कहानी
पड़ाव
दिनेश ध्यानी
काफी वर्षों बाद रामनगर आना हुआ। सोच रहा था कि शायद रामनगर भी दिल्ली की तरह काफी बदल गया होगा लेकिन रामनगर तो वही पुराना रामनगर है। सड़क के किनारे वही लम्बी कतार में होटल तथा वही फल, चना, बेचने वालों की आवाजें उसका स्वागत कर रहे थे। हां सड़क के किनारे कोसी की ओर जाने वाली सड़क पर जो रोड़वेज का पुराना कार्यालय था वहां एक विशाल भवन जरूर बन गया है, रोड़बेज का नया बस अड्डा भी बाजार से तनिक हटकर पुराने काॅलेज वाले ग्राउंड़ के पास बन गया था। बाकी कुछ खास बदलाव रामनगर में नही दिखा। बस से उतरकर सारांश टिकट बुकिंग के पुराने कार्यालय की ओर बढ़ा वहां भी कुछ खास नही बदला, गढ़वाल मोटर यूजर्स का कार्यालय उसी भवन में आज भी चल रहा है। बस की टिकट खिड़की उसी जगह है, उसमें न कोई बदलाव हुआ और न कोई नयापन, सामने मोटर मार्ग तथा बसों का रूट चार्ट को दर्शाता बोर्ड़ नया सा जरूर दिखता है। टिकट खिड़की पर उसी तरह धूल व मैल जमा है लगता है वर्षों से इस पर सफेदी भी नही हुई। टिकट खिड़की की ओर बढ़ते हुए टिकट बाबू को पांच सौ का नोट थमाते हुए खाल्ूयंखेत की एक टिकट मांगी।
टिकट बाबू ने कहा बस अब खाल्यूंखेत नही भौन, मुस्याखांद जाती है बोलो कहां का टिकट दूं?
एक मुस्याखांद का देदो।
मुस्याखांद उतरोगे या भौन जाओगे?
भैया मुझे पड़खण्डाई जाना है।
फिर मुस्याखांद ही उतरना ठीक रहेगा।
ठीक है एक मुस्याखांद का ही दे दो।
टिकट खिड़की पर खड़े खड़े ही उसे याद आया वर्षों पहले वह बाबू जी के साथ जब भी वह गांव आता था तो इसी खिड़की पर खड़े होकर बाबू जी ने टिकट लेते थे। आज वर्षों बाद इस खिड़की को छूकर उसे ऐसा लगा जैसे बाबू जी का स्पर्श कर रहा हो। उसके रोम-रोम में पुरानी यादें जागृत हो गईं, आंखें गमगीन हुई जाती थीं लेकिन उसने अपने आप को संभाला। समय कैसे बीत जाता है मानो कल ही की तो बात हो, एक-एक घटनाक्रम चलचित्र की भांति उसके सामने घूम रहा था। एक बार जब बाबू जी टिकट लाईन में लगे थे तब उसे कहा था कि सामान के सामने रहे। लेकिन वह थोड़ी देर में ही बाबू जी के पास चला आया था। बाबू जी ने तब उसे वहीं से ड़ंाटा था। तुम्हें मैने सामान के सामने बैठने को कहा था तुम क्यांे इधर चले आये? तुम्हें पता नही यहां पलक झपकते ही चोर सामान उड़ा लेते हैं, जाओ तुरन्त सामान के पास खडे़ रहो, मैं आ रहा हूॅं। रामनगर में तब सामान उठाने वाले चोरों का गिरोह सक्रिय था। लोगों की आंख हटी नही कि सामान गायब। बाबू जी ने बस में बताया था कि कैसे यहां चोर सामान तथा लोगों की जेबें काटते हैं। रामनगर से मरचूला में पहंुचने तक बाबू जी ने उसे काफी बातें बताई थीं। बस की आवाज तथा सफर की थकान में उसे कुछ बातें सुनाईं दी, कुछ वह नही सुन सका था। मरचुला में अक्सर बाबू जी उसे घर जाते हुए पकोडे़ व चाय दिलाते व रामनगर आते समय चाय व छोले दिलाते थे। बाबू जी के साथ आते-जाते उसे किसी प्रकार की जिद या अपनी मर्जी की चीज मांगने में संकोच होता था। इसलिए जो भी चीज बाबू जी दिलायें उसे खाने या लेने में ही भलाई थी। अधिकार स्वरूप वह कभी भी कुछ बाबू जी से नही मांगता था। उसे संकोच भी होता तथा बाबू जी का भय भी रहता कि न जाने क्या कहेंगे। कभी-कभार बाबू जी स्वयं ही नमकीन या बिस्कुट, टाफी आदि दिला देते थे। रामनगर से अक्सर घर जाते समय वे लोग चने, मीठे खील, कुंजे, गट्टे तथा मौसमी फल आदि खरीदते थे। बाबू जी कभी भी रामनगर से मिठाई नही खरीदते थे वे कहते थे कि रामनगर की मिठाई खराब होती है, इसलिए मिठाई दिल्ली से ही ले जाते थे। गांव पहुंचकर छोटे-बड़े सभी मिलने आते थे असल-कुशल पूछने के बाद दादी सबको चने, कुंजे व टाफियां आदि बांटती थी कुछ बड़े लोगों को पिताजी अन्दर कमरे में बिठाते और उन्हें चाय आदि पिलाते। रात को घर-घर जाकर चने, मिठाई आदि बांटने की ड्यूटी सारांश तथा उसके भाई पंकज व बहन स्वाति की होती थी। तब वे तीनों घर-घर जाकर चने आदि देकर आते। कई बार पंकज शरारत करदेता किसी के लिए दिया गया कुंजा या गट्टा वह चुपके से मंुह में ड़ालकर खा लेता। तब लोगों मंे आपस में प्यार-मोहब्बत थी आज की तरह नही कि कब आदमी गांव गया और कब वापस आ गया किसी को न खबर होती है और न कोई किसी से मतलब रखते हैं। अब और तब के माहौल में जमीन-आसमान का फर्क आ गया है।
वह बाबू जी के साथ दिल्ली में ही रहता था। गांव में उसकी मां- दादी तथा एक बहन स्वाती व छोटा भाई पंकज रहते थे। वह अक्सर गर्मियों की छुट्टियों में बाबू जी के साथ गांव आता था, स्कूल खुलने से पहले ही दिल्ली लौट जाता। उसका मन करता कि वह भी गांव मंे ही रहे लेकिन स्कूल के लिए उसे दिल्ली लौटना पड़ता। फिर अगले साल गर्मियों की छुट्टियों की प्रतीक्षा लम्बी प्रतीक्षा करो। गांव आकर वह दिल्ली की भीड़-भाड़ तथा भाग-दौड़ की जिन्दगी को भूल सा जाता। गांव का शान्त माहौल, प्रकृति के नजारे उसे अधिक प्रिय लगते। गर्मियों में जंगलों में काफल व किनगोड़ें, हिंसर आदि पके होते, वह गांव के बच्चों के साथ अक्सर जंगल में जाता तथा काफल, किनगोड़े व हिंसर खाता। दिन रात कल-कल बहती नदियों तथा पहाड़ों को देखकर उसे लगता कि काश वह यहीं रहता तो कितना अच्छा होता? जब वह पांचवी कक्षा में था तो छुट्टियां बिताकर दिल्ली जाते समय वह काफी रोया था अपनी मां व दादी पर चिपटकर वह काफी देर तक रोता रहा। उसने अपनी मां से कहा कि मां मैं भी यहीं गांव में पढ़ूंगा तथा यहीं बच्चों के साथ खेलूगा। यहां भी तो स्कूल हैं? मैं यहीं पढ़ूंगा मैं दिल्ली नही जाना चाहता।
तब मां ने उसे बड़े लाड़ से समझाया था। उसे रोता देखकर तब मां की आॅंखें भी छलक आईं थी। मां को रोता देख न जाने क्या हुआ वह भी चुप हो गया व चुपचाप अपने पिताजी के पीछे चल पड़ा। दिल्ली आते समय मां उन्हें बस में बिठाने खाल्यूखेत तक आती, मां अक्सर उसको गले से लगाकर काफी रोती थी तथा अपने आंसुओं को अपनी शाल से छुपाने का प्रयास करती। उसके गालों को बार-बार चूमती व उसके सिर पर हाथ फेरते हुए अक्सर मां की आंख से एकाध आंसू उसके सिर या हाथ पर पड़ जाता तब उसे लगता कि मां रो रही है। मां कहती थी बेटा दिल्ली में खूब पढ़ना लिखना। किसी के साथ इधर-उधर मत घूमना तथा अपने पिता का कहना मानना। जब तू पढ़-लिख जायेगा तो तब तू बड़ा आदमी बन जायेगा। तब पता नही था कि मुझे बड़ा आदमी बनाने के लिए ही दिल्ली भेजा गया था।
आज मैं अपनी जगह बड़ा आदमी तो नही लेकिन अपनी उम्र के लड़कों में से ठीक ही हूूं लेकिन मेरी तरक्की चाहने वाले मेरे मां-बाप आज मेरे साथ नही हैं। दादी का तो पहले ही इन्तकाल हो गया था लेकिन जिन्हौंने मुझे बड़ा किया और जो मेरे बड़ा आदमी बनने के ख्वाब देख रहे थे काश वे आज अगर जिन्दा होते तो कितने खुश होते। उसके दिल्ली आने से काफी पहले से ही दादी उसके लिए अलग से थैले में अखरोट, भंगजीरा तथा घी, शहद आदि कई दिनों से जोड़-जोड़कर रखती। दादी बाबू जी से अक्सर कहती मेरे नत्या को किसी प्रकार से ड़ांटना मत। उसे किसी प्रकार की कमी मत होने देना,अगर उसके लिए किसी प्रकार की कमी हुई तो देखना मैं तेरी पिटाई करूंगी। तब पिताजी धीरे से मुस्करा देते। दादी मुझे व पिताजी को आशीष देकर विदा करती। पिताजी जब दादी के पांव छूते तो दादी की आॅंखें नम हो जाती। दादी तब कहती बेटा परदेश में संभलकर रहना, हमारा सहारा तुम्ही हो। किसी प्रकार की चिन्ता न करना घर-गांव में हम जैसे तैसे कर चला ही लेंगे लेकिन तुम दोनों बाप-बेटे अपनी शरीरों का ध्यान रखना। दादी अक्सर इसी प्रकार की नसीहतें हमें देती। बस अड्डे़ पर मां तब तक बस को देखती रहती जब तक बस आंखों से ओझल नही हो जाती। मां हाथ हिलाकर कुछ कहती थी एक हाथ से अपने आंसुओं की अविरल धारा को पोंछती।
पांच बजे प्रातः रामनगर से बस चल पड़ी है। सारांश अपने गांव जा रहा है। मरचुला में बस रूकी लेकिन वह बस में ही बैठा रहा। धुमाकोट में वह फ्रेश होने के लिए उतरा। अपना जानने वाला उसे कोई भी नही दिखा। हाथ मुंह धोकर वह चुपचाप से बस में बैठ गया। उसे याद आया पहले जब वह गांव जाता था तो किस गर्मजोशी से उसकी दादी, मां तथा भाई-बहन उसका स्वागत करते। दादी उसे दूध, घी, दही आदि सब एक ही दिन खिला देना चाहती। मां उसे अपने अंक में भरकर काफी देर तक रोती रहती। उसे समझ नही आता कि जब गांव आओ तब भी मां रोती है और जब गांव से दिल्ली वापस आओ तब भी मां रोती ही है ऐसा क्यों? तब समझ नही आता था लेकिन आज वह समझता है कि गांव जाने से मां अपनी खुद बिसराने का प्रयास करती तथा जब मैं दिल्ली को आता तो मां सोचती होंगी कि आज से एक साल बाद ही अपने बेटे को देख पाने का सौभाग्य मिलेगा इसलिए मां की ममता रो पड़ती थी। आज वर्षों बाद गांव जाना हो रहा है लेकिन न तो उसके स्वागत करने के लिए मां है न दादी, गांव का उनका मकान टूट चुका है। उसका भाई पंकज मुम्बई में स्यटल है और बहन स्वाति की शादी हो चुकी है वह अपने परिवार के साथ बड़ौदा में रहती है। दादी को गये हुए लगभग पच्चीस बरस हो गये हैं और बाबू जी व मां को गये आठ साल हो गये हैं। दादी तो उम्रदराज हो चुकीं थी लेकिन मां व बाबू जी को तो अभी जीना था। उन्हें अब अपने बच्चों का सुख देखना था लेकिन काल के क्रूर हाथों ने उन्हें असमय ही हमसे छीन लिया। समय किस तरह से करवट लेता है उसने कभी सोचा भी नही था कि एक दिन उसे इस प्रकार से भी गांव आना होगा जब गांव में उसका अपना कोई भी नही होगा। दूर के रिश्ते के एक चाचा हैं जिनके पास उनकी जमीन-जायदाद है, उन्हीं के पास रूककर वह वापस आ जायेगा। बस अभी सरांईखेत पहंुची थी कि जोरदार बारिश शुरू हो गई। बस का आगे का रास्ता काफी कठिन है।
सड़क काफी संकरी तथा घुमावदार है। सड़क पक्की तो बन गयी है लेकिन चैड़ाई में तो वेसे ही है। उसे लगा कि आगे का सफर काफी खतरनाक होगा। उसका मन करा कि यहां से पैदल ही चले लेकिन जंगली जानवरों का ड़र तथा रास्ता भटकने के खतरे को भांपकर वह बस में ही बैठा रहा। बस से कई सवारियां अपने स्टेशनों पर उतर गई थीं काफी सामान भी उतारा जा चुका है, अब बस में काफी खुली जगह है। पूरी बस में उसने नजर दौड़ाई लेकिन अपना जानने वाला कोई भी नही दिखा। उसने अपना सामान एक सीट पर रखा तथा खाली सीट पर लम्बा होकर लेट गया। खाल्यूखेत के मोड़ पर बस रूकी तो उसकी तन्द्रा टूटी। सामने खाल्यूखेत दिख रहा था। सवारियां उतरीं और बस आगे चायखेत होते हुए मुस्याखांद की ओर बढ़ने लगी। चायखेत में उसने अपने पैतृक खेतों को देखा तो उसका मन भारी हो गया। उनके खेत आज बंजर पड़े हैं बीच वाले खेत में बच्चे शायद क्रिकेट खेलते हैं बीच में पिच सी बनी है। आगे की धार से उसकी नजर अपने गांव पर पड़ी वहां सीमेंट के काफी नये मकान दिखाई दिये। लगा जैसे इन बीस सालों में यहां काफी कुछ बदल गया है। घूम-घूमकर बस एक कोने से दूसरे कोने में जाती और फिर उसी कोने में आती प्रतीत होती। आखिर मुस्याखांद आ ही गया। सवारियां यहां उतरी वह भी अपना सामान लेकर उतर गया। उसे ध्यान आया सड़क से नीचे का रास्ता ही पड़खण्डाई जाता है। वह बस से उतरकर सामने की ओर बढ़ ही रहा था कि एक बुजुर्ग आदमी ने उसे देखते ही पहचान लिया। ये दादा-दादा.... करते हुए उसने सारांश का बैग पकड़ लिया और सामने शिशुपाल के होटल में रखकर वहां बैठ गया। सारांश को बैठने का इशारा करते हुए होटल में बैठे एक बालक को दो चाय बनाने का इशारा किया।
फिर वह इशारों में कहने लगा
ये दा...दा ....?
उसने मुझे पहचान लिया था। वह इशारों में मेरे हाल-चाल पूछ रहा है। कह रहा था कि तुम गांव छोड़कर कहां चले गये हो? तुम्हारा मकान टूट गया है, खेत लोग कर रहे हैं। वह कह रहा था कि तुम्हारे मां-बाप बेचारे असमय ही काल के गाल में चले गये। वे बहुत अच्छे लोग थे। वह बार-बार मेरी पीठ थपका रहा है शायद कह रहा कि इतना सा था अब कितना बड़ा हो गया है। सामने बैठा बालक देखकर हंस रहा था।
मदन चाय पी चुका है। उसने मुझे इशारे से उठने के लिए कहा और मेरा बैग लेकर मेरे गांव की ओर चल पड़ा। मदन अब काफी बूढ़ा हो गया है। जब मैं पिताजी के साथ गांव आता था तो मद नही खाल्यूखेत से हमारा सामान लाता था। इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी मदन मुझे पहचान गया है न कमाल। गांव के नजदीक पहुंचकर कई चेहरे जानने वाले दिखे। कई मुझे पहचानने का प्रयास करते कईयों को मैं जानने की कोशिश करता।
मदन कहां से आया और कहां का रहने वाला है इस बात को कोई नही जानता लोग कहते हैं कि उन्हौंने मदन को ऐसे ही देखा। अब वह काफी बूढ़ा हो गया है चढ़ाई पर काफी धीरे चल रहा है। असल में उसकी उम्र भी तो काफी हो चुकी है। जब भी उसे देखा कुछ करते ही देखा उसे सदा ही दूसरों की खातिर खपते देखा है। जीवन पथ पर अनन्त सफर की ओर बढ़ते हुए कदमों के बारे में जैसे हम नही जानते हैं कि हमारा अगला पड़ाव क्या होगा कहां होगा? व इस यात्रा की समाप्ति कब व कैसे होगी? उसी प्रकार मदन के बारे में भी नही जानते हैं कि वह कहां से आया? किसका बेटा है? कौन से गांव का है? असल में यही हालात हमारी भी तो हैं। महानगरों में हम भी तो मदन ही तो हैं, हमें यहां कोई नही जानता हमारी पहचान भी सिर्फ एक मशीनी पुर्जे से अधिक नही है। न किसी को हमारे मूल के बारे में पता, न हमारे बारे में पता। किसी और की तो बात छोड़ दीजिए आगे आने वाले समय में हमारे अपने जिन्हें हम पाल रहे हैं जो हमारी सन्तानें हैं वे भी नही जान पायेंगे कि हमारा मूल कहां था? हम कहां से आये और हमारे पूवर्ज किस गांव, किस कस्बे के रहने वाले थे? यही नियति है और यही इस अनन्त सफर की सच्चाई। हम चले जा रहे हैं उनको हमने इन्हीं रास्तों पर चलते हुए देखा हम भी उनके पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए चल रहे हैं पड़ाव दर पड़ाव ड़ालते हुए एक अनन्त यात्रा के लिए।
गांव समीप है। एक सफर को तो मंजिल मिलने ही वाली है लेकिन यहीं से एक दूसरा सफर शुरू होने वाला है। उसी सफर को अंजाम तक पहंुचाने की खातिर मैं इतने वर्षों बाद अपनी पितृ भूमि में आया हूॅं और वह सफर है हमारे पितर देवताओं को बैकुण्ठ पहुंचाने का, हमारे पितरों के पिण्डदान और उनको हरिद्वार नहलाने का। इस उदे्श्य से गांव आना हुआ है। इस सफर का अगला