गढ़वाली के प्रसिद्ध लोक गायक और नाटककार
जीत सिंह नेगी
गढ़वाली गीत तथा संगीत की शुरू से ही अपनी अलग विशिष्ठ छटा तथा परिपाटी रही है। यह अलग बात है कि यहां के अधिकांश गीतकार अपने गीतों को लोक गीत बताकर हमेशा से ही लोकगीतों के स्वरूप तथा लोकोक्तियों को अपभ्रंसित करते रहते हैं। लोक गीत वह विधा है जो लोक के मध्य से निकली है। लोक गीत में लोक भावना और परिदृश्य होता है। जीत सिंह नेगी जो कि पर्वतीय संस्कृति एवं भाषा के अनन्य उपासक हैं। उनके गीतों में पर्वतीय संस्कृति भाषा, लोकगीतों, लोक-गाथाओं, लोक-नृत्य, लोक-संगीत, स्वस्थ-परम्पराओं के पुर्नजीवन एवं उत्थान के लिए निरन्तर समर्पित भाव समाहित हैं। उनके स्वरचित गीतों, नृत्य-नाटिकाओं एवं गीत-नाटकों के मंचन के माध्यम से उन्होंने पर्वतीय जन-जीवन को बड़ें ही मार्मिक, सजीव एवं प्रभावी ढंग से चित्रित किया है।
विगत 56 वर्षों से गढ़वाली-गीतों की धुनों में स्वरचित सैकड़ों गीतों को अपनी मधुर व प्रेरक वाणी में गाकर यहां के जन-मानस को आल्हादित करते हुए अपनी संस्कृति की ओर आकर्षित करते आ रहे हैं। गढ़वाल के सांस्कृतिक कार्य-कलापों में उनके नेतृत्व की महत्वपूर्ण भूमिका रही है तथा गढ़वाली गीतों की धुनों को बनाने एवं सजाने-संवारने में उनकी विशिष्टता को, लोक-साहित्य समिति, उत्तर प्रदेश के तत्कालीन सचिव श्री विद्यानिवास मिश्र तथा आकाशवाणी दिल्ली के चीफ प्रोड्यूसर ;म्यूजिकद्ध ठाकुर जयदेव सिंसह ने गढ़वाली-गीतों को बनाने तथा गीत-रिकार्डिगं के लिए उन्हें आमत्रित कर मान्यता दी है। श्री नेगी के गीतों की व्यापकता और लोकप्रियता को भारतीय जनगणना सर्वेंक्षण विभाग ने भी प्रमाणित किया है। भारत सरकार के जनगणना विभाग 1961 वौल्यूम ग्ट उत्तर प्रदेश भाग टप् के ग्राम्य सर्वेंक्षण, ग्राम, थापली तहसील पौड़ी, जनपद गढ़वाल के पृष्ठ 48 पर सामयिक सर्वप्रिय लोक-गीतों में श्री नेगी के गीत जिसका विशेष उल्लेख किया गया है।:-
तू होली बीरा उंची निसी ड़ाड्यों मां घसियारी का भेष मा
खुद मां तेरी रूणूं छौउ यखुली मी परदेश मां।
प्रायः सभी महत्वपूर्ण आयोजनों के अवसर पर, यथा चीनी प्रतिनिधि-मण्डल के स्वागत में तथा तत्कालीन गृहमंत्री, भारत सरकार, स्वर्गीय पं. गोबिन्द वल्लभ पंत आदि के समक्ष श्री नेगी ही गढ़वाल की सांस्कृतिक टोलियांें का नेतृत्व करते रहे हैं, आज भी कर रहे हैं। साथ ही गढ़वाल के सांस्कृतिक पक्ष को उजागर करने में वे नेतृत्व प्रदान करते आ रहे हैं। उनके अनेक अनुयायी हैं जो उनके प्ररक मार्गदर्शन में पर्वतीय जनजीवन को चित्रित करने वाले गीत एवं नाटक लिख रहे हैं और आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के अच्छे कलाकारों में स्थान पा रहे हैं।
2 फरवरी, 1927 को ग्राम अयाल, पट्टी- पैडुलस्यूं, पौड़ी गढ़वाल में जन्में जीतसिंह नेगी वर्तमान में 108/12, धर्मपुर, देहरादून, उत्तराखण्ड में रह रहे हैं। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा वर्मा में तथा माध्यमिक शिक्षा ड़ी.ए.वी हाई स्कूल पौड़ी गढ़वाल में तथा डी.ए.वी. काॅलेज, देहरादून में हुई।
मुख्य रचनाओं में
प्रकाशित रचनायें ;पद्ध गीत गंगा ;गीत-संग्रहद्ध
;पपद्ध जौंळ-मंगरी ;गीत-संग्रहद्ध
;पपपद्ध छम घंुघरू बाजला ;गीत-संग्रहद्ध
;पअद्ध मलेथा की कूल ;ऐतिहासिक-नाटकद्ध
;अद्ध भारी भूल ;ऐतिहासिक-नाटकद्ध
;खद्ध अप्रकाशित ;पद्ध जीतू-बगड्वाल ;ऐतिहासिक-नाटकद्ध
;पपद्ध राजू पोस्टमैन ;एकांकीद्ध
;पपपद्ध रामी ;गीत-नाटिकाद्ध
;गद्ध ;अप्रकाशितद्ध
;पद्ध पतिव्रता नारी ;हिन्दी-नाटकद्ध
;पपद्ध राजू पोस्टमैन ;एकांकी हिन्दी रूपान्तरद्ध
6. मंचन किए गए नाटकः-
;पद्ध भारी भूलः सन् 1952 में गढ़वाल भाृत-मण्डल बुम्बई के तत्वाधान में प्रथम बार इस गढ़वाली नाटक का सफल मंचन हुआ। मुम्बई के प्रवासी गढ़वालियों का यह सर्वप्रथम बड़ा नाटक था। तत्पश्चात 1954-55 में हिमालय कला संगम, दिल्ली के मंच से उक्त नाटक का सफल निर्देशन व मंचन किया गया। इसके अतिरिक्त विभिन्न नगरों मं जनता की भारी माॅंग पर अनेक बार इस नाटक का मंचन किया गया।
;पपद्ध मलेथा की कूलः ऐतिहासिक पुरूष टिहरी नरेश के सेनाध्यक्ष तिब्बत विजेता, शूरमा व श्रमदानी माधोसिंह भण्डारी द्वारा मलेथा गांव की कूल के निर्माण की रोमांचक घटना पर आधारित स्वरचित मलेथा की कूल ऐतिहासिक नाटक का प्रथम बर 1970 देहरादून में निर्देशन व मंचन किया गया। 1983 में पर्वतीय कला मंच के तत्वाधान में इस नाटक के देहरादून में पांच मंचित किया गया। इस प्रकार चण्डीगढ़, दिल्ली,टिहरी गढ़वाल, मसूरी एवं मुम्बई आदि मिलाकर इस नाटक को 18 बार प्रदर्शित किया गया।
;पपपद्ध जीतू बगड़वालः गढ़वाल की लोक-गाथा के प्रसिद्ध नायक बांसुरी- वादक जीतू बगड़वाल पर मधुर लोक-धुनों में गीत-नृत्य-नाटक, जीतू बगड्वाल का प्रदर्शन व मंचन पर्वतीय कला मंच के तत्वाधान में सन् 1984 में देहरादून में किया गया। सन् 1986 में देहरादून में ही इस नाटक के आठ प्रदर्शन हुए। 1987 में पुनः चण्डीगढ़ में इस नाटक के चार प्रदर्शन किए गए।
;पअद्ध पतिव्रता रामीः 1956 में पर्वतीय सेवा समाज, दिल्ली के मंच से दो बार हिन्दी में इस सामाजिक नाटक का मंचन व निर्देशन किया गया।
;अद्ध रामीः 1961 में टैगोर शताब्दी के अवसर पर इस गढ़वाली गीत-नाटिका का नरेन्द्र नगर में सफल मंचन हुआ। इस नाटिका के अब तक मुम्बई, दिल्ली, मसूरी, मेरठ, सहारनपुर आदि नगरों में सैकड़ों प्रदर्शन किए गए है।
;अपद्ध राजू पोस्टमैनः गढ़वाल-सभा, चण्डीगढ़ के तत्वाधान में टैगोर थियेटर में इस हिन्दी गढ़वाली मिश्रित एकांकी का मंचन किया गया। इसके अतिरिक्त इस नाटिका का प्रदर्शन मुरादाबाद, देहरादून तथा अन्य नगरों में सात बार किया गया।
;अपपद्ध आकाशवाणी से प्रसारित रचनाएंः जीतू बगड्वाल एवं मलेथा की कूल गीत-नाटकों का कई बार आकाशवाणी नजीबाबाद से प्रसारण किया गया। सन् 1954 से अब तक आकाशवाणी दिल्ली, लखनउू व नजीबाबाद से पांच-छः सौ बार गढ़वाली गीतो का प्रसारण किया गया।
;अपपपद्ध दूरदर्शन दिल्ली से प्रसारित रचनाएंः रामी गीत-नाटिका का दिल्ली दूरदर्शन से पहलीबार हिन्दी रूपान्तर प्रसारण।
;पगद्ध गढ़वाली लोक-गीतोंः नृत्यों के रंगारंग कार्यक्रम राष्ट्रीय त्यौहारों, धार्मिक उत्सवों तथा विभिन्न शताब्दी समारोहों के अवसरों पर 1950 से देश के विभिन्न नगरों में प्रदर्शन।
7. उपलब्धियां
;कद्ध गढ़वाली लोक-गीतों को विभिन्न लुप्त, अर्द्धलुप्त धुनों के सम्बर्द्धक, सरचियता एवं स्वर समा्रटः-
अन्य पहाड़ी-प्रदेशों की मिलती-जुलती मधुर धुनों का समावेश कर सम्बर्द्धन एवं स्वरचित उत्तराखण्ड परिवार की धुनों में अभिवृद्धि की। प्राचीन लुप्त व विस्मृत धुनों को अपनी मौलिक प्रतिभा से पुर्नजीवित किया। उमड़ते-घुमड़ते बादलों, वर्षा की रिमझिम बूंदों, झरनों, नदी-नालों को कलकल, फूलों की मुस्कान, पशु-पक्षियों का हाल-लास आदि प्रकृति के विभिन्न रूप बिम्बवत उनके गीतों में सन्निहित है। यथा मेरा मैत का देश ना बांस घुघूतीए ना बांस घुघुती घू.........
श्री नेगी के मुख से निकलेने वाले गढ़वाली लोक-गीतों के प्रत्येक शब्द में बसे मधुर स्वरों को सुनकर मनुष्य की क्या पशु-पक्षी भी अपने गंतव्य को भूल जाते हैं।
;खद्ध प्रथम गढ़वाली लोक-गीतकार जिन्हौंने गढ़वाली लोक गीतों को सर्वप्रथम हिज मास्टर व्हाइस एवं ऐजिंल न्यू रिकार्ड़िंग कम्पनी में छः गीतों को रिकार्डिं़ग की।
;गद्ध गढ़वाली लोक-गीतों द्वारा गढ़वाल के प्राचीन व आधुनिक सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व धार्मिक आदि विचारों को वहां के जन-जीवन से जोड़कर नाटक व गीतों में पिरोकर अभिव्यक्त किया।
;घद्ध भविष्य की पीढ़ी के गीतकारों के लिए गढ़वाली लोक-गीतों के स्वर, ताल, लय व धुन को शोध के विषय का मार्ग प्रशस्त किया।
;ड़द्ध गढ़वाली लोक-गीतों व नाटकों द्वारा रचनाकारों को उनके जीवन-यापन से जोड़ने के लिए मार्ग-दर्शन किया। उनकी कई रचनाओं के आज चलचित्र भी बन रहे हैं।
8. अतिरिक्त सर्वोंत्तम सांस्कृतिक गतिविधियांः-
सन् 1942 में छात्र जीवन से ही गढ़वाल की राजधानी पौड़ी के नाटक-मंचों से स्वरचित गढ़वाली-गीतों के सस्वर पाठ से गायन-जीवन का शुभारम्भ। प्रारम्भ से ही आकर्षक सुरीली धुनों में लोकगीत गाकर जन-प्रियता को प्राप्ति।
सन् 1949 में यंग-इण्डिया ग्रामोफोन कम्पनी, मुम्बई से छः गढ़वाली गीतों की रिर्काड़िग, ये गीत बहुत ही प्रचलित हुए और सराहे भी गए।
सन् 1954 में, मुम्बई में ही फिल्म मूवी इण्डिया द्वारा निर्मित खलीफा चलचित्र में सहायक निर्देशन की भूमिका निभाई।
उन्ही दिनों चैहदवीं रात फिल्म जो कि मुम्बई की मून आर्ट पिक्चर ने बनाई थी, उसमें भी सहायक निर्देशक के रूप में कार्य किया।
नेशनल ग्रामोफोन रिकार्ड़िग कम्पनी मुम्बई में भी सहायक संगीत निर्देशक के पद पर कार्य किया।
1955 में दिल्ली आकाशवाणी से गढ़वाली गीतों का प्रसारण आरम्भ होने पर प्रथम बैच का गीत गायक तब से निरन्तर सक्रिय।
1955 में ही दिल्ली रघूमल आर्य कन्या पाठशाला में छात्राओं को सांस्कृतिक दिशा देने हेतु रंगारंग कार्यक्रम का निर्देशन।
1955 में कानपुर में चीनी प्रतिनिधि मण्डल के स्वागत समारोह में पर्वतीय जन-विकास समिति के तत्वाधान में संास्कृतिक दल का नेतृत्व।
1955 व 56 में सरस्वती महाविद्यालय दिल्ली के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का निर्देशन।
1955 में गढ़वाल भूमि सुधार से सम्बधिंत दिल्ली स्थित प्रवासी गढ़वालियों के वृह्द सम्मेलन में प्रगतिवादी एवं कृर्षि-उत्थान सम्बन्धी गढ़वाली गीतों द्वारा जन-जागरण में प्रमुख योगदान।
सन् 1956 में माननीय पं. गोबिन्दबल्लभ पंत, केन्द्रीय गृह-मंत्री द्वारा उद्घाटित पर्वतीय लोक-नृत्य से भरपूर सांस्कृतिक समारोह में गढ़वाल की टोली का नेतृत्व।
1956 में लैन्सीड़ौंन गढ़वाल में बुद्ध जयन्ती समारोह के अवसर पर धार्मिक प्रेरणा-प्रद गीतों का गायन कार्यक्रम में भाग लिया।
सन् 1956 में गढ़वाली लोक-गीतों की अन्य नगरों में गीत-संध्या का आयोजन करते हुए भ्रमण।
सन् 1957 में लोक साहित्य समिति, उत्तर प्रदेश के तत्कालीन सचिव श्री विद्यानिवास मिश्र द्वारा विशेष रिकार्डि़ग के लिए स्वरचित गढ़वाली लोग-गीतों के गायन का निमंत्रण, गीतों की स्वीकृति और उनकी रिकार्ड़िग।
1957 व 1964 में एच.एम.वी. एवं कोलम्बिया ग्रामोफोन कम्पनी के लिए स्वयं गाकर आठ गढ़वाली-गीतों की रिकार्डि़ग जो कि अत्यधिक प्रचलित हुए और सराहे गए।
1957 में सूचना विभाग एवं लोक-साहित्य समिति द्वारा संचालित साॅंस्कृतिक कार्यक्रम, लखनउ में गढ़वाल की ओर से पर्वतीय कार्यक्रमों की प्रस्तुति एवं गढ़वाली -भाषा कविता पाठ में सक्रिय भाग लिया।
1957 में लैन्सीड़ौन गढ़वाल में प्रथम ग्रीष्म-उत्सव में कवि-सम्मेलन एवं साॅंस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लिया। इसी अवसर पर गढ़वाल साॅंस्कृतिक विकास समिति का सदस्य निर्वाचित।
1957 में देहरादून में आयोजित ऐतिहासिक विराट साॅंस्कृतिक सम्मेलन में गढ़वाल की लोक-गीत-नृत्य टोली का नेतृत्व। तत्पश्चात इसी संस्था का कला-सचिव निर्वाचित।
1960 में पर्वतीय साॅंस्कृतिक सम्मेलन, देहरादून के मंच से लोक-गीत एवं नृत्यों का आयोजन एवं प्रदर्शन।
1962 में पर्वतीय साॅंस्कृतिक सम्मेलन, देहरादून के मंच से लोक-गीत एवं नृत्यों का प्रदर्शन।
1963 में हरिजन सेवक संघ, देहरादून के तत्वाधान में राष्ट्रीय सुरक्षा कोष के लिए पर्वतीय बाल-कलाकारों को प्रश्क्षिित कर लोक-गीत व नृत्यों का अभूतपूर्व आयोजन। इस कार्यक्रम का उद्घोषक भी बाल-कलाकार को ही बनाया।
1964 में श्रीनगर गढ़वाल में हरिजन सेवक संघ के लिए मनोरम कार्यक्रम का निर्देशन।
1966 में गढ़वाल भ्रात-मण्डल, मुम्बई के तत्वाधान में उत्तराखण्ड के लोक-गीत व नृत्यों के कार्यक्रम में गढ़वाली साॅंस्कृतिक टोली का नेतृत्व।
1970 में मसूरी शरदोत्सव समारोह के अवसर पर शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के रंगारंग कार्यक्रम प्रतियोगिताओं में निर्णायक।
1972 में गढ़वाल-सभा मुरादाबाद के मंच पर देहरादून की अपनी सांस्कृतिक टोली द्वारा साॅंस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तति।
1976 में गढ़वाल-भ्रातृ-मण्डल, मुम्बई के लिए वहीं के गढ़वाली कलाकारों द्वारा साॅंस्कृतिक कार्यक्रमों का निर्देशन।
1979 में मसूरी टी.वी. टावर के उद्घाटन के अवसर पर दिल्ली दूरदर्शन के लिए अपनी टोली द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम का प्रस्तुतीकरण।
1979 में सेन्ट्रल डिफेन्स एकाउण्ट के शताब्दि-समारोह के अवसर पर रंगारंग कार्यक्रम की प्रस्तुति।
1980 में गढ़वाल-सभा चण्डीगढ़ के तत्वाधान में टैगोर थियेटर में सांस्कृतिक टोली का नेतृत्व एवं रंगारंग कार्यक्रमों की प्रस्तुति।
1982 में पर्वतीय कला मंच के गठन के बाद देहरादून में सांस्कृतिक कार्यक्रमों के चार प्रदर्शन तथा इसी वर्ष गढ़वाल-सभा, चण्डीगढ के मंच पर भी सांस्कृतिक कार्यक्रमों के चार प्रदर्शन।
1883 में पर्वतीय कला मंच का सचिव नियुक्त।
1986 में गढवाली समाज, कानपुर के गढ़वाली कवि-सम्मेलन की अध्यक्षता।
1987 में भारत सरकार द्वारा संचालित उत्तर मध्य सांस्कृतिक क्षेत्र द्वारा आयोजित इलाहाबाद में सम्पन्न सांस्कृतिक समारोह में पर्वतीय कला मंच की टोली का नेतृत्व।
1987 में ही दृष्टिवाध्तिार्थ राष्ट्रीय संस्थान, देहरादून में आयोजित संगीत, गायन नृत्य और नाटक की प्रतियोगिता में निर्णायक।
9. विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
;पद्ध रघुमल आर्य कन्या पाठशाला, दिल्ली द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए 1955 में सम्मानित।
;पपद्ध गढ़वाली गीतों का प्रथम संग्रह गीत-गंगा पुस्तक अखिल गढ़वाल सभा देहरादून द्वारा 1956 में सम्मानित।
;पपपद्ध प्रान्तीय रक्षा दल, देहरादून द्वारा आयोजित खेलकूद व सांस्कृतिक प्रतियोगिता के अवसर पर जिलाधीश श्री मोहम्मद बट्ट द्वारा 1956 मंे सम्मानित।
;पअद्ध पर्वतीय जन-वि&