कहानी
अचानक
दिनेश ध्यानी 8/12/09
आज सुबह से काफी धंुध लगी हुई है। सुबह के पौने सात होने को हैं लेकिन बाहर साफ दिखाई नही दे रहा है। लेकिन क्या करें धुंध लगे या कुछ हो सुबह उठना है उठना है ड़्यूटी जाना है, बच्चों को स्कूल भेजना है तो उसमें किसी प्रकार की लेट लतीफी नहीं चलती है। रात को न जाने क्यों नींद नही आई काफी देर इधर-उधर करवटें बदलती रही। शायद रात को सिर पर ठंड़ लग गई है इसलिए सिर दर्द भी हो रहा है।
सुबह उठना है तो उठना है। किसी को बताकर भी कुछ लाभ नहीं सभी अपेक्षा करते हैं कि मैं चाहें कितने भी दर्द में रहंू या परेशान रहूं लेकिन सबसे पहले मैं उठूं और सब काम निपटाकर ही सांस लूं। कभी कभी लगता कि महानगर में रहते हुए हम मात्र एक मशीनी पुर्जाभर रह गये है। मानवीय संवेदनायें और अपनत्व मात्र औपचारिकता ही रह गये हैं। लेकिन मैं ऐसा नही सोचती ना ही ऐसा समझकर काम करती हूं कि मैं ही पिस रही हूूं। मैं अपने परिवार के प्रति मेरा दायित्व और समर्पण भी कह सकते हैं। मुझे अपने परिवार के लिए काम करना अच्छा लगता है। जानते हैं इससे एक तो परिवार में सुगमता से सभी अपनी अपनी मंजिल तक सही समय पर पहंुच जाते हैं और दूसरे एक सन्तोष भी मिलता है कि चलो अपनों के लिए कर रही हंू।
हां कभी कभी खीज भी होती है। जब कोई मेरी तरफ ध्यान नही देता है। ध्यान देने का मतलब मेरे दुख और तकलीफ को समझने का प्रयास ही करते हैं। शायद औरत बनी ही दुख और तकलीफ सहने के लिए है। अपने हिस्से के तो सहेगी ही औरो के हिस्से का भी जैसे उसी के जिम्मे है। असल में आपस में सौहार्द एवं अपनापन तभी बना रहता है जब हम एक दूसरे का ध्यान दें और ख्याल रखें। आखिर मैं भी तो इंसान हूं। भावनाओं में बहकर कह गई वेसे अक्सर ऐसा नही सोचती हूूं लेकिन क्या करूं कभी कभी मन उदास हो जाता है। कोई कुछ भी कहे लेकिन आज भी बहू और बेटी में बेटा और बेटी में बहुत भेद होता है और यही कारण है कि अपनी अपनी भूमिकाओं में कोई कहीं पिसता है कोई कहीं।
दैनिक नित्य कर्म से निपट चुकी हूं। बच्चे स्कूल जा चुके हैं, पति देव अपने दफ्तर की तैयारी में लगे हैं मैं अपने। सुबह का टाईम तो बस यंू समझिये कि किसी को भी एक दूसरे की तरफ देखने की फुरसत ही नही। लगता है जैसे यत्रंवत होकर रह गये हैं। अखबार वाला भी अखबार ड़ालकर चला जाता है। कई बार तो दोनों दफ्तर चले जाते हैं अखबार बालकाॅनी में पड़ा रहता है। फुरसत किसे है। लेकिन में शुक्रवार को एक झलक जरूर अखबार देखती हूूं। क्योंकि इस दिन पर्यटन विशंेषांक होता है इसमें। आज दीवाड़ांड़ा पर्यटन पर विशेषांक निकला है। अहा कितना सुखद अहसास होता है जब पहाड़ों के बारे में दिल्ली जैसे महानगर में करीब से पढ़ने जानने को मिलता है। दस साल पहले हम यह सोच भी नहीं सकते थे कि पर्यटन खोजी लोगों की नजरें दीवा ड़ांड़ा तक भी पहंुचेंगी। असल में दीवा ड़ांड़ा गढ़वाल कुमाउं की सबसे उच्चतम चोटियों में से एक है। जब गढ़वाल में गोरखाओं का आक्रमण हुआ था उस समय की कई किंवदतियां दीवा ड़ांड़ा से जुडी हैं। कहते हैं कि दीवा देवी ने गढ़वाल कुमांउ के लोगों को इसी चोटी से आवाज लगाई थी कि गोरखा आ गये हैं तुम अपने खेत खलिहान छोड़कर घर जाओं। कहते हैं गोरखाओं ने तब पहाड़ में बहुत अत्याचार मचाया था। बच्चों तक को ओखली में कूटकर मार ड़ाला था। आज भी पहाड़ में गोरखाली राज को बड़े कू्रर समझा जाता है।
अखबार टटोल ही रही थी कि अचानक पहाड़ को पहाड़ आकर समझो नाम से एक लेख पर निगाह टिक गई। लेखक का नाम पढ़ते ही दिमाग को जोर का झटका लगा। कहीं शेखर तिवारी यही कहीं अपना शेखर तो नहीं? यही सोच रही थी कि नाम के नीचे मोबाईल नम्बर भी लिखा था। सोचा एक बार फोन करके देखती हूं। झट से मोबाईल उठाया फोन मिलाते ही सामने घंटी की आवाज मेरे कानों मंे पड़ी चैथी घंटी पर किसी पुरूष ने फोन उठाया।
हैलो!
हां हैलो।
जी कहिए।
जी... जी मैं दिल्ली से बोल रही हंू। आपका लेख पढ़ा जागरण में अच्छा लिखते हैं आप।
जी थैक्स। मैने आपको पहचाना नही।
जी मैंने फोन इसलिए किया था कि कहीं आप अल्मोड़ा वाले शेखर तो नही हो।
जी... ? मैं हूं तो अल्मोड़ा की ही और शेखर भी हूं लेकिन आप कौन?
जी मैं सुधा।
अरे! सुधा वही सुधा तो नहीं बड़ी बाखली वाली?
जी। तो आप शेखर ही हो।
जी, आज अचानक आपकी आवाज इतने सालों बाद क्या सुखद अहसास है। कैसी हो?
ठीक हूं। आप सुनाईये।
शेखर काफी देर तक बात करता रहा। कुछ मैंने उसे अपने बारे में बताया, उसने भी अपने बारे में बताया कि वह सरकारी महकमें में दिल्ली में नौकरी करता है। पार्ट टाईम लिखने का शौक है इसलिए लिखता रहता है। स्कूल में भी लिखता ही रहता था। एक बार मुझ पर उसने एक कविता बनाई थी। जब मुझे सुनाई तो मेरा चेहरा शर्म से लाल हो गया था। उन दिनों हम अल्मोड़ा ड़िग्री काॅलेज में एम ए फाईनल में थे। शेखर की और मेरी अच्छी दोस्ती थी लेकिन पढ़ाई पूरी होने के बाद रास्ते ऐसे अलग हुए कि तब से न तो मिले ना ही किसी को एक दूसरे की सुध लेने की या पूछने की फुरसत ही मिली हो। सुना था शेखर की पढ़ाई पूरी होते ही उसकी माता जी का देहान्त हो गया था उसके पिता दिल्ली में नौकरी करते थे वे बच्चों को भी साथ ले गये। मैं एम ए के बाद दिल्ली में ब्याह दी गई। जिन्दगी के उतार चढाव पार करते करते न जाने कब कौन मिल जाये और कब कौन बिछुड़ जाये किसी को पता नही। शेखर बहुत ही अच्छा लड़का था। मेरा उसके प्रति कुछ गलत खयाल कभी नही आया लेकिन वह अक्सर मुझे चिढ़ाता रहता था। बस यूं समझिये कि हमारी दोस्ती थी। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि दिल्ली में नौकरी करनी पड़ेगी।
आज शेखर से बात करने के बाद काॅलेज के अन्य सहपाठियों एवं अपनी सहेलियों की यादें फिर से ताजी हो गई। ऐसा लग रहा है जैसे कल ही तो बात होगी लेकिन पूरे बीस साल बाद सच एक बहुत ही सुन्दर ख्वाब से कम नही शेखर से बात करना। और वह भी तब जब हम दोनों एक ही शहर में अजनबियों की तरह रह रहे हैं। क्यों यही है महानगरीय जीवन का सच?
जल्दी से तैयार होने लगी हूं आज देर हो जायेगी तो फिर बस मिलना बहुत दूभर हो जायेगा। पति को भी शेखर के बारे में कुछ नही बताया पूछा था कि किसका फोन था। कह दिया कि मेरे एक मित्र का फोन है। मेरे पति बहुत ही समझदार और सुलझे हुए व्यक्ति हैं इसलिए कभी भी मुझसे कुछ बहस या बेवजह सवाल नही किया करते हैं।
भागते-भागते बस मिल गई है। बस में बैठे-बैठे सोच रही हूं कि शेखर से मिलने के बाद अपने और दोस्तों की खोज भी करूंगी। उनमें से भी अधिसख्य शायद शेखर की तरह इसी दिल्ली महानगर में कहीं होगे। जरूर पता करूंगी खासकर सल्ट की अपनी सहेली शुभाश्री का सच वह मेरी बहुत ही अच्छी सेहली थी। काश! उसका पता मिल जाता........ बहुत ही प्यारी और अजीज सहेती थी वह मेरी बहुत चंचल और निड़र लड़की थी। जानती हूं जहां भी होगी वह मुझसे बेहतर होगी।