Author Topic: Articles By Bhisma Kukreti - श्री भीष्म कुकरेती जी के लेख  (Read 723769 times)

Bhishma Kukreti

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 परांठा याने  दल भरी या भरीं रोटी  :इतिहास के आईने से

 
 उत्तराखंड में कृषि व खान -पान -भोजन का इतिहास --   85

  History of Agriculture , Culinary , Gastronomy, Food, Recipes  in Uttarakhand -85

 आलेख -भीष्म कुकरेती (वनस्पति व सांस्कृति शास्त्री )

    भारत की कुछ विशेषताएं हैं कि  हम भारत में जन्मी वस्तुओं का कम से कम वर्णन करते हैं। अब पराठे को ही ले लीजिये , भारतीय पुराणों में परांठा के  बारे में पुराण रचनाकार मौन ही रहे।

 प्रसिद्ध भोजन इतिहास शास्त्री के  टी आचार्य अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'द स्टोरी ऑफ अवर फ़ूड (पृष्ठ 85 ) में लिखते हैं  कल्याण(बिदुर , कर्नाटक )  के राजा सोमेश्वर III (लगभग  1130 ) ने संस्कृत में 'मानसोल्लास ' पुस्तक की रचना की , मानसोल्लास में एक अध्याय भोजन को समर्पित है।  मानसोल्लास  में कई प्रकार पूरण पोली ,(मराठी नाम ) या हिलंगे (कन्नड़ी )  बनाने की विधि लिखी है। मानसोल्लास में लिखा है कि पूरण पोली बनाने के लिए गुंदे आटे के अंदर गुड़ व पिसी भीगी दाल, सुगंधित मसालों  को भरा जाता है और घी में पकाया जाता है।  पूरण पूरी वास्तव में उत्तराखंड में भरी रोटी का ही रूप है।  अंतर आकार का है। पूरण पूरी दो इंच डायमीटर की दल भरी घी में पकी रोटी है तो उत्तराखंडी दल भरी रोटी बड़ी होती है और उत्तराखंडी भरी रोटी या गैबण  रोटी को तवे में घी में पकाओ या न पकाओ का बंधन नहीं है।  उत्तराखंडी भरी रोटी /गैबण रोटी में गुड़ भी नहीं डाला जाता है।   

 Johan Platts (1884 ) की पुस्तक' ए डिक्सनरी ऑफ उर्दू , क्लासिकल हिंदी ऐंड इंग्लिश ( पृष्ठ 235) में लिखा है कि  पराठा शब्द संस्कृत के दो शब्दों से बना है पर या परा +स्थ: या स्थिर।   

   रोटी  विशुद्ध भारतीय है किंतु मुगलाई कुक बुक (पृष्ठ 87 ) की लेखिका लिखती हैं कि सुलतान व मुगल काल से पहले नान व परांठा /पराठा भारत में नहीं पकाये जाते थे।  नीरा वर्मा लिखती हैं कि पराठा दो शब्दों के मेल से बना है - पर्त +आटा  याने जो रोटी परतों से बनी हो। 

 मुझे लगता है पराठे का इजाद 'खौत बौड़ाओ ' (अवशेस बचाओ, सेविंग द वेस्ट  ) के कारण हुआ होगा।  जब दाल बच गयी होगी तो उसे या तो आटे के साथ गूंद कर  इस्तेमाल किया गया होगा या सूखी दाल को गुंदे आटे में भरकर बनाया गया होगा।



                  उत्तराखंडी लोक साहित्य में भरी रोटी /पराठे का जिक्र



इस लेखक को लोक गीतों , लोक कहावतों में दल भरी रोटी का जिक्र तो नहीं मिला किन्तु इस लेखक ने दो लोक कथाओं का संकल अवश्य  किया है जो दल भरी रोटी से संबंधित हैं (सलाण बिटेन लोक कथा ) . 

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                        उत्तराखंड में दल भरी रोटी का अनुमानित इतिहास

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   सामन्यतया मैदानी हिस्सों में पराठा को बनाते समय आटा गूंदते वक्त या आटा गूंदने के बाद घी में गूंदा जाता है जिससे कि रोटी की तह बनकर पराठा या कई तह वाली भरी रोटी बन जाय।  कई मायनों में उत्तराखंड में बनने वाला रोट भी कुछ कुछ सादा परांठा ही है।

   अधिकतर रोट काटना क्षेत्रीय देवताओं के पूजन का महत्वपूर्ण कर्मकांड है।  इसका अर्थ है कि भूमिपालों या क्षेत्र पालों को रोट को भेंट देने का रिवाज शायद घंटाकर्ण देव पूजन से शुरू हुआ होगा।  याने रोट या आधुनिक पराठे का रिवाज उत्तराखंड में 2000  साल पहले से ही रहा होगा।

      उत्तराखंड में घी भरा रोट तो घी  प्रोयग के साथ ही शुरू हुआ होगा और तेल में बना रोट तेल प्रयोग के साथ शुरू हुआ होगा। पहले यदि पत्थरके ऊपर  रोटी /ढुंगळ पकाये भी  जाते थे तो भी ढुंगळ तेल -घी में तला जा सका होगा।

 एक समय सत्तू पराठा भी प्रचलन में था।

   रोट मीठे और नमकीन  या सादा तीनो किस्म के होते हैं

             भरी रोटी /गैबण रोटी /पराठा का प्रचलन सबसे पहले भीगी गहथ की कच्ची  दाल को पीसकर भरवां रोटी के रूप में हुआ होगा।

    आज तो उत्तराखंडियों के घर सौ से अधिक किस्मों   दल भरी रोटी या पराठे बनते हैं किन्तु पारम्परिक दल भरी रोटियां गहथ , भट्ट , सूंट , रयांस , लुब्या दाल की ही बनती थीं। प्राचीन उत्तराखंड में शायद उबाले गए बसिंगू छोड़ किसी अन्य सब्जी की भरी रोटी या पराठे का प्रचलन नहीं रहा होगा।  उसी तरह गेंहू , मंडुआ , जौ, मकई  या अन्य अनाजों से सब तरह के पराठे बनते थे।बसिंगू छोड़  सब्जी भरकर रोटी /पराठा बनाने का रिवाज अंग्रेजी शासन काल में आया व स्वतंत्रता के बाद बहुत शीघ्र प्रचलित हुआ।

        उत्तराखंड में निम्न तरह के पराठे प्रचलन में हैं

१-  नमक या गुड़ मिलाई हुयी सादी रोटी /रोट अथवा मनक /गुड़ मिलाई तेल में तली रोट  /पराठा

२-  बची हुयी दाल , सब्जी आदि को आटे में मिलाकर बनी सूखी या घी /तेल में पकी रोटी /पराठा

३- कच्ची भिगोई दाल (गहथ , मटर ) पीसकर भरी रोटी /तली भरी रोटी

३अ  -  सादी उबली दाल पीसकर बनी दल भरी/गैबण  रोटी

४ - उबली दाल पीसकर बनी दल भरी/गैबण  घी तेल में तली रोटी /पराठा

५ - कच्ची सब्जी (मूली , गोभी , मेथी /प्याज /मटर   आदि ) भरी सादी रोटी /पराठा

६ -  कच्ची सब्जी (मूली , गोभी/पपीता  आदि ) भरी तेल /घी तली  रोटी /पराठा

७- पकी  सब्जी (आलू , आदि )  भरी सादी रोटी /पराठा

८- पकी सब्जी (आलू  आदि  )  भरी तेल /घी में तली  रोटी /पराठा

९- पनीर /चीज भरी सादी रोटी

१०-  पनीर /चीज।/मशरूम भरी तेल /घी में तली  रोटी/पराठा

११- लच्छेदार पराठा

१२- नॉन वेज पराठा





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Bhishma Kukreti

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पांडवों का उत्तराखंड भ्रमण : बहुत कुछ अभी भी नहीं बदला
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(महाभारत महाकाव्य  में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास ) - 15


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 Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Medical Tourism History  )     -  15                 

  (Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--120 )   

      उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 120   

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व विक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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  अर्जुन के स्वर्गागमन के बाद पांडव , द्रौपदी को लेकर ऋषि धौम्य व ऋषि लोमस के साथ उत्तराखंड के तीर्थ भ्रमण हेतु चल पड़े। लोमश ऋषि तीर्थों के ज्ञाता थे व उनके शरीर पर लम्बे लम्बे बल थे।  पांडव कनखल से आगे गंगा किनारे किनारे सभी जन उशीरबीज , मैनाक , कालशैल पहाड़ियों को पार करते हुए सुबाहु के राज में पंहुचे।  राजा सुबाहु  ने उनका स्वागत किया। यहां से पांडवों ने सेवक , रसोइए  , पाकशाला के अध्यक्ष व द्रौपदी की सामग्री  को सुबाहु  को सौंपकर  आगे बढ़े।
उशीरबीज व मैनाक को लक्ष्मण झूला से बंदरभेळ पर्वत श्रृंखला समझा जा सकता है और कालशैल की पहचान ढांग गढ़ से हो सकती है। (वनपर्व 140 /27 -29 )
    गंधमाधन पर्वत के पदतल पर पंहुचते ही वहां भयंकर आंधी व मूसलाधार बारिश ने उन्हें आ घेरा।  महारानी द्रौपदी वर्षा व थकान  से बेहोश हो गयी। (वनपर्व 143 -5 )
     भीमसेन द्वारा घटोतकच को याद करने पर घटोत्कच वहां उपस्थित हुआ और वह व उसके राक्षस गण द्रौपदी , पांडवों को पीठ पर उठाकर बद्रिकाश्रम ले गए। (वनपर्व 145 /9 )
     
    एक दिन भीम द्रौपदी के लिए सुगंधित कमल लेने कदलीवन पंहुचा वहां हनुमान से भेंट हुयी।  गंधमाधन में भीम ने जटासुर को मारा ।

      बद्रिकाश्रम से पांडव आर्ष्टिपण आश्रम आये जहां उन्हें अर्जुन मिल गए।  पांडव कैलाश , वृषपर्चा , विशालपुरी का न्र नारायण आश्रम , पुष्करणी होकर सुबाहु की राजधानी पंहुचे।  वहां से रसोइये , द्रौपदी का सामन लेकर आगे बढ़े और उन्होंने घटोत्कच को भी विदा किया।
   आगे वे काम्यक वन में  पंहुचे जहां दुर्योधन भी पंहुचा और गंधर्व नरेश द्वारा दुर्योधन को बंधक बनाने की घटना का उल्लेख वनपर्व में मिलता है।
             फिर वहीं जयद्रथ द्वारा द्रौपदी हरण व उसकी हार की कथा वनपर्व में है। जयद्रथ ने गंगाद्वार (हरिद्वार ) में तपस्या की व शिव वरदान प्राप्त किया।
 
 फिर  गुप्त वनवास हेतु पण्डव मत्स्य नरेश के यहां चले गए।   महाभारत में वनपर्व के आगे कुरुक्षेत्र का युद्ध वर्णन है ।
       
              - उत्तराखंड पर्यटन संबंधी कुछ तत्व -

वनपर्व में  में उत्तराखंड संबंधी भौगोलिक , राजनैतिक व सामाजिक वर्णन तो है ही साथ पर्यटन प्रबंधन संबंधी कई सूत्र व सूचनाएं भी देता है।
 आश्रमों में जो भी सुविधा थी वह  वास्तव में मोटर रोड आने तक की 'चट्टी ' प्रबंध जैसी सुविधा ही थी।  चट्टी तमिल शब्द है और आश्रम संस्कृत शब्द है।  इन आश्रमों में पर्यटकों को कई सुविधाएं मिलती रही होंगी वह वनपर्व में पांडवों द्वारा उत्तराखंड तीर्थ यात्रा वर्णन में साफ़ साफ़ झलकत है।
    पण्डवों द्वारा अपने रसोईये को छोड़कर  , अन्य सामान छोड़कर उत्तराखंड यात्रा पर निकलने का अर्थ है कि उत्तराखंड के आश्रमों में भोजन व्यवस्था अवश्य थी। चूंकि आश्रम अध्यक्ष संस्कृत विद्वान् थे तो कर्मकांड के अतिरिक्त औषधि विज्ञान के भी ज्ञाता होते थे। लोमश ऋषि तीर्थों के ज्ञाता भी थे  अतः उन्होंने टूरिस्ट गाइड की भी भूमिका निभायी थी।
     उस समय भी भार वाहन , परिहवन हेतु कुली की आवश्यकता पड़ती थी जो वनपर्व में घटोत्कच व उसके राक्षसों द्वारा बखूबी निर्वाह किया गया।
  आज भी यात्री अपना सामान पर्वत के पदतल पर होटल वालों के पास छोड़ देते हैं और फिर वापसी में होटल वाले से ले लेते हैं।
       आश्रम उस समय के होटल या मोटल जैसे ही थे जो यात्रियों की आवश्यकताओं को पूरी करते थे।  बाद में इन आश्रमों ने  चट्टियों का रूप धारण किया और आज होटल , मोटल के रूप में विद्यमान  हैं।
  वनपर्व में पर्वतों , जंतुओं व वनस्पतियों का भी वर्णन है।  आगे इन वनस्पतियों का जिक्र होगा जो औषधि पर्यटन हेतु आवश्यक अवयव थे।
 
                   
 



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Bhishma Kukreti

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 उत्तराखंड में जलेबी का इतिहास माने जलेबी जैसी कुंडलीका युक्त उत्तर   
   
  उत्तराखंड में कृषि व खान -पान -भोजन का इतिहास --  86

  History of Agriculture , Culinary , Gastronomy, Food, Recipes  in Uttarakhand -86
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 आलेख -भीष्म कुकरेती (वनस्पति व सांस्कृति शास्त्री ) -

 जलेबी गढ़वाल कुमाऊं व हरिद्वार सब जगह  प्रसिद्ध है तभी तो 'जलेबी तरां सीदी ' कहावत गढ़वाल में आम है।  फिर यीं घिरळि पुटुक मिठु कैन भौर जैसे कथ्य भी जलेबी की महत्ता बतलाते हैं। शायद दो एक पहेली भी गढ़वाल कुमाऊं में जलेबी संबंधित हैं।
                      भारत में जलेबी
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      हमें जलेबी व इमरती का जिक्र सबसे पहले 1886 में प्रकाशित हॉबसन -जॉनसन के Jeelaubee में मिलता है और पता चलता है कि जलेबी नाम अरबी भाषा में जलाबिया और ईरानी /फ़ारसी भाषा के शब्द जिलेबिया का अपभ्रंस है।  (दिलीप पडगांवकर , 2010, टाइम्स ऑफ इण्डिया )
 एक दसवीं सदी की रसोई किताब में जलेबी बनाने की किस्मों का उल्लेख है।  तेरहवीं सदी में इरानी लेखक मुहम्मद बिन हसन बगदादी की रसोई किताब में जलेबी बनाने की विशियों का उल्लेख है ( ऑक्सफोर्ड कम्पेनियन टु फूड , 2014 ).   
सत्य प्रकाश सांगर की पुस्तक 'फूड्स ऐंड ड्रिंक्स इन मुग़ल इंडिया (1999 ) में उल्लेख है कि जलेबी मुगलों को पसंद थी।
   माना जाता है कि पंद्रहवीं सदी से पहले या इस सदी में तुर्क जलेबी को भारत लाये और जलेबी भारतीयों की जीव की पसंदीदा मिठाई बन गयी।
 पंद्रहवीं सदी में जलेबी का नाम भारत में कुंडलीका या जलवालिका था।  जैन साहित्य के लेखक जैनसुर के पुस्तक प्रियंकरनृपकथा (1450 ) में उल्लेख है कि सभ्रांत लोग जलेबी कहते थे।
       सोलहवीं सदी की भारतीय पुस्तक  'गुणयागुणबोधनी' में भी जलेबी बनाने का जिक्र है (पी की गोडे। 1943  ,दि न्यू इंडियन एंटीक्यूटि , ) .

                       उत्तराखंड में जलेबी

      उत्तराखंड की पहाड़ियों में जलेबी का इतिहास गायब है।  हाँ हरिद्वार के बारे में 1808 में रेपर की यात्रा वृतांत बहुत कुछ कहा डालता है। रेपर उल्लेख करता है   (The Spectator ,1986,  vol 256 ) कि  हरिद्वार में हर चौथी दूकान मिठाई की दूकान है और यहां लगता है भगवया रंग सबको पसंद आता है।  साधू भगवया कपड़ों में और जलेबी भी भगवैया रंग की।
        लगता है कुम्भ मेले के कारण जलेबी सोलहवीं सदी में हरिद्वार में बननी शुरू हुयी होगी।  और यदि जलेबी हरिद्वार सोलहवीं या सत्रहवीं सदी में पंहुच गयी थी तो देहरादून वासियों ने अवश्य जलेबी चखी होगी। उदयपुर व ढांगू वालों ने भी अवश्य जलेबी चखी होगी। 
        फिर कुछ यात्री जलेबी को हो सकता है बद्रीनाथ यात्रा मार्ग में ले गए होंगे और किसी चट्टी निवासी को खिलाया भी होगा।  वैसे यात्री जलेबी को महादेव चट्टी तक  ही ले जा सकता था आगे तो जलेबी में दुर्गंध ने लग जाती होगी।
                           पर्वतीय उत्तराखंड में जलेबी का प्रचलन अंग्रेजी शासन में ही हुआ होगा और उसमे सैनकों व जो मैदानों में नौकरी करते थे उनका ही  अधिक हाथ रहा होगा।  तो  कह सकते हैं कि लैंसडाउन के स्थापना बाद जलेबी का प्रचलन शुरू हुआ होगा।
     वैसे पीलीभीत , नजीबाबाद व हरिद्वार के बणिये जो भाभर क्षेत्र व रानीखेत , टनकपुर , दुगड्डा में दुकानदारी करने (उन्नीसवीं सदी अंत व बीसवीं सदी ) आये होंगे वे ही जलेबी लाये होंगे।   उन्होंने ही जलेबी तलने का काम शुरू किया होगा और मेलों में जाकर जलेबी को घर घर पंहुचाया होगा।
          देहरादून में स्वतंत्रता से पहले जलेबी बणियों की दुकानों में तली जातीं थी तो स्वतंत्रता बाद सिंधी स्वीट शॉप , कुमार स्वीट शॉप भी मैदान में आये।  गढ़वालियों में बडोनी लोगों की बंगाली स्वीट शॉप के अलावा कोई ख़ास नाम 1975 तक न था। 
           
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Bhishma Kukreti

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महाभारत में उत्तराखंड संबंधी औषधीय वनस्पति
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Edible, Medical useful  and Economical Plants of Uttarakhand in Mahabharata epic
(महाभारत महाकाव्य  में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -16


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   Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Medical Tourism History  )   -  16                 

  (Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--121 )   

      उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 121   

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व विक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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     महाभारत  महाकाव्य  में कई चरित्र उत्तराखंड भ्रमण करते हैं या उत्तराखंडी मैंदानों में पर्यटन करते हैं।
  भाभर अथवा हरिद्वार (गंगा द्वार ) व कण्वाश्रम के जंगलों में बेल , आंक , खैर , कैथ व धव /बाकली वनस्पति वर्णन है और ग्रीष्म ऋतू में जहां बलुई मिटटी होती है कंटीली झाड़ी उगती है।  (आदिपर्व) , मालनी तट पर तून का उल्लेख है (आदिपर्व ) . जहां नदियों में पानी नहीं सूखता वहां घनघोर वनों का उल्लेख मिलता है।
     निम्न वनस्पति का उल्लेख महाभारत में मिलता है ( डबराल )-

                    खाद्य फल देने वाली वनस्पति
     

  अम्बाड़ा , अंजीर , अनार , आम , आंवला , इंगुद , कैथ , खजूर (छाकळ ), गम्भीरी , जामुन , ताल , तिन्दुक , नारिकेल (?), नीम्बू , पिंडी , भेदा , बरगद , बदरी , बेर बेल , भिलावा , केला आदि।


                       खाद्य न देने वाले वृक्ष


अम्लबेल , अशोक , कदम्ब , करौंदा , तमाल , देवदार , पाकड़ , परावत , पिप्पल , पीपल , मुंजातक , लकुच , शाल , सरल , शीशम , क्षौद्र आदि


                 फूल वनस्पति


      अशोक , इंदीवर , कनेर , कुटज , कुरवल , कोविदार , चम्पा , तिलक ,पारिजात , पुन्नाग , बकुल , मंदार , शेम , . कमल की अनेक जातियों का वर्णन मिलता है। कीचकबेणु का वर्णन कई बार मिलता है। फूलों के वनों का भी वर्णन महाभाऱत में मिलता है।  इन्द्रकील वन में अर्जुन पर फूलों की वर्षा होती है।

        बुग्याळों को कुबेर बातिकाएँ कहा गया है जो कि ऊँची नीची भूमि क्षेत्र में फैला हुआ उल्लेखित है। बुग्यालों पर देवता , गंधर्व , अप्सरायेँ मुग्ध रहतीं थीं।  गंधमादन की बुग्याळें मनुष्य ही नहीं वायुयान के लिए भी अगम्य थीं।

         कुछ वृक्ष अति काल्पनिक है जैसे कदली फल जो ताड़ वृष से भी ऊँचे वर्णित हैं।

           

          मेडिकल टूरिज्म के बीज

  उपरोक्त अधिकांश वनस्पतियां औषधि  निर्माण में आज भी प्रयोग की जाती हैं और उनका उल्लेख का चरक संहिता , सुश्रुता संहिता या निघंटुओं में भी मिलता है।  चरक संहिता का संकलन 3000 साल पहले हुआ होगा।  किन्तु औषधि , विभिन्न अवयवों के अनुपातिक मिश्रण से औषधि निर्माण विधि , औषधि प्रयोग तो हजारों साल से चल रहा था और वह श्रुति संचार विधि से सुरक्षित व प्रचारित होता था। महाभारत में वर्णित उत्तराखंड में मिलने वाली वनस्पतियों के उल्लेख से साफ़ जाहिर है कि इन वनस्पतियों का उपयोग गैर उत्तराखंडी भी करते थे।  व इनसे उत्तराखंड में या बाहर औषधि भी निर्मित होती थी।  उत्तराखंड में ऋषियों के आश्रम होने से अनुमान लगाना मुश्किल नहीं कि ये विद्वान औषधि विज्ञानं पर भी अन्वेषण करते थे व श्रुति संस्कृति से औषधि विज्ञानं को प्रसारित करते थे व सुरक्षित भी रखते थे। 


Copyright @ Bhishma Kukreti  17 /2 //2018 


शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास -२, 327 -328

Tourism and Hospitality Marketing Management  History for Garhwal, Kumaon and Hardwar series to be continued ...

उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन श्रृंखला जारी …

                                    References

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3- शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास -2, p 327 -328
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Bhishma Kukreti

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  पेठा का उत्तराखंड परपेक्ष में इतिहास     
 
  उत्तराखंड में कृषि व खान -पान -भोजन का इतिहास --   87

  History of Agriculture , Culinary , Gastronomy, Food, Recipes  in Uttarakhand -87

 आलेख -भीष्म कुकरेती (वनस्पति व सांस्कृति शास्त्री )
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   पहाड़ी उत्तराखंड में मैदानी हिस्सों में बसावत न होने से गन्ना पैदा नहीं होता था तो पहाड़ी उत्तराखंड में मिष्ठान ना के बराबर ही रहे हैं।  अरसा , हलवा, खीर  को छोड़ दें तो कोई विशेष मिष्ठान  नहीं मिलते हैं।  अधिसंख्य मिष्ठान अंग्रेजी शासन के बाद ही प्रचलित हुए हैं।  पहले मीठे के लिए शहद का प्रयोग किया जाता था। 
     पेठा एक ऐसा मिष्ठान है जो आज उत्तराखंड में प्रसिद्ध है किंतु यह पारम्परिक मिष्ठान नहीं है।  यहां तक कि हरिद्वार , रुड़की का भी यह पारम्परिक मिष्टान नहीं कहलाया जाता है।  यद्यपि हरिद्वार में यात्रियों हेतु खूब पेठा बिकता है।
      पेठा भुज्यल के फल से बनाया जाता है। 

                      भारत में पेठे का इतिहास

     स्वाति दफ्तौर द हिंदू, ( 9  जून 2012  )     में लिखती हैं कि  पेठा  मिठाई का जन्म  शाहजहां के रसोई में हुआ।  एक दिन बादशाह शाहजहां   ने अपने रसोइयों से मांग की कि मुझे ऐसी मिठाई दो जो ताजमहल जैसा सफेद हो मीठा हो। रसदार हो।  रसोइयों ने कुछ दिन बाद पेठे फल से पेठा मिठाई बनाकर बादशाह को पेश किया और इस तरह पेठे का जन्म हुआ।
                पेठा जन्म की दूसरी कथा भी बादशाह से ही शाहजहां से जुडी है।  ताजमहल बनाते वक्त 22000 मजदूर दाल रोटी खाते खाते ऊब गए।  बादशाह ने अपने मुख्य इंजीनियर उस्ताद इसा ईफेंडी से यह चिंता जाहिर की।  उस्ताद इसा ने पीर नस्कबंद साहिब से बात की।  नस्कबंद ध्यान में गए और खुदा से पेठा मिष्ठान बनानी की विधि  प्राप्त की।
      कुछ सालों में ही आगरा के पेठे सारे भारत में  गए। 

          उत्तराखंड में पेठा प्रवेश
  पेठा ने कब उत्तरखंड में प्रवेश किया होगा के बारे में कोई रिकॉर्ड नहीं है।  रेपर ने 1808 में हरिद्वार में जलेबी का वर्णन किया है किन्तु अन्य मिठाइयों का जिक्र नहीं किया है।  यदि तब जलेबी हरिद्वार में मिलती थी तो अवश्य  ही पेठा भी मिलता होगा।
    शाहजहां का पोता सुलेमान सिकोह जब भागकर श्रीनगर आया तो क्या अपने साथ भेंट में पेठा मिठाई भी लाया होगा ?
     हाँ यह तय है कि मैदानी यात्री चार धाम यात्रा करते वक्त अवश्य ही पेठा लाते रहे होंगे और पेठा देकर चट्टियों में कुछ स्थानीय वस्तुएं खरीदते रहे होंगे।
    अंग्रेजी शासन में ही पेठे का प्रचार उत्तराखंड में अधिक हुआ होगा।  स्वतन्त्रता बाद पेठे का अधिक प्रसार हुआ और आज हर शहर में पेठा उपलब्ध है। 
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 ( उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; पिथोरागढ़ , कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;चम्पावत कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; बागेश्वर कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; नैनीताल कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;उधम सिंह नगर कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;अल्मोड़ा कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; हरिद्वार , उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;पौड़ी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;चमोली गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; रुद्रप्रयाग गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; देहरादून गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; टिहरी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; उत्तरकाशी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; हिमालय  में कृषि व भोजन का इतिहास ;     उत्तर भारत में कृषि व भोजन का इतिहास ; उत्तराखंड , दक्षिण एसिया में कृषि व भोजन का इतिहास लेखमाला श्रृंखला )   

Bhishma Kukreti

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महाभारत में उत्तराखंड के तीर्थ ,  आश्रम  और  शिक्षा  निर्यात से  लाभ

 Religious and Educations Centers Of Uttarakhand  in Mahabharata Epic
(महाभारत महाकाव्य  में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  17

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   Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Medical Tourism History  )  -17                 

  (Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--122 )   

      उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 122   

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व विक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
 
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                                     महाभारत में उत्तराखंड के तीर्थ

    महाभारत महाकाव्य में दक्षणियानन  भाग में गढ़वाल को अति महत्व दिया गया है और लगता है कि वे महाभारत रचियता व्यासों का जन्म या तो गढ़वाल में हुआ था अथवा उन्होंने यहाँ जीवन बिताया था।  महभारत में निम्न तीर्थों का उल्लेख  हुआ है  जो ऋषि धौम्य द्वारा पांडवों को सुनाया गया था -
       गंगाद्वार के  पास कनखल , कुब्जाम्रक , कुशावत , गंगाद्वार , नागतीर्थ , नील पर्वत , बिल्वक  तीर्थ थे. अन्य तीर्थ थे - अगस्त्य वट , अग्निशिर , अंगार पर्ण ,अनगिराश्रम , गंगामहाद्वार , बलाका , भारद्वाज तीर्थ , भृगु तीर्थ , भृगुतुंग (उदयपुर पट्टी , हरिद्वार निकट ), बसुधारा आदि। यमुना स्रोत्र को भी तीर्थ मन गया है।
        प्रय्ग शब्द का खिन प्रयोग नहीं हुआ है किन्तु संगम शब्द का प्रयोग हुआ है। इन तीर्थों में देव पूजन अथवा मंदिरों का वर्णन नहीं मिलता है।  देवयतनों का उल्लेख केवल कण्वाश्रम प्रसंग में मिलता है।  यह भी इतिहास सम्मत है कि मंदिर बौद्ध संस्कृति की देन  है ना कि सनातन धर्मियों की।
     
                         महाभारत में उत्तराखंड में आश्रम

              महाभारत में कुलिंद जनपद के अंतर्गत निम्न आश्रमों का वर्णन है -अंगिराश्रम , उपमन्यु आश्रम,  कण्वाश्रम , देवलाश्रम , नर -नारायण आश्रम , भारद्वाज आश्रम।

                  महाभारत में उत्तराखंड में   विद्या केंद्र

    महाभारत में उत्तराखंड निम्न विद्या केंद्रों का वर्णन मिलता है -
  व्यास आश्रम - व्यास आश्रम बद्रिकाश्रम में स्थित था। वहां केवल पांच शिष्य वेदाध्ययन करते थे -महाभाग सुमन्तु , महाबुद्धिमान जैमुनि , तपस्वी पैल , वैशम्पायन व व्यासपुत्र शुकदेव

  शुकाश्रम - शुक आश्रम गंधमादन में स्थित था। शुक अस्त्र -शस्त्र , धनुर्विद्या का ज्ञान देते थे। पांडवों ने  धनुर्विद्या यहीं प्राप्त की थी।
 
  भारद्वाज आश्रम - भारद्वाज आश्रम गंगा द्वार के पास था और राजकुमार  द्रुपद , द्रोण अदि यहाँ विद्या ग्रहण व धनुर्विद्या सीखते थे।

     कण्वाश्रम - कण्वाश्रम भाभर में मालनी नदे तीर पर था और वास्तव में विश्व विद्यालय था जहां नाना प्रकार की विद्यायी सिखलाई जाती थीं।  कण्वाश्रम के पास छोटे छोटे अन्य विद्या केंद्र भी थे।

       आश्रमों में सभी तरह की विद्याएं दी जाती थीं।  छात्रावास थे।
       उपरोक्त तथ्यों से पता चलता है कि उत्तराखंड से शिक्षा निर्यात होती थी।

               शिक्षा निर्यात विकासोन्मुखी होता है

             देहरादून , श्रीनगर , पंत कृषि विश्वविद्यालय  उदाहरण हैं की शिक्षा निर्यात वास्तव में शिक्षा पर्यटन ही है और उससे से स्थान का  विकास होता है और प्लेस ब्रैंडिंग में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। देहरादून में IMA , लाल बहादुर संस्थान , पेट्रोलियम संस्थान उदाहरण हैं कि किस तरह शिक्षण संस्थान  स्थान को अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि दिला सकते हैं।         



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Tourism and Hospitality Marketing Management  History for Garhwal, Kumaon and Hardwar series to be continued ...

उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन श्रृंखला जारी …

                                    References

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
३- शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास भाग -2 , पृष्ठ 335 ,359 -363
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  Medical Tourism History  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History of Pauri Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Chamoli Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Rudraprayag Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical   Tourism History Tehri Garhwal , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Uttarkashi,  Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Dehradun,  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Haridwar , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Udham Singh Nagar Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Nainital Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History Almora, Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Champawat Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Pithoragarh Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;


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   उत्तराखंड परिपेक्ष में हलवा का इतिहास : हिल जाओगे !     
 
  उत्तराखंड में कृषि व खान -पान -भोजन का इतिहास -- 88   

  History of Agriculture , Culinary , Gastronomy, Food, Recipes  in Uttarakhand -88

 आलेख -भीष्म कुकरेती (वनस्पति व सांस्कृति शास्त्री )
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  हलुवा /हलवा /हलुआ के बगैर हिन्दुस्तानी हिन्दू कोई पूजा कार्य समझ ही नहीं सकता।  जब पंडीजी गणेश (पूजा स्थल ) के सामने नैवेद्यम कहते हैं तो सबकी नजर हलवा पर जाती है।  जब कथा या कीर्तन समाप्ति बाद पंडीजी कहते हैं " हां अब चरणामृत और प्रसाद बांटो " तो चरणामृत , आटा या सूजी की पंजरी  , और सूजी का हलवा ही मतलब होता है। व्याह शादियों में पहले जीमण का अर्थ होता था पूरी परसाद। 
     हलवे पर न जाने कितने कहावतें मशहूर हैं धौं।  एक कहावत मेरे चचा जी बहुत प्रयोग करे थे -" अफु स्यु उख हलवा पूरी खाणु अर इख बुबा लूंग लगैक पुटुक पळणु " (लूंग =न्यार बटण ) . हलवा पूरी खाएंगे खुसी व सम्पनता का सूचक है।  पहाड़ियों में मृतक शोक तोडना याने बरजात तोड़ने पर भूड़ा और सूजी तो बनती ही है।  आजकल कहावत भी चल पड़ी है --" एक मोदी तो क्रिकेट लोटत कर से लन्दन में हलवा खा रहा है , दूसरा बैंक लूट कर अमेरिका में हलवा खा रहा है और बेचारा नरेंद्र मोदी व्रत रख रहा है " .
    याने हम हलवा बगैर जिंदगी समझ नहीं सकते हैं।  हलवा याने किसी वस्तु को घी में भूनकर गुड़ /शक़्कर के साथ बाड़ी।  आज दस से अधिक हलवा बनते हैं , खाये जाते हैं और नई नई किस्मे ईजाद हो रहे हैं
   
               अनाज के आटे से बने हलवा

गेंहू , रवा /सूजी ; मकई , चावल , मंडुआ , जौ , मर्सू (चूहा , राजदाना , चौलाई ) , आदि
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              दालों से बगैर आटा बनाये बना हलवा
 
     मूंग , अरहर व चना
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              सब्जियों से बना हलवा

गाजर , लौकी , आलू , जिमीकंद , चुकुन्दर आदि
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      फलों का हलवा

कच्चे पपीते का हलवा , कच्चे केले का हलवा , कद्दू को उबालकर  हलवा , अनन्नास , आम , तरबूज , भुज्यल /पेठा , खजूर , कटहल को मिलाकर
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     अति स्थानीय हलवा

  राजस्थान आदि में मिर्ची या हल्दी का हलवा
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     सूखे मेवों  हलवा
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    नथ -बुलाक जैसे ही हलवा हिन्दुस्तानी नहीं है

     सुनकर आपके हलक में हलवा फंस जाएगा कि जैसे नथ -बुलाक गहने हिन्दुस्तानी ओरिजिन के नहीं हैं वैसे ही हलवा   का जन्म हिन्दुस्तान में नहीं हुआ।  हवा संट हो जायेगी कई हिन्दुओं की जब जानेंगे कि हिंदुस्तान में हलवा सबसे पहले किसी हिन्दू पाकशाला  में नहीं अपितु मुगल रसोई में बनी थी।
      जी हाँ और इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है।  जरा तर्क से काम लें तो पाएंगे कि हमारे पुराने मंदिरों में हलवा नैवेद्य चढ़ाने की संस्कृति नहीं है , ना ही किसी ग्रह , नक्षत्र या राशि को प्रसन्न करने के लिए ज्योतिषी किसी विशेष हलवे की सिफारिश करते हैं ।  प्राचीन संस्कृत में हलवा शब्द ही नहीं है।  जातक कथाओं , जैन कथाओं व आधुनिकतम पुराणों में हलवा जैसे भोजन का नाम नहीं आता है। लपसी का नाम सब जगह आता है।
                 गढ़वाल -कुमाऊं -हरिद्वार में ही देख लीजिये तो पाएंगे कि मंदिरों में अधिकतर भेली चढ़ाई जातीं हैं ना कि हलवा चढ़ाया जाता है।  गढ़वाल -कुमाऊं में क्षेत्रीय देव पूजन में रोट काटा जाता है ना कि गुड़जोळी (आटे का हलवा ) या हलवा।  डा हेमा उनियाल ने भी केदारखंड या मानसखंड में कहीं नहीं लिखा कि फलां मंदिर में हलवा ही चढ़ाया जाता है।  यदि किसी मंदिर में हलवा चढ़ाया भी जाता है तो समझ लो यह मंदिर अभी अभी का है और पुजारी ने अपनी समझ से हलवा को महत्व दिया होगा।  तो अब आप सत्य नारायण व्रत कथा की बात कर रहे हैं ? जी तो इस व्रत कथा का प्रचलन प्राचीन नहीं है जी। लगता है हलवा आने के बाद ही सत्य नारायण व्रत कथा का प्रचलन भारत में हुआ होगा। 
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         तुर्की हलवे का जन्म दाता है

 यद्यपि तुर्की के आस पास के कई अन्य देश भी तकरीर देते हैं कि हलवा उनके देश में जन्म किन्तु अधिसंख्य भोजन इतिहास कार तुर्की को होला का जन्मस्थल मानते हैं।  इस्ताम्बुल वाले तो अभी भी ताल थोक कर कहते हैं हमने हलवाह का अविष्कार किया।  कुछ कहते हैं कि हलवाह तो 5 000 साल पुराना खाद्य है। हो सकता है गोंद , गुड़ , आटे , तेल से बना कोई खाद्य पदार्थ रहा हो।
    लिखित रूप में सबसे पहले तेरहवीं सदी में रचित 'किताब -अल -ताबीख ' में हलवाह की छह डिसेज का उल्लेख है।  उसी काल की स्पेन की एक किताब में भी इसी तरह के खाद्य पदार्थ का किस्सा है।ऑटोमान के सुल्तान महान  सुल्तान सुलेमान (1520 -1566 ) ने तो अपने किले के पास हलवाहन नामक किचन ही मिठाईयाँ पकाने के  लिए बनाया और वहां  कई मिष्ठान  बनते थे।
 लिली  स्वर्ण 'डिफरेंट ट्रुथ ' में बताती हैं कि हलवाह सीरिया से चलकर अफगानिस्तान आया और फिर सोलहवीं सदी में मुगल बादशाओं की रसोई की शान बना और फिर सारे भारत  गया। देखते देखते मिष्ठान निर्माता 'हलवाई ' बन बैठे।  वैसे हलवाई को लाला भी कहा जाता है तभी तो तमिल में लाला का हलवा कहा जाता है।  याने लाला लोग उत्तरी भारत से हलवा को दक्षिण भारत ले गए।  आश्चर्य नहीं होना चाहिए।  तभी तो बंगलौर शहर में मिठाई व्यापार में अग्रवालों का एकाधिकार है।
    हाँ किन्तु उत्तरी भारत के हलवाइयों को इतना भी गर्व नहीं करना चाहिए।  केरल में हलवा प्राचीन अरबी व्यापारी लाये थे। 
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      उत्तराखंड में हलवा

उत्तराखंड में हलवा ने यात्रीयों  द्वारा प्रवेश किया होगा। यात्री अपने साथ या तो सूजी लाये होंगे और चट्टियों में बनवाया होगा या उत्तराखंडी हरिद्वार , बरेली , मुरादाबाद गए होंगे और इस मिष्ठान की बनाने की विधि सीख लिए होंगे।  सूजी का प्रचलन तो सम्पनता के साथ ही आया होगा। सन 1960  तक तो सूजी भी जो कभी कभार बनती थी भी  सौकारों का ही भोजन माना जाता था।  हाँ अब ग्रामीण युवा पूछते हैं बल गुड़जोळी किस खाद्यान या पेय को कहते हैं। 
           
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महाभारत और मेडिकल टूरिज्म में मीडिया प्रतिनिधित्व का महत्व
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(Benefits from Media in Place Branding )
(महाभारत महाकाव्य  में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -18

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   Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Medical Tourism History  )     -  18                 

  (Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--123 )   

      उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 123   

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व विक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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   मेरे नियमित पाठक व विद्वान् समीक्षक श्री गजेंद्र बहुगुणा  ने मेरे द्वारा उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म को महाभारत से जोड़ने पर घोर आपत्ति जताई।  उनका कहना था कि महाभारत कोई प्रमाणिक इतिहास नहीं है और  यदि महाभारत के चमत्कार सत्य थे तो वह टेक्नोलॉजी कहाँ गयी।
        आज उत्तर देने का समय आ गया है।  पहली बात यह है कि मैं मार्केटिंग पर लेख लिख रहा हूँ ना कि इतिहास पर।  मार्केटिंग कुछ नहीं है अपितु एक कला, विज्ञानं व दर्शन का मिश्रण है और हर संवाद (चित्र , शब्द, स्वाद , सूंघने  व स्पर्श से जो अनुभव हो ) मार्केटिंग ही है।  फिर मान भी लिया जाय कि महाभारत महाकाव्य सर्वथा काल्पनिक है जैसे जेम्स हेडली के उपन्यास तो भी यह सत्य है कि यह महकाव्य है ही। महाभारत में जो है उसकी विवेचना या महाभारत का संदर्भ देने  में कोई बुराई नहीं है। महाभारत के उदाहरण देने में कोई कुतर्क भी नहीं है।
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                     उत्तराखंड को महाभारत से लाभ

          महाभारत में उत्तराखंड पर बहुत अधिक लिखा गया है और हस्तिनापुर  पर कम। महाभारत में उत्तराखंड का भूगोल , नदियां , पहाड़ , भूमि , पेड़ , समाज , संस्कृति , दर्शन सभी कुछ मिल जाता है।  महाभारत में उत्तराखंड विवरण से आज भी उत्तराखंड पर्यटन या स्थान छविकरण को लाभ ही मिलता है। महाकवि कालिदास ने महाभारत से विषय उठाकर कई नाटकों की रचना की जिसमे मध्य हिमालय ही केंद्र में हैं। महाभारत के कारण कई प्राचीन संस्कृत व आधुनिक हिंदी नाटकों की पृष्ठभूमि उत्तराखंड ही रही है   महाभारत में उत्तराखंड वर्णन से उत्तराखंड के बारे में कई धारणाएं आज भी हैं और कई धारणाओं ने इतिहास भी रचा है। तैमूर लंग का गढ़वाल पर धावा बोलने प्रयाण के पीछे महाभारत की रची छवि थी कि गढ़वाल में स्वर्ण चूर्ण भंडार व धातु अणु शालाओं की भरमार।  शाहजहां के सेनापति द्वारा गढ़वाल पर आक्रमण के पीछे भी उपरोक्त दोनों धारणाएं थी।  और मजेदार बात यह रही कि दोनों बार घटोत्कच के पत्थर फेंकने की रणनीति ने आक्रांताओं को ढांगू क्षेत्र से भगाया गया।  दोनों बार गढ़वालियों ने घटोत्कच का ही रूप लिया।
              महाभारत में वर्णित तीर्थ बद्रिकाश्रम , गंगोत्री या गंगा महत्व ने उत्तराखंड की छवि को मलेसिया -इंडोनेसिया , ईरान तुरान तक पंहुचाया।  उत्तराखंड यदि हजारों साल पहले ही धार्मिक स्थल बन पाया तो उसके पीछे महाभारत जैसे महाकाव्य या अन्य श्रुतियाँ ही थीं।
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                 महाभारत और  स्थान छविकरण में मीडिया प्रतिनिधित्व का महत्व

      महाभारत , कालिदास साहित्य , ध्रुवस्वामिनी नाटक , हुयेन सांग का यात्रा वर्णन , स्कंदपुराण (केदारखंड ) , तैमूर लंग का लिखवाया /लिखा इतिहास , पीछे बहुत से यात्रियों द्वारा यात्रा वर्णन वास्तव में आज के मीडिया द्वारा उत्तराखंड विषयी जानकारी देना जैसा ही है।  कई टीवी चैनलों में उत्तराखंड संबंधित विषय दिखाना भी महाभारत में वर्णित उत्तराखंड जैसा ही तो है।  स्थान ब्रैंडिंग (मेडिकल टूरिज्म एक भाग है ) हेतु उत्तराखंड पर्यटन के भागीदारियों  को मीडिया प्रतीतिनिधित्व क महत्व समझना आवश्यक है।
  प्रसिद्ध प्लेस ब्रैंडिंग विशेषज्ञ मार्टिन बोइसेन (2011 ) ने सिद्ध किया कि मीडिया द्वारा किसी भी स्थान की छवि वृद्धि या छवि बिगाड़ने में अत्यंत बड़ी भूमिका निभाते हैं।  इसका अनुभव हमें तब होता है जब उत्तराखंड में जब यात्रा मार्ग पर सड़क टूट जाती है और टीवी मीडिया सुबह से शाम तक ब्रेकिंग न्यूज द्वारा ऐसा दिखलाता है जैसे फिर से केदारनाथ डिजास्टर पैदा हो गया है।  बहुत से संभावित पर्यटक अपनी उत्तराखंड यात्रा स्थगित कर देते हैं।  किन्तु फिर यही मीडिया उत्तराखंड की बाड़ियों में बर्फबारी (बर्फ का राक्षस ही सही ) की सूचना देता है तो हिम का आनंद लेने वाले उत्तराखंड की ओर गमन करने लगते हैं।  मसूरी पर्यटकों से भर जाता है।
       सचिन तेंदुलकर या महेंद्र सिंह धोनी का मसूरी में घर खरीदना या उमा भारती का उत्तराखंड में आश्रम होना  मास मीडिया द्वारा सूचना उत्तराखंड पर्यटन या निवेश हेतु सकारात्मक समाचार बन जाता है।पतांजलि विश्वविद्यालय आदि का मीडिया में स्थान पाना उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म हेतु सकारात्मक पहलू है।
    किसी प्रसिद्ध व्यक्ति द्वारा उत्तराखंड भ्रमण जैसे प्रधान मंत्री द्वारा केदारनाथ यात्रा का विवरण मीडिया द्वारा देना एक लाभकारी सूचना थी।  केदारखंड में डिजास्टर के बाद केदारनाथ यात्रा की जो नकारात्मक छवि बनी थी वह छवि मोदी जी की यात्रा से धूमिल पड़ गयी है और अब दूर  दूर  के यात्री केदारनाथ यात्रा हेतु तैयार हो गए हैं।
     अभी कुछ दिन पहले केदारनाथ मंदिर में कपाट बंद समय बर्फबारी  में कुछ अधिकारी या नेताओं द्वारा बर्फबारी में भी कपट खोलने की चित्र सहित सूचना मीडिया में फैली।  हमारे कई पत्रकार जो उत्तराखंड पर्यटन को ऊंचाई पर देखना चाहते हैं और स्वयं कई धार्मिक पर्यटन स्थलों के बारे में सूचना देने बहुत खोज व परिश्रम करते हैं ने इस घटना नकारात्मक पहलू को सोशल मीडिया में प्रचारित करना शुरू कर दिया ।   आधुनिक प्लेस ब्रैंडिंग से अपरिचित इन  विद्वानों ने शीतकाल में केदारनाथ कपाट खोलने पर इंटरनेट मीडिया में प्रश्न चिन्ह लगाने शुर कर दिए।  जब कि यह सूचना तो समस्त भारत के कोने कोने में जानी चाहिए थी कि अब केदारनाथ यात्रा सुरक्षित यात्रा है।  वास्तव में शीतकाल में केदारनाथ कपाट खुलने पर  कई  संवेदनशील व उत्तराखंड प्रेमी पत्रकार द्वारा नकारात्मक रुख अपनाना यह दर्शाता है कि तत्संबन्धी विभाग 'प्लेस ब्रैंडिंग में मीडिया रिप्रेंजेंटेसन ' का महत्व नहीं समझ सके।  अधिकारियों को पत्रकारों को अवगत कराना चाहिए था  व उन्हें विश्वास दिलाना चाहिए था कि शीत  काल में केदारनाथ कपाट खोलने का अर्थ है अब हम नई से नई टेक्नोलॉजी प्रयोग कर रहे हैं।  प्लेस ब्रैंडिंग के भागीदारों को भी (उत्तराखंड के पत्रकार व राजनीतिक कार्यकर्ता भी भागीदार हैं -स्टेकहोल्डर ) प्लेस ब्रैंडिंग/स्थान छविकरण की समझ में बदलाव लाना आवश्यक है।  आज प्लेस ब्रैंडिंग में भारी बदलाव आ चुका है।
   प्लेस ब्रैंडिंग विशेषज्ञ जैसे कैरोल व मैककॉम्ब्स (2003 ) का सही कहना है कि मीडिया कवरेज जितनी अधिक हो स्थानछवि वृद्धि या छवि कमी को उतना लाभ -हानि होता है।  मीडिया समाचार में वर्णित स्थान गुणों से ग्राहक स्थान छवि बनाता जाता है।

            मूर्धन्य लेखकों /पत्रकारों को उत्तराखंड से बाहर के पत्र पत्रिकाओं में लिखना चाहिए

  प्लेस ब्रैंडिंग पिता  एस. ऐनहोल्ट प्लेस ब्रैंडिंग के भागीदारों को सदा आगाह करते हैं कि प्लेस ब्रैंडिंग में जनसम्पर्क सूचना सबसे अधिक कारगार हथियार है।  उत्तराखंड के लेखकों को अन्य प्रदेशों , देशों के पत्र पत्रिकाओं में उत्तराखंड संबंधी लेख समाचार प्रकाशित करने या करवाने चाहिए।
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             मीडिया को कंट्रोल नहीं किया जा सकता है

   बहुत बार मीडिया स्थान विषय के बारे में नकारात्मक सूचना देते हैं। प्लेस ब्रैंडिंग विद्वान् मर्फी का कहना है कि स्थान छवि भागीदारों को इन नकारात्मक सूचनाओं को एकदम से खारिज नहीं करना चाहिए अपितु अन्य ब्रैंडिंग हथियारों से सकारात्मक छवि हेतु आवश्यक कदम उठाने चाहिए।
        मीडिया को कंट्रोल नहीं किया जा सकता है किन्तु मीडिया प्रतिनिधित्व विधि द्वारा टूरिज्म  विभाग वांछित सूचना मीडिया में दिलवाते ही हैं।


 
     
             



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Tourism and Hospitality Marketing Management  History for Garhwal, Kumaon and Hardwar series to be continued ...

उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन श्रृंखला जारी …

                                    References

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
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  उत्तराखंड परिपेक्ष में गुलाब जामुन का इतिहास     
 
  उत्तराखंड में कृषि व खान -पान -भोजन का इतिहास -- 89 

  History of Agriculture , Culinary , Gastronomy, Food, Recipes  in Uttarakhand -89

 आलेख -भीष्म कुकरेती (वनस्पति व सांस्कृति शास्त्री )
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  गुलाब जामुन आज उत्तराखंड का मुख्य मिष्ठानों में गिना जाता है।  लेकिन गुलाब जामुन के अर्थ में ना तो गुलाब है ना ही जामुन।  गुलाब जामुन तीन फ़ारसी शब्दों के मेल से बना है।  गोल /गुल +अब +जामुन।  गोल का अर्थ है फूल , अब माने पानी और जामुन माने फळिंड।  याने जो जामुन जैसे दिखे और स्वाद में गुलाब जल जैसा। गुलाब जामुन कुछ कुछ अरबी मिष्ठान ' लुक़मत अल -कादी ' जैसा है किन्तु अवयव अलग अलग।  'लुक़मत  अल -कादी ' के लिए लोट के गोलियों  को तलकर  शहद की चासनी में छोड़ा जाता है जब कि गुलाब जामुन खोया के लोट के तले गोलियों को गुड़ या चीनी की चासनी में छोड़ा जाता है।  भोजन इतिहासकार माइकल क्रोंड का कहना है कि 'लुक़मत अल -कादी'  और गुलाब जामुन दोनों फ़ारसी शब्द हैं और दोनों का जन्म स्थान ईरान है। गुलाब जामुन ईरान से हिंदुस्तान पंहुचा।
     क्रोंडल के अनुसार लोककथा है कि बादशाह शाहजहां के फ़ारसी शाही रसोइये ने गलती से  अकस्मात गुलाब जामुन  (लुक़मत अल -कादी की जगह ? )  बनाया और शाह जहां के रसोई की शान बनकर हिन्दुस्तान के जिव्हा प्रिय मिष्ठान बन गया।  या हो सकता है बादशाह शाहजहां ने मुमताज महल के किसी बच्चे  होने की ख़ुशी में खानशामाओं को कोई नई मिठाई बनाने का आदेश दिया हो और गुलाब जामुन का जन्म हो गया हो। 
          अधिकांश इतिहासकार यही कहते हैं की गुलाब जामुन बादशाह शाह जहां के समय भारत में आया या जन्म लिया और आज भारत ही नहीं कई देशों में गुलाब जामुन मिष्ठान एक उद्यम है।
                                उत्तराखंड में गुलाब जामुन

      वैसे हो सकता है कि मंदिरों के पंडे , धर्माधिकारी जब जाड़ों में जजमानों को मिलने मैदानों में निकलते रहे होंगे तो किसी जजमान ने उन्हें गुलाब जामुन खिलाया होगा ही।  पर हमें  कहीं  यह वृत्तांत नहीं मिलता है।
                  जहां तक उत्तराखंड का प्रश्न है हरिद्वार में सबसे पहले गुलाब जामुन हलवाइयों ने बनाना शुरू किया होगा फिर धीरे धीरे सरकते सरकते गढ़वाल पंहुचा होगा।  हो सकता है गुलाब जामुन ने मुरादाबाद या पीलीभीत से अल्मोड़ा की ओर रुख किया हो।  एक बात तय है कि जब पहाड़ी उत्तराखंड में गुड़ या चीनी खरीदने की तागत आयी होगी तभी गुलाब जामुन को भी पंख लगे होंगे।
      गढ़वाल राइफल , कुमाऊं रेजिमेंट का गुलाब जामुन प्रसारण में हाथ रहा होगा किन्तु  कितना हाथ  रहा है यह खोज का विषय है।
                            कोटद्वार  , भाभर , दुगड्डा , डाडामंडी में तो तय है कि बिजनौर से आये  बनियों  ने ही गुलाब जामुन बनाना शुरू किया होगा।  श्रीनगर में तो तय है जैन व्यापारियों ने गुलाब जामुन का परिचय गढ़वालियों को कराया होगा। 
             
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Bhishma Kukreti

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जातक कथाओं में उत्तराखंड टूरिज्म


(  जातक कथाओं में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -19

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   Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Medical Tourism History  )     -  19                 

  (Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--124 )   

      उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 124   

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व विक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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  जातक कथाएं जातक कथाओं का संग्रह बुद्ध निर्वाण के बाद शुरू हुए किन्तु उनमे बहुत सी कथाएं काशी -कौशल में बुद्ध के समय से पहले से ही चलती आ रहीं थीं जिन्हे बुद्ध ने अपने व्याख्यानों में उदाहरण हेतु सुनाया था।  पाली साहित्य के इतिहासकार भरत सिंह अनुसार कुछ जातक कथाएं बिक्रमी संबत से दो शतक पहले लिपबद्ध हो चुके थे व  बाकी बिक्रमी संबत से चौथी सदी तक लिपिबद्ध होती रहीं। जातक कथाएं बुद्ध के पूर्व जन्म की कथाएं अधिक हैं।
   चूँकि बुद्ध का उत्तराखंड से सीधा संबंध न था तो उत्तराखंड का वर्णन जातक कथाओं में न मिलना स्वाभाविक है किन्तु कथाओं के संकलनकर्ताओं का उत्तराखंड परिचय था अवश्य।

           जातक कथाओं में उत्तराखंड के कई पर्वत श्रेणियों का वर्णन मिलता है।

              जातक कथाओं में उत्तराखंड वनस्पति, औषधि  और टूरिज्म

     

   डा डबराल का मत है कि महावेस्संतर जातक में भाभर क्षेत्र के वनों व वनस्पतियों का जितना सुंदर वर्णन मिलता है उतना अन्य भारतीय साहित्य में मिलना दुर्लभ है।

 जातक कथाओं में दक्षिण उत्तराखंड की वनस्पतियों में कुटज , सलल , नीप , कोसम्ब , धव , शाल , आम , खैर , नागलता पदम् , सिंघाड़े , धान , मूंग। कंद -मूल , कोल , भल्लाट बेले , जामुन बिलाली , तककल जैसे वनस्पति का उल्लेख मिलता है।

     महाकपिजातक खंड ४ में एक कथा अनुसार गंगा जी में बहते एक  आम चखकर वाराणसी नरेश उस आम के मूल स्थान को ढूंढते उत्तराखंड के उस वन में पंहुचा जहां से वह आम पंहुचा था।

       सिंहली में लिखित महाबंश (पृष्ठ 27 ) अनुसार सम्राट अशोक को मानसरोवर का गंगाजल , , उसी क्षेत्र का नागलता की दातुन , आंवला , हरीतकी की औषधियां व आम बहुत पसंद थे और सम्राट अशोक उन्हें मंगाते थे।

         इससे साफ़ पता चलता है कि अशोक काल में उत्तराखंड से औषधि निर्माण  औषधि अवयव निर्यात आदि प्रचलित था।

       

         आखेट व मांश निर्यात


   जातक कथाओं में उत्तराखंड के आखेट हेत वनों व उनमे मिलने वाले जंतुओं का वर्णन मिलता है।  उत्तराखंड के भुने हुए मांश के लिए वाराणसी वासी तड़फते थे और आखेट हेतु उत्तराखंड पंहुचते थे। दास भी खरीदते थे।  (भल्लाटिय व चंदकिन्नर जातक )

                व्यापार

 भाभर क्षेत्र में अन्न का व्यापार अधिक था।


       विद्यापीठ और ऐजुकेसन टूरिज्म


  तक्षशिला , नालंदा के अतिरिक्त  उत्तराखंड में भी कई विद्यापीठ थे।  जहां बाहर से छात्र विद्याध्ययन हेतु आते थे। छात्र व गुरु अपने लिए पर्ण शालाएं निर्माण करते थे। एक कथा में एक अध्यापक पांच सौ छात्र लेकर उत्तराखंड आये और विद्यापीठ स्थापित किया (तितिरि जातक )।  छात्रों के भोजन हेतु माता पिता तंडूल आदि भेजते रहते थे।  निकट निवासी भी विद्यार्थियों की सहायता करते थे।


   आश्रम व नॉलेज  टूरिज्म


  उत्तर वैदिक काल में भी उत्तराखंड में गंगा द्वार से लेकर बद्रिका आश्रम तक गंगा किनारे तपस्वियों दवा आश्रम स्थापित करने व विद्यार्थियों को ज्ञान देने की प्रथा चली आ रही थी।  जातक कथाओं में आश्रम संस्कृति पर भी साहित्य मिलता है।

 

                विद्या निर्यात व औषधि निर्यात


    जातक कथाओं में वर्णित उत्तराखंड वृत्तांत से पता चलता है कि बुद्ध काल से पहले व पश्चात उत्तराखंड धार्मिक पर्यटन, आखेट पर्यटन , विद्या पर्यटन व निर्यात , वनस्पति निर्यात व औषधि निर्यात के लिए प्रसिद्ध था।  जहां निर्यात वहां पर्यटन , जहां कच्चा माल  सुलभ हो वहां पर्यटन विकसित होता ही है।

     प्रत्येक पर्यटन मेडिकल व्यापार व मेडिकल पर्यटन को भी साथ में ले ही आता है।  यदि आखेटक आखेट हेतु भाभर प्रदेश आते थो अवश्य ही उन्हें स्थानीय मेडिकल सुविधा की आवश्यकता पड़ती ही होगी जो तभी संभव हो सकता था जब उत्तराखंड में औषधि ग्यानी रहे होंगे। 

     

       


Copyright @ Bhishma Kukreti   20 /2 //2018 



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उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन श्रृंखला जारी …

                                    References

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
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