Author Topic: Articles By Bhisma Kukreti - श्री भीष्म कुकरेती जी के लेख  (Read 1101469 times)

Bhishma Kukreti

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सीमांत उत्तराखंड में जाड़ संस्कृति व भाषा

The Culture and language of Jad region, Uttarkashi, Uttarakhand 
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Posted By: Girish Lohanion: December 09, 2019
सीमांत उत्तराखंड में जाड़ संस्कृति व भाषा
सौजन्य निलोंग जोडंग  घाटी फेसबुक पेज
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जाड़ गंगा भागीरथी नदी की सबसे बड़ी उपनदी है. ग्यारह हजार फीट की ऊंचाई पर भैरोंघाटी में भागीरथी और जाड़ गंगा का संगम होता है. भैरोंघाटी में पच्चीस किलोमीटर भीतर माणा गाड़ माणा दर्रे के पश्चिम में फैले हिमनद से निकलती है. यह निलांग से लगभग 6 किलोमीटर ऊपर जाड़ गंगा से जा मिलती है.
भैरों घाटी से तिब्बत जाने वाले थाग्ला दर्रे तक उच्च पर्वत हिम प्रदेश की पूरी घाटी निलांग नाम से जानी जाती है. निलांग 11310 फीट की ऊंचाई पर स्थित है, भैरों घाटी से तिब्बत की ओर जाने वाले थाग्ला दर्रे तक की पूरी घाटी इसी नाम से जानी जाती है. यहां के मुख्य गांव निलङ और इससे ऊपर जादोंग है. यहां के निवासियों को जाड़ कहा जाता है. इनका मुख्य व्यवसाय तिब्बत जिसे ‘हूंण देश भी कहा गया, के साथ होता रहा . जाड़ व्यापारी अनाज, देशी कपड़ा या खङूवा, गुड़, चीनी, तम्बाकू, तिलहन, सूती कपड़े, धातु के बर्तन, लकड़ी के बने बर्तन या कनसिन, माला इत्यादि वस्तुओं का निर्यात तथा स्वर्ण चूर्ण व सोना, सुहागा,पश्मीना, नमक, चंवर, घोड़े, याक वा कुत्तों का आयात करते रहे. जाड़ व्यापारी तोलिंग या थोलिंग, तसपरंग व गरहोत के इलाकों में ही व्यापार करते थे तो बुशाहरी खामपा व्यापारी पूरे तिब्बत में व्यापार करने का अधिकार पाए थे. गढ़वाली व्यापारी केवल डोकपा ऑड़ तक ही जा पाते थे, जहां तिब्बत के गांव थांग, गंडोह, सरंग, करवक़ व डोकपा बसे हैं. इन्हीं गांवों से वस्तु और जिंसों का लेनदेन होता था. जाड़ व्यापारी जाड़ों के मौसम में निलांग से आगे दक्षिण की ओर हफ्ता – दस दिन पैदल चलने के बाद उत्तरकाशी में भागीरथी के किनारे डूंडा तथा भटवाड़ी में आ जाते थे. यह उनका शीतकालीन प्रवास रहता. Jad Culture and Language Uttarakhand
Jad Culture and Language Uttarakhand
जाड़ गंगा नदी.
निलांग घाटी में आदिम काल से निवास कर रही जाड़ जनजाति में जाड़ भाषा बहुतायत से बोली जाती रही है. जाड़ जनजाति के समृद्ध ऐतिहासिक अतीत का वर्णन करते हुए प्रो.डी.डी.शर्मा ने अपनी पुस्तक, तिब्बती हिमालयन लेंग्वेजिज ऑफ उत्तराखंड (1990) में लिखा है कि जाड़ समुदाय का मूल संबंध हिमाचल प्रदेश के बुशाहर राज्य के पहाड़ी इलाकों से रहा जिसे अब किन्नौर कहा जाता है. एच. एस. फकलियाल के अनुसार उत्तरकाशी के जाड़ मुख्यतः नेपाल के करनाली इलाके के जाड़ों के वंशज रहे. ये नाग वंश के राजा पृथ्वी मल्ला के समय चौदहवीं शताब्दी में इस इलाके में बस गए थे. एटकिंसन ने गढ़वाली व बुशाहरी हुणिया की मिश्रित नस्ल को जाड़ समुदाय कहा. नारी के हुणिया खुद को नारीपा तथा उच्च हिमालय इलाकों में रहने वाले को मोनपा कहते हैं. खस स्वयं को खस देश से अभिहित करते हुए उच्च पर्वत क्षेत्र में निवास करने वालों को जो तिब्बत से व्यापार करते थे, के आवास स्थलों को भोट तथा तिब्बत को हूणदेश कहते थे. वहीं तिब्बत के निवासी निलांग घाटी को चोंग्सा कहते थे.
2011 की जनगणना में जाड़ भाषा बोलने वालों की संख्या चार हजार बताई गई. जाड़ भाषा सीमांत हिमालय की तिब्बत-बर्मी भाषा समूह की उपबोलियों से सम्बंधित रही भले ही एक सीमित समुदाय में यह प्रचलित रही. 1962 में चीन ने तिब्बत पर कब्ज़ा कर लिया. जादोंग, सुमदु, निलांग, बगोरी और हर्षिल में जाड़ भाषा का खूब प्रचलन था. 1962 से पहले निलांग घाटी में जाड़ भाषा ही सबसे अधिक बोली जाती रही. तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद तिब्बत की सीमा से लगे निवासियों को डुंडा, लंका व उत्तरकाशी के इलाकों में बसाया गया और इन इलाकों को भारतीय सेना की निगरानी में रखा गया. अब जाड़ भाषा मुख्य रूप से उत्तरकाशी, भटवाड़ी, डुंडा, बगोरी, व हर्षिल जैसे भागीरथी नदी के तटीय क्षेत्रों में बोली जाती है. ये मात्र भाषा अथवा बोली न हो कर समूचे जाड़ समुदाय की जीवन पद्धति है.
जाड़ समुदाय की जीवन पद्धति अभी भी कमोबेश परंपरागत जीवनक्रम का अनुसरण कर रही है. ये साल में छह महीने सीमांत के हिमाच्छादित इलाकों में रहते व विचरण करते हैं. जाड़ों के मौसम में ये उत्तरकाशी शहर के भटवाड़ी वा डूंडा में निवास करते हैं. सामान्यतः अभी भी ये अपने परंपरागत व्यवसाय एवं पुश्तैनी शिल्प से जुड़े हैं.
उत्तरकाशी में राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर सुरेश चंद्र ममगई पिछले दस सालों से जाड़ संस्कृति व जाड़ भाषा पर जमीनी स्तर पर काम कर रहे हैं. वह यायावर प्रकृति के हैं. कई भाषाएं जानते हैं. पहाड़ की लोकथात पर बहुत काम कर चुके हैं. इस सीमांत इनर लाइन इलाके की उन्होंने खूब पदयात्राएं की हैं. वर्षों तक स्थानीय समाज से घुलने मिलने तथा उनके द्वारा बोली जाने वाली जाड़ भाषा व शब्दावली के संकलन के साथ ही स्थानीय संस्कृति व थात पर लम्बे अनुसन्धान के नतीजे में उनका जाड़ भाषा का शब्दकोष छप चुका है. जाड़ समुदाय के सामाजिक आर्थिक स्वरुप के साथ यहाँ की परंपरागत संस्कृति पर अलग से भी उन्होंने किताब लिखी है.
सीमित व संकुचित इलाके में सिमटी पर लोकथात से समृद्ध जाड़ संस्कृति पर वह बताते हैं कि जाड़ गंगा के तटीय इलाकों के निवासियों को उत्तराखंड की स्थानीय बोलियों में पहले हुणियाँ कहा जाता था. हुणियाँ शब्द ह्यूं का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ है – हिम. इस प्रकार हुणियाँ से आशय है, उच्च हिमालय-हिम आच्छादित इलाकों में रहने वाले निवासी. उत्तराखंड एवं भोट (तिब्बत )के मध्यवर्ती इलाकों के निवासी होने के कारण स्थानीय निवासियों के द्वारा इन्हें भोटिया नाम से भी पुकारा जाता रहा पर ये रोंग्पा कहलाया जाना पसंद करते हैं. जिससे आशय है पर्वत-घाटियों में रहने वाले लोग. तिब्बत से व्यापार सम्बन्ध होने के कारण जाड़ समाज को तिब्बत निवासी चोंग्सा कहते रहे. जाड़ समुदाय स्वयं को किरातों का वंशज मानते हैं. गढ़वाल में किरात जाति के प्रसार का एक प्रमाण भागीरथी का एक नाम किराती भी माना गया. कश्यप संहिता में यह उल्लेख है कि यमुना घाटी में किरातों का गढ़ था.
कुमारसम्भव (1-17 एवं 1/8) में उल्लेख है कि विक्रम की पांचवी शताब्दी में उत्तराखंड में गंगाजी के उदगम प्रदेश में किरात और किन्नर जाति निवास करती थी :
भागीरथी निर्झरसीकराणां वोढा मुहू कम्पित देवदारु:
यद् वायुर्नविष्ट मृगैः किरातैरा सेव्यते भिन्न शिखण्डिवहर
चंद किन्नर जातक (खंड 4, पृष्ठ 490-91)के सूत्रों से ज्ञात होता है कि उत्तराखंड में गंधमादन के समीप के क्षेत्र अर्थात आज के उत्तरकाशी व चमोली जनपदों में किन्नर निवास रहा. सभापर्व (52/2-3) से भी स्पष्ट होता है कि किरात जाति के वह लोग जो गढ़वाल के उच्चांश में रहते थे व हूण देश तिब्बत से सुहागा या टंकण, स्वर्ण चूर्ण, कस्तूरी का व्यापार करते थे. इन्हें तंगण या टंकण के नाम से भी जाना गया. यही टंकण वंशज उत्तरकाशी के जाड़ भी रहे.
Jad Culture and Language Uttarakhand
उत्तराखंड की जाड़ जनजाति में प्रयुक्त जाड़ भाषा-बोली उत्तरकाशी जनपद सीमांत पर्वत उपत्यकाओं में प्रयुक्त होती है. प्रोफेसर सुरेश चंद्र ममगई बताते हैं कि इस भाषा में प्राचीन समय से मौखिक रूपों में संस्कृति तथा समाज की विषेशताओं का तानाबाना रचित होते आया है. जिसमें कृषि, व्यापार , पशुचारण तथा अध्यात्म से सम्बंधित शब्दावली के अतिरिक्त गीत, लोककथाएं , मुहावरे, लोकोक्तियाँ तथा लोकगाथाएँ भी अंतर्भूत हैं.जाड़ भाषा की ध्वन्यात्मक संरचना, उच्चारण -प्रक्रिया, स्वनिम विश्लेषण, शब्द भंडार रूपात्मक संरचना (संज्ञा, लिंग, वचन, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया, काल-रचना) तथा व्याकरण का सम्बन्ध तिब्बती भाषा से जुड़ा रहा है. यद्यपि जाड़ भाषा में अनेक ऐसी भी विशेषताएं भी हैं जो तिब्बती भाषा से अलग हैं. मुंडा, खस तथा दरद परिवार की भाषा-बोली बोलने वालों से जाड़ समुदाय के व्यापारिक रिश्ते रहे हैं. इसलिए इन भाषा परिवारों का प्रभाव भी जाड़ भाषा पर देखा जा सकता है. पश्चिमी गढ़वाली की अनेक उपबोलियों जैसे टिरियाली, रमोली, रंवाल्टी, बुढेरा की शब्दावली को भी जाड़ भाषा ने अपनाया है.
हिन्दू धर्म से सम्बंधित होने के कारण जाड़ समुदाय अनेक स्थानीय लोक देवी देवताओं के प्रति आस्थावान रहा. संभवतः इसी कारण यहाँ संस्कृत के तत्सम शब्दों की बहुलता भी दिखाई देती है. हिन्दू धर्म से जुड़ी आस्थाओं के अनुकूल वार्षिक महीनों के नाम (चैत, बैशाख, जेठ, अषाढ़, सौंण, भादों, असूज, कार्तिक, मंगशीर, पूस, माघ तथा फागुन) इस समुदाय ने अक्षरशः ग्रहण कर लिए हैं. यही प्रवृति सप्ताह के नामों के साथ भी देखी जाती है बाकी अन्य प्रयोक्तियों में तिब्बती भाषा का अल्प प्रभाव भी दिखाई देता है.
जाड़ गीतों में जाड़ संस्कृति व लोक थात की स्पष्ट छाप है :
थोन्मो, थोन्मो गांगा, मऊ, मऊ पांगा
लाखू -लाखू थांगा गाशिंग -गाशिंग थोगो.
पिगा याला छोमजा -छोमजा तोगा माला छोमजा
लम -ला लम -ला दोजे, गाशिंग -गाशिंग थोगो.
तला खुरु कलशा, पिरियाँ बुली टाशा
नमते, नमते छोमजा, गाशिंग -गाशिंग थोगो.
थोन्मो , थोन्मो गांगा...
इस लोकगीत में जाड़ प्रदेश का वर्णन व दिनचर्या है :
ऊँचे ऊँचे पर्वत शिखर, हरे भरे घास के मैदान, सुन्दर-सुंदर पर्वतों पर बुग्याल कितने मनमोहक प्रतीत होते हैं. वसंत ऋतु का वह समय जब हम सभी अपने पूरे परिवार और पालतू पशुओं के साथ अपने मूल घरों (निलांग तथा जादोंग )की ओर चल पड़ते हैं. शीत ऋतु के आरम्भ होते ही इसी प्रकार अपने शीतकालीन आवासों की ओर आना और रास्ते में रुक-रुक करपड़ाव डालते हुए रुकना, ठहरना और वह घुमक्कड़पन कितना प्यारा लगता है. पूरा सामान घोड़ों पे लाद के चलना, छोटे बच्चों और नवजात शिशुओं को पीठ पर बांध कर झुटपुटे में ही चल देना कितना प्यारा लगता है.
अपने गाँव छोड़ कर आने की पीड़ा का लोक स्वर :
सांग (जादोंग )छोंगसा ( निलांग)नियी युल
ईन बिजे टांजी टाग
ची बेजे बिजे काहू ला शुंग
दी युल युवी सूं...
छोंगसा शी चा सै थुँग्जे
बिजे शिमु छौरी टाग
दी युल दु...
सांग छांग सा न्यी युल ईन
बिजे टाँजी टाग
ची बेचे बिजे काहू ला शुंग
दी युल युवी सुं...
जाड़ उपत्यका की याद भरी हैं इस गीत में. तब बोल फूट पड़ते हैं कि :
जादोंग और निलांग हमारे इन दोनों गांवों की याद हमें बहुत सताती है गाँव छोड़ते समय बड़ा ही कारुणिक और दुखदायी समय होता है. वो दिन याद आते हेंजब हम सभी एक साथ बैठ कर खाते-पीते थे और प्रसन्न होते थे. गाँव की स्मृतियाँ भी हमें सताती रहती हैं.
दुर्गम सीमांत प्रदेश के जाड़ पर्वत पुत्र जानते हैं कि विषम भौगोलिक परिस्थितियों में उनकी रक्षा यही प्रकृति करती है. उनकी आस्था के बोल उभर उठते हैं समवेत स्वरों में :
कोंजोंग दो टांगबो लुग्बा
यें कोंजोंग शी लुग ईन
होनमु होनमु पांगा बला न्येला
नी थ्वी टाग वो
लुग्मा गांगा ला न्येला खुड़ी टाग
हाँ हाँ...
कांबला सानी पोदु दुगो
हां थे...
कोंजोंग दो टांगबो लुग्बा
न्ये कोंजोंग शी लुग ईन
होनमु होनमु पांगा बला न्येला
नी थ्वी टागचा...
जाड़ निवासी गा रहे हैं कि भगवान बकरी चराने वाला चरवाहा है और हम सभी उसकी बकरियां हैं. हरे भरे घास के मैदान में वो हमें मिलते हैं. वो चरवाहा हम सभी भेड़ बकरियों को हरे भरे बुग्यालों में चराने के लिए ले जाता है. चरवाहा हमारा भगवान है और हम उसकी भेड़ बकरियां हैं.
Copyright Girish Lohanion, 2019
   
सीमांत उत्तराखंड में जाड़ संस्कृति व भाषा; सीमांत उत्तरकाशी में जाड़ संस्कृति व भाषा; श्रृंखला जारी रहेगी
The Culture and language of Jad region, Uttarkashi, Uttarakhand series will continue

Bhishma Kukreti

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Sasya Jatka or Vegetable Horoscope detailed in Brihat Samhita

Glimpses of Botany in Brihat Samhita 3
BOTANY History of Indian Subcontinent –126   
Information Compiler: Bhishma Kukreti 

   More Plant list
 In Index 4 and 6th Index chapters, N. Chidambaram Iyer offered more plants and botanical terms mentioned in Brihat Samhita (1).
   There is vegetable horoscope (Sasya Jataka) in 40th chapter of Brihat Samhita (1) as follows –
1-Now, we shall proceed to laws of Yogas (positions of planets) as described by Badarayan (Vyas ) for determining the growth of Grishma (summer)  and Sarat (winter) crops when the Sun just enters into sign of Vrishchaka (Scorpio) or sign of Vrashabha (Taurus).
2-If at the time the Sun entering into the sign of Scorpio benefice planet should occupy the said sign or the fourth,  seventh or tenth house from it or if these four houses should be within sight of benefice planets the Grishma or summer crop will thrive.
…………….
……………
………….
13- If while the Sun passes through the sign of Aeries, Gemini and Taurus he should be accompanied by or within sight of benefice planets, The summer crop will flourish and the market price of such crops will rise  or the price of those crops would be moderate .
14- If the Sun passes through signs of Sagittarius,, Aquarius and Capricorns the Sun should be accompanied by sight of benefice planets the    winter /autumn crop will flourish and the price of those products will rise or will be moderate. However, if at the time of harvest , the Sun should be either accompanied by or within sight of malefic planets, prices will fluctuate or fall .
  References-
1-N. Chidambaram Iyer 1884, Brihat Samhita    (freely available on Internet for readers)
Copyright @ Bhishma Kukreti, for interpretation   

Bhishma Kukreti

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Border Dispute Diffusion with Himachal Pradesh

History of Tehri King Narendra Shah -32
History of Tehri Kingdom (Tehri and Uttarkashi Garhwal) from 1815 –1948- 224     
  History of Uttarakhand (Garhwal, Kumaon and Haridwar) – 1471

By: Bhishma Kukreti (History Student)

   There had been border disputes for western Garhwal with Himachal for long. British Officers used to support  for Himachal. Chakradhar Juyal said in straight words “ There had been agreement between King (Britain) and Tehri King on paper or Sanad. Political Agent and Viceroy are servant under England King. If we are not satisfied by your decision we have freedom to take or case to the England King through secretary of state”. The British officials were not habitual of such straight language but could no go against the logic of Diwan Chakra Dhar Juyal. British officials gave decision in favour of Tehri Garhwal.(1)
     Gabbar Singh memorial House-
   Gabbar Singh martyred in the war field and British Government declared Victoria cross award for him . The VC  award was given to his wife.  The King built a memorial in the memory and bravery of Gabbar Singh Negi in Chamba in 1925. (2)
References-
1-Govind Ram Kala‘s article in book ‘Diwan Chakradhar Juyal’ . p 158 -59
2-Dabral S., Tehri Garhwal Rajya ka Itihas Bhag 2 (new edition), Veer Gatha Press, Dogadda, (1999) page 26
Copyright@ Bhishma Kukreti, 2020

Bhishma Kukreti

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Tooth Brushes descriptions in Brihat Samhita
Economic Botany Aspects in Brihat Samhita -2
Glimpses of Botany in Brihat Samhita -4
BOTANY History of Indian Subcontinent –127   
Information Compiler: Bhishma Kukreti 
  In last chapters  there were discussions about medical plants and botanical glossary described in Brihat Samhita based on the translation of Brihat Samhita by N .C. Iyer  )1).
Iyer also discussed the chapter 65 (Dantakashta Lakshna)   from Brihat Samhita as ‘On truth Brushes’ and the extract of that chapter is as follows –
1-Dantakashta (Tooth Brushes) may be made of twigs of spreading vines, climbers, shrubs or trees. The description will be very   long .Therefore, we shall confine to twigs those  could be chewed.
2-The twigs of unknown trees, creeper s and those twigs those are split, having joints or sry should be rejected.
3- The chewing of twigs of following plants /trees offer Brahmnincal splendour-  Vikantaka (Gymnosporia spinosa), Sriphala (Bilva tree) , Kasmari   (Gmelina arborea) .
The person chewing twigs of Ksema will secure a good wife.
The uses of Bnayan twigs increase wealth and grains stock (Dhana –Dhnaya)
The uses of Arka twigs will increases appearance splendour
The uses of Madhuka twig will give son
4- The uses of Sirisa and Karanja twigs will bring  wealth and prosperity
The uses of twigs of Plaksa will bring money.
By using twigs of Aswattha will get respects from others and his own community
5- The uses of Badri twigs will make a person healthy .The uses of  twigs of Brihati (Egg plants) will bring long life. The uses twigs of Khadira and Bilva will increase wealth and twigs of Atimukta and Kadamba will bring fulfilment of desires.
6-The uses of Nipa brings wealth, uses of Karavira twigs will bring god meal. The uses of  Bhandira twigs will bring much food; the uses of twigs of Sami, Arjun, and Syama will destroy the enemies.
7-The chewing of Ashwakaran , Bhadrataru and Chatrysaka twigs will bring dignity for users. The chewing of   Priyangu, Apamarga, Jambuand Dadima twigs will bring love from people.
In part 8 and 9, there is description of  direction and benefits of washing the brushes etc. The Brihat Samhita also discusses the pattern of throwing the used brushes.

References-
1-N. Chidambaram Iyer 1884, Brihat Samhita    (freely available on Internet for readers)
Copyright @ Bhishma Kukreti, for interpretation   

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Exploring the Potentiality of human being is main job for  CEO

Every Human being has specific potentiality or skill 
Guidelines for Chief Executive Officers (CEO) series – 98
(Guiding Lessons for CEOs based on Shukra Niti)
(Refreshing notes for Chief Executive Officers (CEOs) based on Shukra Niti)   

By: Bhishma Kukreti (Sales and Marketing Consultant)

आमन्त्रक्षरं नास्ति नास्ति मूलमनौषधम्  II 127
अयोग्य: पुरुषो नास्ति योजकस्तत्र  दुर्लभ: I(Shukra Niti Second ChapterYuvrajadi Lakshan  127)
Translation –
As all letters are mantra in themselves and tree roots are medicines same way, there is no human being is not capable/skilful for  a certain job. By all means, the human being is capable /skilful but  the person does not get job as per his  skill.
(Shukra Niti Second ChapterYuvrajadi Lakshan  127)
The chief executive officer should take note about human potentiality –
  There should be tools in the organization for recognizing individual potentiality and offering the work as per potentiality.
The word “You are Worthless” should be out from the organization.
The word ‘Everybody is Worthy’ should be the mantra of organization.
There should be system in organization to unlocking the real potentiality in each employee.
There should be mechanism in the organization for turning ordinary person into extraordinary performer.

References -
1-Shukra Niti, Manoj Pocket Books Delhi, page 81   
Copyright@ Bhishma Kukreti, 2020
Guidelines for  understanding  the human potentiality for Chief Executive Officers; Guidelines for  understanding  the human potentiality for Managing Directors; Guidelines for  understanding  the human potentiality for Chief Operating officers (CEO); Guidelines for  understanding  the human potentiality for  General Mangers; Guidelines for  understanding  the human potentiality for Chief Financial Officers (CFO) ; Guidelines for  understanding  the human potentiality for Executive Directors ; Guidelines for  understanding  the human potentiality for ; Refreshing Guidelines for  understanding  the human potentiality for  CEO; Refreshing Guidelines for  understanding  the human potentiality for COO ; Refreshing Guidelines for  understanding  the human potentiality for CFO ; Refreshing Guidelines for  understanding  the human potentiality for  Managers; Refreshing Guidelines for  understanding  the human potentiality for  Executive Directors; Refreshing Guidelines for  understanding  the human potentiality for MD ; Refreshing Guidelines for  understanding  the human potentiality for Chairman ; Refreshing Guidelines for  understanding  the human potentiality for President

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Narendra Shah establishing Pratinidhi Sabha (People’s Representative Council)
History of Tehri King Narendra Shah -34
History of Tehri Kingdom (Tehri and Uttarkashi Garhwal) from 1815 –1948- 226     
  History of Uttarakhand (Garhwal, Kumaon and Haridwar) – 1473
By: Bhishma Kukreti (History Student)
 Narendra Shah established Rajya Pratinidhi Sabha in first year of taking charge of the kingdom.  He established Pratinidhi Sabha as per advice of Diwan Bhavani Datt Uniyal for gaining cooperation from all sects of citizens in 1923. (1). initially, there were limited objectives and rights of Pratinidhi Sabha. There were more members nominated members  from the king than  elected members by citizens in that council. The citizens those used to pay land tax annually more than Rs. 10 could elect the council members. Initially the council was a decorative body. from 1939, the King offered more rights to the people’s representative council.  The numbers of nominated members were reduced to 15 from 20   and the numbers of elected members were 20. The King was chairman of the council and Kunwar Vichitra Shah  (uncle of Narendra Shah ) was vice chairperson of the people’s representative council. (2)
   There were no rights for the members to elect chairperson of the council.  The aggressive revolutionists called that that council was mere a puppet of the King and Kingdom.  (3)

References –
1-Daurgadatti –Narendravanshakavya page e10
2- Bhakta Darshan , Garhwal ki Divangat Vibhutiyan page 192-194
3-Dabral S., Tehri Garhwal Rajya ka Itihas Bhag 2 (new edition), Veer Gatha Press, Dogadda, (1999) page 27
Copyright@ Bhishma Kukreti, 2020

Bhishma Kukreti

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कांडे  (कुमाऊं ) में भवानी दत्त कांडपाल की बाखली में  काष्ठ कला अलंकरण, लकड़ी नक्काशी 

 कुमाऊँ , गढ़वाल, हरिद्वार उत्तराखंड , हिमालय की भवन  ( बाखली  ,   तिबारी , निमदारी , जंगलादार  मकान ,  खोली  ,  कोटि बनाल   )  में काष्ठ कला अलंकरण, लकड़ी नक्काशी - 208
 संकलन - भीष्म कुकरेती
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 द्वारहाट (अल्मोड़ा , कुमाऊं ) से कई बाखलियों व पुराने शैली के भवनों की सूचना मिली हैं जो गवाह हैं कि  द्वारहाट कुमाऊं संस्कृति का संवाहक रहा है।  आज द्वारहाट क्षेत्र के कांडे गाँव में भवानी दत्त कांडपाल की बाखली में काष्ठ कला पर चर्चा की जाएगी।
  कांडे  (कुमाऊं ) में भवानी दत्त कांडपाल की बाखली  दुपुर , दुघर मकान ही हाँ।   कांडे  (कुमाऊं ) में भवानी दत्त कांडपाल की बाखली  में काष्ठ कला विवेचना हेतु  बड़े छाजों (झरोखों )  , खोली, छोटे मोरियों /खिड़कियों या छाजों /झरोखों  व कमरों के  स्तम्भ व दरवाजों पर टक्क लगानी पड़ेगी।
  कांडे  (कुमाऊं ) में भवानी दत्त कांडपाल की बाखली की खोली तल मंजिल से ऊपर पहली मंजिल  तक पंहुची है।  खोली के दोनों सिंगाड़ /स्तम्भ उप स्तम्भों के युग्म /जोड़ से निर्मित हैं।  लघु स्तम्भ के आधार पर  उलटा कमल दल आकार में कुम्भी है फिर ड्यूल है व फिर सीधा कमल दल है इसके बाद स्तम्भ कलायुक्त सीधा हो ऊपर खोली के मुरिन्ड के एक तह बन जाते हैं।  सभी  लघु स्तम्भों में एक ही जैसे संरचना मिलती है।  खोली के मुरिन्ड या शीर्ष में देव आकृति स्थापित है।   खली भव्य है।  मुरिन्ड के ऊपर छप्परिका  से  शंकु  आकृतियां लटक रहे हैं।
 पहली मंजिल में खोली के ऊपरी भाग  के डॉन ओर  आजु -बाजू बड़े बड़े छाज /झरोखे स्थापित हैं और इन छाजों /झरोखों की काष्ठ कला प्रसंशसनीय है।   छाजों के दोनों ओर के सिंगाड़  तीन तीन उप स्तम्भों के जोड़ से बने हैं।  कला दृष्टि से छाज का  प्रत्येक लघु स्तम्भ बिलकुल खोली के लघु स्तम्भों की नकल ही है।  प्रत्येक लघु स्तम्भ ऊपर जाकर मुरिन्ड।/शीर्ष की एक एक तह layer  बनाते हैं। चाजों के मुरिन्ड चौखट हैं व  कुछ तहों की कड़ियों  में पर्ण -लता आकृति अंकन हुआ है।  छज्जों /झरोखों के दरवाजों पर ज्याकीतीय कटान हुआ है। 
  कांडे  (कुमाऊं ) में भवानी दत्त कांडपाल की बाखली  के बाकी हिज्जे याने तल मंजिल के कमरों में ज्यामितीय कटान छोड़ विशेष  अंकन नहीं हुआ है।  छोटी छाजों  की  सूचना उपलब्ध नहीं है।
निष्कर्ष निकलता है कि   कांडे  (कुमाऊं ) में भवानी दत्त कांडपाल की बाखली  भव्य है व  बाखली में तीनों तरह के  ज्यामितीय , प्राकृतिक व माविय अलंकरण युक्त अंकन हुआ है
आज भवन की देखरेख दिनेश कांडपाल कर रहे हैं व उनके अनुसार भवन 1910  के लगभग निर्मित हुआ व स्थानीय शिल्पकारों ने ही निर्माण किया था। 
सूचना व फोटो आभार: दिनेश कांडपाल
यह लेख  भवन  कला संबंधित  है न कि मिल्कियत  संबंधी।  . मालिकाना   जानकारी  श्रुति से मिलती है अत: नाम /नामों में अंतर हो सकता है जिसके लिए  सूचना  दाता व  संकलन कर्ता  उत्तरदायी  नही हैं .
Copyright @ Bhishma Kukreti, 2020
गढ़वाल,  कुमाऊँ , उत्तराखंड , हिमालय की भवन  (तिबारी, निमदारी , जंगलादार  मकान , बाखली, कोटि  बनाल  ) काष्ठ  कला अंकन, लकड़ी पर नक्काशी   
अल्मोड़ा में  बाखली  काष्ठ कला  , पिथोरागढ़  में  बाखली   काष्ठ कला ; चम्पावत में  बाखली    काष्ठ कला ; उधम सिंह नगर में  बाखली नक्काशी  ;     काष्ठ कला ;; नैनीताल  में  बाखली  नक्काशी   ;
Traditional House Wood Carving Art (Tibari, Nimdari, Bakhali,  Mori) of Garhwal , Kumaun , Uttarakhand , Himalaya  House wood  carving Art in Bakhali Mori, chhaj   in Almora Kumaon , Uttarakhand ; House wood  carving Art in Bakhali Mori, chhaj   in Nainital   Kumaon , Uttarakhand ; House wood  carving Art in Bakhali Mori, chhaj   in  Pithoragarh Kumaon , Uttarakhand ;  House wood  carving Art in Bakhali Mori, chhaj   in  Udham Singh  Nagar Kumaon , Uttarakhand ;    कुमाऊं  में बाखली में नक्काशी  ,  ,  मोरी में नक्काशी  , मकानों में नक्काशी   ; कुमाऊं की बाखलियों में लकड़ी नक्काशी  ,  कुमाऊं की बाखली में काष्ठ कला व   अलंकरण , कुमाओं की मोरियों में नक्काशी   श्रृंखला जारी  रहेगी   ...


Bhishma Kukreti

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बैंजी कांडई (रुद्रप्रयाग ) में उमा दत्त कांडपाल  की भव्य तिबारी व खोळी में लोक कला

 गढ़वाल,  कुमाऊँ , उत्तराखंड , हिमालय की भवन  (तिबारी, निमदारी , जंगलादार  मकान , बाखली   , खोली , छाज  कोटि बनाल  ) काष्ठ कला अंकन , लकड़ी नक्काशी- 209  - 
 
 संकलन - भीष्म कुकरेती
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 कई बार कहा जा चुका है कि रुद्रप्रयाग तिबारियों व खोलियों हेतु भाग्यशाली जिला है।  इसी क्रम में  आज रुद्रप्रयाग के दशज्यूला क्षेत्र के  स्व प्रेम पति कांडपाल द्वारा सन 1945 में निर्मित  कलायुक्त -भव्य तिबारी , खोली व छज्जे  के नीचे अंकित की कलाओं के बारे में चर्चा करेंगे।  आज यह मकान उमा दत्त कांडपाल का मकान के नाम   से जाना जाता है। मकान क्वीली के शिल्पकारों द्वारा निर्मित हुआ है। 
   बैंजी कांडई (रुद्रप्रयाग ) में उमा दत्त कांडपाल  के भव्य मकान में लोक कला अध्ययन व विवेचना हेतु  छज्जे के दासों (ओढ़ी /सीरा ) के मध्य विभिन्न प्रकारों की आकृति अंकन , खोली में कलायुक्त अंकन , खोली के ऊपरी भाग के अगल -बगल में कलायुक्त  अंकन और तिबारी में काष्ठ कला अंकन व अलंकरण का अध्ययन  आवश्यक है। 
   1 - बैंजी कांडई (रुद्रप्रयाग ) में उमा दत्त कांडपाल  के मकान में तल मंजिल में  छज्जे के दासों के मध्य कला अंकन :-
      बैंजी कांडई (रुद्रप्रयाग ) में उमा दत्त कांडपाल  के मकान में  तल मंजिल में छज्जे के नीचे आधार देने वाले  दास (ओढ़ी /सीरा ) भी कला युक्त हैं व चिड़िया चोंच व पुष्प केशर नाभि (केला के  फूल का आभास ) आकर के हैं।  इन कलायुक्त प्रत्येक दो  दासों (ओढ़ी /सीरा ) के मध्य चौखट  आकृति में मानवीय वा प्राकृतिक आकृतियां अंकित हैं।  इन आकृतियों में दो जगह प्रतीकात्मक आकृतियां पूजन समय चौकी  की ग्रह  आकृतियां , स्वास्तिक , दो जगहों में गाय  व तीर के पश्च भाग में  पत्ती  आकृति वा एक  चौखट में देव आकृति   अंकन हुआ है।  इस तरह की  दासों के मध्य चौखट में इस प्रकार भव्य कला  अंकन अब तक के भवनों में लोक कला  सर्वेक्षण में पहली बार मिला है।
  २ --- बैंजी कांडई (रुद्रप्रयाग ) में उमा दत्त कांडपाल के मकान में खोली में कला अंकन , अलंकरण व  नक्काशी :-
  बैंजी कांडई (रुद्रप्रयाग ) में उमा दत्त कांडपाल   के मकान की खोली में  उत्तम श्रेणी की कला अंकन , अलंकरण व नक्काशी  हुयी है।  खोळी   (पहली मंजिल में जान हेतु आंतरिक प्रवेश द्वार )  के दोनों ओर दीवार की चौखट कलायुक्त है।  खोळी  का प्रत्येक  सिंगाड़ /स्तम्भ  तीन उप सिंगाड़ों /स्तम्भों के युग्म से निर्मित हुआ है।  दीवार से सटे किनारे के दोनों उपस्तम्भों में आधार पर  उल्टा कमल , ड्यूल , सीधा कमल फिर ड्यूल व फिर सीधा कमल है व यहां से उप स्तम्भ लम्बोतर व धार -गड्ढे की आकृति में ऊपर चलता है व फिर उल्टा कमल अंकन मिलता है , उल्टे कमल के ऊपर ड्यूल है।  फिर ऊपर सीधे कमल से दबल /घट  आकृति लिए है जिसके ऊपर लम्बोतर सीधा  कमल  फूल है , फिर उल्टा कमल फूल है व ड्यूल है जिसके ऊपर सीधा कमल फूल है व यहां से दोनों उप स्तम्भ  सीधी ऊपर जाकर मुरिन्ड (शीर्ष कड़ी ) की एक तह (layer ) बन जाते हैं।   दरवाजे की और के अंदर के दोनों उपस्तम्भ भी एक सामान हैं।  दरवाजों की और अंदर के उप स्तम्भ का आधार वैसे ही है जैसे दीवार से स्टे उप स्तम्भ हैं।  दरवाजे से  सटे उप स्तम्भ में बदलाव यह है कि सीधे कमल  के फूल के बाद उप स्तम्भ सीधा ऊपर जाता है व मुरिन्ड की दो तह (layer ) बनाता है इस दौरान स्तम्भ कड़ी में पर्ण -लता अंकन हुआ है।  इन दो उप स्तम्भों के बीच एक उप स्तम्भ और है जो आधार में उल्टे कमल फूल के ऊपर ड्यूल से ही सीधा कड़ी बनकर  ऊपर जाकर  मुरिन्ड की कई तहों (layers ) में परिवर्तित हो जाता है। 
 ३-  बैंजी कांडई (रुद्रप्रयाग ) में उमा दत्त कांडपाल   के मकान की खोळी के मुरिन्ड में पालथी मारे चतुर्भुज  गणेश आकृति स्थापित है व गणेश के हाथ में कमल फूल व हथियार दीखते हैं।
  ४ -- बैंजी कांडई (रुद्रप्रयाग ) में उमा दत्त कांडपाल   के मकान की खोली के अगल -बगल  में कला अंकन , अलंकरण :-
  बैंजी कांडई (रुद्रप्रयाग ) में उमा दत्त कांडपाल   के मकान की खोळी  के ऊपरी हिस्से में  दोनों ओर चौखट हैं व प्रत्येक चौखट के बाहरी ओर  दो दो दास हैं जिनके ऊपर  हाथी आकृति स्थापित है।  इन  दासों के मध्य चौखट है जिनके चरों ओर के फ्रेम में वानस्पतिक याने बेल बूटों का अंकन हुआ है।  फ्रेम के अंदर  मेहराब /तोरण /arch  अंकन है व तोरण के अंदर कमल पुष्प लिए मुकुटधारी , साड़ी में लक्ष्मी आकृति अंकन हुआ है।  बैंजी कांडई (रुद्रप्रयाग ) में उमा दत्त कांडपाल  खोळी  के ऊपर छज्जा आधार से शंकु लटके हैं जी गाय या भैंस के स्तन जैसे आकृति के हैं। 
  ५ बैंजी कांडई (रुद्रप्रयाग ) में उमा दत्त कांडपाल   के मकान के तल मंजिल के कमरों  के मुरिन्ड  में  बहु दलीय  पुष्पों का अंकन हुआ है। 
 ६  -बैंजी कांडई (रुद्रप्रयाग ) में उमा दत्त कांडपाल   के मकान की तिबारी में कला अंकन , अलंकरण , नक्काशी :-
  बैंजी कांडई (रुद्रप्रयाग ) में उमा दत्त कांडपाल  के मकान की तिबारी भी विशेष तिबारी की श्रेणी में आएगी।  तिबारी चौखम्या व तीन ख्वळ्या    (चार स्तम्भ /सिंगाड  व तीन ख्वाल ) है।  तिबारी में मेहराब है व ऊपर प्रत्येक त्रिभुज  में एक चिड़िया , दो अष्ट दलीय पुष्प व बेल बूटों  का अंकन हुआ है।
     तिबारी के प्रत्येक सिंगाड /स्तम्भ  चार चार उप स्तम्भों के जोड़ से बने हैं इस तरह तिबारी में कुल सोलह उप स्तम्भ हैं।  प्रत्येक उप स्तम्भ छज्जे ऊपर  देहरी में स्थापित डौळ  के ऊपर स्थित हैं।  उप स्तम्भ के आधार में उल्टा कमल से घट /दबल  आकृति बनती है व उल्टे कमल दल के ऊपर ड्यूल है जिसके ऊपर बड़ा लम्बा सीधा कमल फूल आकृति अंकित है व यहां से स्तम्भ लौकी आकर ले लेता है।   इसआकृति में  में स्तम्भ में धार -गड्ढे (fuet -flitted  ) का कटान हुआ है।  जहां पर स्तम्भ की मोटाई सबसे कम है वहां    उल्टा  कमल फूल ुंभर कर आया है जिसके ऊपर ड्यूल है व उसके ऊपर  कुछ कुछ साहूकार रूपी सीधा कमल दल है।  चरों सीधे कमल दलों  के ऊपर एक  चौकोर आसान स्थापित है जहां से मेहराब निकलते हैं व स्तम्भ का आकर दो थांत  (Cricket bat blade ) का आकर धारण कर ऊपर मुरिन्ड से मिल मुरिन्ड की कड़ी बन जाते हैं , मुरिन्ड की कड़ी व उसके ऊपर की कड़ी में बेल बूटों की नक्काशी हुयी है। 
मुरिन्ड के ऊपर छत के काष्ठ आधार से कई शंकु लटके हैं व ाँकि आकृति गे -भैंस के स्तन  /दुदल जैसे हैं। 
   निष्कर्ष निकलता है कि बैंजी कांडई (रुद्रप्रयाग ) में उमा दत्त कांडपाल  के मकान की खोळी , खोळी  के अगल बगल , दासों (ओढ़ियों। सीरा )  के अगल बगल के चौखट में , व तिबारी में उच्च श्रेणी की ज्यामितीय , प्राकृतिक व मानवीय कला अलंकरण  अंकन हुआ है।   मकान  शानदार नक्काशी का उम्दा  नमूना है   
सूचना व फोटो आभार: किशोर कांडपाल
  * यह आलेख भवन कला संबंधी है न कि मिल्कियत संबंधी . मिलकियत की सूचना श्रुति से मिली है अत: अंतर  के लिए सूचना दाता व  संकलन  कर्ता उत्तरदायी नही हैं . 
  Copyright @ Bhishma Kukreti, 2020   
 Traditional House wood Carving Art of  Rudraprayag    Garhwal  Uttarakhand , Himalaya   
  रुद्रप्रयाग , गढवाल   तिबारियों , निमदारियों , डंड्यळियों, बाखलीयों   ,खोली, कोटि बनाल )   में काष्ठ उत्कीर्णन कला /अलंकरण , नक्काशी  श्रृंखला 
  गढ़वाल,  कुमाऊँ , उत्तराखंड , हिमालय की भवन  (तिबारी, निमदारी , जंगलादार  मकान , बाखली   ) काष्ठ अंकन लोक कला ( तिबारी अंकन )  - 
Traditional House Wood Carving Art (Tibari) of Garhwal , Uttarakhand , Himalaya ; Traditional House wood Carving Art of  Rudraprayag  Tehsil, Rudraprayag    Garhwal   Traditional House wood Carving Art of  Ukhimath Rudraprayag.   Garhwal;  Traditional House wood Carving Art of  Jakholi, Rudraprayag  , Garhwal, नक्काशी , जखोली , रुद्रप्रयाग में भवन काष्ठ कला, नक्काशी  ; उखीमठ , रुद्रप्रयाग में भवन काष्ठ लोक कला अंकन, नक्काशी  , खिड़कियों में नक्काशी , रुद्रपयाग में दरवाजों में नक्काशी , रुद्रप्रायग में द्वारों में नक्काशी ,  स्तम्भों  में नक्काशी

Bhishma Kukreti

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    सुकई  ( पौड़ी गढ़वाल ) में रावत सूबेदारुं तिबारियों व खोळी में काष्ठ कला , अलंकरण अंकन; लकड़ी  नक्काशी

 बंगारस्यूं (पौड़ी गढ़वाल ) में काष्ठबंगार कला अलंकरण अंकन; लकड़ी  नक्काशी भाग --- 3 
गढ़वाल, कुमाऊँ, उत्तराखंड , हिमालय की भवन (तिबारी, निमदारी , जंगलादार  मकान , बाखली  , खोली  , मोरी ,  कोटि बनाल  ) काष्ठ कला अलंकरण अंकन; लकड़ी  नक्काशी -  211
 संकलन - भीष्म कुकरेती
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बंगारस्यूं (पौड़ी गढ़वाल ) में सुकई  गाँव थोकदारों व सैनिकों  के लिए  प्रसिद्ध गाँव है।  सुकई गाँव से कई तिबारियों व खोलियों की जानकारी मिली है।   आज   सुकई के रावत सूबेदारुं तिबारी  व खोळी में काष्ठ  कला  व अलंकरण पर चर्चा होगी।  सुकई के रावत सूबेदारुं मकान दुपुर , दुघर मकान है।  इस मकान में दो तिबारियां व उनके मध्य खोळी स्थापित है। सुकई के रावत सूबेदारुं तिबारी  व खोळी  दोनों भव्य हैं। 
     खोळी  (आंतरिक प्रवेश द्वार ) तल मंजिल से   पहली मंजिल तक है।   खोळी के दोनों ओर  सिंगाड़ /स्तम्भ हैं व प्रत्येक सिंगाड़ /स्तम्भ चार  उप स्तम्भों के युग्म (जोड़ ) से बी बना है।  चार उप स्तम्भों में से दो   सीधे तलसे ऊपर मुरिन्ड के तह /layer बनाते हैं व इन उप स्तम्भों में  बेल बूटों का अंकन हुआ है।  बाकी दो स्तम्भ आम तिबारियों के स्तम्भ जैसे हैं कि तल में आधार में उल्टे कमल फूल से कुम्भी , कुम्भी के ऊपर ड्यूल व फिर सीधा खिला कमल फूल यहां से उप स्तम्भ लौकी शक्ल ले ऊपर चलते हैं व जहां  सबसे कम मोटाई है वहां उल्टा कमल फूल है फिर ड्यूल है उसके ऊपर सीधा खिला कमल फूल है।  वहां से उप स्तम्भ  सीधा हो ऊपर मुरिन्ड की तह बनाते हैं। 
खोळी के मुरिन्ड बहुस्तरीय है व सब कड़ियों में प्राकृतिक अलंकरण हुआ है।  मुरिन्ड में एक चौखट है जिसमे तोरण बना है व तोरण  के अंदर गणपति की मूर्ति स्थापित है। तोरण  से बाहर के त्रिभुजों में एक एक बहुदलीय फूल   अंकित हैं चौखट एम् खाली जगह में जालीदार आकृतियां अंकित हैं।
मुरिन्ड के अगल बगल में छप्परिका  के आधार से लग क्र नीचे मुरिन्ड तक  तीन तीन दीवारगीर (bracket )  हैं।  प्रत्येक दीवारगीर में सात गट्टे स्थापित हैं व ऊपर आसन है जिसमे एक एक हाथी मूर्ति  स्थापित है।  इस तरह कुल छह हाथियों की मूर्तियां स्थापित हैं। 
 छप्परिका  आधार से  शंकु नुमा  40 -50  काष्ठ आकृतियां  दो पंक्तियों में लटकी  हैं।
  सुकई के रावत सूबेदारुं के भव्य मकान में पहली मंजिल  पर  खोळी  के दोनों ओर एक एक तिबारी स्थापित है।  दोनों तिबारियां आकार व कला अलंकरण दृष्टि से इकजनि हैं।  दोनों भव्य तिबारियां चौखम्या  व तिख्वळ्या (चार स्तम्भ व तीन ख्वाळ ) हैं। 
प्रत्येक स्तम्भ पाषाण छज्जे पर स्थित  देहरी पर चौकोर पाषाण डौळ  के ऊपर स्थापित हैं।  सिंगाड़ /स्तम्भ के  आधार पर  चौकोर कुम्भी है जो उल्टे कमल फूल से बना है , कुम्भी के ऊपर ड्यूल है , ड्यूल के ऊपर सीधा खिला कमल फूल आकृति अंकित है व यहां से स्तम्भ लौकी रूप धारण कर ऊपर बढ़ता है।  जहां पर स्तम्भ की सबसे कम मोटाई है वहां पर  कमल जैसा ड्यूल आकृति अंकित है जिसके ऊपर उर्घ्वगामी कमल पुष्प अंकित है।  यहाँ पर कमल फूल से स्तम्भ सीधा  चौकोर थांत आकृति धारण कर  ऊपर मुरिन्ड की कड़ी से मिल जाता है।
जहां से थांत आकृति  शुरू होती है  वहां  से स्तम्भ से मेहराब का आधा चाप शुरू होता है जो सामने के स्तम्भ के आधे चाप से मिल पूरा मेहराब बनाते हैं। मेहराब  तिपत्ति  (trefoil ) रूपी हैं।  प्रत्येक मेहराब के बाहरी त्रिभुजों में बेल बूटे व  प्रत्येक त्रिभुज के किनारे एक एक बहुदलीय फूल अंकित हैं। 
  मुरिन्ड  अलंकृत कई स्तर की कड़ियों से निर्मित है। दोनों तिबारियों के   मुरिन्ड के किनारे एक एक हाथी आकृति अंकित है।
  निष्कर्ष निकलता है कि पौड़ी गढ़वाल के बीरों खाल के बंगार स्यूं  पट्टी  में  सुकई गाँव में रावत सूबेदारुं के भव्य मकान की  दो तिबारियों  व भव्य खोळी में   ज्यामितीय कटान , प्राकृतिक व माविय कला अलंकरण अंकन हुआ है व नक़्काशु उम्दा किस्म की नक्काशी हुयी है। 
   सूचना अनुसार वर्तमान में जितेंद्र रावत मकान के मालिक हैं।

सूचना व फोटो आभार: संतन सिंह रावत
यह लेख  भवन  कला संबंधित  है . मालिकाना   जानकारी  श्रुति से मिलती है अत: यथास्थिति में अंतर हो सकता है जिसके लिए  सूचना  दाता व  संकलन कर्ता  उत्तरदायी  नही हैं .
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गढ़वाल,  कुमाऊँ , उत्तराखंड , हिमालय की भवन  (तिबारी, निमदारी , जंगलादार  मकान ,बाखली ,  बाखई, कोटि बनाल  ) काष्ठ  कला अंकन नक्काशी श्रृंखला  जारी रहेगी   - 
 

Bhishma Kukreti

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मसूण भरपूर  ( टिहरी  गढ़वाल ) में  बाचस्पति कुकरेती मुन्डीत की भ्यूंतळ पांचखम्या,   छख्वळ्या  तिबारी में काष्ठ कला , अलकंरण , अंकन , लकड़ी नक्काशी

गढ़वाल, कुमाऊं , देहरादून , हरिद्वार ,  उत्तराखंड  , हिमालय की भवन  (तिबारी, जंगलेदार निमदारी  , बाखली , खोली , मोरी , कोटि बनाल   ) काष्ठ  कला , अलकंरण , अंकन , लकड़ी नक्काशी  -   210 

संकलन - भीष्म कुकरेती

टिहरी गढ़वाल से कई प्रकार के भवन शैलियों की सूचना मिली हैं।  आज टिहरी गढ़वाल जनपद के भरपूर मंडल के मसूण  गांव में कुकरेती परिवार की तिबारी में काष्ठ कला व अलंकरण पर चर्चा होगी।  मसूण  गांव में कुकरेती जसपुर ढांगू (पौड़ी गढ़वाल ) से लगभग एक सदी या आस पास स्थानांतरित हुए थे।  स्थानांतर के कारणों पर कई लोक कथाएं विद्यमान हैं। 
प्रस्तुत  मसूण  गाँव में  बाचस्पति कुकरेती की तिबारी में कई  विशेषताएँ व भिन्नताएं पाए गएँ है जो गढ़वाल में आम प्रकार की तिबारियों में कम पायी जाती हैं। 
 मसूण  गाँव में  बाचस्पति कुकरेती की  इस तिबारी भ्यूंतळ तिबारी है जब कि   गढ़वाल में आम तौर पर तिबारी पहली मंजिल में स्थापित होती हैं (अपवाद ज्याठा  गाँव  पैनों ) I  मसूण  गाँव में  बाचस्पति कुकरेती की तिबारी में दूसरी भिन्नता यह है कि  तिबारी चौखम्या  के स्थान पर पंचखम्या  है ( चार  सिंगाड़   की जगह पांच सिंगाड़ ) , तिबारी के स्तम्भ /सिंगाड़  दीवाल से नहीं जुड़े हैं व  तिबारी चौख्वळ्या  की जगह छख्वळ्या (चार ख्वाळ  की जगह छह ख्वाळ)   है।
 
  मसूण   गांव में  बाचस्पति    कुकरेती परिवार की तिबारी में प्रत्येक स्तम्भ कला दृष्टि व आकार दृष्टि से समान हैं।    मसूण   (टिहरी ) गाँव में  बाचस्पति कुकरेती की तिबारी  के सिंगाड़  बड़ी लंबी पत्थर की देळी (देहरी ) के ऊपर चौकोर पत्थर के डौळ  के ऊपर स्थापित हैं।  प्रत्येक सिंगाड़ /स्तम्भ के आधार में  अधोगामी /उल्टे कमल फूल से कुम्भी  बानी  है जिसके ऊपर ड्यूल है और ड्यूल के ऊपर उर्घ्वगामी (सुल्टा ) कमल फूल है।   कमल फूलों की पंखुड़ियों के ऊपर कुदरती कलम  में नक्काशी हुयी है। सीधे कमल दल से सिंगाड़ /स्तम्भ लौकी आकार ले लेता है व ऊपर बढ़ता है. जहाँ पर सबसे कम मोटाई है वहां उल्टा कमल पंखुड़ियां हैं, जिसके आईपीआर ड्यूल है व फिर सीधे खिले कमल फूल की पंखुड़ियां हैं जिसके ऊपर कुछ कुछ चौखट रूपी    बिसौण (आधार ) है व यहां से स्तम्भ थांत (Cricket bat blade type ) रूप धारण कर ऊपर मुरिन्ड से मिल जाता है। यहीं से मेहराब भी शुरू हो जाता है।  मेहराब बहुस्तरीय  है व तिपत्ति रुपीय है।  मेहराब के बाह्य स्तर में कला अंकन हुआ है जो बटी स्योंळ  की डोर जैसे दिखती है। 6  मेहराब के बाहर ऊपर त्रिभुज में  एक एक बहुदलीय सूरजमुखी जैसा फूल है।  6 मेहराब के बाहर बारह त्रिभुज हैं।  याने  बारह  फूल हैं।  त्रिभुज में लता जैसे कोई आकृति भी अंकित हुयी है। प्रत्येक त्रिभुज में एक चिड़िया रूप अंकन भी हुआ है   थांत के ऊपर भी प्राकृतिक रूप (बेल बूटे ) का अंकन हुआ है। 
     मसूण   ( भरपूर , टिहरी गढ़वाल  ) गांव में बाचस्पति    कुकरेती परिवार की तिबारी का मुरिन्ड ( तिबारी का शीर्ष )  दो  चौकोर कड़ियों से निर्मित है व दोनों कड़ियों में पर्ण -लता का सुंदर अंकन हुआ है।  मुरिन्ड की कड़ी में मेहराब के केंद्र ऊपर फूल  भी अंकित हुआ है ।  कड़ी ऊपर छत के आधार पर जालीनुमा नक्काशी भी हुयी है।

  सूचना व फोटो आभार :  प्रसिद्ध 'संस्कृति प्रचारक व फोटोग्राफर'  बिक्रम तिवारी

यह आलेख कला संबंधित है , मिलकियत संबंधी नही है I  भागीदारों व हिस्सेदारों के नामों में त्रुटी  संभव है I 

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गढ़वाल, कुमाऊं , देहरादून , हरिद्वार ,  उत्तराखंड  , हिमालय की भवन  (तिबारी, जंगलेदार निमदारी  , बाखली , खोली , मोरी कोटि बनाल     ) काष्ठ  कला  , अलकंरण , अंकन लोक कला ( तिबारी  - 
Traditional House Wood Carving Art (in Tibari), Bakhai , Mori , Kholi  , Koti Banal )  Ornamentation of Garhwal , Kumaon , Dehradun , Haridwar Uttarakhand , Himalaya -
  Traditional House Wood Carving Art (Tibari) of  Tehri Garhwal , Uttarakhand , Himalaya   -   
घनसाली तहसील  टिहरी गढवाल  में  भवन काष्ठ कला , नक्काशी ;  टिहरी तहसील  टिहरी गढवाल  में  भवन काष्ठ कला , नक्काशी ;   धनौल्टी,   टिहरी गढवाल  में  भवन काष्ठ कला, लकड़ी नक्काशी ;   जाखनी तहसील  टिहरी गढवाल  में  भवन काष्ठ कला , नक्काशी ;   प्रताप  नगर तहसील  टिहरी गढवाल  में  भवन काष्ठ कला, नक्काशी ;   देव प्रयाग    तहसील  टिहरी गढवाल  में  भवन काष्ठ कला, नक्काशी ; House Wood carving Art from   Tehri; 
         


 

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