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Articles By Bhisma Kukreti - श्री भीष्म कुकरेती जी के लेख

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Bhishma Kukreti:


जसपुर के नाव /नाओ /नावो डांड  पर शिल्पकारों का कब्जा (Jaspur, Dwarikahl block History)
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(गंगासलाण का इतिहास व वैशिष्ठ्य श्रृंखला )
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  आलेख : भीष्म कुकरेती
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 जसपुर गाँव में कई सामाजिक क्रांतियां  हुईं या कहें तो लोगों ने अपने अधिकारों के लिए कई लड़ाइयां लड़ीं , कुछ जीते कुछ अनिर्णीत रह गयीं।
  भूमिहीन द्वारा सँजैत भूमि छीनो या भूमि हस्तगत करना भी एक तरह का संघर्ष ही होता है या भूमिहीन द्वारा दूसरे की जमीन हथियाना भी तो संघर्ष  ही है ।  जसपुर गाँव में दो भूमि अधिग्रहण ऐतिहासिक हैं।  एक तो जसपुर के शिल्पकारों द्वारा नाओ /नाव /नावो डांड पर कब्जा कर उसे कृषि लायक बनाना और दूसरा सौड़ गाँव वालों द्वारा ग्वील गाँव वालों के कब्जे वाले क्षेत्र कळसूण (जसपुर का अंग ) पर कब्जा।
    आज मै नावो डांडे पर चर्चा करुंगा।
  नावो डांड जसपुर के उत्तर में दो ढाई मील पर  एक विशेष डाँड है।  नावो डांड गुडगुड्यार गदन के  ऊपर और लयड़ डांड के नीची वाला भूभाग है। नाव डांड  की एक और विशेषता है कि यहां बारामासा पानी है  शायद इसीलिए इस भूभाग को नाव डांड कहा जाता है और दो मील पश्चिम व एक मील पूर्व में कहीं भी भद्वाड़  हो उस समय  मवेशियों को पानी पिलाने यहीं लाना पड़ता था।  नाव मे  पानी ना होता तो पुरयत , भटिंडा , बांजै  धार और लयड़  में भद्वाड़ करना कठिन हो जाता। 
इस भूभाग पर जो भी खेत हैं उन पर केवल शिल्पकारों का ही कब्जा है और नीचे जखमोलाओं का कब्जा है। दिखने -सुनने में तो सरल  लगता है कि इस भूभाग पर शिल्पकारों का कब्जा है। गढ़वाली राज से लेकर गोरखा राज तक शिल्पकारों को जमीन पर कब्जा देने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था।  अंग्रेजों के जमाने में  शिल्पकार सवर्णों को वन भूमि को कृषि भूमि बनाने में सहायता करते थे किन्तु अपने आप जंगल की भूमि नहीं हथिया सकते थे। अंग्रेजी सरकार के प्रोत्साहन के कारण ही  जो भी खेत आज दिख रहे हैं उनका 60 प्रतिशत हिस्सा अंग्रेजों के समय में ही  हस्तगत किया गया ।  जंगल काट कर कृषि भूमि बनाने हेतु   अंग्रेजी  शासन ने ही जनता को प्रोत्साहन दिया था।  किन्तु तब भी शिल्पकार पीछे रहे क्योंकि समाज में इसे बर्जित माना जाता था।
   किन्तु जसपुर में नाव डांड की कृषि भूमि पर शिल्पकारों  का कब्जा है। नावो  डांड पर शिल्पकारों के कब्जे पर मुझे जसपुर  के सवर्णो से तीन कथाएं मिलीं। चूँकि इन कथ्यों की पुष्टि करने वाला  कोई  नहीं है तो मैं  इन कथ्यों को लोककथा ही मानकर चल रहा हूँ।
    पहला कथ्य है कि जसपुर के सवर्णों की सहमति से शिल्पकारों ने नावो डांड की खुदाई की और कृषि भूमि तैयार की।  बात हजम होने लायक नहीं है।  जिस गाँव में --एक कुकरेती मुंडीत वालों ने  एक मुट्ठी बंजर सँजैत जमीन (घीड़ी ) में मकान बनाया तो गाँव  वालों ने उन पर मुकदमा ठोक डाला। यह मुकदमा बीस तीस साल  चला। उस गाँव वालों से शिल्पकारों को सरलता से कृषि भूमि खोदने देना नामुमकिन लगता है।
    एक कथ्य है कि शिल्पकार कुल्हाड़ी , तलवार लेकर भूमि खोदने गए।  तो उन्होंने इस तरह भूमि छीनी।  इस कथ्य में भी तर्क नहीं लगता क्योंकि ऐसा होता तो शिल्पकार अन्य जगह भी यही  रणनीति अपनाते।  फिर शिल्पकार बाड़ा के नीचे जैखाळ वन की जमीन हथियाना ज्यादा तर्कसंगत होता (वैसे जैखाळ ग्वील वालों का वन भी है ) .
    तीसरा कथ्य जो मुझे मेरी दादी जी श्रीमती क्वाँरा देवी पत्नी स्व शीशराम कुकरेती ( मेरे पिता जी की ताई जी ) ने सुनाया था अधिक तर्कसंगत लगता है।  कुली बेगारी के समय अंग्रेज अधिकारियों व भारतीय अधिकारियों की भोजन पानी , परिवहन हेतु ग्रामीणों को कुली बेगार करनी  पड़ती थी और टट्टी पेशाब का ट्वायलेट कंडोम सिर पर उठाकर ले चलना पड़ता था।  ब्राह्मण जाति  होने के नाते जसपुर वालों को ट्वाइलेट कंडम उठाना या साफ़ करना नागंवारा लगा तो एक सामाजिक संधि के तहत यह निर्णय हुआ कि शिल्पकार कुली बेगार पांती   में ट्वाइलेट कंडम उठाएंगे और इसके ऐवज में शिल्पकार नाव /नाओ डांड को कृषि भूमि लायक बना सकते हैं। 
 जो भी कारण रहे होंगे शिल्पकारों को नावो डांड  भूमि अधिग्रहण में सवर्णो के विरुद्ध संघर्ष तो करना ही पड़ा होगा। संघर्ष में किस तरह सामाजिक तनाव रहा होगा यह हम आज नहीं सोच सकते।  इतिहास पर गौर करें तो पाएंगे कि  तहसीलदार ठाकुर जोध  सिंह नेगी के कारण गढ़वाल में कुली बेगार समाप्त करने हेतु कुली एजेंसी बन चुकी थी।  याने शिल्पकारों का नावो डांड पर शिल्पकारों का कब्जा 1900  से कई साल  पहले हो चुका था।  सरकारी खसरे में कब जमीन जोड़ी गयी यह देखना पड़ेगा। कुछ साल पहले नाव डांड में स्व कानूनगो श्री कृष्ण दत्त ने मकान भी बनवाया था जो अब उजाड़ हो गया है।
       
     
    यदि आपके पास भी ऐसी सूचनाएं हैं तो साजा कीजियेगा
 



सर्वाधिकार @  भीष्म कुकरेती , मुंबई , 2018
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Bhishma Kukreti:
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 म्याळ  चट्वा नातणी चौकीदारी  !
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 बत इ बत मा   :::   भीष्म कुकरेती   

 जी मि अपणी  छ्वीं लगाणु छौं , तुमर छ्वीं नि लगाणु छौं अर ना ही 47 सालौ बालनेता राहुल गांधी की छ्वीं लगाणु छौं।
   जी मेरी नातण डेढ़ सालक च अर पिछ्ला  छै मैना से या वां से पैल बिटेन मळयो , म्याळ या दिवाल चट्वा ह्वे गे। जखम बि कुछ दिख्याउ वा फट से वीं चीज  तै उठैक मुक पुटुक ली जांद।
  अर अब हमर एक प्रमुख काम च नातणि चौकीदारी करण।
 अब वा त बच्चा च त वा हर चीजै छान बीन करण चांदी बल आखिर या चीज छ क्या च।  वींक अन्वेषण प्रवृति हमकुण चौकीदारी काम लै आंद।  जैक घौरम जथगा बड़ अन्वेषी प्रवृति बालिका या बालक  वै घौरम बड़ा बैक उथगा इ बड़ा चौकीदार।  बच्चा हर चीज का बारा म जिह्वा से खोज बीन करण चांद अर हम वरिष्ठुं  काम हूंद बच्चा की खोजबीनै देव दत्त गुण कु जड़ से नाश  करण. एक तरफ हम चांदा बच्चा सब बालसुलभ क्रीड़ा कारो अर ठीक बिपरीत हम बच्चों की आदम अन्वेषण प्रवृति ही खतम करणो सब इंतजाम करणा रौंदा।  बाल सुलभ क्रीड़ा तो बच्चा तब कारल  वै तै अन्वेषण की खुली छूट  दिए जाल।  हम द्वी झण बि अपण नातण से आसा करदां बल वा बाल सुलभ कृत्य -नृत्य दिखावो पर दगड़म हम वीं तै कुछ बि अलखणी -बिलखणी काम नि करण दींदा। हमर परिवार विज्ञान प्रेमी च अर हमर आजि बिटेन इच्छा बण गे कि हमर बेटी या नातण तै विज्ञान मा नोबल पुरुष्कार मीलो किन्तु हम हर घड़ी यी दिखणा रौंदा कि हमारी नातण क्वी बि अन्वेषण नि कार साको । हम बच्चों तै डरांदा छा कि बच्चा कुछ बि छेड़खानी या नई चीज की खोजबीन अपण तरीका से नि कारो  , अपण   प्रकृति हिसाब से खोज कतै नि कारो। पैल हम अपण बच्चों अन्वेषण प्रवृति समाप्त करदां अर फिर गाणी स्याणी बि करदा बच्चा महान खोजी ह्वे जावो।
   प्रकृति या गॉड जी तै त पता नि छौ बल मनुष्य माटौ घौर छोड़ि सीमेंटौ घौर बणाल  तो प्रकृतिन बच्चों तै इन गुण दे कि वु माटु म रतबुळाओ। माटु खावो तो प्रतिरोधक शक्ति प्राप्त ह्वे जावो दगड़म भोत सी धूळ जनित एलर्जी का प्रति प्रतिरोधक शक्ति बि ऐ जावो।  अब हमर पास माटु दिखणो नि मिल्दो तो बच्चा बिचर भौत सा प्रतिरोधक शक्ति पैदा करण से बंचित रै जांदन।
  माटु से बच्चों तैं भौत सा खनिज लवण मिल जांद छौ त अब टाइल्स मा क्या मिनरल मीलल।  खैर अब डॉक्टर कुछ ना कुछ मिनरल दीणा रौंदन तो कमी पूरी ह्वे इ जांद ह्वेलि।
   माटु मा भौत सा फैदामंद बैक्ट्रिया मिल जांद छा अब बच्चा यूं बैक्टीरियाओं से महरूम रौंद।
मी बि सबि  आधुनिक दादा छौं तो मि अपण नातण तैं डर्ट नि खाण दींदु अर बाकी सब कमी बेसी डाक्टनी पर छुड्युं च ज्वा वा ब्वालली सि करला।  पर क्या डॉकटनी सब चीज बतांद ह्वेलि कि यु कारो!  स्यु कारो। कुज्याण भै कुज्याण।
 
   


19 /1 / 2018, Copyright@ Bhishma Kukreti , Mumbai India ,

*लेख की   घटनाएँ ,  स्थान व नाम काल्पनिक हैं । लेख में  कथाएँ , चरित्र , स्थान केवल हौंस , हौंसारथ , खिकताट , व्यंग्य रचने  हेतु उपयोग किये गए हैं।
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    ----- आप  छन  सम्पन गढ़वाली ----
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Bhishma Kukreti:

उत्तराखंड  परिपेक्ष में  चाउ मिन / चाउ में (Chow  Mein )   भोजन व खानपान   इतिहास

                                             

                                     History of Chinese Food Chau Mein  Food in Uttarakhand - 41    A                     
         
                    उत्तराखंड में कृषि व खान -पान -भोजन का इतिहास --   41 A

                     History of Agriculture , Culinary , Gastronomy, Food, Recipes  in Uttarakhand -  71
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      आलेख -भीष्म कुकरेती (वनस्पति व सांस्कृति शास्त्री )

 यद्यपि उत्तराखंड में मारछा अथवा भोटिया जाति हजराओं सालों से रहती आयी है और वे 'चाउ में' खाते ही रहे होंगे किन्तु गैर मार्छा  लोगों ने कुछ वर्षों पहले चाउ में चखा भी नहीं होगा।  आज उत्तराखंड में चाउ मिन एक स्थानीय  भोजन बन ही चुका है। अति स्थानीय सड़कों पर चाय वाले भी चाउ मिन बेचते पाए जाते हैं।  यह फास्ट फ़ूड आज क्रेज बन चुका है।
     1974  में उत्तराखंड में चीनी भोजन मुझे देहरादून के नेपाली व क्वालिटी होटल में सुनने मिला था।  तो शायद चीनी भोजन मसूरी व नैनीताल में भी मिलता रहा होगा.
       कहा जाता है भारत में चीनी भोजन 1778  से कोलकत्ता में बनना शुरू हुआ था।  भारत में चीनी भोजन की शुरुवात कोलकत्ता से ही शुरू हुआ।  फिर मुंबई या दिल्ली जैसे शहरों में भी शुरू हुआ।  1992 तक बड़े शहरों में सभ्रांत होटलों में ही चीनी भोजन मिल पता था।  तब आम होटलों के बोर्डों पर नहीं लिखा होता था पंजाबी , साउथ इंडियन और चाइनीज डिशेज।  आज तो उत्तराखंड में सामन्य होटलों के साइन बोर्डों में लिखा होता है चाइनीज भोजन मिलेगा।  वास्तव में चाइनीज फ़ूड को आम लोगों तक प्रसारित करने का श्रेय नेस्ले कम्पनी द्वारा टू मिनट्स नोड्यूल्स के विज्ञापनों को जाता है।  आम लोग नोड्यूल्स के स्वाद से परिचित हुए और उनकी जिव्हा अन्य चीनी भोजन के बारे में उत्सुक हुई तो चीनी भोजन आज भारत ही नहीं दुनिया के हर कोने में मिल जाता है।  उत्तराखंड अपवाद नहीं है।
      1992 के बाद छोटे शहरों में चीनी भोजन ने पाँव पसारने शुरू किया और मेट्रो शहरों में तो कोने ओने में चाइनीज कॉर्नर खुलने लग गए थे।  मुंबई व अन्य शहरों में नेपाली चीनी बनकर चीनी भोजन खिलाने लगे।
      बहुत से चीनी भोजन वास्तव में वास्तविक चीनी भोजन है ही नहीं बल्कि मूल चीनी भोजन का भारतीयकरण है जैसे मंचूरियन , चिल्ली चिकन , मंचाऊ सूप ,स्प्रिंग रोल्स, सेजवान , फ्राइड राय और चाउ मिन  या चौ मिन।  जी हाँ भारतीय चाउ  मिन निखालिस चीनी 'चाउ में' का भारतीय रूप है।
      चाउ /चौ कार्थ है घुमाना या घूमा कर फ्राई करना और में (मिन ) का अर्थ है नोड्यूल्स।
      चीन में चाउ में बनाते समय नोड्यूल्स को भूना नहीं जाता बल्कि पानी में उबाल कर पानी निथार  कर उसमे ऊपर से हरा सलाद , व अंडे डाले जाते हैं  सोया सॉस आवश्यक अंग है।  किन्तु भारत में कढ़ाई में भून कर उसमे सब्जी व भारतीय मसाले मिलाकर  बनाये जाता है। अधिकाँशतह  देखा गया है कि भारत में सोया सौस  की जगह कैच अप प्रयोग होता है।
     उत्तराखंड में भी नेस्ले के टू मिनट्स नोड्यूल्स के प्रचार के बाद चाउ मिन को प्रसारित होने में सरलता हुयी।  शायद सन  2000 के बाद उत्तराखंड में चाउ मिन का भयंकर क्रेज बढ़ा और आज चाउ मिन छोटे छोटे बजार में भी उपलब्ध है। ग्रामीण बजार से प्लास्टिक की थैलियों में भरकर चाउ मिन घर ले जाते हैं और फिर से गरम कर कहते हैं। हॉस्टलों में तो चाउ मिन खाना एक आवश्यकता सी बन गयी है।  उत्तराखंड में चाउ मिन कुछ अधिक तरीदार होता है।   

Copyright@Bhishma Kukreti Mumbai 2018

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Bhishma Kukreti:

Best  of  Garhwali  Humor , Wits Jokes , गढ़वाली हास्य , व्यंग्य )
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लोककथ्यों मा स्थान वैशिष्ठ्य याने प्लेस ब्रैंडिंग इन फोक सेइंग्ज
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 चबोड़ , चखन्यौ , भचकताळ    :::   भीष्म कुकरेती   

   जब बि क्वी गढ़वळि कॉंग्रेसी या अन्य विरोध दलौ  समर्थक प्रधान मंत्री मोदी जीक काट करणौ बान ब्रैंडिंग , मार्केटिंग पर थमळि चलांद त सच्चि मेरि जिकुड़ी जळ जांद।  अरे भै  गढ़वळि ! राहुल गांधी तो अबि बि अजाण च , लाटु च , कालु  च वै तै मार्केटिंग या ब्रैंडिंग तैं गाळी दीण द्यावो पर तुम त अकलमंद छंवां तुम त नि द्यावो ब्रैंडिंग तैं मुर्ख जन गाळी।
    ब्रैंडिंग क्वी नई चीज नी च , मार्केटिंग क्वी नै  विचारधारा नी च , पहचान की बात करण त मनुष्य धर्म च , एक लक्षण च जी।
  जरा अपण गांवक तरफ द्याखौ त पैल्या बल आपक गाँव मा भौत सा स्थानीय कहावत ह्वेलि जु प्लेस ब्रैंडिंग का अच्छा खासा उदाहरण होलु. जन कि मौल्या कौंक ख्वाळ , उच्चकोट की मुंगरी , बिंदास धारक भूत आदि आदि। यी सब स्थान वैशिष्ठ्य का उदाहरण छन।  वास्तव मा  मार्केटिंग का उदाहरण छन। हमर बूड अंग्रेजी नि छ्या पढ़्यां पर मार्केटिंग तब बि करदा ही छा।
      हमर इलाका का नाम च ढांगू।  अर वास्तव मा ढांगू एकवृहद क्षेत्र छौ जै तैं बाद मा गंगासलाण बुले गे अर यु क्षेत्र दुग्गड से लेकि गूमखाळ , डबराल स्यूं , अजमीर , उदयपुर अर ढांगू ये क्षेत्र म आंद छौ।  अन्य क्षेत्रुं तुलना मा ढंगार क्षेत्र छौ तो हौर  क्षेत्र का लोग बुल्दा छा - जाणा ढांगू , आणा आंगू।  याने ढांगू जावो तो सचेत ह्वेका ट्रैवल कारो।  अर या कहावत आजै नी च , यु कथ्य ब्याळै बि नी च अपितु गुरख्या बि यीं बात पर यकीन करदा छा। प्लेस मार्केटिंग हमर पुरखा बि भली भाँती करदा छा जी।
        हमर पुरण लोगुंन मार्केटिंग की किताब नि पढ़ी किंतु वु जणदा छा बल प्लेस ब्रैंडिंग मा स्थान की विशेषता ही महत्व पूर्ण च।  तबि त हमर इख सैकड़ों ाल से हम सुणणा रौंदा चौंदकोट्या बांद याने स्त्री सुंदरता की बात मा चौंदकोट कु क्वी क्या मुकाबला कारल।  पर चौंदकोट्या कवि गिरीश सुन्द्रियाल का समिण चौंदकोट्या बांद की प्रशंसा करिल्या तो झट से तुमर मुक मारी देल्या , " क्या मतलब हमर इक केवल सुंदरता ही च , ब्यूटी ही च ? हमर इखाक बल्द क्या बांदो  से कम छन क्या ?" बिलकुल सही जी , गिरीश सुन्दरियाल सही बुल्दन जी। गोरखाकाल मा  क्या अंग्रेजों समय पर बि चौंदकोट्या बल्दुं मांग तो भाभर , बिजनौर मा बि खूब छे जी अर एटकिनसन जन इतिहासकारोंन चौंदकोट्या बल्दुं भूरी भूरी प्रशंसा कौर।  अरे साब ! इना नाटककार  गिरीश सुन्दरियाल चौंदकोट का बल्दूं प्रशंसा कारल तो टिहरी का दिनेश बिजल्वाण , जबर  सिंह कैंतुरा अर जयाड़ा बंधु अग्यो कर द्याल।  जी हाँ टिहरी का यी जांबाज किलै नि अग्यौ कारल।  सरा  गढ़वाल का का कु किसाण छौ जु   टिहरी का बल्दुं सुपिन नि दिखुद छौ ।   जी हाँ पुरातन काल से इ गंगावार वळ गंगपुर्या बल्दुं  सुपिन दिखद छा जी।  क्या या प्लेस ब्रैंडिंग नि छे ? अवश्य ही या प्लेस ब्रैंडिंग छे।
   
       मि नि जाणदु आप मादे कतकौन या कहावत सुण ह्वेल धौं।  कहावत च बल " कांड कु जालो , जैक डोला फूटलो " . डोला माने माटौ बर्तन अर कांड गाँव असवाल स्यूं  कु प्रसिद्ध गाँव छौ जो एक समय माटक भांड आदि निर्माण मा बड़ो  प्रसिद्ध गाँव छौ।  अब जब हमर पुरखा प्लेस ब्रैंडिंग याने मार्केटिंग पर इथगा ध्यान दींद छा अर हम पढ़्यां-लिख्यां  तौहीन करणा रौंदा।
  दक्षिण गढ़वाल मा  हर मौ  शहद निर्माण करद छे   किन्तु प्लेस ब्रैंडिंग कु ही कमाल छौ कि    टक त चांदपुर - बधाणै शहद पर ही लगीं रौंद छे।  बात छे   कि ना ?
  पैल सबि लोग कंबळ पैरदा  छा अर साब ! ढांगू मा त राठ  कु कमळौ  लवादा घमंड से इनि दिखाए जांद छौ जन कबि लोग अमेरिकी जीन्स घमंड इ दिखांद छा जी।  यी त च प्लेस ब्रैंडिंग।
    आज तो 47  सालौक अबोध बालक राहुल गांधी जी ब्रैंडिंग तैं गाळी दीणा छन किन्तु एक दैं अपण सांसद स्व भक्त दर्शन जी का पुत्र ऐन चुनावक टैम पर बीमार पड़ गेन त भक्त दर्शन जीन पर्ची बांटी छे - कख रै गे नीति कख रै गे माणा  श्याम सिंग  पट्वरिन कख कख जाणा।  प्लेस  ब्रैंडिंग तैं  चुनावी विज्ञापन से जुड़न ह्वावो तो यु  उम्दा उदाहरण च जी।
     अहा प्यार की बात हो अर सतपुळी बात  ना हो तो ब्रिटिश गढ़वाल मा प्यार की बात अधुरु ही माने जाली।  पता नी कथगा प्रेम लोक गीत सतपुळी से जुड्यां छन धौं। बौ सुरेला से लेकि स्याळी तक सब प्रेम का खातिर सतपुळी जांद छा तो यी त प्लेस  ब्रैंडिंग च जी माराज।
      बावन गढ़ों गीत क्या च ,अजी  साब लोगो ! बावन गढुं  लोकगीत या गीत कुछ नी अपितु प्लेस ब्रैंडिंग का सबसे उत्तम उदाहरण च।
       अर जब प्रेमी-प्रेमिका   धार -गदन छोड़ि पाबौ बजार की बात करदन तो वो बि त स्थान वैशिष्ठ्य करण  ही च जी।
  व्यासी का परांठा अर अल्लु क गुटका कुछ ना अपितु प्लेस ब्रैंडिंग ही च।
      इनि हजारों लोक कथ्य स्थान वैशिष्ठ्य की  छ्वीं लगांदन याने लोक कथ्यों द्वारा स्थान  विशेष कु बखान याने स्थान कु मार्केटिंग अर हम मार्केटिंग तै बुरु बुल्दां।  बड़ी नाइंसाफी है जी बड़ी नाइन्साफी।
      हमर जिना एक गीत प्लेस ब्रैंडिंग कु बहुत ही उमदा उदाहरण च।  ये लोकगीत मा तीन गांवुं विशेषता बताये गए।
         ग्वील कौंकि सिक्की बड़ी
        जल्ठ कौंकि धोती बड़ी
          अमाल्डु कौंका रौड्या बड़।
     एक दै  मीन यु  गीत फेसबुक म पोस्ट कार त एक ग्वील वळ   भैजी नाराज बि ह्वेन।  किन्तु या बात सत्य च कि ग्वील भौगोलिक दृष्टि से कृषि सम्पन गाँव च , उखाक लोग अंग्रेजुं  आंदि सरकारी नौकरी पर लग गे छा तो ग्वील वळुंम एक स्वाभाविक गर्व पैदा हूण  ही छौ तो दुसर गाँव वळुंन गर्व तै सिक्की नाम दे दे।  जल्ठ कौंकि धोती बड़ी वास्तव मा धोती से अधिक पंडिताइं की बात च।  अर अमाल्डु का रौड्या बड़ क्वी आलोचना नी च अपितु ऑथेंटिक कथ्य च।  अमाल्डु का उनियाल वास्तव मा शक्ति या शिव पूजक छन और अमाल्डु  का पंडित माथा पर चंदन का बड़ा त्रिपुंड लगांद छा तो ब्रैंडिंग गीत मा नाम रौड्या दे दिए गए।
            या च हमर पुरखों ब्रैंडिंग तै महत्व दीणै बात अर यदि क्वी गढ़वाली - 47 वर्षीय अबोध बालक राहुल गांधी की भकलौणम ऐक ब्रैंडिंग या मार्केटिंग तैं गाळी द्याल तो मि त छवाड़ो श्री वी पी भट्ट  सलाणी तै बि गुस्सा आल कि ना ?
 
       

   


20/1 / 2018, Copyright@ Bhishma Kukreti , Mumbai India ,

*लेख की   घटनाएँ ,  स्थान व नाम काल्पनिक हैं । लेख में  कथाएँ , चरित्र , स्थान केवल हौंस , हौंसारथ , खिकताट , व्यंग्य रचने  हेतु उपयोग किये गए हैं।
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    ----- आप  छन  सम्पन गढ़वाली ----
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Bhishma Kukreti:
Myths, Religious Importance of Rai, Sarson, Mustard in Uttarakhand
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Plant Myths, Religious Importance, and Traditions in Uttarakhand (Himalaya) - 16
By: Bhishma Kukreti, M.Sc. (Botany) (Mythology Research Scholar)
Botanical name –Brassica alba, Brassica hirta
Local name – Rai,
Hindi Name –Rai, Sarson
Sanskrit Name –Sarshap
Economic benefits – Oil, used in pickling, used with fodder for cattle. 
                   Myths, Religious Importance and Traditions

                       Importance of Rai, Mustard in Hindu Astrology
  Grah Guru is the master of Mustard or Rai.
 Tula Rashi is also master or swami of rai or Mustard.
  Mustard moil is supposed to be sacred oil in various rituals.
   People donate mustard oil for satisfying Shani (Saturn) grah and Rahu grah
                Importance of Mustard or Rai in Tantric and Mantra Rituals
 The following rai mantra is used for purifying Rai and Rai is put under pillow of affected person or child whom there is possibility of evil soul attack
  कुमाऊं व गढ़वाल में प्रचलित राई अभिमंत्रित करने का मन्त्र -२
                राई मंत्रणो मंत्र -
ओउम नमो आदेश.
गुरु को जुहार
०००
माता पारबती ने बोई बोई तो हरिया भई
मानता रातु भई 
जंहा पठाई . तहां जाई
राई सत सौं मेरा पीठ का भाई
अमुक पिंड को हाक मारूं
कल नारी कल ज्व्या कि हांक मारूं
टांक कि घोपी, मंगरी की हांक मारूं   
दंत्दारी भौं संहारी की हांक मारूं
रांड ढाञट की हांक मारूं
लौड खसिया की हांक मारूं 
कैला  बामण की हाक मारूं
जोगी को फटकार मारूं
००००
पाताळ की नागनी की हांक मारूं , चंचली बयाल मारूं
रिंगनी बयाल मारूं, डांकणी  साकणी  की हाक मारूं
फूल मन्त्रो वाच:
  In many cases, the water is put in a pitcher with Mustard leaves and is purified by Mantra by Mantrik. Then the person who desires to let bad luck away from him or her take bath by that purified water.
 Ritual performer (mantrik) also use rai or mustard seed for ‘najar utarna’ (bad eyes from evil of enemy) .
 People also burn mustard seeds with red chilies for various Mantric Rituals
 Many tantric suggest that persons should donate rai or mustard seeds on Thursday for good luck.
  Matric Performer throws yellow Mustard seeds on evil  soul  (bhut)effected person too for getting rid of evil soul.
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Copyright@ Bhishma Kukreti, Mumbai 2017
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