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Articles By Charu Tiwari - श्री चारू तिवारी जी के लेख

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Charu Tiwari:
धन्य हैं निशंकजी! इस बार ज्यादा ठग लाये

योजना आयोग ने उत्तराखण्ड की वर्ष 2010-11 के लिये 6800 करोड़ की मंजूरी दी है। यह राशि पिछले वर्ष की तुलना में 1225.50 करोड़ रुपये अधिक है। इस परिव्यय का 33.18 प्रतिशत भाग सामाजिक सेवाओं एवं समाज कल्याण के लिये, 29.16 प्रतिशत भौतिक संरचना, 23.12 प्रतिशत सामान्य सेवाओं, 7.5 प्रतिशत कृषि एवं संबद्ध क्षेत्रों और 7.33 प्रतिशत गzामीण विकास के लिये रखा गया है। योजना आयोग राज्यों के लिये प्रतिवर्ष इन परिव्ययों की घोषणा करता है। राज्य के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल ने इस योजना के लिये 360 करोड़ रुपये की अतिरिक्त सहायता की मांग की थी। उन्होंने केन्दzीय सहायता प्राप्त योजनाओं के लिये 90 और 10 के अनुपात में केन्दzीय सहायता का आगzह किया। मुख्यमंत्री ने राज्य को गzीन बोनस के तौर पर पांच हजार करोड़ रुपये अतिरिक्त देने की मांग भी की। इसके अलावा विशेष औद्योगिक पैकेज को 2020 तक बढ़ाने की जरूरत और पेयजल पंपिंंग योजनाओं के लिये 500 करोड़ रुपये की विशेष केन्दzीय सहायता अलग से दिये जाने का अनुरोध किया। फिलहाल योजना आयोग ने इस वर्ष के परिव्यय के लिये 1225.50 करोड़ की स्वीकृति दे दी। लगे हाथ भाजपा के नेताओं ने हवाई अड~डे पर ज्यादा पैसा लाने पर अपने मुख्यमंत्री का स्वागत भी कर डाला। यह हमेशा होता आया है, क्योंकि पार्टी के लोगों को न योजना के आकार के बढ़ने के बारे में कोई तकनीकी जानकारी होती है और न विकास पर खर्च होने पैसे के बारे में समझ। वे प्रतिवर्ष बढ़ने वाले योजना परिव्यय को अपने नेताओं की उपलब्धि मान लेते हैंं। राज्य बनने बाद योजनागत परिव्यय का आकार बढ़ता रहा है। अविभाजित उत्तर प्रदेश में पर्वतीय क्षेत्रों के लिये यह 650 करोड़ रुपये था। राज्य बनने के बाद यह राशि 1000 करोड़ से लेकर 6800 करोड़ तक बढ़ चुकी है।
 प्रतिवर्ष योजनाओं के आंकड़ों का खेल उत्तराखण्ड सरकार के लिये सुरक्षा कवच का काम करते हैं, इससे सरकार को अपनी विफलताओं को आंकड़ों में उलझाने का मौका मिल जाता है। यह जनविरोधी सरकारों के लिये बहुत जरूरी होता है। राज्यों के लिये योजना आयोग से मंजूर की जाने वाली योजना राशि सरकारी व्यवस्था की एक सामान्य प्रकिzया है। राज्य के विकास एव मूलभूत जरूरतों के लिये दी जाने वाली इस राशि में थोड़ा ‘बाग्zिनिंग’ और राजनीतिक ‘एप्रोज से बढ़ाया जा सकता है। इसमें पूर्व मुख्यमंत्राी नारायण दत्त तिवारी को महारथ हासिल था। वे उत्तर प्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्राी, केन्दz में मंत्राी और योजना आयोग के उपाध्यक्ष रह चुके थे। जब तक वे मुख्यमंत्राी रहे योजना का आकार बढ़ता गया। इसी घौंस के चलते कई बार उनके समर्थक उन्हें योग्य और बड़ा नेता मानने की गलतफहमियां पालते रहे। ऐसा ही अक मौजूदा मुख्यमंखी निशंक के समर्थक समझ रहे हैं। दरअसल ऐसा होता नहीं है कि किसी तिवारी या निशंक की चिकनी-चुपड़ी बातों में आकर केन्दz अपनी थैली का मुह खोल दे, लेकिन जब योजना राशि मंजूरी का समय आता है तो सत्तारूढ़ सरकारें और उनकी पार्टी इसे अपन उपलब्ध्यिों के रूप में शामिल कर लेती हैं।
 राज्य के पक्ष और विपक्ष के नेता राज्य बनने के बाद लगातार विशेष पैकेज की बात करते रहे हैं। उनकी इस मांग से लगता है कि पैकेज मिलते ही पहाड़ के विकास का नक्शा बदल जायेगा और यहां की सारी समस्यायें खुद-ब-खुद हल हो जायेंगी। इन नौ सालों में भाजपा-कांगेस की बारी-बारी से सरकारें आया हैं। अब तो भाजपा के साथ वह क्षेत्राीय राजनीतिक पार्टी उकzांद भी है जो अपने संसाधनों से ही राज्य का नक्शा बदलने का दम भरती थी। कई योग्य मुख्यमंत्राी आये। विशेषकर नारायण दत्त तिवारी और निशंक को तो प्रचार भी खूब मिलता है कि अगर वे नहीं हाते तो पहाड़ भी नहीं होता। इन दोनों के समय में योजना के आकार में भारी वृद्धि हुयी है, लेकिन विकास का पहिया वहीं रुका है जहां से बात शुरू हुयी थी। योजना आयोग से अधिक पैसा मिलना विकास की गारंटी नहीं होती। विकास प्राथमिकतायें और संसाधनों के सही उपयोग पर निर्भर करता है। दुर्भाग्य से उत्तराखण्ड में विकास की प्राथमिकतायें पहले तो तय नहीं है, यदि हैं भी तो उसके सही उपयोग और कार्य संस्कृति के अभाव में वह एक वर्ग विशेष की पोषक बन गयी हैं।
 इस योजना पर व्यय होने वाली राशि का भी वही होना है जो पिछली योजना राशियों का हुआ। इस याजना में भी वही घिसी-पिटी और थका देने वाली योजनाओं पर जोर दिया गया है, जिससे न तो जनता को प्रत्यक्ष रूप से कोई लाभ मिल पाता है और न विकास का कोई चमत्कार।  हां यह योजनायें सरकारी आंकड़ों मे वृद्धि अवश्य करते हैं। इन योजनाओं के नाम पर जो बंदरबांट और विकास का दिवास्वप्न जनता को दिखाया जाता रहा है, उससे जनता पहले ही त्रस्त है। राज्य बनने के बाद से उर्जा प्रदेश का राग अलापने वाली सरकारें अभी तक गांवों में बिजली नहीं पहुंचा पायी है। जहां पहुंची भी है तो वहां घंटों की कटौती ने परेशान किया है। असल में जिस तरह स्वयंसेवी संस्थायें समस्याओं का हैव्वा खड़ा कर पैसा र्ऐठती हैं वही चरित्र सरकारों का भी है। विकास के नाम पर ठगी और जनता को गुमराह कर पैसे का अपव्यय।
 राज्य में जहां तक जनता की मूलभूत समस्याओं के समाधान का सवाल है, इस एक दशक में सरकारों ने इसमें कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी है। सरकारी अस्पतालों की हालत दिन-प्रति-दिन बिगड़ती जा रही है। उसकी जगह पर एनजीओं को लाभ पहुंचाने के लिये 108 सेवा शुरू कर स्वास्थ्य के ढ़ाचागत स्वरूप को खत्म कर इसे निजी हाथो में सौंपने की जमीन तैयार की जा रही है। सरकार निजी चिकित्सालयों और मेडिकल कालेजों को प्रात्ेत्साहन दे रही है। सुना है कि अब शिक्षा भी मोबाइल स्कूलों के माध्यम से दी जायेगी। इसका सीधा अर्थ है सरकारी व्यवस्थाओं को नकारा साबित कर निजी क्षेत्र के लिये रास्ता खोलना। कल्याणकारी योजनाओं पर सबसे ज्यादा खर्च इसलिये दिखाया जाता है ताकि एनजीओ को पोषित किया जाय। राष्टीय समाचार पत्राों में हर वर्ष मुख्यमंत्राी का योजना आयोग के उपाध्यक्ष के साथ भेट और उन्हें गुलदस्ता भेट करना सत्तारूढ़ पार्टियों को भले ही सकून देता हो, लेकिन राज्य में पसरी वित्तीय अनियमिततायें जनता को मुंह चिढ़ा रही हैं। योजना मदों की प्राथमिकताओं की बात इसलिये जरूरी है क्योंकि राज्य बनने स पहले भी यहां पर्वतीय विकास मद से मिलने वाली राशि पर नहीं उसके खर्च करने के तरीके पर असंतोष था। पर्वतीय विकास मद में मिलने वाले 650 करोड रुपये की जो बंदरबांट होती थी, उससे पहाड़ का विकास तो नहीं हो पाया नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों की जेबें मजबूत हुयी। कमोवेश राज्य बनने के इन सालों में भी स्थिति वही है। शुरुआत में भाजपा की नौसिखया और पूर्वागzही अंतरिम सरकार ने शिशु मंदिरों के पोषण को विकास मान लिया और बाद में कांगzेस ने विकास का जो नया चरित्र ईजाद किया वह सबके सामने आया। सुविधाभोगी राजनीति को आगे बढ़ाते हुये राज्य में संसाधनों की लूट जारी है। निशंक जी धन्य हैं, इस ज्यादा ठग लाये।

Charu Tiwari:
सिर्फ एक पहाडी स्थल ही नहीं है गैरसैंण

उत्तराखण्ड की कांग्रेस सरकार ने, अपने ही दल की पिछली सरकार की नीतियों के विपरीत गैरसैंण को राज्य की स्थार्इ राजधानी बनाने और कमसे कम एक सत्र वहाँ चलाने का जो निर्णय लिया है, उससे राज्य गठन विरोधी होने के पार्टी पर लगे दाग को धोने की षुरूआत तो हुर्इ है पर यह निर्णय सिर्फ स्थानीय सन्तुलन बनाये रखने के लिये वर्तमान मुख्यमंत्री का है या केन्द्र में बैठे कांग्रेस के नीतिकारों की भी उससे सहमति है, यह तो निर्णय के अमल में आने के बाद ही पता चल सकेगा पर इस बार पहाड के लोगों आषा है कि गैंरसैंण पर मुख्यमंत्री के निर्णय से कांग्रेस हार्इकमान भी सहमत होगी। दरअसल उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन का सबसे कमजोर पक्ष यह रहा है कि जिन लोगों ने पृथक राज्य के लिये आन्दोलन किया और जो लोग पहाडी स्वाभिमान से ओतपोत होकर पृथक राज्य के लिये सडकों पर आये, उन्हें पृथक राज्य की सरकारों के संचालन में इस स्तर तक भागीदारी नहीं मिली कि वे अपनी कल्पना के राज्य की नीतियाँ लागू कर सकते। मुख्यधारा की राजनीति ने उसके सपनों को पृश्ठभूमि में ढकेल दिया। गैरसैंण जो कि राज्य आन्दोलन का प्रेरक तत्व रहा, राज्य बनने के बाद पृश्ठभूमि में चला गया। गैरसैंण को पृश्ठभूमि में धकेलने में, राज्य में बारी-बारी से षासन कर रहे दोनों राश्ट्रीय दलों का समान स्वार्थ रहा है। राजनीतिक विरोधी होने के बाबजूद इन दोनों राश्ट्रीय नीतिकार इस बात पर तो एक हैं कि यदि उत्तराखण्ड स्थानीय सषक्तीकरण की हवा बही तो राश्ट्रीय आर्थिक मुददे, उदारवाद, स्थानीय संषाध् ानों का राश्ट्रहित में प्रयोग जैसे निर्णय लागू नहीं हो सकते। गैरसैंण के साथ जुडे स्थानीय सषक्तीकरण, के मुददे, स्थानीय संषाधनों के स्थानीय उपयोग के विचार, राश्ट्रीय दलों की अन्र्तराश्ट्रीय प्रतिवध्ताओं के विपरीत है। इन सब कारणों से गैरसैंण, विचार को ही इन राश्ट्रीय दलों ने पिछले 12 वर्शों में लगातार पृश्टभूमि में डाला है। कभी निर्णय न लेकर कभी साफ इन्कार करके तो कभी आयोग बनाकर। स्थार्इ राजधानी पर बने दीक्षित आयोग का कार्यकाल 7 बार बढाये जाने में दोनों मुख्य राश्ट्रीय दलों की सहमति
रही है। संसद में अपनी ताकत के कारण भारतीय जनता पार्टी व कांग्रेस पृथक राज्य बनाने का श्रेय लेती रही हैं। लेकिन इन दलों ने जो राज्य बनाया वह उत्तराखण्डी स्वाभिमान वाला पृथक राज्य न होकर सिर्फ एक अतिरिक्त राजनीतिक इकार्इ बन गया, जो कि कभी - कभी अपने राजनीतिक कार्यकर्ताओं की महत्वाकांक्षाओं को सत्तासुखभोग के लिये इन दलों को देषभर में करना पडता है। उत्तर प्रदेष की इसमें सहमति थी क्योंकि उनकी नीतियों ने पहाड को आत्मनिर्भर नहीं होने दिया और पहाड पर प्रषासन का उनका खर्चा बढा दिया था। हिमांचल प्रदेष ने पिछले 40 वर्शों में यह सिद्व किया है कि पहाडी राज्य आत्मनिर्भर कैसे होते हैं। इसका कारण यह रहा है कि वहाँ भले ही राश्ट्रीय दल ही सत्ता में रहे हों पर मुददे हमेषा स्थानीय रहे हैं जैसे बागवानों की सुविधा, समर्थन मूल्य, नकदी फसलों एवं फलों का विस्तार और दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों की आत्म निर्भरता के मुददे। उत्तराखण्ड में राज्य की षुरूआत सदियों पुरानी संस्कृति को उजाडने, पहाड के ग्रामीण क्षेत्रों को वेवष व पलायन को मजबूर करने की नीतियों हुर्इ। टिहरी की बर्बादी और उसी हो-हल्ले में अन्य बषे बसाये ग्रामों, षहरों को बरबाद करने के लिये सैकडों विधुत परियोजनाओं का खाका जिस गति से पिछले 12 वर्शों से बनाया गया है, पहाडी गाँवों को आत्म निर्भर बनाने का खाका भी उसी गति व इच्छा से बनाया गया होता तो आज गैरसैंण पर राज्य में संवेदनायें इतनी मजबूत नहीं होती। गैरसैंण राजधानी बनने का अर्थ सिर्फ पहाडी क्षेत्र में विध् ाानसभा होना नहीं है, इसका अर्थ है सदियों से पृथक सांस्कृतिक पहचान रखने वाले पहाडी समाज को सषक्त आर्थिक आधार देना कि यह टिकाउ हो सके संगठित रह सके, विघटित न हो, गैरसैंण स्थानीय संषाध् ानों के स्थानीय हित में उपयोग का प्रतीक है। संषाधनों का स्थानीय आत्मनिर्भरता के लिये उपयोग न कर पाना उन्हें बडे व्यवसायिक व बहुराश्ट्रीय कम्पनियों के कब्जे में डाल देता है। भविश्य में वही समाज जिन्दा रहेेगें जो मजबूती से स्थानीय संषाधनों का आधुनिक जीवन के लिये उपयोग कर पायेगें। गैरसैंण का विचार इस गुलामी से पहाडियों का बचाकर उन्हें वह स्वाभिमान देगा जो सदियों से उनके पास है पर इसके प्रति वे चेतना षून्य हैं। साथ ही गैरसैंण राजधानी वाला उत्तराखण्ड राज्य भारतीय संघ में एक पिछडे समाज के लोकतंत्रीय अधिकार का प्रतीक भी होगा।

बी0 डी0 कसनियाल
(पिथौरागढ़)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
By Charu Tiwari
 
राज्य में भाजपा का नया नारा- ‘हर-हर दारू, घर-घर दारू’
हमारे मित्र और बड़े भाई मुकेश बहुगुणा ‘निठल्ला चिंतन’ करते रहते हैं। उनके इस चिंतन से हमें बहुत सारी चीजें मिल जाती हैं। इस बार के प्रातः स्नान से जो ‘ब्राह्मण मंत्र’ निकला वह नारा बन गया। यह मंत्र है- ‘हर-हर दारू, घर-घर दारू।’ सबसे पहले बहुगुणा जी को बधाई कि उन्होंने ऐसे समय में यह नारा दिया जब पहाड़ की महिलायें शराब के खिलाफ सड़कों पर हैं और संस्कृति के ठेकेदार, धर्म के पहरेदार, गंगा के खेवनहार, राष्ट्रभक्ति के सबसे बड़े प्रवक्ता, गौ माता के भक्त पहाड़ में किसी भी कीमत पर शराब बेचने के पक्ष में खड़े हैं। यहां तक कि शराब बेचने के लिये उन्होंने राष्ट्रीय राजमार्गो का नाम जिला मार्ग तक रखने के कुचक्र रच दिये हैं। ऐसे में ठीक ही है- ‘हर-हर दारू, घर-घर दारू।’ जनादेश की धौंस से अब भाजपा सरकार जो उनके ‘सचरित्र’ संघ के इशारे पर चल रही है ने शराब को पहाड़ की अर्थव्यवस्था के लिये महत्वपूर्ण मान लिया है। उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद जब हाई-वे से शराब की दुकानें हटनी लगी तो सरकार ने उसे बस्तियों में खोलना शुरू कर दिया। यहीं से जनांदोलन की शुरुआत भी हो गई। अब एक बार फिर उत्तराखंड की सर्द हवाओं को शराबबंदी आंदोलन ने गर्म कर दिया है। अस्सी के दशक के नारे फिर गूंजने लगे हैं- ‘नशे का प्रतिकार न होगा, पर्वत का उद्धार न होगा’।
उत्तराखंड में शराब के खिलाफ चलाई जा रही यह मुहिम नई नहीं है। यह समय-समय पर चलती रहती है। राजनीतिज्ञ और माफिया गठजोड़ शराबबंदी के अभियान को हमेशा दादागिरी के बल पर दबाने की कोशिश करता रहा है। इस बार भी यही हुआ। बहुप्रचारित ‘संघी’ मुख्यमंत्री ने अपने पूर्ववर्तीं ‘जमीन से जुड़े’ हरीश रावत से चार कदम आगे बढ़कर शराब को बढ़ाने की ओर कदम बढ़ा दिये हैं। हरीश रावत ने तो सिर्फ इतना ही किया था कि कुमाऊं विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा स्थित होटल मैनेजमेंट संस्थान को अस्सी के दशक के सुरा के व्यवसायी के नाम किया। अब नये मुख्यमंत्री ने और आगे चलकर सड़कों का नाम बदलकर शराब को खुला करने की ‘राष्ट्रभक्ति’ दिखा दी है।
शराब के पक्ष में राजनीतिक दलों और सरकारों का यह उपक्रम नया नहीं है। अस्सी के दशक में जब नशे के प्रतिकार के लिये जनता उठी तो उस समय भी सत्ताधारी दल ने अपने गुंड़ों के माध्यम से जनता को डराने-धमकाने का काम किया था। उस समय एक नारा दिया गया- ‘दो बोतल देती सरकार, गुंडे पाले कई हजार।’ आज भी यही स्थिति है। इस सरकार के पास तो धमकाने के लिये कांग्रेस से भी बड़ा तंत्र है। संघी मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत जहां एक ओर ‘बंदेमातरम’ और राष्ट्रगान’ को जरूरी करने का नारा दे रहे हैं, वहीं वे यह इंतजाम भी कर रहे हैं कि बिना शराब के राष्ट्रभक्ति कहीं बेकार न चली जाये। आखिर भाजपा को सत्ता में इन्हीं लोगों न पहुंचाया है। इतिहास गवाह है कि है कि व्यवस्था में शामिल लोगों ने साजिशन शराब को पहाड़ में अपने स्वार्थों के लिये फैलाया। ब्रिटिशकाल तक यहां शराब का प्रचलन नहीं था। 1815 तक इस क्षेत्र में शराब आम जनता के प्रचलन में नहीं थी। अंग्रेजों ने 1880 में यहां शराब की दुकानें खोलनी शुरू की।
उत्तराखंड में क्रमिक रूप से शराब को सुनियोजित ढंग से आगे बढ़ाया गया। यहां स्थित सैनिक छावनियां, हिल स्टेशनों की स्थापना कर जहर के व्यापार की शुरुआत करने के प्रमुख कारण रहे। बावजूद इसके यहां गांवों में शराब नहीं पहुंची। सन् 1822-23 से 1882 के बीच यहां शराब का प्रचलन बढ़ने लगा। 1822 में शराब, अफीम और दवाओं का जो राजस्व 534 रुपया था वह 1882 आते-आते 29,013 रुपए तक पहुंच गया। इस राजस्व की अप्रत्याशित वृद्धि ने यहां नशे की आहट के प्रति लोगों को सचेत किया। 1925 तक इसका प्रचलन इतना बढ़ गया कि कुमाऊं केसरी बदरीदत्त पांडे को लिखना पड़ा कि यहां 90 प्रतिशत लोग नशे की गिरफ्त में आ गये हैं। उन्होंने इसके खिलाफ मुहिम भी चलाई। उन्होंने कहा कि राजस्व के लिये नशीले पेयों और दवाओं पर रोक लगनी चाहिये। राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में यहां शराब के खिलाफ आंदोलन चले। जगह-जगह शराब की भट्टियों को आग के हवाले किया गया।
आजादी के बाद धीरे-धीरे राजनीतिक दल पहाड़ को नशे में धकेलने लगे। सत्तर का दशक आते-आते उत्तराखंड को शराब की सबसे बड़ी मंड़ी के रूप में जाना जाने लगा। शराब के गिरफ्त में आ चुके पहाड़ में महिलाएं सबसे अधिक प्रभावित होने लगीं। पुरुषों में शराब की लत ने यहां की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया। यहां जगह-जगह टुकड़ों में इसका प्रतिकार भी शुरू होने लगा। अस्सी का दशक आते-आते इस क्षेत्र में शराब माफिया के हाथ इतने मजबूत हो गये थे कि उसने खुलेआम राजनीतिक संरक्षण में शराब बेचना शुरू कर दिया।
नशे के खिलाफ 1 फरवरी 1984 को शुरू हुआ ‘नशा नहीं, रोजगार दो’ आंदोलन भी रातो-रात खड़ा नहीं हुआ। इसके पीछे प्रदेश सरकार की आबकारी नीति और पहाड़ को नशे की गिरफ्त में डालने का कुचक्र था। 1969-70 में उत्तरकाशी, चमोली, टिहरी, पौड़ी और पिथौरागढ़ में शराबबंदी लागू की गई। 1 अप्रैल 1972 को सरकार को एक और शराबबंदी अध्यादेश निकालना पड़ा। इसका कारण था कि 1969-70 में शराबबंदी के खिलाफ शराब व्यापारी अपने पक्ष में उच्च न्यायालय से फैसला ले आये। लेकिन जनता के भारी आक्रोश के कारण यह लागू नहीं हो पाया। शराबबंदी और आबकारी नीति की खामियों के चलते यहां प्रत्यक्ष रूप से तो नहीं लेकिन अन्य माध्यमों से मादक द्रव्यों का व्यापार स्थापित होने लगा। इससे सामाजिक वातावरण लगातार प्रदूषित होने लगा।
सत्तर के दशक में देश की राजनीति ने नई अंगडाई ली। 1977 में देश में पहली बार राजनीतिक विकल्प के रूप में जनता पार्टी की सरकार आई। अल्मोड़ा, नैनीताल, देहरादून सहित पांच मैदानी जिलों में शराबबंदी लागू कर दी गई। सरकार द्वारा की गई शराबबंदी का इस क्षेत्र में प्रभाव नहीं पड़ा। इसका कारण था कि यहां सुरा-लिक्विड दवाओं के रूप में पहाड़ में फैल चुकी थी। गांव-गांव, घर-घर में इसे तस्करों के माध्यम से पहुंचा दिया गया था। हालात यह हो गये कि लोग इस शराबबंदी को अभिशाप समझने लगे। व्यवस्था में शामिल लोगों के लिये ऐसा वातावरण हमेशा अच्छा होता है। 1980 में फिर कांग्रेस की सरकार आई। बिना किसी हिचकिचाहट के पहाड़ के तीन जिलों से शराबबंदी पूरी तरह हटा ली गई और दो जिलों में परमिट पर शराब बेचने की इजाजत दे दी गई। इसके साथ ही वहां शराबरूपी जहर खुलेआम बिकने लगा। झोलों में सुरा-लिक्विड बेचने वाले रातों-रात लखपति बन गये। पहाड़ में ट्रकों से शराब पहुंचने लगी। शराब के इस तंत्र से जुड़े लोगों को सांसदों-मंत्रियों का संरक्षण मिलने लगा। अल्मोड़ा जनपद के एक प्रमुख ने सांसद (जो बाद में प्रदेश के मुखिया भी बने) के संरक्षण में न केवल शराब को खुलेआम व्यापार किया, बल्कि ब्यभिचार में भी लिप्त रहा। इस प्रकार राजनीतिक संरक्षण में फलते-फूलते इस धंधे ने यहां जनांदोलन की पृष्ठभूमि तैयार की। नशे के खिलाफ हालांकि समय-समय पर टुकड़ों में आंदोलन होते रहे, लेकिन इसका व्यापक असर नहीं हुआ। 14 अप्रैल 1983 को अल्मोड़ा में चन्द्रसिंह गढ़वाली समारोह में उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी ने सुरा-शराब, वन और खनन माफिया के खिलाफ बड़े आंदोलन की घोषणा की। इसके लिये व्यापक रणनीति और विचार-मंथन शुरू हुआ। 1 फरवरी 1984 को चैखुटिया विकासख्ंाड के बसभीड़ा से इस आंदोलन की ज्वाला फूट पड़ी।
जब यह आंदोलन चला तो इसमें महिलाओं के साथ बड़ी संख्या में जनता ने भागीदारी की। बसभीड़ा (चैखुटिया) अल्मोड़ा से चला यह अभियान लंबे ऐतिहासिक संघर्ष के साथ समाप्त हुआ। 26 मार्च 1984 को पहली बार ‘अलमेड़ा बंद’ का आह्नान हुआ और पूरा कुमाऊं बंद रहा। गरमपानी में शराब व्यापारियों का मुंह काला कर घुमाया गया। महिलाओं ने जिला प्रशासन कार्यालय में घुसकर नीलामी रुकवाई। सोमेश्वर में पुलिस दमन में कई आंदोलनकारी घायल हुये। यह आंदोलन उत्तराखंड के जनसरोकारों के लिये दिशा देने वाला साबित हुआ। इस आंदोलन में भारी संख्या में लोगों ने गिरफ्तारियां दी। इस आंदोलन को पूरे देश की मीडिया ने सराहा।
यहां यह उल्लेखनीय है कि 1980 के बाद उत्तराखंड में अराजक राजनीतिक लोगों का जो दौर शुरू हुआ वर धीरे-धीरे गांव-घरों में आने लगा है। इंदिरा गांधी के शासन में वापसी के साथ ‘संजय ब्रिगेड’ के लोग जनप्रतिनिधि बनकर आये। एक नवनियुक्त सांसद ने उस समय ताड़ीखेत ब्रांज फैक्ट्री में आंदोलनकारियों को ललकारा फिर 1984 के ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आंदोलन में माफिया के सबसे बड़े हितैषी बनकर उभरे। दुर्भाग्य से राजनीतिक विकल्प न होने के कारण वे चुने जाते रहे। बाद में तो वे सभी लोगों के प्रिय हो गये। उन्हें सत्ता न मिलने का मलाल, राज्य के बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं को होता रहा। जब वे मुखिया बने तो पहला काम उत्तराखंड के उच्च शिक्षा संस्थान कुमाऊं विश्वविद्यालय के एक परिसर का नाम अस्सी के दशक के सबसे बड़े सुरा-लिक्विड के व्यापारी के नाम कर गये। जहर के व्यापारियों के सिनेमा हाॅल बनने लगे। अल्मोड़ा शहर ने पहली बार देखा बहुमंजिली इमारतों को बनते। जहर के व्यापारियों के सिनेमा हाॅल बनने लगे। इसी सुरा व्यापारी ने दानपुर भवन बनाया। आंदोलनकारियों ने तब नारा लगाया- ‘दो मंजिले मे हाथी है, डाबर वाला पापी है।’ इसी व्यक्ति के नाम पर जमीन से जुड़े मुख्यमंत्री ने संस्थान बनाया। यह वही दौर था जब एक नये राजनीतिक अपसंस्कृति का विकास पहाड़ में हुआ। इस दौर में जितने भी छोटे-बड़े शराब माफिया राजनीतिक संरक्षण में फले-फूले वही बाद में जनप्रतिनिधि भी बनते गये। ग्राम सभाओं, ब्लाकों जिला पंचायतों से लेकर संसद, विधानसभाओं में भी ऐसे लोग पहुंचने लगे। इस तरह की राजनीतिक शराब के रास्ते ही आई।
उस दौर में शराब के प्रभाव का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि कहा जाने लगा कि ‘गांधी के चेलों को शराब चाहिये।’ राजनीतिक-माफिया गठजोड़ सिर्फ एक दल विशेष तक सीमित नहीं रहा। जब कांग्रेस के बाद भाजपा सत्ता में आई तो उसने भी शराब व्यापारियों से परहेज नहीं किया। यहां भी वोट की राजनीति में शराब को मान्यता मिलने लगी। पहले शराब लोकसभा और विधानसभा चुनाव जीतने का साधन मानी जाती थी, बाद में इसने पंचायतों तक पांव पसारने शुरू कर दिये। तमाम राजनीतिक दलों ने जिस प्रकार शराब और बाहुबल का इस्तेमाल किया वह किसी से छुपा नहीं है।
प्रदेश में सत्तारूढ़ होने वाले राष्ट्रीय दल भाजपा-कांग्रेस के कारिंदे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से इस शराब संस्कृति के पोषक हैं। उत्तराखंड में जमीन, जंगल और शराब के तंत्र से जुड़े लोगों की एक बड़ी जमात है। यह लगातार उनके कृत्यों में देखने को मिल जाता है। उत्तराखंड में शराब को संरक्षण देकर राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति में ंलगे राजनीतिक दलों के कारण राज्य बारूद के ढेर में बैठा है। उत्तराखड में हाई-वे से शराब हटाने के आदेश के परिपालन में सरकार द्वारा निकाले गये रास्ते को शराबबंदी मुहिम को हतोत्साहित करने के रूप में देखा जाना चाहिये। ऐसी प्रवृत्ति की जड़े अपराध को पनपाने वाली राजनीतिक शक्तियों के साथ निहित हैं। यदि समय रहते जनता ने व्यापक जनजागरण कर यहां के माहौल को नहीं सुधारा तो यह उत्तराखंड के भविष्य के लिये अच्छे संकेत नहीं हैं। अब यह बात साबित हो गई है कि राजनीतिक दलों ने जनविरोध को ही अपना एजेंडा बना लिया है। वोट की राजनीति से गांव-गांव में शराब पहुंचाने वालेराजनीतिज्ञ अब भी बेशर्मी से जनता के पैरोकार बनने का ढोंग कर रहे हैं।
पिछले विधानसभा चुनाव में जिस तरह भाजपा-कांग्रेस ने संसाधनों और शराब का इस्तेमाल किया है उससे यह बात साबित होती है कि ये दोनों दल किसी भी तरह शराब को पहाड़ में बनाये रखना चाहते हैं। चुनाव में शराब का कितना बोलबाला था वह इस बात से समझा जा सकता है कि जनता ने भाजपा के प्रत्याशियों के खिलाफ नारे बनाये। जैसे-
- ‘जब तक....तब तक पीना, तब तक पीना जब तक....।’ (रिक्त स्थान में नाम छुपाया गया है आप चाहें तो अनुमान से भर सकते हैं)
- सैंडिया हैं सौल, मैंसों हैं मैग्डाॅल...........।’ अर्थात महिलाओं के लिये शाॅल हैं और आदमियों के लिये बोतल है। (इस नारे को भी आधा लिखा गया है, अगर आपने कहीं सुना हो तो भर सकते हैं लोक में बनाये इस नारे में आपत्तिजनक शब्द हो सकते हैं उससे मेरा कोई-लेना देना नहीं है।)
जिन पर ये नारे बने उनमें से एक तीसरी बार विधायक बने हैं और दूसरी तो मंत्री बन गई हैं। एक और विधायक हैं जो कभी कांग्रेस में थे। उनके खिलाफ उनकी प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस ने उनके पुराने समय के अखबार बांट दिये, जिनमें उनके शराब के संरक्षक होने का आरोप था और सीबीआई जांच की मांग थी, भाजपा में आकर वे भी ‘तर’ गये। और भी बहुत सारे नेता हैं जो भाजपा की गंगा में डुबकी लगाकर अब सबसे बड़े ‘राष्ट्रभक्त’ हो गये हैं। इसलिये सावधान! उत्तराखंड में ‘बंदेमातरम’ के साथ शराब पीना भी अनिवार्य होने वाला है। और जो बंदेमातरम नहीं गायेगा उसे पहाड़ से निकाल दिया जायेगा। इस डर से हम भी सुबह-सुबह अपने बड़े भाई मुकेश बहुगुणा का अनुसरण कर नहाते वक्त मंत्रोचारण करने वाले हैं, बंदेमातरम से पहले- ‘हर-हर दारू, घर-घर दारू।’
(यह लेख मैंने गंगोलीहाट में चले शराबबदी आंदोलन के समय ‘संडे पोस्ट’ में 2006 में लिखा था। उसके कुछ अंश उसमें से लिये हैं। उत्तराखंड में शराब पर विस्तृत विवरण मेरी शीघ्र आने वाली पुस्तक में है)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
 
Charu Tiwari
 
सत्तर का दशक। 1974-75 का समय। हम बहुत छोटे थे। द्वाराहाट को जानते ही कितना थे। इतना सा कि यहां मिशन इंटर काॅलेज के मैदान में डिस्ट्रिक रैली होती थी। हमें लगता था ओलंपिंक में आ गये। विशाल मैदान में फहराते कई रंग के झंडे। चूने से लाइन की हुई ट्रैक। कुछ लोगों के नाम जेहन में आज भी हैं। एक चैखुटिया ढौन गांव के अर्जुन सिंह जो बाद तक हमारे साथ बालीवाॅल खेलते रहे। उनकी असमय मौत हो गई थी। दूसरे थे महेश नेगी जो वर्तमान में द्वाराहाट के विधायक हैं। ये हमारे सीनियर थे। एक थे बागेशर के टम्टा। अभी नाम याद नहीं आ रहा। उनकी बहन भी थी। ये सब लोग शाॅर्ट रेस वाले थे। अर्जुन को छोड़कर। वे भाला फेंक, चक्का फेंक जैसे खेलों में थे। महेश नेगी जी का रेस में स्र्टाट हमें बहुत पसंद था। बाद में वे स्पोर्टस कालेज चले गये। बाद में राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भी जीते। हम लोग वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेते थे। पहली बार जब वाद-विवाद प्रतियोगिता के लिये मिशन इंटर काॅलेज सभागार में नाम पुकारा तो मंच पर जाते ही बोलने के बजाए रोने लगा था। पहली बार मंच का अनुभव बहुत सिखाने वाला था। मेरे खिलाफ दो बोलने वाले थे। एक थे मनोज जोजफ और एक शायद मनोज जोशी। धाराप्रवाह बोलने वाले इन दोनों का अपनी तरह का आतंक था। मनोज के पिता गांधी आश्रम में नौकरी करते थे। उन्होंने मुझे बुलाया और कहा, ‘बेटा तुम अच्छा बोल सकते हो। बस तुम्हें इतना करना है कि जब मंच में जाओ तो समझो कि सब कुछ तुम ही जानते हो। आगे कौन बैठा है इसकी परवाह मत करना।’ असल में हमारे लिये द्वाराहाट किसी महानगर से कम नहीं था। वहां की नसाफत और शहरी परिवेश हमें हीनभावना से भर देता। मिशन इंटर कालेज के भवन पर लिखा स्थापना वर्ष 1885 हमें पिछड़े होने का भान दिलाता। खैर, बग्वालीपोखर जैसे ग्रामीण क्षेत्र के स्कूल से द्वाराहाट आना भी हमारी कम उपलब्धि नहीं थी। जहां न सड़क थी और बिजली। खैर, बिजली तो तब द्वाराहाट में भी सबके पास नहीं थी। एक बड़ा दल हमारे स्कूल से यहां खेलों में भाग लेने आता। बग्वालीपोखर से लगभग बारह किलोमीटर दूर था द्वाराहाट। जिला परिषद की सड़क से हम दो पंक्तियों में स्कूल का झंड़ा लेकर आते थे द्वाराहाट। रास्ते में एक दुकान में बन (डबलरोटी) का नाश्ता होता था। मिशन इंटर काॅलेज में ही कमरों में रहने की व्यवस्था होती थी। पहली बार होटल में खाना भी द्वाराहाट में ही खाया। होटल क्या होता था, एक गोठ जैसा ही हुआ। कुछ कुर्सी-मेज लग गई तो हमारी भी समझ में आ गया होटल इसी को कहते होंगे। होटल मालिक ने डेढ-दो रुपये में भरपेट भोजन देता था। हमारी टीम में ऐसे भी लड़के थे जो चार लोगों के बराबर खाना खा देते। एक दिन होटल मालिक के सब्र का बांध टूट गया। बोला, ‘स्सालो तुम खाना खाते हो या जेब में भरते हो।’ अरे! मैं कहां चला गया। बात द्वाराहाट पर करनी थी स्याल्दे-बिखौती पर।
द्वाराहाट के बारे में हमारी शुरुआती जानकारी इतनी ही थी। जब हम बड़े होने लगे तो कई तरह से द्वाराहाट से जुड़ाव शुरू हुआ। एक सांस्कृतिक और शैक्षिक शहर के रूप में तो द्वाराहाट है ही राजनीतिक चेतना और आंदोलनों की धरती भी रही। हमारे इलाके में कई जगह उन दिनों भागवत पुराण कथायें हुआ करती थी। व्यास जी बड़े मनोयोग से कहानी सुनाते। पूरा इलाका उमड़ पड़ता व्यासजी को सुनने। व्यास परंपरा की सबसे बड़ी खूबसूरती यह थी बहुत कम पढ़े-लिखे होने के बावजूद उनकी वकृत्व कला का कोई सानी नहीं था। हम भी सुनने जाते थे भागवत। एक प्रसंग आता था मानसखंड का। हम इसे बहुत ध्यान से सुनते। प्रसंग था द्वाराहाट को द्वारिका बनाने का। मानसखंड में जिक्र आता है कि भगवान द्वाराहाट को द्वारिका बनाना चाहते थे। इसके लिये उन्होंने कोसी और रामगंगा को द्वाराहाट में मिलने को कहा। इस संदेश को दोनों के पास पहुंचाने के जिम्मेदारी गगास नदी के तट पर (छानागोलू) में स्थित गार्गेश्वर के सेमल के पेड़ को सौंपी गई। लेकिन उसे नींद आ गई। जब उसकी नींद खुली तो तब तक रामगंगा गिवाड़ घाटी से आगे निकल चुकी थी। इस प्रकार द्वाराहाट द्वारिका बनने से रह गई। अब द्वाराहाट में मंदिर ही हैं। इसलिये इसे उत्तर द्वारिका कहा गया। यह कहानी कितनी सच है यह कहा नहीं जा सकता क्योंकि द्वाराहाट के मंदिर 10वीं से 13 शताब्दी के बीच बने हैं, जब कत्यूरों को शासन था। दूसरी बात कोसी और रामगंगा को कोई ऐसा रास्ता नहीं बनता कि यह द्वाराहाट में मिल सके। बावजूद इसके समाज इतिहास और मान्यताओं दोनों के साथ चलता है इसलिए इस मिथक का भी अपना मतलब है। हमें यह कहानी इसलिये रुचिकर लगती थी क्योंकि मेरे क्षेत्र में बहने वाली गगास नदी का इसमें जिक्र था। हमें भी लगता था कि हम भी किसी इतिहास के हिस्सा हैं। फिलहाल द्वाराहाट भले ही द्वारिका न बन पाई हो, लेकिन उसने एक ऐसे सांस्कृतिक थाती के रूप में अपने को स्थापित किया है जो आज भी शैक्षिक और राजनीतिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।
द्वाराहाट में लगने वाला स्याल्दे-बिखौती मेला। दूर-दूर से लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने वाली खूबियों से भरपूर। कत्यूरों ने यहां एक सुन्दर सरोवर बनाया। बताते हैं कि इसमें कमल खिला करते थे। इसी सरोवर के किनारे ‘शीतला देवी’ और ‘कोट कांगडा देवी’ मंदिर हैं। इसी स्थान पर कत्यूरी राजा ‘ब्रह्मदेव’ और ‘धामदेव’ की पूजा की जाती थी। यही सरोवर बाद में शीतला देवी के नाम पर स्याल्दे पोखर कहा गया। इसी पोखर के किनारे बैशाखी पर ‘स्याल्दे-बिखौती’ मेला भी लगता था। इस मेले में योद्धा अपने युद्ध कौशल का परिचय देते थे। इतिहास बताता है कि तब यह पाषाण युद्ध के रूप में होता था। बाद में यह बंद हो गया। अब यह मेला ‘ओड़ा भेंटने’ का होता है। इसमें तीन आल, नज्यूला और खरक खापें हैं जो नगाड़े-निशाणों के साथ स्याल्दे-बिखौती मेले की परंपरा को आगे ब़ाते हैं। बिखौती का मेला विमांडेश्वर में रात को होता है। खैर, यह एक संक्षिप्त सी बात है द्वाराहाट के मेले के बारे में इसके विस्तृत इतिहास के बारे में फिर कभी बात होगी। अभी जो महत्वपूर्ण है वह है स्याल्दे मेले की आज की प्रासंगिकता के बारे में।
द्वाराहाट का स्याल्दे-बिखौती मेले का ऐतिहासिक महत्व जो भी हो इसका सबसे बड़ा महत्व है जनचेतना का। यह जनचेतना निकलती है गांवों से। यह सामाजिक समरसता का प्रतीक तो है ही प्रतिकार की धारा का प्रतिनिधित्व भी करती है। एक बड़ा आकाश है लोक विधाओं का। इसे जितना समेटना चाहेंगे वह बढ़ता ही जायेगा। गांवों में एक माह पहले से रात को ‘झोड़ों’ की जो गूंज सुनाई देती थी वह चेतना के नए द्वार खोलती थी। हमारे गांव के आसपास के गांवों में भी झोड़ों की धूम रहती। हमारे यहां से रानीखेत 16 किलोमीटर है। उसके पास ही का जंगल है ‘उपट’ का जंगल। हमारे यहां से अगर पैदल रास्ते से जायें तो भी लगभग नौ किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई। हमारी गगास घाटी का जंगल ‘उपट’ ही था जिस पर हमें हक-हकूक मिलते थे। च्याली, भेट, छाना, तमाखानी, मनेला गांवों की महिलायें सुबह ही निकल जाती थी इस चढ़ाई में लकड़ी लेने। एक साथ झोड़े गाती हुई। झोड़ा उनके जीवन का संगीत था। आगे चलने, संघर्ष करने की प्रेरणा भी। सुबह-सुबह इन झोड़ों को सुनने का भी एक आनंद था। हमारे गांव में झोड़ा, चाचरी, भगनौले नहीं हो सकते थे। ब्राह्मणों का गांव था। ब्राह्मणों को इसमें जाने की मनाही थी। ब्राह्मण कहीं झोड़ा-भगनौला गायेंगे। इसमें तोहीन समझी जाती थी। तभी तो अल्मोड़ा के पहले सांसद देवकीनन्दन पंत को हुड़का बजाने और भगनौल गाने के कारण ही ‘हुड़की बामण’ कहा गया। मैं समझता था इतनी अच्छी विधा से ब्राह्मणें को एतराज क्यों होगा। खैर मैं तो झौड़े-भगनौले गाने लगा। अपने साथियों के साथ। बहुत किरकिरी होती थी मां-बाप की। पूरे खानदान की नाक ही डूब गई भगनौले गाकर। लेकिन आनंद आया। इसी ने हमारी दिशा बदल दी और सामाजिक चेतना की एक बड़ी खिड़की खुल गई। व्यापक सरोकारों का रास्ता भी मिल गया।
जब महिलायें झोड़ा गाती तो उनकी व्यापक दृष्टि का पता चलता। अपने संसार को वह कितनी भली प्रकार जानती हैं यह झोड़ों में प्रतिबिबित होता। कोई गीत ऐसा नहीं था जिसकी अपनी खासियत न हो। झोड़े सामूहिकता की उपज हैं। कोई एक जोड़ बना दे तो उसे दूसरा पूरा कर दे। बन गया झोड़ा और फूट पड़े उसमे से अलग-अलग स्वर। इसमें पौराणिक, धार्मिक, प्रेम प्रसंग, सुख-दुख, सामाजिक विसंगति, समसामयिक विषय होते थे।
इस तरह के झोड़ों की एक बड़ी फेहरिस्त रही है। बड़े मनोयोग से महिलायें इन झोड़ों को गाती रही हंै। ग्रामीण परिवेश में पगी इन रचनाओं में उनके सरोकार भी साफ झलकते हैं। श्रंृगार तो झोड़ों की आत्मा है। आमजन की प्रेम की बातें तो हैं ही जीजा-साली, देवर-भाभी, प्रेमी-प्रेमिका के बीच संबंधों के जो झोड़े हैं वह ग्रामीण परिवेश में रहने वाली जनता की संवेदनाओं के बहुत मधुर तारों से बुने गये हैं। एक माह तक गांवों में चलने वाले इन झोड़ों का समापन द्वाराहाट के स्याल्दे मेले मले में होता है। आइये कुछ झोड़ों का आनंद लेते हैं-
खोल दे माता, खोल भवानी धरम किवाड़ा।
कै ल्ये रेछै भेंट पखोवा कै खोलूं किवाड़ा।।
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सनगाड़ की रुमुली दीदी
बकरा पाठा छान क्या ला
ओह श्याम धुर प्रताप दाज्यू
जाठी ले घुघुर छान क्या ला
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मासी क प्रतापा लौंडा इस्कूला निजान बली, स्कूला नि जान,
चैकोटे की पारवती सुरासा निजान बली, सुरासा न जान।
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गोविंदी तेरो मैत्क जोगी अरौ चिमटा छम्मा छम।
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सरकारी जंगल लछिमा बांजा न कटा लछिमा बांजा न कटा
यूं हमारा धुर जंगोवा नासा न कर लछिमा नासा नि करि
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ओ परु डाखांण (डाकखाना) बते दे छम्म- छम्मा।
तेरी नो (नाम)े की चिठ्ठी लेखुला छम्मा- छम्मा।
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ठुम्मा-ठुम्मा गंग नहै उल हिटे साई म्यार दगडा,
तू छै भिना बड़ बगाड़ा, कसि ऊनू त्यारा दगड़ा।
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गाड़ मधुली राड़ मस्युरा झन टोडीए गियों
भाबरा तेली घाम लागेछे, पहाडा पडो हियो
हिसायी को रेटा, हिसायी को रेटा
आचुयी ले पानी पियो ना भरीना पेट। गाड.....
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महिला ः ओह शिखर डाना घामा आगेछो, छोड़ दे भीना मेरी धमेली।
पुरुष ः घाम छाडी बरखा है जो, कसकी छोडो तेरी धमेली।
महिला ः सास देखली, सौर देखला, छोड़ दे भीना मेरी धमेली।
पुरुष ः को देखला काली पातल, कासी के छोड़ो तेरी धमेली।
...........................
मोहना लौड़ा नौल सिपाही तेरी गाड़ी मा रम बोतल।
मधुली छोरी गंगा पार की चाणा खा जाये मेरा होटल।
तेरी खुटी सलाम मधुली चाणा खा जाये मेरा होटल।
हल्द्वनी का पाल्ला टुका, चाणा खा जाये मेरा होटल।
खोदनी नहर, मोहना तेरी गाड़ी मा रम बोतल।
कि त लाये गैली माया, चाणा खा जाये मेरा होटल।
इन झोड़ों के अलावा सामाजिक विकृतियों और राजनीति पर बहुत सारे झोड़े बने हैं। आजादी के आंदोलन के दौर में में ग्रामीणों ने बहुत सारे झोड़े बनाये। भगत सिंह को फांसी देने के खिलाफ भी ग्रामीणों ने अपने स्वर दिये-
धन्य-धन्य भगत सिंहा, धन्य तुमुहणि।
पाणीं को पिजिया वीरा पांणी को पिजिया,
फांसी हणि गयो बीरा, आजादी लिजिया।
आजादी के बाद भी हर बदलावा के दौर में गांवों से झोड़ों के रूप में प्रतिकार के स्वर फूटे हैं। इंदिरा गांधी के 1975 में आपातकाल लगाने की घोषणा के खिलाफ भी महिलाओं ने झोड़े बनाये-
इंदिरा त्यर चुनाव चिन्हा गौरू दगड़ि बाछ,
इंदिरा त्यर गौरू ब्ये रौ छ, संजया हैरो ग्वाव।
इसी प्रकार जब सत्तर के दशक में सहकारी समितियों के माध्यम से घोटाले हुये तो यह झोड़े की बानगी देखिए-
............. है रो सटबटुआ, .....................हैरो जालि, (नामों का जिक्र नहीं किया है)
न गाड़ो सौरज्यू समिति रुपैं समिति है रे जालि।
इस झोड़े को तब के जिलाधिकारी मुकुल सनवाल ने प्रथम पुरस्कार दिया था। इसी प्रकार समाजिक सरोकारों से संबंधित कई झोड़े महिलाओं ने बनाये। शराबबदी और जंगल आंदोलन के खिलाफ भी झोड़े बने हैं। आंदोलन का एक झोड़ा-
तू नि मार डाड जैता घर जानू भल है रे ऐये।
घर बजि गो गाड़ जैता घर जानूं भलि है रे ऐये।
बिन्दुखाता अब है गैछै बिडला की जै जात,
बिड़ला की जै जात जैता घर जानूं भलि है रै ऐये।
दो साल पहले जब द्वाराहाट मेले में गया था तो महिलाओं ने झोड़ा लगाया-
चैली लछिमा पौडर न लगा लालि
लौंडा मोहना सेंटर ल्हैगोछ पाली।
इस बार द्वाराहाट मेले में नहीं जा पाया। एक किस्सा है द्वाराहाट मेले जाने का- ‘चाहे बल्द बिचै जाओ स्याल्दे कौतिक जरूर जांण छू’ (अर्थांत चाहे बैल भी बेचने पड़े लेकिन द्वाराहाट मेला जरूर जाना है।) इस बार तो बेचने के लिये ‘बैल’ भी नहीं बचे थे। हर बार तो कुछ न कुछ बेचकर चले ही जाते थे मेले में। काश! बेचने के लिये ‘बैल’ होते। काश! इस चेतना के स्वरों के लिये कोई सशक्त मंच बन पाता। अच्छा हुआ उत्तराखंड में किसी ‘योगी’ की सरकार नहीं है। वरना द्वाराहाट मेले में ‘एंटी रोमियों स्क्वाॅड’ दल भेजना पड़ता। सांस्कृतिक चेतना और उन्मुक्त इस आयोजन में प्रेम ही तो सर्वोपरि है। प्रेम बना रहे। हमारी अभिव्यक्ति के वे स्वर हमेशा जिंदा रहें जो ग्रामीण अंचल से फूटकर सत्ताओं को हिलाने का काम करती रही है। उम्मीद की जानी चाहिये कि द्वाराहाट के स्याल्दे-बिखौती से चेतना का नया झोड़ा हमें प्रतिकार के लिये तैयार करेगा।

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