीं लगता क्योंकि ऐसा होता तो शिल्पकार अन्य जगह भी यही  रणनीति अपनाते।  फिर शिल्पकार बाड़ा के नीचे जैखाळ वन की जमीन हथियाना ज्यादा तर्कसंगत होता (वैसे जैखाळ ग्वील वालों का वन भी है ) .
    तीसरा कथ्य जो मुझे मेरी दादी जी श्रीमती क्वाँरा देवी पत्नी स्व शीशराम कुकरेती ( मेरे पिता जी की ताई जी ) ने सुनाया था अधिक तर्कसंगत लगता है।  कुली बेगारी के समय अंग्रेज अधिकारियों व भारतीय अधिकारियों की भोजन पानी , परिवहन हेतु ग्रामीणों को कुली बेगार करनी  पड़ती थी और टट्टी पेशाब का ट्वायलेट कंडोम सिर पर उठाकर ले चलना पड़ता था।  ब्राह्मण जाति  होने के नाते जसपुर वालों को ट्वाइलेट कंडम उठाना या साफ़ करना नागंवारा लगा तो एक सामाजिक संधि के तहत यह निर्णय हुआ कि शिल्पकार कुली बेगार पांती   में ट्वाइलेट कंडम उठाएंगे और इसके ऐवज में शिल्पकार नाव /नाओ डांड को कृषि भूमि लायक बना सकते हैं। 
 जो भी कारण रहे होंगे शिल्पकारों को नावो डांड  भूमि अधिग्रहण में सवर्णो के विरुद्ध संघर्ष तो करना ही पड़ा होगा। संघर्ष में किस तरह सामाजिक तनाव रहा होगा यह हम आज नहीं सोच सकते।  इतिहास पर गौर करें तो पाएंगे कि  तहसीलदार ठाकुर जोध  सिंह नेगी के कारण गढ़वाल में कुली बेगार समाप्त करने हेतु कुली एजेंसी बन चुकी थी।  याने शिल्पकारों का नावो डांड पर शिल्पकारों का कब्जा 1900  से कई साल  पहले हो चुका था।  सरकारी खसरे में कब जमीन जोड़ी गयी यह देखना पड़ेगा। कुछ साल पहले नाव डांड में स्व कानूनगो श्री कृष्ण दत्त ने मकान भी बनवाया था जो अब उजाड़ हो गया है।
       
     
    यदि आपके पास भी ऐसी सूचनाएं हैं तो साजा कीजियेगा
 



सर्वाधिकार @  भीष्म कुकरेती , मुंबई , 2018
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Bhishma Kukreti

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 म्याळ  चट्वा नातणी चौकीदारी  !
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 बत इ बत मा   :::   भीष्म कुकरेती   

 जी मि अपणी  छ्वीं लगाणु छौं , तुमर छ्वीं नि लगाणु छौं अर ना ही 47 सालौ बालनेता राहुल गांधी की छ्वीं लगाणु छौं।
   जी मेरी नातण डेढ़ सालक च अर पिछ्ला  छै मैना से या वां से पैल बिटेन मळयो , म्याळ या दिवाल चट्वा ह्वे गे। जखम बि कुछ दिख्याउ वा फट से वीं चीज  तै उठैक मुक पुटुक ली जांद।
  अर अब हमर एक प्रमुख काम च नातणि चौकीदारी करण।
 अब वा त बच्चा च त वा हर चीजै छान बीन करण चांदी बल आखिर या चीज छ क्या च।  वींक अन्वेषण प्रवृति हमकुण चौकीदारी काम लै आंद।  जैक घौरम जथगा बड़ अन्वेषी प्रवृति बालिका या बालक  वै घौरम बड़ा बैक उथगा इ बड़ा चौकीदार।  बच्चा हर चीज का बारा म जिह्वा से खोज बीन करण चांद अर हम वरिष्ठुं  काम हूंद बच्चा की खोजबीनै देव दत्त गुण कु जड़ से नाश  करण. एक तरफ हम चांदा बच्चा सब बालसुलभ क्रीड़ा कारो अर ठीक बिपरीत हम बच्चों की आदम अन्वेषण प्रवृति ही खतम करणो सब इंतजाम करणा रौंदा।  बाल सुलभ क्रीड़ा तो बच्चा तब कारल  वै तै अन्वेषण की खुली छूट  दिए जाल।  हम द्वी झण बि अपण नातण से आसा करदां बल वा बाल सुलभ कृत्य -नृत्य दिखावो पर दगड़म हम वीं तै कुछ बि अलखणी -बिलखणी काम नि करण दींदा। हमर परिवार विज्ञान प्रेमी च अर हमर आजि बिटेन इच्छा बण गे कि हमर बेटी या नातण तै विज्ञान मा नोबल पुरुष्कार मीलो किन्तु हम हर घड़ी यी दिखणा रौंदा कि हमारी नातण क्वी बि अन्वेषण नि कार साको । हम बच्चों तै डरांदा छा कि बच्चा कुछ बि छेड़खानी या नई चीज की खोजबीन अपण तरीका से नि कारो  , अपण   प्रकृति हिसाब से खोज कतै नि कारो। पैल हम अपण बच्चों अन्वेषण प्रवृति समाप्त करदां अर फिर गाणी स्याणी बि करदा बच्चा महान खोजी ह्वे जावो।
   प्रकृति या गॉड जी तै त पता नि छौ बल मनुष्य माटौ घौर छोड़ि सीमेंटौ घौर बणाल  तो प्रकृतिन बच्चों तै इन गुण दे कि वु माटु म रतबुळाओ। माटु खावो तो प्रतिरोधक शक्ति प्राप्त ह्वे जावो दगड़म भोत सी धूळ जनित एलर्जी का प्रति प्रतिरोधक शक्ति बि ऐ जावो।  अब हमर पास माटु दिखणो नि मिल्दो तो बच्चा बिचर भौत सा प्रतिरोधक शक्ति पैदा करण से बंचित रै जांदन।
  माटु से बच्चों तैं भौत सा खनिज लवण मिल जांद छौ त अब टाइल्स मा क्या मिनरल मीलल।  खैर अब डॉक्टर कुछ ना कुछ मिनरल दीणा रौंदन तो कमी पूरी ह्वे इ जांद ह्वेलि।
   माटु मा भौत सा फैदामंद बैक्ट्रिया मिल जांद छा अब बच्चा यूं बैक्टीरियाओं से महरूम रौंद।
मी बि सबि  आधुनिक दादा छौं तो मि अपण नातण तैं डर्ट नि खाण दींदु अर बाकी सब कमी बेसी डाक्टनी पर छुड्युं च ज्वा वा ब्वालली सि करला।  पर क्या डॉकटनी सब चीज बतांद ह्वेलि कि यु कारो!  स्यु कारो। कुज्याण भै कुज्याण।
 
   


19 /1 / 2018, Copyright@ Bhishma Kukreti , Mumbai India ,

*लेख की   घटनाएँ ,  स्थान व नाम काल्पनिक हैं । लेख में  कथाएँ , चरित्र , स्थान केवल हौंस , हौंसारथ , खिकताट , व्यंग्य रचने  हेतु उपयोग किये गए हैं।
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Bhishma Kukreti

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उत्तराखंड  परिपेक्ष में  चाउ मिन / चाउ में (Chow  Mein )   भोजन व खानपान   इतिहास

                                             

                                     History of Chinese Food Chau Mein  Food in Uttarakhand - 41    A                     
         
                    उत्तराखंड में कृषि व खान -पान -भोजन का इतिहास --   41 A

                     History of Agriculture , Culinary , Gastronomy, Food, Recipes  in Uttarakhand -  71
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      आलेख -भीष्म कुकरेती (वनस्पति व सांस्कृति शास्त्री )

 यद्यपि उत्तराखंड में मारछा अथवा भोटिया जाति हजराओं सालों से रहती आयी है और वे 'चाउ में' खाते ही रहे होंगे किन्तु गैर मार्छा  लोगों ने कुछ वर्षों पहले चाउ में चखा भी नहीं होगा।  आज उत्तराखंड में चाउ मिन एक स्थानीय  भोजन बन ही चुका है। अति स्थानीय सड़कों पर चाय वाले भी चाउ मिन बेचते पाए जाते हैं।  यह फास्ट फ़ूड आज क्रेज बन चुका है।
     1974  में उत्तराखंड में चीनी भोजन मुझे देहरादून के नेपाली व क्वालिटी होटल में सुनने मिला था।  तो शायद चीनी भोजन मसूरी व नैनीताल में भी मिलता रहा होगा.
       कहा जाता है भारत में चीनी भोजन 1778  से कोलकत्ता में बनना शुरू हुआ था।  भारत में चीनी भोजन की शुरुवात कोलकत्ता से ही शुरू हुआ।  फिर मुंबई या दिल्ली जैसे शहरों में भी शुरू हुआ।  1992 तक बड़े शहरों में सभ्रांत होटलों में ही चीनी भोजन मिल पता था।  तब आम होटलों के बोर्डों पर नहीं लिखा होता था पंजाबी , साउथ इंडियन और चाइनीज डिशेज।  आज तो उत्तराखंड में सामन्य होटलों के साइन बोर्डों में लिखा होता है चाइनीज भोजन मिलेगा।  वास्तव में चाइनीज फ़ूड को आम लोगों तक प्रसारित करने का श्रेय नेस्ले कम्पनी द्वारा टू मिनट्स नोड्यूल्स के विज्ञापनों को जाता है।  आम लोग नोड्यूल्स के स्वाद से परिचित हुए और उनकी जिव्हा अन्य चीनी भोजन के बारे में उत्सुक हुई तो चीनी भोजन आज भारत ही नहीं दुनिया के हर कोने में मिल जाता है।  उत्तराखंड अपवाद नहीं है।
      1992 के बाद छोटे शहरों में चीनी भोजन ने पाँव पसारने शुरू किया और मेट्रो शहरों में तो कोने ओने में चाइनीज कॉर्नर खुलने लग गए थे।  मुंबई व अन्य शहरों में नेपाली चीनी बनकर चीनी भोजन खिलाने लगे।
      बहुत से चीनी भोजन वास्तव में वास्तविक चीनी भोजन है ही नहीं बल्कि मूल चीनी भोजन का भारतीयकरण है जैसे मंचूरियन , चिल्ली चिकन , मंचाऊ सूप ,स्प्रिंग रोल्स, सेजवान , फ्राइड राय और चाउ मिन  या चौ मिन।  जी हाँ भारतीय चाउ  मिन निखालिस चीनी 'चाउ में' का भारतीय रूप है।
      चाउ /चौ कार्थ है घुमाना या घूमा कर फ्राई करना और में (मिन ) का अर्थ है नोड्यूल्स।
      चीन में चाउ में बनाते समय नोड्यूल्स को भूना नहीं जाता बल्कि पानी में उबाल कर पानी निथार  कर उसमे ऊपर से हरा सलाद , व अंडे डाले जाते हैं  सोया सॉस आवश्यक अंग है।  किन्तु भारत में कढ़ाई में भून कर उसमे सब्जी व भारतीय मसाले मिलाकर  बनाये जाता है। अधिकाँशतह  देखा गया है कि भारत में सोया सौस  की जगह कैच अप प्रयोग होता है।
     उत्तराखंड में भी नेस्ले के टू मिनट्स नोड्यूल्स के प्रचार के बाद चाउ मिन को प्रसारित होने में सरलता हुयी।  शायद सन  2000 के बाद उत्तराखंड में चाउ मिन का भयंकर क्रेज बढ़ा और आज चाउ मिन छोटे छोटे बजार में भी उपलब्ध है। ग्रामीण बजार से प्लास्टिक की थैलियों में भरकर चाउ मिन घर ले जाते हैं और फिर से गरम कर कहते हैं। हॉस्टलों में तो चाउ मिन खाना एक आवश्यकता सी बन गयी है।  उत्तराखंड में चाउ मिन कुछ अधिक तरीदार होता है।   

Copyright@Bhishma Kukreti Mumbai 2018

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Bhishma Kukreti

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लोककथ्यों मा स्थान वैशिष्ठ्य याने प्लेस ब्रैंडिंग इन फोक सेइंग्ज
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 चबोड़ , चखन्यौ , भचकताळ    :::   भीष्म कुकरेती   

   जब बि क्वी गढ़वळि कॉंग्रेसी या अन्य विरोध दलौ  समर्थक प्रधान मंत्री मोदी जीक काट करणौ बान ब्रैंडिंग , मार्केटिंग पर थमळि चलांद त सच्चि मेरि जिकुड़ी जळ जांद।  अरे भै  गढ़वळि ! राहुल गांधी तो अबि बि अजाण च , लाटु च , कालु  च वै तै मार्केटिंग या ब्रैंडिंग तैं गाळी दीण द्यावो पर तुम त अकलमंद छंवां तुम त नि द्यावो ब्रैंडिंग तैं मुर्ख जन गाळी।
    ब्रैंडिंग क्वी नई चीज नी च , मार्केटिंग क्वी नै  विचारधारा नी च , पहचान की बात करण त मनुष्य धर्म च , एक लक्षण च जी।
  जरा अपण गांवक तरफ द्याखौ त पैल्या बल आपक गाँव मा भौत सा स्थानीय कहावत ह्वेलि जु प्लेस ब्रैंडिंग का अच्छा खासा उदाहरण होलु. जन कि मौल्या कौंक ख्वाळ , उच्चकोट की मुंगरी , बिंदास धारक भूत आदि आदि। यी सब स्थान वैशिष्ठ्य का उदाहरण छन।  वास्तव मा  मार्केटिंग का उदाहरण छन। हमर बूड अंग्रेजी नि छ्या पढ़्यां पर मार्केटिंग तब बि करदा ही छा।
      हमर इलाका का नाम च ढांगू।  अर वास्तव मा ढांगू एकवृहद क्षेत्र छौ जै तैं बाद मा गंगासलाण बुले गे अर यु क्षेत्र दुग्गड से लेकि गूमखाळ , डबराल स्यूं , अजमीर , उदयपुर अर ढांगू ये क्षेत्र म आंद छौ।  अन्य क्षेत्रुं तुलना मा ढंगार क्षेत्र छौ तो हौर  क्षेत्र का लोग बुल्दा छा - जाणा ढांगू , आणा आंगू।  याने ढांगू जावो तो सचेत ह्वेका ट्रैवल कारो।  अर या कहावत आजै नी च , यु कथ्य ब्याळै बि नी च अपितु गुरख्या बि यीं बात पर यकीन करदा छा। प्लेस मार्केटिंग हमर पुरखा बि भली भाँती करदा छा जी।
        हमर पुरण लोगुंन मार्केटिंग की किताब नि पढ़ी किंतु वु जणदा छा बल प्लेस ब्रैंडिंग मा स्थान की विशेषता ही महत्व पूर्ण च।  तबि त हमर इख सैकड़ों ाल से हम सुणणा रौंदा चौंदकोट्या बांद याने स्त्री सुंदरता की बात मा चौंदकोट कु क्वी क्या मुकाबला कारल।  पर चौंदकोट्या कवि गिरीश सुन्द्रियाल का समिण चौंदकोट्या बांद की प्रशंसा करिल्या तो झट से तुमर मुक मारी देल्या , " क्या मतलब हमर इक केवल सुंदरता ही च , ब्यूटी ही च ? हमर इखाक बल्द क्या बांदो  से कम छन क्या ?" बिलकुल सही जी , गिरीश सुन्दरियाल सही बुल्दन जी। गोरखाकाल मा  क्या अंग्रेजों समय पर बि चौंदकोट्या बल्दुं मांग तो भाभर , बिजनौर मा बि खूब छे जी अर एटकिनसन जन इतिहासकारोंन चौंदकोट्या बल्दुं भूरी भूरी प्रशंसा कौर।  अरे साब ! इना नाटककार  गिरीश सुन्दरियाल चौंदकोट का बल्दूं प्रशंसा कारल तो टिहरी का दिनेश बिजल्वाण , जबर  सिंह कैंतुरा अर जयाड़ा बंधु अग्यो कर द्याल।  जी हाँ टिहरी का यी जांबाज किलै नि अग्यौ कारल।  सरा  गढ़वाल का का कु किसाण छौ जु   टिहरी का बल्दुं सुपिन नि दिखुद छौ ।   जी हाँ पुरातन काल से इ गंगावार वळ गंगपुर्या बल्दुं  सुपिन दिखद छा जी।  क्या या प्लेस ब्रैंडिंग नि छे ? अवश्य ही या प्लेस ब्रैंडिंग छे।
   
       मि नि जाणदु आप मादे कतकौन या कहावत सुण ह्वेल धौं।  कहावत च बल " कांड कु जालो , जैक डोला फूटलो " . डोला माने माटौ बर्तन अर कांड गाँव असवाल स्यूं  कु प्रसिद्ध गाँव छौ जो एक समय माटक भांड आदि निर्माण मा बड़ो  प्रसिद्ध गाँव छौ।  अब जब हमर पुरखा प्लेस ब्रैंडिंग याने मार्केटिंग पर इथगा ध्यान दींद छा अर हम पढ़्यां-लिख्यां  तौहीन करणा रौंदा।
  दक्षिण गढ़वाल मा  हर मौ  शहद निर्माण करद छे   किन्तु प्लेस ब्रैंडिंग कु ही कमाल छौ कि    टक त चांदपुर - बधाणै शहद पर ही लगीं रौंद छे।  बात छे   कि ना ?
  पैल सबि लोग कंबळ पैरदा  छा अर साब ! ढांगू मा त राठ  कु कमळौ  लवादा घमंड से इनि दिखाए जांद छौ जन कबि लोग अमेरिकी जीन्स घमंड इ दिखांद छा जी।  यी त च प्लेस ब्रैंडिंग।
    आज तो 47  सालौक अबोध बालक राहुल गांधी जी ब्रैंडिंग तैं गाळी दीणा छन किन्तु एक दैं अपण सांसद स्व भक्त दर्शन जी का पुत्र ऐन चुनावक टैम पर बीमार पड़ गेन त भक्त दर्शन जीन पर्ची बांटी छे - कख रै गे नीति कख रै गे माणा  श्याम सिंग  पट्वरिन कख कख जाणा।  प्लेस  ब्रैंडिंग तैं  चुनावी विज्ञापन से जुड़न ह्वावो तो यु  उम्दा उदाहरण च जी।
     अहा प्यार की बात हो अर सतपुळी बात  ना हो तो ब्रिटिश गढ़वाल मा प्यार की बात अधुरु ही माने जाली।  पता नी कथगा प्रेम लोक गीत सतपुळी से जुड्यां छन धौं। बौ सुरेला से लेकि स्याळी तक सब प्रेम का खातिर सतपुळी जांद छा तो यी त प्लेस  ब्रैंडिंग च जी माराज।
      बावन गढ़ों गीत क्या च ,अजी  साब लोगो ! बावन गढुं  लोकगीत या गीत कुछ नी अपितु प्लेस ब्रैंडिंग का सबसे उत्तम उदाहरण च।
       अर जब प्रेमी-प्रेमिका   धार -गदन छोड़ि पाबौ बजार की बात करदन तो वो बि त स्थान वैशिष्ठ्य करण  ही च जी।
  व्यासी का परांठा अर अल्लु क गुटका कुछ ना अपितु प्लेस ब्रैंडिंग ही च।
      इनि हजारों लोक कथ्य स्थान वैशिष्ठ्य की  छ्वीं लगांदन याने लोक कथ्यों द्वारा स्थान  विशेष कु बखान याने स्थान कु मार्केटिंग अर हम मार्केटिंग तै बुरु बुल्दां।  बड़ी नाइंसाफी है जी बड़ी नाइन्साफी।
      हमर जिना एक गीत प्लेस ब्रैंडिंग कु बहुत ही उमदा उदाहरण च।  ये लोकगीत मा तीन गांवुं विशेषता बताये गए।
         ग्वील कौंकि सिक्की बड़ी
        जल्ठ कौंकि धोती बड़ी
          अमाल्डु कौंका रौड्या बड़।
     एक दै  मीन यु  गीत फेसबुक म पोस्ट कार त एक ग्वील वळ   भैजी नाराज बि ह्वेन।  किन्तु या बात सत्य च कि ग्वील भौगोलिक दृष्टि से कृषि सम्पन गाँव च , उखाक लोग अंग्रेजुं  आंदि सरकारी नौकरी पर लग गे छा तो ग्वील वळुंम एक स्वाभाविक गर्व पैदा हूण  ही छौ तो दुसर गाँव वळुंन गर्व तै सिक्की नाम दे दे।  जल्ठ कौंकि धोती बड़ी वास्तव मा धोती से अधिक पंडिताइं की बात च।  अर अमाल्डु का रौड्या बड़ क्वी आलोचना नी च अपितु ऑथेंटिक कथ्य च।  अमाल्डु का उनियाल वास्तव मा शक्ति या शिव पूजक छन और अमाल्डु  का पंडित माथा पर चंदन का बड़ा त्रिपुंड लगांद छा तो ब्रैंडिंग गीत मा नाम रौड्या दे दिए गए।
            या च हमर पुरखों ब्रैंडिंग तै महत्व दीणै बात अर यदि क्वी गढ़वाली - 47 वर्षीय अबोध बालक राहुल गांधी की भकलौणम ऐक ब्रैंडिंग या मार्केटिंग तैं गाळी द्याल तो मि त छवाड़ो श्री वी पी भट्ट  सलाणी तै बि गुस्सा आल कि ना ?
 
       

   


20/1 / 2018, Copyright@ Bhishma Kukreti , Mumbai India ,

*लेख की   घटनाएँ ,  स्थान व नाम काल्पनिक हैं । लेख में  कथाएँ , चरित्र , स्थान केवल हौंस , हौंसारथ , खिकताट , व्यंग्य रचने  हेतु उपयोग किये गए हैं।
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Bhishma Kukreti

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Myths, Religious Importance of Rai, Sarson, Mustard in Uttarakhand
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Plant Myths, Religious Importance, and Traditions in Uttarakhand (Himalaya) - 16
By: Bhishma Kukreti, M.Sc. (Botany) (Mythology Research Scholar)
Botanical name –Brassica alba, Brassica hirta
Local name – Rai,
Hindi Name –Rai, Sarson
Sanskrit Name –Sarshap
Economic benefits – Oil, used in pickling, used with fodder for cattle. 
                   Myths, Religious Importance and Traditions

                       Importance of Rai, Mustard in Hindu Astrology
  Grah Guru is the master of Mustard or Rai.
 Tula Rashi is also master or swami of rai or Mustard.
  Mustard moil is supposed to be sacred oil in various rituals.
   People donate mustard oil for satisfying Shani (Saturn) grah and Rahu grah
                Importance of Mustard or Rai in Tantric and Mantra Rituals
 The following rai mantra is used for purifying Rai and Rai is put under pillow of affected person or child whom there is possibility of evil soul attack
  कुमाऊं व गढ़वाल में प्रचलित राई अभिमंत्रित करने का मन्त्र -२
                राई मंत्रणो मंत्र -
ओउम नमो आदेश.
गुरु को जुहार
०००
माता पारबती ने बोई बोई तो हरिया भई
मानता रातु भई 
जंहा पठाई . तहां जाई
राई सत सौं मेरा पीठ का भाई
अमुक पिंड को हाक मारूं
कल नारी कल ज्व्या कि हांक मारूं
टांक कि घोपी, मंगरी की हांक मारूं   
दंत्दारी भौं संहारी की हांक मारूं
रांड ढाञट की हांक मारूं
लौड खसिया की हांक मारूं 
कैला  बामण की हाक मारूं
जोगी को फटकार मारूं
००००
पाताळ की नागनी की हांक मारूं , चंचली बयाल मारूं
रिंगनी बयाल मारूं, डांकणी  साकणी  की हाक मारूं
फूल मन्त्रो वाच:
  In many cases, the water is put in a pitcher with Mustard leaves and is purified by Mantra by Mantrik. Then the person who desires to let bad luck away from him or her take bath by that purified water.
 Ritual performer (mantrik) also use rai or mustard seed for ‘najar utarna’ (bad eyes from evil of enemy) .
 People also burn mustard seeds with red chilies for various Mantric Rituals
 Many tantric suggest that persons should donate rai or mustard seeds on Thursday for good luck.
  Matric Performer throws yellow Mustard seeds on evil  soul  (bhut)effected person too for getting rid of evil soul.
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Copyright@ Bhishma Kukreti, Mumbai 2017
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