Author Topic: Articles By Bhisma Kukreti - श्री भीष्म कुकरेती जी के लेख  (Read 1123437 times)

Bhishma Kukreti

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 भरच्यांद , भड्यांद  तून लगांद , पित्यांद  अंग्रेजी-शब्द  -गढ़वली में  परिभाषित करते व्यंग्य  शब्दकोश  B-54
 
   (English -Garhwali  Dictionary of Satire , Sarcasm,  Aggravating , Galling , Roasting  Definitions   )
 (गढ़वाली ,  व्यंग्य,  हंसी , जोक्स ,  चिढ़ाते , धृष्टता करते ,ठट्टा लगाते  , ताना मारते , झिड़कते शब्द -परिभाषा शब्दकोश , व्यंग्यकोश  )
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Khadi,खादी = भारतम राजनीतिक पाखंड को एक  नाम
 Kindergarten,किंडरगार्टन, बालबाड़ी  - छौंद  ब्वे बाबुं का बच्चों कुण अनाथाश्रम
Kiss,भुक्की = कबि कबि यु तुमर भाग्य बंद कर सकद
Knife,चक्कू = हरेक का पैथर लटक्यूं रौंद , हाँ पता छह कि ना यांकी गारंटी नी
Knowledge, ज्ञान = अफ़ु दीणै इच्छा हूंद , दूसर मांगन लीण म औसंद आंद
Laboratory ,लैब - सरकारी अनुदान लीणो माध्यम
Labor , श्रमिक = नेताओं , साहित्यकारों कुण खिल्वण
Lady,जनानी = दुसराकी  भली लगदी
Lake,झील , ताल = कवियों कुण उपमा माध्यम
Lamb,ढिबर - अधिकांश वोटर्स



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गढ़वाली हास्य , गढ़वाली व्यंग्य , ताना मारते , चिढ़ाते , जलाते , गढ़वाली,  व्यंग्य, मजाक उड़ाते गढ़वाली व्यंग्यकोश  , Sarcastic definitions in Garhwali

Bhishma Kukreti

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मूळी माई : याने ढांगू की ब्वान वळि  माई

ढांगू की लोक कला व कलाकार  - 1

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संकलन - भीष्म कुकरेती
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  माई शब्द हमारे क्षेत्र में मंदिर या मठ में स्त्री महंत को कहते हैं या जिस स्त्री ने संन्यास ले लिया हो।  ऐसी ही माई थीं  कौंदा (बिछला  ढांगू ) की मूळी माई।  बाल विधवा होने के बाद मूळी ने सन्यास ले लिया था याने तुलसी माला ग्रहण कर लिया था किन्तु कोई मंदिर ग्रहण नहीं किया था।  मूळी माई तिमली डबराल स्यूं के प्रसिद्ध व्यास श्री वाणी विलास डबराल की बहिन थीं या  मुंडीत  की थीं  व कुकरेती ससुराल।  मूळी नाम शायद विधवा होने या मूळया होने के कारण पड़ा  होगा। 
 पूरे ढांगू (मल्ला , बिछले , तल्ला ) में वे मूळी से अधिक ब्वान वळी माई से अधिक प्रसिद्ध थीं।  ढांगू के हरेक गाँव में उनकी जजमानी थी।  वे बबूल (गढ़वाली नाम ) का ब्वान (झाड़ू ) बनाने में सिद्धहस्त थीं व हरेक गांव में कुछ ब्वान लेजाकर बेचतीं भी थी।  ब्वान से लोग उन्हें चवन्नी या दो आना या बदले में अनाज  दाल  आदि देते थे।  अन्य माईयों  की तरह वे भीख नहीं मांगती थीं।  जनानियां उन्हें प्रेम से भोजन पानी देतीं थीं व अपने यहाँ विश्राम करने में धन्य समझतीं थी।  उनके बनाये ब्वान में कला झलकती थीं याने उनकी अपनी शैली /वैशिष्ठ्य होता था । 


Bhishma Kukreti

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खंड बिछला ढांगू की लोककलाएं कला व कलाकार

 ढांगू गढ़वाल की लोककलाएं व भूले बिसरे कलाकार - 2
(श्री व जी नहीं लगाए हैं समाहित समझिये )
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संकलन - भीष्म कुकरेती
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  खंड गंगा तट पर दाबड़ , कांडी , अमोला से घिरा गाँव है।  आज मुख्यतया बड़थ्वालों का गाँव कहा जाता है।
   खंड की मुख्य कलाएं इस प्रकार हैं -
संस्कृति - संस्कारो से संबंधित कला अभिव्यक्ति में - विवाह में जन्मने , नामकरण , मुंडन  आदि के वक्त पंडितों द्वारा गणेश निर्माण , चौकी सजावट सामन्य संस्कारी कलाएं कन्हड में जीवित है , शादी में हल्दी हाथ ,
भी सामन्य सांस्कृतिक कला आम गढ़वाली गांव की भांति खंड गांव की संस्कृति  का अंग है। स्त्रियां  लोक गीत गातीं  थीं व कई गीत स्थानीय घटनाओं पर आधारित रच कर  बौण  व पुंगड़ियों  में गति ही थीं।  लोक खेल भी गढ़वाल जैसे ही थे। 
   पहले चैत  में नाट्य व गीत कला खंड के सांस्कृतिक कला अंग थे।  जंतर -मंतर कला  भी गढ़वाल को प्रतिनिधित्व करते थे।  बादी बादण  नाच गीत के लिए प्रसिद्ध थे ही।
   औजी - ढोल बादक दाबड़ बिछले ढांगू के थे पीतांबर दास परिवार से थे व दूसरी तीसरी साखी में सिंकतु , सैना , चमन लाल , पंकज हुए
   मंदर , चटाई निर्माण - सन 60 -65  तक गाँव में ही बनते थे।
 ब्वान - खंड में ही निर्मित होते थे , कौंदा की मूळी माई भी आती थीं
दबल -ठुपरी = भ्यूंळ  की खंड में ही निर्मित होते थे।  किंतु बांस की ठुपरी , दबल हेतु हथनूड़ व बागी (बिछले ढांगू ) पर निर्मभर थे।
मिटटी के दिए ,हिसर  , मृदा बर्तन - पहले (शायद स्वतन्त्रता से पहले व कुछ समय बाद भी ) - हथनूड़ के कलाकारों पर निर्भर थे।
दर्जीगिरी - पहले औजी ही थे बाद में सिमाळु  खंड  के उमानंद बड़थ्वाल प्रसिद्ध दर्जी हुए ।  देहरादून के प्रसिद्ध टेलर रोशन बड़थ्वाल इसी परिवार के हैं।
  टाट -पल्ल -नकपलुणी - बिछला ढांगू में घने जंगल होने के कारण गोठ प्रथा न थी।  बिछला ढांगू वाले हर्मियों , वर्षा ऋतू में अपने जानवर मल्ला ढांगू भेज देते थे अतः  टाट -पल्ल -नकपलुणी  कला ना के बराबर थी।  घर या गौशाला के आगे हेतु   छपर हेतु पल्ल बागी वाले या हथनूड़  वाले कलाकार थे
उरख्यळ।  छज्जे के दास - ठंठोली (मल्ला ढांगू पर निर्भर  )
मकान के पत्थर गांव के पास या कलसी कुठार (मल्ला ढांगू ) पर निर्भर
भवन निर्माता /ओड - बागी के
सुनार - जसपुर व पाली (मल्ला ढांगू )
लोहरगिरि व टमटागिरी - बड़े कार्य हेतु जसपुर पर निर्भर छोटे कार्य टंकयाण , अदि हेतु गाँव के लोहार गबुल थे।
तिबारियां थी।  पूरी जानकारी हासिल न हो सकी
पहले लगभग हर परिवार से कर्मकांडी पंडित व जंतर मंतर के  पंडित थे। 
पंडित मुकंद राम बड़थ्वाल , दैवेज्ञ (1887 -1979 खंड के ही थे जिन्होंने कई ज्योतिष पुस्तकें रचीं
( खंड के उद्यान कृषि पुरोधा सत्य प्रसाद बड़थ्वाल की दी सूचना पर आधारित )

Bhishma Kukreti

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झैड़ (तल्ला ढांगू ) की  लोक कला , शिल्प व भूले बिसरे लोक कलाकार
 
    ढांगू संदर्भ में गढ़वाल की  कलाएं व भूले बिसरे कलाकार श्रृंखला  - 3
(चूँकि आलेख अन्य पुरुष में है तो श्रीमती , श्री व जी अपरिहार्य नहीं है )
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संकलन - भीष्म कुकरेती
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झैड़  तल्ला ढांगू का एक महत्वपूर्ण गाँव है जो मैठाणियों  का गाँव से अधिक जाना जाता है।  झैड़ की पूर्व व पश्चिम उत्तर  सीमाएं क्रमश: चंद्रभागा व गंगा नदियों से घिरी हैं व मंजोखी  , चैनपुर, नांद , कोयला , खैड़ा सीमा पर लगे गांव हैं।   
अन्य गढ़वाल क्षेत्र की भाँति (बाबुलकर द्वारा विभाजित  ) झैड़  में भी निम्न कलाएं व शिल्प बीसवीं सदी अंत तक विद्यमान थे. अब अंतर् आता दिख रहा है। 
   अ - संस्कृति संस्कारों से संबंधित कलाभ्यक्तियाँ
   ब -   शरीर अंकन व अलंकरण कलाएं व शिल्प   
 स -फुटकर। कला /शिल्प जैसे भोजन बनाना , अध्यापकी , खेल कलाएं , आखेट, गूढ़ भाषा वाचन  (अनका ये , कनका क, मनका म ललका ला =कमला ,  जैसे  ) या अय्यारी भाषा   आदि
   द  - जीवकोपार्जन की पेशेवर की  व्यवसायिक  कलाएं या शिल्प व  जीवनोपयोगी शिल्प व कलायें   
       अ - संस्कृति संस्कारों से संबंधित कलाभ्यक्तियाँ   
        झैड़ , ढांगू में  संस्कृति व सब्सकारों संबंधी  कलाएं कुछ आज भी हैं कुछ समाप्ति हो गयी हैं - बच्चों के जन्म ,नामकरण , वर्षफल , छट्टी , जनेऊ , चुड़कारम संस्कार , विवाह संस्कार में कर्मकांडी अंकन  । जन्मपत्री , चौकी , चौक्ला , दिवार , पूजन , धूळि अर्घ्य , व विवाह कर्मकांड में विशेष कलाएं वा नाट्य मंचन।  मृत्यु संस्कार   में कई तरह की कलाओं का प्रदर्शन होता है। झैड़ , ढांगू में संस्कृति के अंतर्गत देवी देवताओं की मूर्तियां या प्रतीक निमर्ण या थर्पण ; मंदिर , क्षेत्रपाल देव; व्रत त्यौहार , उत्स्व , मेलों , लोक नृत्य व संगीत, लोक नाट्य , लोकअभिन्य , बच्चों के खेलने के उपकरण निर्माण या खेल, भित्ति चित्र , गोबर, कमेड़ा  या मिटटी से लिपाई मिटटी /गोबर मूर्ति निर्माण व थर्पण , मुखौटे विशेषतः रामलीला या लोक नाट्य उत्स्व (बादी , बदण कृत ) ; पत्तों के उपकरण (जैसे  पत्तल , पुड़की निर्माण ) जंतर मंतर व तांत्रिक क्रियाएं आदि कलाएं , शिल्प मुख्य थे । 
 जहां तक झैड़ का  पंडिताई , ज्योतिष , कर्मकांड से संबंध है झैड़ में हर परिवार से पंडित , ज्योतिषी व वैद्य हुए हैं  जगतराम मैठाणी , अनसूया प्रसाद मैठाणी , सच्चिदानंद मैठाणी प्रसिद्ध वैद्य थे व लीला नंद मैठाणी।  शाश्तार्थ भी होते थे ब्रिटिश काल में भी। 
पंडिताई में जगतराम मैठाणी  ,गोकुल देव  मैठाणी , नरोत्तम प्रसाद , श्रीनन्द मैठाणी , शंभु प्रसाद  व  कई कर्मकांडी पंडितों ने व्यास वृति (भागवत पाठ - भक्तदर्शन मैठाणी , मधुसुधन मैठाणी ) में अच्छा नाम कमाया था। 
     ब -   शरीर अंकन व अलंकरण कलाएं व शिल्प     
    विवाह अवसरों में हल्दी हाथ समय , वर वधु को उबटन , हल्दी लगाना ; वर वधु को सजाना , मेंहदी (लाइकेन को पीसकर ) लगाना, पैरों में अल्टा लगाना;   हाथ , कान , नाक , हाथ व पैरों व कमर में विभिन्न धातु या  वनस्पति अलंकार   पहनने व निर्माण की वृति झैड़ , ढांगू में भी थी   व है।  शरीर गोदने  की प्रथा कम थी।    वैष्णवी तिलक लगाना या शैव्य त्रिपुण्ड लगाना  , माथे पर , सिंगाड़ व ढोल पर पिठाई लगाना भी आम कला प्रदर्शन है।  आभूषण हेतु शरीर अंग वेधन सामन्य कला तो नहीं है किन्तु  आम संस्कृति भाग है।  मुख पर मेक अप बीसवीं सदी में झैड़ , ढांगू में दुर्लभ ही था।  आँखों पर सुरमा लगाना भी सामन्य था। 
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    स -फुटकर। कला /शिल्प जैसे भोजन बनाना , अध्यापकी , खेल कलाएं , आखेट  आदि
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 झैड़ ढांगू में मैठाणी  जाति को पंडिताई  प्राचीन समय में (प्रथम वर्ग के ब्राह्मण ) , सर्यूळ ( फौड़  या सामूहिक भोजन बनाना ), जंतर -मंतर , झाड़खंडी कार्य  हेतु बसाया गया था।  झैड़ के मैठाणी बिछला ढांगू व तल्ला ढांगू  में सर्यूळ कार्य भी करते थे।
     ब्रिटिश काल में तो स्कूलों का निर्माण शुरू हो गया था।  किन्तु पहले मैठाणी पंडित अपने बच्चों को घर पर ही संस्कृत सिखाते थे व  ज्योतिष ज्ञान , कर्मकांड ज्ञान भी सिखाते थे।  इसी तरह झाड़खंडी विद्या भी सिखाते थे।  सूचना मिली है कि कर्मकांड व ज्योतिष की टीका बहुत पहले गढ़वाली में ही होती थी।
    जब ब्रिटिश सरकार ने स्कूल शुरू किये तो कर्मकांडी ब्राह्मणों को ही अध्यापकी वृति दी गयी थी तो अवश्य ही झैड़ के पंडितों को अध्यापकी वृति मिली होगी ही।  यही कारण है कि झैड़ में आज भी अध्यपक वृति की ओर हर परिवार का रुझान है शायद ब्रिटिश काल से अब तक कम से कम 50 अध्यापक तो झैड़  से हुए ही होंगे।  एक बार लोक कहावत थी कि झैड़ में पत्थर उठाओ तो  अध्यापक व वैद्य मिल जायेंगे।   
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     द  - जीवकोपार्जन की पेशेवर की  व्यवसायिक  कलाएं या शिल्प व  जीवनोपयोगी शिल्प व कलायें     
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   बीसवीं सदी में निम्न शिल्प व कलाकार झैड़ , ढांगू में प्रसिद्ध हुए (जो जानकारी हासिल हुयी ) -
यह ध्यान रहे कि ढांगू में जाती प्रथा ु तरह जकड़न वाली ना थी जैसे भारत के मैदानों में अतः कई शिल्प जो मैदानों में ब्राह्मण व राजपूत नहीं अपनाते थे गढ़वाल में ब्राह्मण व राजपूत भी कई तरह के शिल्प प्रवीण थे। 
  दन्न , पंखी निर्माण, कंबल निर्माण  - रामशरण मैठाणी
 पर्या , परोठी , बरोळी निर्माण - बलदेव प्रसाद मैठाणी
ब्वान( गढ़वाली नाम बबूल घास  का झाड़ू )  - अधिकतर हरेक परिवार स्वयं निर्माण करता था व कौंदा की  मूळी माई व झैड़ इ ही शिल्पकारजैसे झाबा , भादु  आदि निर्माण करते थे।
हळ -ज्यू - बहुत से मैठाणी व शिलकपकार शिल्पी
बढ़ई गिरी (मकान व अन्य विशेष काष्ठ वस्तुतएं - मूसा , भादु
भ्यूंळ की टोकरी , दबल तो हरेक परिवार स्वयं निर्मित करता था व इसी तरह कई शिल्प जैसे न्यार , चारपाई  आदि वस्तुएं भी हर परिवार स्वयं इंतजाम करता था।   
बांस के दबल , सूप , टोकरी , कंडी - दुसरे गाँव काटळ (बिछली  ढांगू ) के थामेश्वर और झैड़  के आत्माराम मैठाणी। मंजोखि के शिल्पकार भी कई कार्य करते थे।
मकान निर्माण - झैड़ के भादु , हन्दा , झाबा  आदि मंजोखी (बिछला ढांगू ) के कई शिल्प विशेषज्ञ  झैड़ आकर मकान निर्माण करते थे।
 छत पत्थर खनन व पत्थर कटान -  मकान छत हेतु पटाळ (पत्थर )  खान झैड़ में ही थी व झैड़ के जतनी विशेषज्ञ थे। 
उरख्यळ /ओखली , छज्जे के दास - ठंठोली गांव  (मल्ला ढांगू ) पर निर्भर
छज्जा -पैडळस्यूं पर निर्भर
  सोने चांदी के अलंकार हेतु झैड़ वाले जसपुर , पाली (मल्ला ढांगू ) पर अधिक निर्भर थे
 झैड़ में लोहार भी थे किन्तु बड़ा काम बाहर ही होता था।  पीतल , कांसे वर्त्तन या घांडी हेतु जसपुर पर निर्भर। 
तांत्रिक , मांत्रिक , झाड़खंडी - गोकुलदेव मैठाणी , रामसरण मैठाणी , महानंद मैठाणी प्रसिद्ध थे।
घड्यळ /जागरी में गोकुलदेव मैठाणी , उरबी दत्त मैठाणी , ललिता प्रसाद मैठाणी, नाथूराम मैठाणी  का नाम आज भी  लिया जाता है.
नाथूराम मैठाणी व गोकुलदेव मैठाणी पुछेर /भविष्यवक्ता थे ,
नाथूराम मैठाणी नरसिंग जागर  विशेषज्ञ थे।   
हर परिवार गेंहू की टहनियों से टोकरी बनाते थे। 
 
 गंगा किनारे होने व घने जंगल निकट के कारण  तैराकी , मच्छी मारना ,    मुर्गा फांसना, आखेट मनोरंजन  कलाये सम्मलित थीं। 
झैड़ में काष्ठ नकासियुक्त तिबारियां व पत्थर की तिबारियां भी थी जैसे भोला दत्त (गोकुलदेव , गोविंदराम मैठाणी ) की तिबारी।  यह मकान मिट्टी के साथ उरद के मस्यटू (पीठ ) से भी  चिना  गया था। 
भोला दत्त मैठाणी , चित्रमणि मैठाणी मकान की भी काष्ठ कलाओं  सज्जित तिबारियां थीं जिसमे शहतीर (जो छत को बंधे रखता था में कई देवताओं जैसे  गणेश व नजर न लगने वाला तांत्रिक आकृति , पशु पक्षी (हाथी  , शेर , मोर , मिरग ) , फूल पत्ती (खड़े  सिंगाड़ में कमल फूल  व रेखा चित्र)    दोहरी रेखाएं , कलस आकृति  , गोल आकर आदि     (सभी देवेंद्र मैठाणी सूचना अनुसार ) , थीं
बादी -बादण - बिजनी तल्ला ढांगू के हीरा बादी प्रसिद्ध थे।  हीरा बादी लांग खेलते थे  व नाटक स्वांग , गायन नाच का कार्य बखूबी करते थे। 
ढोल बादक - दाबड़  (बिछला ढांगू ) के पीतांबर दास आदि आज इनके उत्तराधिकारी यह कार्य संभाले हुए हैं।
गोठ संस्कृति न होने से टाट -पल्ल कला नहीं थी। 
 तेल पिरोने हेतु पहले झैड़ में ही कुल्हड़ थे किन्तु बाद में नांद , कुला खैड़ा पर निर्भर थे।
जब तक सिंगटाळी  पुल नहीं निर्मित हुआ था तो गंगा पार करने हेतु नाव चलती थीं किन्तु नाव या ठोपरी  निर्माण व मल्लाह सिंगटाळी (टिहरी गढ़वाल ) के शिल्पी होते थे
प्राचीन काल में दीवारों की लिपाई हेतु लाल मिट्टी , गोबर व कमेड़ा प्रयोग होता था , प्रत्येक महिला पारंगत होती थी
भीड़ -पगार (खेतों की दीवारें ) हर व्यक्ति अपने आप चिनता  था व बड़े कार्य हेतु व्यवसायिक शिल्पी (जाति भेद नहीं ) काम आते थे।
प्राचीन काल याने ब्रिटिश काल तक खेत  जंगल को काटकर याने 'कटळ -खणन'  विधि द्वारा तैयार किये जाते थे। 
मेरे अनुभव में कविता अंताक्षरी के अच्छे ज्ञाता - मोहन लाल मैठाणी ,  व राजेंद्र मैठाणी थे  तो देवन्द्र मैठाणी  भी अच्छे कविता अंताक्षरी ज्ञाता थें
स्त्रियां  गीत मौसम में नाच गान करती थीं व स्वांग भी करते थे तथा वन व खेतों में गीत भी गातीं थीं।  पहेलियाँ भी पूछीं जाती थीं। 
        (संदर्भ देवेंद्र मैठाणी (भू पू पोस्ट मास्टर ) की टेलीफोनिक सूचना )
Copyright @ Bhiashma  Kukreti ,Dec .  2019

Bhishma Kukreti

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   ठंठोली (मल्ला ढांगू ) की  लोक कला , शिल्प व भूले बिसरे लोक कलाकार
 
    ढांगू संदर्भ में गढ़वाल की  लोक कलाएं व भूले बिसरे कलाकार श्रृंखला  - 4
(चूँकि आलेख अन्य पुरुष में है तो श्रीमती , श्री व जी शब्द नहीं  है )
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संकलन - भीष्म कुकरेती
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ठंठोली मल्ला ढांगू का महत्वपूर्ण गाँव है।  कंडवाल जाति किमसार या कांड से कर्मकांड व वैदकी हेतु बसाये गए थे।  बडोला जाति ढुंगा , उदयपुर से बसे।  शिल्पकार प्राचीन निवासी है।  ठंठोली की सीमाओं में  पूरव में रनेथ , बाड्यों , छतिंडा व दक्षिण पश्चिम में ठंठोली गदन (जो बाद में कठूड़ गदन बनता है ) , दक्षिण पश्चिम में कठूड़ की सारी , उत्तर में पाली गाँव हैं। 
  ठंठोली की लोक कलाओं के बारे में  निम्न सूचना मिली है -

 लोक गायन  व नृत्य - आम लोग , स्त्रियां जाती हैं , गीत भी रचे जाते थे।  सामूहिक व सामुदायक नाच गान सामन्य गढ़वाल की भाँती।  घड़ेलों में जागर नृत्य भी होता है।  बादी बादण  नाच गान  व स्वांग करते थे।  बिजनी के  हीरा बादी पारम्परिक वादी  थे।  कुछ लोग स्वयं स्फूर्ति से भी स्वांग करते थे। बादी हर बारह वर्ष में लांग खेलते थे।

वाद्य बादन  - बांसुरी बादन  आम था , अलगोजा भी बजाया करते थे।  बादी हारमोनियम भी बजाते थे।  जागरी थाली व डमरू बादन  करते थे।  हंत्या घड्यळ के जागरी ठंठोली नाम  चतुर था। 
ढोल वादक - ढौंर के कुशला व सुतला।  मुशकबाज बागों के कलाकार।
सिद्धि  दर्शन - बीसवीं सदी मध्य तक चोर पकड़ने , खोई वस्तु या जानवर खोजने हेतु मंत्र बल पर पुरुषोत्तम कंडवाल घड़ा रिटाते थे व घड़े के ऊपर  मकर राशि के रामचरण कंडवाल बैठते थे
रणेथ (ठंठोली का भाग ) डळया गुरु कई तंत्र मंत्र के विशेषज्ञ थे। 
समस्या पूर्ति या पहेलियाँ ज्ञान - तकरीबन हर नागरिक  पहेली , कहावतों , का ज्ञान रखता था।
कोशों का ज्ञान - आयुर्वेदिक वैद्य होने के लिए वैदकी सीखना सामन्य चलन था।  संस्कृत का ज्ञान पहले घर में दिया जाता था। 
सर्यूळ - बडोला व कंडवाल, कुकरेती  सर्यूळ  (सामहिक भोजन बनाना ) का कार्य करते थे।
पेय पदार्थ (कच्ची शराब ) - भवा नंद कंडवाल प्रसिद्ध थे।
बढ़ईगिरी - शिल्पकार , बाड्यों के व ठंठोली के थे
बांस के वर्त्तन - बाड्यों के चिरुड़  व गोबिंदराम
पत्थर खान - ठंठोली में मलण गाँव में छज्जे के दास , उरख्यळ (ओखली ) , सिल्ल बट्ट हेतु पत्थर की खाने थीं व पत्थर निकालने व कटान के कलाकारों में रीठू , बेळमू , पन्ना लाल व उनके पुरखे  प्रसिद्ध थे
लोहार गिरी - स्थानीय शिल्पकार में रीठू , बेळमू , पन्ना लाल
 सुनार - जसपुर व पाली (मल्ला ढांगू ) पर निर्भर
टमटागिरी (ताम्बा , पीतल , कैसे के बर्तन निर्माण आदि ) - पूर्णतया जसपुर पर निर्भर
घराट - बाड्यों के शिल्पकारों पर निर्भर
 कूड़ चिणायी (मकान निर्मणाकरता ओड  ) -  सौड़ व जसपुर के ओडों पर निर्भर   
भ्यूंळ  की टोकरी , दबल आदि स्थानीय लोग स्वयं निर्मित करते थे
माला आदि फूलों से बनाते थे व बच्चों की सुरक्षा माला जिसमे कौड़ियां , बघनखे , चांदी/ताम्बे  के सिक्के , अजवायन थैली भरके बनाई जातीं थीं व कंडवाल पंडित विशेज्ञ होते थे।
मुख पर रंग व उबटन की प्रथा विवाह अवसर पर थी।  दूल्हा दुल्हन को विष्णु व लक्ष्मी रूप दिया जा था। 
  गहने  पहनने हेतु शरीरांग छेदन  होता था व अधिकतर लोहारों की सहायता ली जाती थी। बचपन में लड़कियां तोर या वनस्पति के गहने बनाकर पहनते थे ,
 ज्योतिष व कर्मकांड में पुरुषोत्तम कंडवाल , भैरव दत्त कंडवाल , दामोदर कंडवाल , दिनेश कंडवाल , राधाकृष्ण कंडवाल , किसन दत्त कंडवाल आदि वैद्य व भेषज प्रसिद्ध थे। भैरव दत्त  कंडवाल व्यास वृति हेतु प्रसिद्ध थे। कर्मकांडी ब्राह्मण  तकली कातकर जनेऊ निर्माण करते थे।  जन्म पत्रियों  पर विभिन्न चित्रकारी भी करते थे , पूजन समय कई कला प्रदर्शन होते थे -जैसे चौकल में  में गणेश थरपण। 
   वैद्यों में जय दत्त कंडवाल ,हरि दत्त ,  पुरोषत्तम कंडवाल  व किसन दत्त कंडवाल नामी वैद्य थे।
   लकड़ी की नक्कासीदार आलिशान तिबारियां भी ठंठोली में थी व  मलूकराम बडोला (नंदराम नारायण दत्त बडोला के दादा ) , , राजाराम बडोला , बास्बा  नंद कंडवाल,  जय दत्त कंडवाल, पुरुषोत्तम कंडवाल , रामकिसन कंडवाल आदि सात  तिबारियां थीं।  इनमे देवताओं को छोड़ पशु , पक्षियों व अन्य नक्कासी  थी। 
मकानों की लिपाई लाल या काली मिट्टी के साथ गोबर से होती थीं। व कमेड़ा भी प्रयोग होता था
लोक खेलों में - गारि /गिट्टे पाछ गारी, - गारि क्वाठा म डळण   घिरपातयी  , इच्चि दुच्ची ,     लुक्का छिपी -,घुंड फोड़ -, काणो बणिक पकड़न ,पकड़ा पकड़ , इकटंगड्या -छौंपा दौड़ , डुडड़ कूद याने रस्सी कूद खेल , रस्सा कस्सी,    कुद्दी मरण /फाळ मरण,   झुळा खिलण , बा कटण  (तैराकी ) ,  डाळम चढ़ण,  पत्थर घुरैक चुलाण , घुंघरा घुराण , - बाग़ बकरी खेल , गुच्छी खिलण कांचक या पथरक गोटी खिलण, इलाड़ु का घट्ट रिंगाण,  रड़न , खाडु लड़ान .  तीर चलाण - मल्ल युद्ध व मुक्केबाजी , तास खिलण , चौपड़ खेल , खुट गिंदी  ,  हिंगोड़, हथ गिंदी , गिल्ली डंडा खेल, सिमनटाई /पिट्ठूपोड़ - , कबड्डी - खो खो - ,माछ मरण - अयेड़ी खिलण, ब्यौ  मा -हल्दी लगाण , कंगण तुड़न ;  रिंगण -,ग्यूं या अन्य फसल का बलड़ों  म छजजा से  ,  तमाखु बूंद दैं नचण , गिगड़ुं  लड़ै  मुख्य खेल थे कई खेल आज भी विद्यमान हैं। 





(सूचना आभार ठंठोली के चंडी प्रसाद बडोला )
Copyright@ Bhishma Kukreti , Dec. 2019

     ठंठोली (मल्ला ढांगू ) की  लोक कला , शिल्प व भूले बिसरे लोक कलाकार
 
    ढांगू संदर्भ में गढ़वाल की  लोक कलाएं व भूले बिसरे कलाकार श्रृंखला  -


Bhishma Kukreti

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गटकोट  (मल्ला ढांगू ) की लोक कलाएं व भूले बिसरे कलाकार

 
ढांगू संदर्भ में गढ़वाल की लोक  कलाएं व भूले बिसरे कलाकार श्रृंखला  - 5
(चूँकि आलेख अन्य पुरुष में है तो श्रीमती , श्री व जी अपरिहार्य नहीं है )
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संकलन - भीष्म कुकरेती
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गटकोट मल्ला  ढांगू का एक महत्वपूर्ण ही नहीं प्राचीन गाँव है. गटकोट के बारे में कमल जखमोला गटकोट  को खस समय का वसा गाँव बताते हैं।
गटकोट के दक्षिण  में मंडळु गदन , पश्चिम में हिंवल नदी तो पूर्व में घणसाळी , जल्ली , व उत्तर में मित्रग्राम, पंयाखेत  गाँव हैं. गटकोट की जमीन मंडुळ पार गुदड़ में भी है।   
अन्य गढ़वाल क्षेत्र की भाँति (बाबुलकर द्वारा विभाजित  ) गटकोट   में भी निम्न कलाएं व शिल्प बीसवीं सदी अंत तक विद्यमान थे. अब अंतर् आता दिख रहा है। 
   अ - संस्कृति संस्कारों से संबंधित कलाभ्यक्तियाँ
   ब -   शरीर अंकन व अलंकरण कलाएं व शिल्प   
 स -फुटकर। कला /शिल्प जैसे भोजन बनाना , अध्यापकी , खेल कलाएं , आखेट, गूढ़ भाषा वाचन  (अनका ये , कनका क, मनका म ललका ला =कमला ,  जैसे  ) या अय्यारी भाषा   आदि
   द  - जीवकोपार्जन की पेशेवर की  व्यवसायिक  कलाएं या शिल्प व  जीवनोपयोगी शिल्प व कलायें
                 अ - संस्कृति संस्कारों से संबंधित कलाभ्यक्तियाँ व शरीर अंकन


जखमोला जाति के कई परिवार पंडिताई करते थे तो पूजन समय चौकल में चित्रकारी व दीवाल में पूजन चित्रकारी सामन्य बात है।  विवाह समय हल्दी हाथ  चढ़ाना , वर वधु का मेक अप /शरीर सौंदर्यीकरण , होली वक्त रंग चढ़ाना भी सामन्य कला प्रदर्शन होता ही है।  तेरहवी व बार्षिकी श्राद्ध में वैतरणी पार करने हेतु मिट्टी , चावल से कला प्रदर्शन  गढ़वाल के अन्य गाँव सामान है।  कर्मकांड , धार्मिक उतस्वों की कला भी प्रदर्शित होती है। जनेऊ, राखी  निर्माण गाँव के पंडित करते थे। 
              ब - अलंकरण कलाएं व शिल्प   
 सुनार गाँव में न था और शायद अलंकार निर्माण , रिपेयर हेतु गटकोट गाँव जसपुर या पाली पर निर्भर था।  वनस्पति आभूषण भी गढ़वाली गाँव जैसे प्रचलित थे। 
    स फुटकर कला
 कला /शिल्प जैसे भोजन बनाना , अध्यापकी , खेल कलाएं , आखेट, गूढ़ भाषा वाचन  (अनका ये , कनका क, मनका म ललका ला =कमला ,  जैसे  ) या अय्यारी भाषा   आदि    भी सामन्य थी।  गटकोट से कई प्रसिद्ध अध्या पक हुए व वर्तमान में भी हैं व अचला नंद जखमोला सरीखे गढ़वाली  विद्वान् भी गटकोट से ही हुए जिन्होंने गढ़वाली - हिंदी, अंग्रेजी व अंग्रेजी -गढ़वाली शब्दकोश रचा  व अभी सतत कार्यरत हैं । वर्तमान में  गटकोट के कमल जखमोला  गढ़वाली गद्य व कविता में प्रसिद्ध हस्ताक्षर हैं
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       द -जीवकोपार्जन की पेशेवर की  व्यवसायिक  कलाएं या शिल्प व  जीवनोपयोगी शिल्प व कलायें
       ओड /भवन निर्माता - परवीन सिंह
बक्की /भविष्यवक्ता - गणत हेतु चैनु,  डखु
ढोल बादन - सतूर दास , राम दास , बच्चू
लोहार - प्रेम
 गाँव में तीनेक तिबारियां थीं।  एकतिबारी  पधान की थी जिसमे लकड़ी पर नक्कासी थीं। शम्भु प्रसाद जखमोला की सूचना अनुसार तिबारी की लकड़ी पर नक्कासी में फूल पत्ती , पशु पक्षी, मोर की पूंछ  थे।

  गटकोट में उपयोग होते कृषि यंत्र जो गढ़वाल के अन्य गाँव जैसे ही थे जैसे - हल-ज्यू  , जोळ (पाटा ) , दंदळ , कूटी , फाळु /फावड़ा , सब्बल , दाथी , थांत , , कील , पल्ल -टाट ,  अधिकतर सब्बल छोड़ कर गाँव में हर परिवार बना सकता था।  अब स्थिति बदल गयी है। 
स्वतंत्रता से पहले सफ़ेद कपड़ों पर रंग  हल्दी या dhaak,   किनग्वड़ से चढ़ाया जाता था तो हरा रंग जौ के पौधों से रंग चढ़ाया जाता था। 

(आभार - शम्भू प्रसाद जखमोला की सूचना पर आधारित )
Copyright@ Bhishma Kukreti , Dec 2019

   


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भरच्यांद , भड्यांद  तून लगांद , पित्यांद  अंग्रेजी-शब्द  -गढ़वली में  परिभाषित करते व्यंग्य  शब्दकोश  B-55 
 
   (English -Garhwali  Dictionary of Satire , Sarcasm,  Aggravating , Galling , Roasting  Definitions   )
 (गढ़वाली ,  व्यंग्य,  हंसी , जोक्स ,  चिढ़ाते , धृष्टता करते ,ठट्टा लगाते  , ताना मारते , झिड़कते शब्द -परिभाषा शब्दकोश , व्यंग्यकोश  )
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Land,जमीन , हमेशा से लड़ाई कारण आज बि 
Landlordजमींदार = आज माफिया या डॉन
Landslide, भूस्खलन , भगुळ = उत्तराखंड म राष्ट्रीय टीवी चैनलों म न्यूज तभी आंद
Language, भाषा = मनुष्यों तै बंटणो चिरयुवा माध्यम
Lantern लालटेन = लालू यादव की कबि पछयाणक छे
Laptop,लैपटॉप = शायद कुछ सालों बाद इतिहास की किताबों लैक
Latest, नवीनतम = हर  विज्ञापन म प्रयोग हूण वळ  सामन्य शब्द
Law,नियम = गरीबक ब्वारि कुण
Lawyer, वकील = तारीख पर तारीख
Lazy,अळगसि = जु चांदो वैक  बांठै हौग बि क्वी हैंक हौगी  जा


 
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गढ़वाली हास्य , गढ़वाली व्यंग्य , ताना मारते , चिढ़ाते , जलाते , गढ़वाली,  व्यंग्य, मजाक उड़ाते गढ़वाली व्यंग्यकोश  , Sarcastic definitions in Garhwali


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तैड़ी ( बिछला ढांगू ) की  लोक कला , शिल्प व भूले बिसरे लोक कलाकार

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 तैड़ी ( बिछला ढांगू ) की  लोक कला , शिल्प व भूले बिसरे लोक कलाकार

(मछली मार  कला  पर विशेष )
 
    ढांगू संदर्भ में गढ़वाल की  लोक कलाएं व भूले बिसरे कलाकार श्रृंखला  -  6
(चूँकि आलेख अन्य पुरुष में है तो श्रीमती , श्री व जी शब्द नहीं जोड़े गए है )
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संकलन - भीष्म कुकरेती     
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  ढांगू में तैड़ी  को ' सट्टी वळ   गाँव ' के नाम से भी पहचाना जाता है।  नयार  नदी तट पर तैड़ी बसा गांव का विशिष्ठ महत्व है।  किनसुर , कांडी , धुनारों बागी , गूम , कौंदा  , क्यार  की सीमाओं से तैड़ी गाँव घिरा है और चौरस धरती वाला गाँव है।
      अन्य गढ़वाल क्षेत्र की भाँति (बाबुलकर द्वारा विभाजित  ) तैड़ी   में भी निम्न कलाएं व शिल्प बीसवीं सदी अंत तक विद्यमान थे. अब अंतर् आता दिख रहा है। 
   अ - संस्कृति संस्कारों से संबंधित कलाभ्यक्तियाँ
   ब -   शरीर अंकन व अलंकरण कलाएं व शिल्प   
 स -फुटकर। कला /शिल्प जैसे भोजन बनाना , अध्यापकी , खेल कलाएं , आखेट, गूढ़ भाषा वाचन  (अनका ये , कनका क, मनका म ललका ला =कमला ,  जैसे  ) या अय्यारी भाषा   आदि
   द  - जीवकोपार्जन की पेशेवर की  व्यवसायिक  कलाएं या शिल्प व  जीवनोपयोगी शिल्प व कलायें   
कृषि कला शिल्प - सभी कास्तकार थे तो प्रत्येक व्यक्ति कृषि कला में पारंगत था ही।
  स्योळ /न्यार /म्वाळ निर्माण में पुरुष आगे होते थे।  खटला बनाना , न्यार की चौकी बनाई जाती थी।
भोजन कला - महिलाओं के अतिरिक्त पुरुष भी भोजन पकाने में माहरात हासिल हुए थे विशेषतः  जो फौड़/( सामूहिक भोजन ) में भोजन बनाते थे। 
लोक गीत , नृत्य - गीत महीनों में महिलाएं लोक गीत गातीं थीं व नृत्य करने के अलावा स्वांग भी भरतीं थीं कई युवा भी पारंगत थे।  व्यवसायिक गीत -नृत्य -स्वांग हेतु बादी आते थे (हीरा बादी ).   घड्यळ , मंडाण में धार्मिक नृत्य , संगीत सामन्य था।
 पंडिताई - नारायण दत्त रियाल , रामदयाल , रामनाथ रियाल , श्रीनन्द वर्तमान में चक्रधर रियाल अतः कर्मकांड में अपायी जाने वाली सभी कलाएं तैड़ी  में फलती फूलती रही हैं वर्तमान में भी।
सभी तैड़ी  वालों के पंडित बणेलस्यूं  सिलसू के दिस्वाल ब्राह्मण होते थे केवल  तैड़ी में बसे देवप्रयागि ध्यानियों के पंडित देवप्रयाग से पूजा हेतु आते थे.
मंदिर - ढंकलेश्वर  जिसमे लौह सांप , लौह त्रिशूल , ताम्बे के प्रतीक आज भी नए मंदिर में विद्यमान हैं। मंडित आम एक उबरा मकान जैसा था जिसकी छत सिलेटी पत्तरों की थी।
वैद्य - पिछले पचास सालों से शिव प्रसाद रियाल।
झाड़खंडी - रामनाथ रियाल - छाया , आदि पूजन में उपयोग  होती सभी कलाओं का प्रयोग। आवश्यकता पड़ती थी तो गडमोला , नैरुळ  के झड़खंडियों को भी बुलाया जाता था।
जागरी  कैन्डूळ के घुत्ती
मसुकबाजी - हथनुड़ के 
ढोल बादक - किनसुर के गुरखा दास , शिवलाल
लोहार - घूरा
टमटा गिरी - विचत्ति या बणेल स्यूं पर निर्भर
ओड - बाहर के जैसे किनसुर के दिगंबर ।  पहले 1960  से पहले के अधिकाँश मकान टिहरी गढ़वाल (गंगपुर्या ) से आये मकान शिल्पियों ने निर्मित किये हैं।
तिबारी - नारायण दत्त , राम दयाल रियाल की
मिट्टी के बर्तन - हथनूड़
               ढांगू में मच्छी मारने की कला विशेषज्ञ तैड़ी गाँव वाले
   नयार तट व अपना बड़ा गदन होने के कारण तैड़ी गाँव वाले  मच्छी  मारने में भी कुशल थे व जंगल से घिरे होने के कारण मृग , काखड़ , सौलू मारने , मुर्गा शिकार हेतु भी उस्ताद थे।
   अतः  तैड़ी गाँव  में निम्न कलाएं बिकसित हुईं थीं
विभिन्न प्रकार के जिवळ (स्योळु का जाल जिसमे घ्वीड़  मिरग , सूअर सौलू आदि  फंसाये  जाते थे। 
मच्छी मारने के जाल , फट्यळ , छ्युंछर ,बाद में  नायलोन का जाल , बांस की अन्य मच्छी फाँसो उपकरण
 मच्छी , घ्वी , काखड़ पकाने के  विशेषज्ञ स्वयं विकसित हो जाते थे
मच्छी पकड़ने के कई तरीके जैसे हाथ से पकड़ना , पत्थर में घण लगाकर चोट से मच्छियों को बहरा कर , रत में टॉर्च मारकर मछलियों को अँधा कर हाथ से पकड़ना , लंग्वाळ विधि ( पानी के कैनाल / स्रोत्र बंद कर या मोड़कर ) , जाळ , फट्याळ  आदि।  कारतूस फेंकर, 1970 के बाद डीडीटी आदि भी प्रयोग हुए हैं
 


( सूचना आभार -मदन बड़थ्वाल )
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गढ़वाल की लोक कलाएं , ढांगू की लोक कलाएं, पौड़ी गढ़वाल की लोक कलाएं श्रृंखलका जारी रहेगी


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भरच्यांद , भड्यांद  तून लगांद , पित्यांद  अंग्रेजी-शब्द  -गढ़वली में  परिभाषित करते व्यंग्य  शब्दकोश  B-56   
 
   (English -Garhwali  Dictionary of Satire , Sarcasm,  Aggravating , Galling , Roasting  Definitions   )
 (गढ़वाली ,  व्यंग्य,  हंसी , जोक्स ,  चिढ़ाते , धृष्टता करते ,ठट्टा लगाते  , ताना मारते , झिड़कते शब्द -परिभाषा शब्दकोश , व्यंग्यकोश  )
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Leader, नेता = नेहरू , ठाकरे , करुणानिधि परिवार का उत्तराधिकारी
Leak, गुप्त बात भैर आण = जु हरेक सेना की  औसंद , समस्या
Leech,जूंक = विकासशील देशों म भ्रस्टाचार
Leisure आराम = सरकारी कार्यालय म जो करे जांद
Leopard, तेंदुआ , गुलदार = जु बचाण बि जरूरी तो मरण बि जरूरी
Liberal,उदारपंथी  = भारत का टुकड़ा करणो ठेकेदार
Lick,चटण = जु बड़ नेताओं खुट  पर करे जांद
Lie,झूठ =  सांसदों , विधायकों, नगरसेवकों की सौं , आश्वासन 
Like,पसंद = फेसबुक म सब्युं  क इच्छा
Lipstick= लिपस्टिक = बदसूरती छुपाणो मोळ जन क्वी  चीज




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गढ़वाली हास्य , गढ़वाली व्यंग्य , ताना मारते , चिढ़ाते , जलाते , गढ़वाली,  व्यंग्य, मजाक उड़ाते गढ़वाली व्यंग्यकोश  , Sarcastic definitions in Garhwali


 

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