Author Topic: Articles By Dinesh Dhyani(Poet & Writer) - कवि एव लेखक श्री दिनेश ध्यानी के लेख  (Read 71965 times)

dinesh dhyani

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कहानी

अचानक
दिनेश ध्यानी 8/12/09

आज सुबह से काफी धंुध लगी हुई है। सुबह के पौने सात होने को हैं लेकिन बाहर साफ दिखाई नही दे रहा है। लेकिन क्या करें धुंध लगे या कुछ हो सुबह उठना है उठना है ड़्यूटी जाना है, बच्चों को स्कूल भेजना है तो उसमें किसी प्रकार की लेट लतीफी नहीं चलती है। रात को न जाने क्यों नींद नही आई काफी देर इधर-उधर करवटें बदलती रही। शायद रात को सिर पर ठंड़ लग गई है इसलिए सिर दर्द भी हो रहा है।
सुबह उठना है तो उठना है। किसी को बताकर भी कुछ लाभ नहीं सभी अपेक्षा करते हैं कि मैं चाहें कितने भी दर्द में रहंू या परेशान रहूं लेकिन सबसे पहले मैं उठूं और सब काम निपटाकर ही सांस लूं। कभी कभी लगता कि महानगर में रहते हुए हम मात्र एक मशीनी पुर्जाभर रह गये है। मानवीय संवेदनायें और अपनत्व मात्र औपचारिकता ही रह गये हैं। लेकिन मैं ऐसा नही सोचती ना ही ऐसा समझकर काम करती हूं कि मैं ही पिस रही हूूं। मैं अपने परिवार के प्रति मेरा दायित्व और समर्पण भी कह सकते हैं। मुझे अपने परिवार के लिए काम करना अच्छा लगता है। जानते हैं इससे एक तो परिवार में सुगमता से सभी अपनी अपनी मंजिल तक सही समय पर पहंुच जाते हैं और दूसरे एक सन्तोष भी मिलता है कि चलो अपनों के लिए कर रही हंू।
हां कभी कभी खीज भी होती है। जब कोई मेरी तरफ ध्यान नही देता है। ध्यान देने का मतलब मेरे दुख और तकलीफ को समझने का प्रयास ही करते हैं। शायद औरत बनी ही दुख और तकलीफ सहने के लिए है। अपने हिस्से के तो सहेगी ही औरो के हिस्से का भी जैसे उसी के जिम्मे है। असल में आपस में सौहार्द एवं अपनापन तभी बना रहता है जब हम एक दूसरे का ध्यान दें और ख्याल रखें। आखिर मैं भी तो इंसान हूं। भावनाओं में बहकर कह गई वेसे अक्सर ऐसा नही सोचती हूूं लेकिन क्या करूं कभी कभी मन उदास हो जाता है। कोई कुछ भी कहे लेकिन आज भी बहू और बेटी में बेटा और बेटी में बहुत भेद होता है और यही कारण है कि अपनी अपनी भूमिकाओं में कोई कहीं पिसता है कोई कहीं।
दैनिक नित्य कर्म से निपट चुकी हूं। बच्चे स्कूल जा चुके हैं, पति देव अपने दफ्तर की तैयारी में लगे हैं मैं अपने। सुबह का टाईम तो बस यंू समझिये कि किसी को भी एक दूसरे की तरफ देखने की फुरसत ही नही। लगता है जैसे यत्रंवत होकर रह गये हैं। अखबार वाला भी अखबार ड़ालकर चला जाता है। कई बार तो दोनों दफ्तर चले जाते हैं अखबार बालकाॅनी में पड़ा रहता है। फुरसत किसे है। लेकिन में शुक्रवार को एक झलक जरूर अखबार देखती हूूं। क्योंकि इस दिन पर्यटन विशंेषांक होता है इसमें। आज दीवाड़ांड़ा पर्यटन पर विशेषांक निकला है। अहा कितना सुखद अहसास होता है जब पहाड़ों के बारे में दिल्ली जैसे महानगर में करीब से पढ़ने जानने को मिलता है। दस साल पहले हम यह सोच भी नहीं सकते थे कि पर्यटन खोजी लोगों की नजरें दीवा ड़ांड़ा तक भी पहंुचेंगी। असल में दीवा ड़ांड़ा गढ़वाल कुमाउं की सबसे उच्चतम चोटियों में से एक है। जब गढ़वाल में गोरखाओं का आक्रमण हुआ था उस समय की कई किंवदतियां दीवा ड़ांड़ा से जुडी हैं। कहते हैं कि दीवा देवी ने गढ़वाल कुमांउ के लोगों को इसी चोटी से आवाज लगाई थी कि गोरखा आ गये हैं तुम अपने खेत खलिहान छोड़कर घर जाओं। कहते हैं गोरखाओं ने तब पहाड़ में बहुत अत्याचार मचाया था। बच्चों तक को ओखली में कूटकर मार ड़ाला था। आज भी पहाड़ में गोरखाली राज को बड़े कू्रर समझा जाता है।
अखबार टटोल ही रही थी कि अचानक पहाड़ को पहाड़ आकर समझो  नाम से एक लेख पर निगाह टिक गई। लेखक का नाम पढ़ते ही दिमाग को जोर का झटका लगा। कहीं शेखर तिवारी यही कहीं अपना शेखर तो नहीं? यही सोच रही थी कि नाम के नीचे मोबाईल नम्बर भी लिखा था। सोचा एक बार फोन करके देखती हूं। झट से मोबाईल उठाया फोन मिलाते ही सामने घंटी की आवाज मेरे कानों मंे पड़ी चैथी घंटी पर किसी पुरूष ने फोन उठाया।
हैलो!
हां हैलो।
जी कहिए।
जी... जी मैं दिल्ली से बोल रही हंू। आपका लेख पढ़ा जागरण में अच्छा लिखते हैं आप।
जी थैक्स। मैने आपको पहचाना नही।
जी मैंने फोन इसलिए किया था कि कहीं आप अल्मोड़ा वाले शेखर तो नही हो।
जी... ? मैं हूं तो अल्मोड़ा की ही और शेखर भी हूं लेकिन आप कौन?
जी मैं सुधा।
अरे! सुधा वही सुधा तो नहीं बड़ी बाखली वाली?
जी। तो आप शेखर ही हो।
जी, आज अचानक आपकी आवाज इतने सालों बाद क्या सुखद अहसास है। कैसी हो?
ठीक हूं। आप सुनाईये।
शेखर काफी देर तक बात करता रहा। कुछ मैंने उसे अपने बारे में बताया, उसने भी अपने बारे में बताया कि वह सरकारी महकमें में दिल्ली में नौकरी करता है। पार्ट टाईम लिखने का शौक है इसलिए लिखता रहता है। स्कूल में भी लिखता ही रहता था। एक बार मुझ पर उसने एक कविता बनाई थी। जब मुझे सुनाई तो मेरा चेहरा शर्म से लाल हो गया था। उन दिनों हम अल्मोड़ा ड़िग्री काॅलेज में एम ए फाईनल में थे। शेखर की और मेरी अच्छी दोस्ती थी लेकिन पढ़ाई पूरी होने के बाद रास्ते ऐसे अलग हुए कि तब से न तो मिले ना ही किसी को एक दूसरे की सुध लेने की या पूछने की फुरसत ही मिली हो। सुना था शेखर की पढ़ाई पूरी होते ही उसकी माता जी का देहान्त हो गया था उसके पिता दिल्ली में नौकरी करते थे वे बच्चों को भी साथ ले गये। मैं एम ए के बाद दिल्ली में ब्याह दी गई। जिन्दगी के उतार चढाव पार करते करते न जाने कब कौन मिल जाये और कब कौन बिछुड़ जाये किसी को पता नही। शेखर बहुत ही अच्छा लड़का था। मेरा उसके प्रति कुछ गलत खयाल कभी नही आया लेकिन वह अक्सर मुझे चिढ़ाता रहता था। बस यूं समझिये कि हमारी दोस्ती थी। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि दिल्ली में नौकरी करनी पड़ेगी।
आज शेखर से बात करने के बाद काॅलेज के अन्य सहपाठियों एवं अपनी सहेलियों की यादें फिर से ताजी हो गई। ऐसा लग रहा है जैसे कल ही तो बात होगी लेकिन पूरे बीस साल बाद सच एक बहुत ही सुन्दर ख्वाब से कम नही शेखर से बात करना। और वह भी तब जब हम दोनों एक ही शहर में अजनबियों की तरह रह रहे हैं। क्यों यही है महानगरीय जीवन का सच?
जल्दी से तैयार होने लगी हूं आज देर हो जायेगी तो फिर बस मिलना बहुत दूभर हो जायेगा। पति को भी शेखर के बारे में कुछ नही बताया पूछा था कि किसका फोन था। कह दिया कि मेरे एक मित्र का फोन है। मेरे पति बहुत ही समझदार और सुलझे हुए व्यक्ति हैं इसलिए कभी भी मुझसे कुछ बहस या बेवजह सवाल नही किया करते हैं।
भागते-भागते बस मिल गई है। बस में बैठे-बैठे सोच रही हूं कि शेखर से मिलने के बाद अपने और दोस्तों की खोज भी करूंगी। उनमें से भी अधिसख्य शायद शेखर की तरह इसी दिल्ली महानगर में कहीं होगे। जरूर पता करूंगी खासकर सल्ट की अपनी सहेली शुभाश्री का सच वह मेरी बहुत ही अच्छी सेहली थी। काश! उसका पता मिल जाता........ बहुत ही प्यारी और अजीज सहेती थी वह मेरी बहुत चंचल और निड़र लड़की थी। जानती हूं जहां भी होगी वह मुझसे बेहतर होगी।



dinesh dhyani

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1.   धो मुंड़ अर चल फुंड़।
2.   सौदेर बौ कि मायादार आंखि।
3.   रड्डु - रड्डु अर भंयां प्वडु।
4.   जूनि कु दगड़ि उज्यल कि गांणि।
5.   अकल न मत्त द्वी र्वाटों कि खत्त।
6.   दिन झिन फिरद त उदार खांद।
7.   चवन्नि बि दे अर भंय बि से।
8.   ज्वै झिन अपणि हूंदि र्वैई केकि छै।
9.   अळग खुटों कि कच्चि हिटै।
10.   हाथि थैं बौळ लगद त सूंड़ त समळदु चा।

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Excellent Dinesh JI.

Request.. Could you also please provide Hindi Translation of these Idioms.


1.   धो मुंड़ अर चल फुंड़।
2.   सौदेर बौ कि मायादार आंखि।
3.   रड्डु - रड्डु अर भंयां प्वडु।
4.   जूनि कु दगड़ि उज्यल कि गांणि।
5.   अकल न मत्त द्वी र्वाटों कि खत्त।
6.   दिन झिन फिरद त उदार खांद।
7.   चवन्नि बि दे अर भंय बि से।
8.   ज्वै झिन अपणि हूंदि र्वैई केकि छै।
9.   अळग खुटों कि कच्चि हिटै।
10.   हाथि थैं बौळ लगद त सूंड़ त समळदु चा।


dinesh dhyani

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ग़जल

हमने चाहा था...
दिनेश ध्यानी-11/12/09

हमने चाहा था रूक जाते वो
सच मगर कह न पायें रूको।

उनको जाना था तभी तो गये
क्या खता थी बताते सही।

उनसे कुछ बातें करनी तो थीं
उनको फुरसत मिली ही नही।

उनसे कुछ भी शिकायत नही
कुछ उन्हौंने कहा ही नही।

दर्द चुपचाप वे चल दिये
अश्क आंखों हमको दिये।

उनसे कब फिर से होगा मिलन
वे बता भी नही तो गये।।

dinesh dhyani

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जाग पहाड़ा
दिनेश ध्यानी- 11/12/09

दर्दे दर्द लखते जिगर
देख पहाड़ा तेरे नाम
जंगल दरिया पानी मिट्टी
आते हैं औरों के नाम।

पर्वतवासी तब भी अब भी
भटक रहें रोटी की खातिर
चप्पे-चप्पे बंजर होती
धरती होती है सुनसान।

भाग रहे हैं धीरे-धीरे
गांव छोड़कर सब इंसान
जंगल लूटे नदियां बांटी
लूट रहे देखो हैवान।

बंजर खेत हैं नदियां प्यासी
सूखी आशा ममता भूखी
देख पहाड़ा धीरे-धीरे
खाली घर होते वीरान।

राज्य बनाया सपने संजोये
अपने पराये हमने खोये
दस सालों का सफर ये कैसा
ठगा हुआ है हर इंसान।

देख पहाड़ा अब ना जागा
नही खुलेंगे तेरे भाग
सब लूटेंगे तेरे ही घर
तू फिर होगा खाली हाथ।

गैरसैंण के सपने तेरे
गंगा-यमुना हो खुशहाल
सबको शिक्षा, रोटी, औषध
कहां है उत्तराखण्ड खुशहाल?

अभी समय है जागो हिमगिरि
समय दे रहा है आवाज
आज अगर फिर चूक गया तो
कैसे हो जन का उद्वार।।































dinesh dhyani

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जाग पहाड़ा
दिनेश ध्यानी

दर्दे दर्द लखते जिगर
देख पहाड़ा तेरे नाम
जंगल दरिया पानी मिट्टी
आते हैं औरों के काम।

पर्वतवासी तब भी अब भी
भटक रहें रोटी की खातिर
चप्पे-चप्पे बंजर होती
धरती होती है सुनसान।

भाग रहे हैं धीरे-धीरे
गांव छोड़कर सब इंसान
जंगल लूटे नदियां बांटी
लूट रहे देखो हैवान।

बंजर खेत हैं नदियां प्यासी
सूखी आशा ममता भूखी
देख पहाड़ा धीरे-धीरे
खाली घर होते वीरान।

राज्य बनाया सपने संजोये
अपने पराये हमने खोये
दस सालों का सफर ये कैसा
ठगा हुआ है हर इंसान।

देख पहाड़ा अब ना जागा
नही खुलेंगे तेरे भाग
सब लूटेंगे तेरे ही घर
तू फिर होगा खाली हाथ।

गैरसैंण के सपने तेरे
गंगा-यमुना हो खुशहाल
सबको शिक्षा, रोटी, औषध
कहां है उत्तराखण्ड खुशहाल?

अभी समय है जागो हिमगिरि
समय दे रहा है आवाज
आज अगर फिर चूक गया तो
कैसे हो जन का उद्वार।।
































एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Excellent poem on Pahad Dinesh JI.

Narrating the actual condition.

जाग पहाड़ा
दिनेश ध्यानी- 11/12/09

दर्दे दर्द लखते जिगर
देख पहाड़ा तेरे नाम
जंगल दरिया पानी मिट्टी
आते हैं औरों के नाम।

पर्वतवासी तब भी अब भी
भटक रहें रोटी की खातिर
चप्पे-चप्पे बंजर होती
धरती होती है सुनसान।

भाग रहे हैं धीरे-धीरे
गांव छोड़कर सब इंसान
जंगल लूटे नदियां बांटी
लूट रहे देखो हैवान।

बंजर खेत हैं नदियां प्यासी
सूखी आशा ममता भूखी
देख पहाड़ा धीरे-धीरे
खाली घर होते वीरान।

राज्य बनाया सपने संजोये
अपने पराये हमने खोये
दस सालों का सफर ये कैसा
ठगा हुआ है हर इंसान।

देख पहाड़ा अब ना जागा
नही खुलेंगे तेरे भाग
सब लूटेंगे तेरे ही घर
तू फिर होगा खाली हाथ।

गैरसैंण के सपने तेरे
गंगा-यमुना हो खुशहाल
सबको शिक्षा, रोटी, औषध
कहां है उत्तराखण्ड खुशहाल?

अभी समय है जागो हिमगिरि
समय दे रहा है आवाज
आज अगर फिर चूक गया तो
कैसे हो जन का उद्वार।।
































dinesh dhyani

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जरा संभलकर रहा करो।
दिनेश ध्यानी-14/12/09

तुम खुलकर यूं मत हंसा करो
लोग गलत जो समझते हैं।

घुल मिलकर सबसे रहो नहीं
सब अपने अर्थ लगाते हैं।

तुम सबसे सब मत कहा करो
ये लोग बहाने करते हैं।

तुम सबका दर्द समझती हो
पर दुनियां कब से समझती है।

तुम सीधेपन में रहती हो
पर दुनियां शातिर जा ठहरी।

तुम सब पे भरोसा करती हो
लेकिन इस काबिल लोग कहां?

तुम यों मटक-मटक मत चला करो
लोगों की नजर जो लगती है।

तुम जरा संभलकर रहा करो
देखो, जानों मत कहा करो।

तुम मुझसे बातें किया करो
औरों से कुछ मत कहा करो।

तुम बस अपने में रहा करो
जो जैसा है वो रहने दो।।






dinesh dhyani

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क्या नाचगाना ही संस्कृति है?

सभी सज्जनों को सादर नमस्कार।
उत्तराखण्डी गीतो के कार्यक्रम आयोजित करने वालों को लाख-लाख बधाई स्वीकार हो। मैं सादर सभी उत्तराखण्डी लोगों से निवेदन करना चाहता हूं कि काफी दिन से जो बात मन में उठ रही है कि ठीक है गीत और गानें भी हमारी संस्कृति का अंग हैं लेकिन क्या सिर्फ नाच-गाना ही संस्कृति है? यह देखने में आ रहा है कि हम लोग उत्तराखण्डी संस्कृति के नाम पर कुछ गीत और नाचने वाले लोगों के इशारों पर नाच रहे हैं और सोच रहे हैं कि बस यही हमारी संस्कृति है। क्या यही सच है?
   इस बात को सिद्दत से देखा जा रहा है कुछ लोग उत्तराखण्ड की संस्कृति के नाम पर भौंड़े गीत और सीड़ी बाजार में उतार रहे हैं लेकिन समूचा समाज न तो विरोध कर रहा है और न ही अच्छे लोगों को सहयोग मिल रहा है। आज सर्व श्री नरेन्द्र सिंह नेगी, हीरासिंह राणा, गोपाल बाबू गोस्वामी अन्य कई लोग हैं जो कि वास्तव में लोक संस्कृति को बढ़ा रहे हैं लेकिन अधिकांश ऐसे भोंड़े गीत लोक गीतों के नाम पर परोस रहे हैं।
निवेदन इस प्रकार से है कि हम कम से कम यह तो सोचें कि क्या इससे हमारी संस्कृति बच पायेगी? क्या हम इस प्रकार से अनदेखी करके आने वाली पीढियों को क्या दे रहे हैं? कृपया इस प्रकार की बातों पर सादर ध्यान देंगे तो हो सकता है कि हमारी संस्कृति भी बची रहेगी एवं समाज में अराजक गीतों का चलन भी रूक जायेगा। सांस्कृतिक अराजकता एवं नैतिक स्खलन किसी भी सूरत में उचित नही है इस प्रकार की अपसंस्कृति को रोका जाना चाहिए। आशा है हम और आप विषय की नजाकत को समझते हुए भविष्य में इस प्रकार की अपसंस्कृति को रोकने का प्रयास करेंगे।

सादर।

dinesh dhyani

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फैलायें प्रकाश पुंज

दिनेश ध्यानी

बाहर लाखों दीप जलायें
निसदिन उजियारा फैलायें
मन का तिमिर मिटा ना पायें
फिर काहे को दीप जलायें?

मन मैला है तन है कंचन
कथनी अरू करनी में अंतर
लिप्सा, स्थारथ कूट-कूटकर
किस कारण सत संग रूट पर?

चाटुकारिता, पत्रकारिता
चारण बनती कलम जहां
क्रान्ति गीत अरू दमकित ज्वाला
की ताकीत है किसे वहां?

अन्धा हो सरदार जहां पर
चमचों की भरमार जहां
कैसे दीप जलेंगे उस घर
लिप्सित हो इतिहास जहां?

दिल में जिसका दर्द नही हो
जन की खातिर आह नही
ऐसों से क्या हो सकती है
उजियारे की आस कहीं?

जिनकी आंखों पर पट्टी हो
फर्ज का तकिया सिरहाने
ऐसे अन्धों को क्या लेना
अंधियारा हो या उजियारा।

दीप जलायें कसम उठायें
अन्तस का हम तिमिर मिटायें
बाहर झाड़-बुहार न करके
आत्म ज्ञान के दीप जलायें।

मानवता की जीव जगत की
चर अरू अचर चराचर जग की
गर हम कुछ सेवा कर पायें
ऐसे उजियारा हम फैलायें।

दीप पुंज सम उजियारा हो
जीवन अपना यो दमके
सब पर हो श्रीकृपा दिवाकर
जग-जीवन सबका चमके।

आओ! हम सब इस जीवन की
सृजन श्रेष्ठतम मणिमाला में
गुंथ जायें मोती माणिक से
फैलाये प्रकाश पंुज अब हम।।





























आशाओं के दीप जलाकर

दिनेश ध्यानी

आशाओं के दीप जलाकर
अरमानों की बाती सुलगाकर
कुछ तिमिर मिटाने की ठानी
पथ में बढने की अकुलाहट।

पथ में जो हमको शूल मिले
उनमें सपनो के फूल खिले
तिमिर निशा का साया था
ओज पुंज कुम्हलाया था।

हमने सपनों को पंख दिये
उंूची उड़ान के लक्ष्य लिये
जीवन बाती सुलगाकर हम
प्रतिबद्ध बढ़े, बढ़ते ही गये।

तूफानों में भी अड़िग रहे
अरमानों की ड़ोरी थामें हम
थी मौत खड़ी पर ड़िगे नही
तत्पर थे लक्ष्य साधकर हम।

जब-जब कुछ बढ़ता शूल गया
मैं अपने गम को भूल गया
अन्तस में तिमिर घनेरा जो
जीवन की आशा से छंटता गया।

बीच राह में दिया जला
रख जो दिया था बस यों ही
ओ जलता गया, जलता ही रहा
हमकों मंजिल दिखलाता गया।

यह दीपक जलता देख-देख
हम बढ़ते गये मंजिल की तरफ
लो तिमिर घनेरा मिट सा गया
एक पुंज प्रकाश का खिल सा गया।

इसकी आभा में जीवन की
हमकांे शुभ लक्षण भाव दिखे
है यह जीवन का सर्वोपरि
इसमें नवपल्लव अंकुर से खिले।

दीप जलाकर सपनों के
हमने सपनों को आकार दिया
जीवन पथ यों बढ़ते रहे
अरमानों का जो साथ मिला।।







 

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