Author Topic: Articles By Dinesh Dhyani(Poet & Writer) - कवि एव लेखक श्री दिनेश ध्यानी के लेख  (Read 59631 times)

dinesh dhyani

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मूल्यवान धन है जीवन का
दिनेश ध्यानी-14/12/09

कौन जानता है इस जग में
कैसे दिन है कटते अपने
कौन कहां किस टीस से घायल
कौन कहां किसलय में पागल?

किसका गम किस बात की तड़पन?
किस खातिर है मारा मारी
किसलय अरू जीवन की सरिता
किस कारण है प्यासी निर्जल।


बाहर से तो दुनियांदारी
एक सी लगती है फुलवारी
लेकिन सबके अपने अन्तस:
अपने सपने अपने अमलतलास।

जीने की परिभाषा सबकी
अपनी-अपनी अभिलाषायें
कुछ आगत कुछ विगत, अलभ सी
कुछ अपराजित कुछ अतिभावित सी।

कुछ तो है जो टीस बढ़ाता
जीते जी सबको तड़पाता
कुछ तो जो औरों से भी
किसी बात पर अलग दिखाता।

कुछ बातें कुछ अभिलाषायें
कह जाते हैं पा जाते हैं
लेकिन जो अलब्य सी तटस्थ
नदी पाट सी रह जाती है।

तुम जो मिलीं मुझे इस पथ में
सहचर या सहगामी बनकर
तुमसे जो भी पल का मिलना
मूल्यवान धन है जीवन का।

dinesh dhyani

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जीवन सरिता
दिनेश ध्यानी- 4/12/09

जीवन मेरा सरिता सम
हौले-हौले से जीवनपथ में
बढ़ता जाता अन्तहीन
अस्तित्व विहीन।

नव अंकुर, किसलय
योवन नवागन्तुक कोलाहल
कई अनुभवों से दो चार कराती
कुछ अपने कुछ रह जाते खालिस
सपने।

नियति, नियामक अरू होनी के
कालचक्र के पहियों पर
अपने जीवन का भार टिकाकर
चला जा रहा बस यों ही।

नीति, नियम अरू नीति नियामक
सब बेकार हो चुके एक फलक से
नहीं किसी पर रहा भरोसा
खुद को ही था तब कोसा।

बाहर कौतूहल, कोलाहल
लेकिन अन्तस गटक रहा था
मैं अनचाहा ये कैसा हलाहल?
अनचाही राहों पर बढ़ता निश्फल।

योवन की क्यारी में कुछ मैंने
कुसुम संभाले सोचा था
एक दिन अपना सा माली होगा
उसको सौंपूंगा तब धन्य भाव से।

लेकिन नियति और ही खेल संजोये
मेरे अन्तस की तृष्णा को जस का तस ही
अधकचरा सा सत्य घटित
हो बैठा यह कैसा जीवन में।

अहा! ये कैसी प्रभो वेदना सौंपी मुझको
मैंने लोगों को कहते देखा था
जीवन रंग जाता है अपनेपन से सराबोर
हो सार तत्व जब मिल जाता है एक दूजे में।

शायद मैं भावों को समझ न पाया
शायद मैंने अपने ही ढ़ंग से गणित लगाया
चलो पुन: शुरू करता हूं
नये सिरे से जीवन शायद कुछ मिल जाये।

लेकिन फिर भी निस:फल रहा
नही कहीं भी आशाओं का अंकुर फूटा
क्या कभी किसी सूखे पत्थर को रोते देखा है
फिर मैं क्यों आस लगाये बैठा हूं?

लेकिन फिर एक दिन तुमसे जो
चक्षु मिले तो लगा कि जैसे लाखों सुमन
मनोहर मन में कौंध गये
तुम सच तुम मेरी आंखों को प्रथम बार ही जंच सी गयीं।

लेकिन तुम भी तो नही मानती
जो मैं तुमसे कहता जो आवेदन करता
तुम भी मुझको कहां समझ पाती हो
तुम भी तो अपनी ही रौ में अर्थ लगाती।

अब तो लगता यों ही भावशून्य
यों ही संज्ञाविहीन है जीवन मेरा
अब से नही किसी से नेह करूंगा
नही किसी पर अपने मन के भाव कहूंगा।

तुमसे कहा बस! तुम समझो या मत
ये तुम जानों मैं अपनी बात बताकर
खुद को अब हल्का सा समझकर
चिन्ता मुक्त हुआ अब सारी आशाओं अभिलाषाओं से।

तुम सच में ही हो एक न्यारी
शायद तुम ना समझो लेकिन सच कहता हूं
तुमने मेरी सोई तृष्णा को झकझोरा
तुम ही हो जिसने फिर से टूटे तारों को जोड़ा।।

dinesh dhyani

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उत्तराखण्ड से पलायन: आत्म सम्मान के लिए
दिनेश ध्यानी

28 फरवरी 2010 को गढ़वाल भवन पंचकुईया रोड़  दिल्ली में मानव उत्थान समिति के तत्वाधान में उत्तराखण्ड के महान समाज सेवी स्वर्गीय रघुनन्दन टम्टा जी की पुण्य स्मृति में एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। विचार गोष्ठी का विषय था ’उत्तराखण्ड से पलायन’। गोष्ठी में अल्मोड़ा से सांसद श्री प्रदीप टम्टा सहित उत्तराखण्ड के कई गण्य मान्य व्यक्तियों ने शिरकत की। उक्त विचार गोष्ठी का आयोजन श्री सत्येन्दz प्रयासी जी ने किया था। बैठक में एक विचार जो सबको  छू गया कि बहुसुख्यक समाज की ज्यादतियों एवे सौतेले व्यवहार के कारण उत्तराखण्ड के अधिकांश शिल्पकार एवं हरिजन भाईयों ने पूर्ण रूप से पलायन किया। रोजी-रोटी के लिए पलायन करना दुनिया की रीति है लेकिन अगर इसके साथ-साथ आत्म सम्मान भी पलायन का कारण बने तो उसे देश और समाज को सोचना चाहिए। कम से कम आज तो उन बिंदुआंे पर विचार किया जाना चाहिए जो समाज को तोड़ रहे हैं, आदमी को आदमी से अलग कर रहे हैं।
वक्ताओं ने अपनी बात रखते हुए कई प्रकार के सुझाव एवं विचार इस गोष्ठी में दिये। लेकिन सबसे अधिक जो बात उभरकर आई वह विचारणीय एवं आत्मअवलोकन के लिए हमें मजबूर करती है। यों तो हम सभी जानते हैं कि भारतीय समाज रूढ़िवादी एवं जातिवादी मानसिकता से गzसित है और आज भी समाज में इस प्रकार से ये रूढ़िवादिता काफी गहरी पैंठ बनाये हुए हैं। समाज के ठेकेदार रात के अंधेरों में तो वह सब लफ~फाजी और मनमानी करना चाहते हैं और करते हैं जिसके विरोध में दिन के उजाले में फतवे जारी करते हैं और लोगों को नैतिकता एवं रूढ़िवादिता का पाठ पढ़ाते हैं। खाने को कुछ भी मिल जाये, किसी भी प्रकार का मिल जाए खा और पचा जायेंगे लेकिन जातिवाद एवं छुआछूत इनकी रग रग में भरा है।
 आज भी इनकी चाकरी हो या इनके दु:ख-सुख में काम करने हों तो इनकी नजर शिल्पकार लोगों पर ही जाती है। और शिल्पकार भाईयों को भी समझना होगा कि सदियों से इनके शादी विवाह आदि में वन्दनवार गाकर या ढ़ोल-दमाउ बजारक उनको क्या मिला? क्यों इस प्रकार की चाकरी की जाए। आज समानता के युग में और नये-नये अवसरो के बावजूद भी क्यों ढ़ोल बजाना इनका पेशा रह गया है। जब एक सवर्ण का बेटा बैंड़ बजा सकता है तो फिर ढ़ोल और दमाउ क्यों नही बजा सकता है? कहते का मतलब रूढ़िवादी समाज तुम्हें आगे भी ऐसा ही देखना चाहेगा अपने लिए अगर कुछ मुकाम बनाना है या कुछ करना है तो सबसे पहले अपने सोच और कार्यप्रणाली को बदलना होगा।
गोष्ठी में एक बात जो साफ उभरकर आई वह है उत्तराखण्ड से एक वर्ग विशेष का आत्म सम्मान के लिए पलायन। यह बात कई वक्ताओं ने कही और यह पूरे सौ आने सच भी है। उत्तराखण्ड क्या भारतीय समाज में बहुजन हमेंशा ही अल्पसंख्यकों पर अत्याचार एवं मनमानी करते रहे हैं जहां तक भी उनका वश चलता है आज भी यह परंपरा जारी है। समाज के ठेकेदार एवं अपनी मंूछों को सवर्णता के गांेद से चिपकायें ये लोग बाहर कुछ भी खा-पचा जायेंगे कितना भी व्यभिचार एवं कु-कृत्य कर जायेंगे सब माफ लेकिन जातिवाद और छुआछूत इनकी नश-नश में भरा है। और यही कारण रहा है कि उत्तराखण्ड के अल्पसंख्यक एवं छुआछूत का शिकार रहे काश्तकार एवं शिल्पी समाज ने जब देखा कि सदियों से यहां के रूढ़िवादी समाज में उनके आत्मसम्मान के लिए कुछ भी स्थान नही है। उन्हें आज भी हेयता से देखा जाता है तो उन लोगों के मनों में इस भूमि से विरक्ति उपजी और उसका परिणाम हुआ कि बहुतायात में इस समाज ने यहां  से स्थाई तौर पर पलायन करना ही उचित समझा। सही भी है समाज में सबको बराबरी का दर्जा मिलना ही चाहिए। सभी भगवान की संतानें हैं लेकिन जातिवादी समाज और रूढिवादी सोच के लोग इस प्रकार की समभाव की बातें क्योंकर कहेंगे और मानेंगे।
यह भी सच है कि उत्तराखण्ड समाज में तथाकथित सवर्ण एवं शिल्पकार समाज के बीच गाzम स्तर पर आपसी संबध प्रगाढ भी रहे हैं। आपस में लोग नाते रिश्ते भी लगाते रहे हैं लेकिन जब बात आती है सम्मान एवं बराबरी की तो उन्हें आज भी अपने घर की देहरी तो दूर चौक से अन्दर भी नहीं आने दिया जाता है। जब बात आती है उनके सम्मान की तो आज भी उनको हेय एवं बेकार समझा जाता है। आज भी उनके सवर्णों की सेवा एवं दास की मानसिकता से मुक्ति नही मिली है।
सरकारें और नेता नारे बहुत लगाते हैं कि समाज से जातिवाद, छुआछूत हटना चाहिए लेकिन सबसे अधि कइस बातों को ये ही लोग बढ़ावा देते हैं। चुनाव के समय बहुसंख्यक समाज का नेता घर-घर जाकर अपने लोगों को जाति के नाम पर वोट करने को कहता है और उसके चम्चे और छुटभैया नेता समाज को जातिवाद एवं क्षेत्रवाद के नाम पर खुब काटते और बांटते रहते हैं। उत्तराखण्ड में शिल्पकार ही क्यों जहां-जहां बzाह~मण भी अल्पसंख्यक हैं वहंा उनका भी शोषण होता है। लगभग हर उस गांव में बzाह~मण या शिल्पकारों के साथ हमेशा से ही दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है। यह बात अलग है कि बzाह~मण शिल्पकार भाईयों की तरह इतने गरीब एवं असहाय नही रहे हैं लेकिन उनको भी काफी कुछ परेशानियों एवं असुविधाओं को सामना करना पड़ता है। खासकर चुनाव के समय तो ऐसा माहौल बना दिया जाता है कि लोग बाजार से राशन और सामान भी आसानी से नही खरीद पाते हैं। लगभग आज से तीस साल पहले की बात है जब स्वर्गीय हेमवती नन्दन बहुगुणा जी गढ़वाल से मध्यवर्ती चुनाव लड़े थे। उनके खिलाफ स्वर्गीय चन्दz मोहन सिंह नेगी जी चुनाव मे कांगेzस के उम्मीदवार थे। तब हम स्कूल पढ़ते थे। खाल्यूड़ाडा जो हमारा बाजार है वहां गबर सिंह विष्ट एवं गोविन्द सिंह विष्ट इन दुकानदारों एवं ठेकेदारों ने ऐसा माहौल बनाया कि सेना का एक भूतपूर्व हवलदार सुल्तान सिंह होटल वाला जो कि वीरोखाल ब्लाक का था और यहां चाय-खाने का होटल चलाता था। जब होटल में चाय पीने बैठो तो पूछता था कि तुम ठाकुर हो कि भटड़े हो या हरिजन हो। अगर गलती से चाय पीने वाला बzाह~मण निकला तो उसे बाजू पकड़कर होटल से बाहर कर दिया जाता था। गzाम पड़खण्डाई के तत्कालीन अध्यापक श्री सुरेशानन्द ध्यानी  जो कि तब बैजरों में सेवारत थे, अपने बेटे एवं पत्नी के साथ बैजरों से आ रहे थे। उन लेागों को पता ही नही था कि यहां इतना दूषित माहौल है। वे इस दुकानदार की होटल में चाय पीने बैठ गये। जब उसने इनसे पूछा कि तुम कौने हो। तो इन्हौंने पहले तो इस तरह से पूछने पर ऐतराज जताया। बाद में हाथापाई होने लगी और इसने इन लोगों के साथ बहुत बदतमीजी की। यह तो एक वाकया था अनेकों बार इस प्रकार की प्रताड़ना लोगों को झेलनी पड़ती है। यह बात अलग है कि तब इस प्रकार की बातों की शिकायत शासन प्रशासन तक नहीं जाती थी। लेकिन ऐसा आज भी जारी है।
 दिल्ली से एक साप्ताहिक समाचार पत्र का तथाकथित संपादक और उत्तराखण्ड आन्दोलन का ठेकेदार दिल्ली में बैठकर किस प्रकार से जातिवाद एवं क्षेत्रवाद की विषवेल फैला रहा है इसकी भी एक बानगी देखिये। यह शक्स दिल्ली से अखबार छापता है। इसकी रोजी रोटी ही जातिवाद एवं क्षेत्रवाद से चलती है। यह लिखता है कि उत्तराखण्ड में बzाह~मण अल्पसंख्यक हैं और नौकरियों से लेकर राजनीति में इनका वर्चस्व है इनको आगे नही आने देना चाहिए। बzाह~मणों को मुखमंत्री नही बनना चाहिए।  इस शक्स की हिमाकत तो देखिये यह लिखता है कि उत्तराखण्ड में अगर बzाह~मण यों ही आगे बढ़ते रहे तो वह दिन दूर नही जब बहुसंख्यक समाज उत्तराखण्ड को कश्मीर बना देगा। इस विध्वसंक मानसिकता वाले व्यक्ति को आप क्या कहेंगें? कहते का मतलब इस प्रकार की जातिवादी मानसिकता के बीमार लोग आज भी समाज में जिन्दा और मौजूद हैं। ऐसे अपराधियों को समाज  उनको  दण्ड देने की बजाय एक कzांतिकारी एवं न जाने क्या-क्या कहकर विभूषित करता है। कहने का तात्पर्य है कि चाहे कोई भी हो समाज में बहुसंख्यक मानसिकता ने हमेशा से ही अपने से अल्पसंख्यकों एवं मजलूमों पर अत्याचार ही किये। आज भी पहाड़ के गांवों में राजनीति
गोष्ठी के प्रसंगवश उक्त कुछ उदाहरण दे गया। असल में हमारे समाज की सोच कितनी संकीर्ण एवं आत्म केन्दिzत है इसको बता रहा था। असल बात यह है कि आज किसी भी स्तर पर छुआछूत के लिए कोई जगह नही है। किसी भी आदमी से जाति अथवा वर्ण के आधार पर किसी प्रकार का भेद नहीं होना चाहिए। इससे हमारा आत्मबल तो कमजोर होता ही है समाज एवं देश की भी गंभीर हानि होती है। व्यक्ति को जाति अथवा वर्ण से अछूत या बड़ा नहीं माना जाना चाहिए। उसके कर्मों एवं कृत्यों के आधार पर उसका त्याग या आत्म सम्मान परखा जाना चाहिए। न कि किसी की जाति को महान बताकर दूसरे लोगों को नीचा दिखाया जाए। आज समय बदल चुका है और उक्त गोष्ठी भी इसी तरफ इशारा करती है कि हम अपने समाज को सामुहिकता के आधार पर देखंे, पुरानी गलतियों को न दोहरायें और आगे आने वाली चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए नेता और जातिवाद व छुआछूत को नही समाज को मजबूत बनायें। जो लोग जातिवाद एवं छुआछूत करते हैं उनका सामुहिक वहिष्कार होना चाहिए। उनका दण्डित किया जाना चाहिए। और यह तब तभी होगा जब हम खुद पहले बदलने का संकल्प लें तभी हम समाज और देश को बदल सकते हैं।
एक बात और है कि आरक्षण की आड़ में नेता और राजनैतिक दल अपनी गोटियां तो फिट करते ही हैं लेकिन इसका असली फायदा कभी भी गरीब लोगों को नही मिला। पिछड़ों में भी जो अगड़े हैं उन्हौंने ही आरक्षण का फायदा उठाया है इसलिए आज समय आ गया है कि हमारी शिल्पकार भाई और हरिजन भाई इस बात को उठायें कि हमें आरक्षण का लोलीपाWप नही चाहिए। हमारे लोगों को शिक्षा और समानता सरकार दे और सबको  समान रूप से आगे बढ़ने का अवसर दे। उत्तराखण्ड सहित देश के तमाम गांवों में जाकर देखा जा सकता है कि आरक्षण से उस समाज की जीवनशैली नही बदली जिसे आरक्षण दिया गया। हां कुछ प्रतिशल लोग जो कि नगण्य हैं उनको जरूर फायद मिला अन्यथा बहुसंख्यक समाज जस का तस ही है। इसलिए शिल्पकार एवं हरिजन भाईयों को भी समय के साथ-साथ अपने लिए बराबरी की मांग करनी चाहिए और इस संघर्ष में आगे आना चाहिए।
आशा की जानी चाहिए कि उत्तराखण्ड की नौजवान पीढ़ी इस प्रकार की मानसिकता एवं संकीर्णता से उबरेगी । उत्तराखण्ड समाज के साथ-साथ देश के लिए सब एक साथ मिलकर कार्य करेंगे और उससे पहले अपने लोगों को अपने भाईयों को अपने समकक्ष मानकर एवं बराबरी का दर्जा देकर अपने घर से शुरूआत करेंगे। ताकि जो दर्द उक्त  गोष्ठी में उभरकर आया वह आगे किसी के दिल और दिमाग को न कचोटता रहे।






dinesh dhyani

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जन्मदाता मां का तिरस्कार करके क्या भला होगा.........?
दिनेश ध्यानी
मेरे कार्यालय में एक लड़का है वह अपने पिता की जगह नौकरी पर लगा। उसके साथ उसकी बूढ़ी मां एवं बेरोजगार छोटा भाई भी रहता था। कुछ समय तक तो सब ठीक रहा लेकिन एक दिन अचानक उसके जीवन में एक कन्या का आगमन हुआ जो कि हमारे ही कार्यालयम में सेवारत थी। यह भी बताता चलूं कि वे दोनों अलग-अलग समाज से हैं। लेकिन प्यार अंधा होता है इसलिए प्यार की पींग बढ़ते बढते शादी में तब्दील हो गया। चूंकि वह घर का बड़ा एवं रोजगार वाला था इसलिए मां व भाई के लाख न चाहने पर भी उसने उस लड़की से शादी कर ली। शादी के तुरंत बाद नव दम्पति का आचरण दिनांेदिन बूढ़ी मां और भाई के प्रति कूzर से कzूरतम होता चला गया। बूढ़ी मां और भाई ने जितना सहन करना उतना किया लेकिन आखिर कब तक बात छिपी रहती। रिश्तेदारों एवं पड़ोसियों को पता चला। हालात इस कदर खराब हो गये कि दोना पति-पत्नी बाहर से खाकर आते और घर में उसका छोटा भाई और मां भूखी रहतीं। बुढ़िया को जो पंेशन मिलती थी उससे मुश्किल से माह के दस-पन्दzह दिनों का राशन आदि होता था बाकी के पन्दzह दिनों में से अधिकतर यूं ही फांका होकर गुजरते।
   एक दिन बुढ़िया और उसके बेटे की पीड़ा पड़ोसियांे तक पहुंची तो दो-चार भले इंसान उस बड़े बेटे को समझाने की खातिर उनके घर पहंुचे क्योंकि सब एक आWफिस के थे इसलिए सोचा कि शायद बात बन जाये। लेकिन उनके आते ही उस बुढ़िया का बड़ा बेटा कहता है कि मैं इनको नही रख सकता। इन्हें कह रहा हूं कि प्रताप विहार वाले मकान में चले जाओं क्यों नही जाते हो? बुढियां मां ने कहा कि वहां एक कमरा है, न दरवाजे हैं न कुछ व्यवस्था खुले मकान में कहां जायें? वह बोला तुम यहां से जाओ, तुम्हारे पति को जो मकान मिला था वह चपरासी मकान था, मैं अब बाबू बन गया हूूं इसलिए न मकान और न ही मेरी कमाई पर तुम्हारा अधिकार है। बूढ़ी मां के आंसू एवं छोटे भाई का सूना चेहरा सबकुछ कह रहा था लेकिन पड़ोसी और रिश्तेदार कर भी क्या सकते थे।
बुढ़िया का वह बड़ा बेटा बोला कि कल सबुह तुम यहंा नही रहोगे। बुढ़िया ने सोचा कि जो भी हो यहां से जाना ही अच्छा है इसलिए पड़ोसियों को बोलकर और एक दो लोगों से मान मनोब्बल करके अगले दिन सुबह एक टैंम्पों बुलाकर बुढिया का सामान उसमें लाद दिया। जब कमरे से बुढ़िया सामान समेट रही थी तो उसके छोटे बेटे ने कहा कि में विस्तर के साथ एक बाल्टी और कुछ ड़िब्बे भी रख लो, तो बुढ़िया मां ने कहा कि बेटा रहने दे हम काम चला लेंगे, इनके डिब्बे हैं फिर इनको खरीदने पड़ेंगे। एक स्कूटर में सामान लाद कर मां-बेटे नम आंखों से पड़ोसियों से विदा लेकर अपने मकान में चले गये। यहां यह भी बताते चलें कि उसकी बहू और बड़ा बेटा उनके जाने से पहले ही घर से गायब हो चुके थे और बुढिया मां को बोल गया कि जाते हुए चाबी पड़ोस में दे देना।
   बुढ़िया ने वहां जैसे तैसे कर दिन काटे। उसकी ममता ने एक बेटे को तो पति की नौकरी दिला दी थी लेकिन उसके दामन को थामें जो छोटा बेटा उसके साथ खड़ा था उसके भविष्य की चिंता उसे खाये जा रही थी। लेकिन कहीं भी छोटे वाले की नौकरी नही लगी। दोनों मां-बेटे काफी परेशानी में अपने दिन काट रहे थे। बड़ा बेटा और उसकी पत्नी ने कभी भी मुड़कर नहीं देखा कि बुढ़िया मां और वेरोजगार भाई कैसे होंगे।
काफी लम्बे अन्तराल के बाद आज अचानक उसका छोटा बेटा मुझे कैन्टीन में मिल गया। मैंने कहा यहंा कैसे आये? वह बोला भाई साहब मैं भी यहीं लग गया हूं। मैंने उसकी मां की असल-कुशल पूछी तो वह बोला मां अब ठीक है। मैंने भी शादी कर ली है और हमने गाजियाबाद वाला मकान बेचकर अन्यत्र मकान ले लिया है। हम दोनों बात कर ही रहे थे कि सामने से उसकी भाई भी आगया। छोटा उसके पास नमस्ते करने जा ही रहा था कि वह बड़ा छोटे भाई को दूर से देखते ही वापस हो गया। ऐसा लगा कि उसके मन में अभी भी अपने छोटे भाई एवं माता जी के प्रति विद्वेष कम नहीं हुआ।
   मैं सोच में पड़ गया कि तटस्थ रहकर देखा जाये तो इस सज्जन ने परेशान किया अपनी माता जी को और छोटे भाई को, घर से दर बदर किया इन्हीं लोगों को और फिर भी उनके प्रति अभी तक इस प्रकार की कुंठा और बैर क्यों? जब कि उसके भाई से बात करने से पता चला कि वह अपने भाई और भावी का अभी भी आदर करता है। मां को तो कहना ही क्या? कहते हैं न कि मां का दिल तो ऐसा होता है कि अगर बेटे लाख बुराई करें, लाख तिरस्कार करंे फिर भी उसके मुंह से कभी भी बेटों के लिए कुछ भी गलत नहीं निकलता। लेकिन उन कलयुगी बेटों को क्या हो गया जो अपने जन्मदाता और जीवन दाता मां-बाप को इस कदर दर बदर ठोंकरे खाने को मजबूर कर देते हैं?





एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Thanks a ton sir.

Really the articles posted by you are eye opening based on social issues. We are really fortunate to have found member like u.

Many-2 thank sir..

waiting for many more such articles in your coming posts.

dinesh dhyani

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नारी
दिनेश ध्यानी
 
 सब कहतें हैं वो सुनती हैं
सब की खातिर वो बुनती है
सबकी खातिर उसकी रटना
सुबह शाम बस यों ही खटना-
 
अपना जीवन अर्पित करके
खुद की आभा कहीं दबाकर
सबके सपनों को सच करती
खुद को भुलाकर बस वो चलदी...
 
उसके सपने, उसकी चाहत
उसका कुछ भी नहीं रहा बस
बस वो औरों की खातिर
खुदको अर्पण करती  जाती...
 
सच कितना  सहती है नारी....

dinesh dhyani

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आना जाना बना के रखना
 
आना जाना बना के रखना
सुनो! गाँव तो अपना है
इन सहारों का क्या है भरोसा
बम - गोलों का खतरा हैं.
 
मत करना तुम कभी उलाहना
अपनी बतन की माटी से
उसने जिलाया हमको जीवन
पगडण्डी अरु घाटी ने.
 
गाँव की सौंधी माटी मे ही
अपना बचपन कहीं  छुपा है
दादा, परदादा का भी अपने
यहीं कहीं इतिहास दबा है.
 
मत काटना तुम अपनी जड़ो से
उनसे कटकर नहीं है जीवन
अपनी माटी, अपनी धरती
है  आबाद इन्ही से जीवन ...ध्यानी २८/४/१० सुबह १०-१८ पर.

dinesh dhyani

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जबसे तुमे घर छोड़ा है,
घर जाना ही छोड चुके हम
जिसे रस्ते से तुम गुजरे थे
उसे रस्ते को भूल चुके हम.
 
तुम जब से हम से रूठे हो
खुद भी रूठे गए हैं खुद से
सुबह का खाना,रैन की निदिया
खुद की खुद  बिसरा बैठे हम.
 
कसम तुम्हे अब आजाओ ना
क्यों इतना हमसे रूठे  हो तुम
तुम तो गए पर सोचा होता
 सांसे भी क्यों साथ ले गए.
 
तुमबिन  जीवन रीत गया है
सूनी अंगिया, बगिया सूनी
सच मानो तुम सबकुछ सूना
तुम बिन जीवन ही  है सूना.
 
लौट चलो अब गुस्सा छोड़ो
हमको जीवन दान करो तुम
हम पर एक उपकार करो तुम
सच घर का श्रंगार करो तुम...ध्यानी.२७/४/१०. शाम- ६-48


dinesh dhyani

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राजा भरत की जन्मस्थली उपेक्षित


जिस राजा के नाम से हमारे देश का नाम भारत पड़ा अगर आपको कहें कि उसकी जन्म स्थली आज उपेक्षित पड़ी हुई है तो पहले पहल शायद आपको विश्वास नही होगा लेकिन यह सच है और सोलह आने सही भी कि राजा भरत ने जिस भू-भाग में अपने जीवन की शुरूआत की, जिस मालनी नदी के तट पर दुष्यन्त और शकुन्तला का प्रणय हुआ वह ऐतिहासिक भू-भाग आज सब ओर से उपेक्षित है।
देश की राजधानी से मात्र दो सौ पच्चीस किलोमीटर दूर उत्तराखण्ड की वादियों में गढ़वाल के मुख्य व्यापारिक एवं ऐतिहासिक द्वार कोटद्वार नगर के समीन कलालघाटी में स्थित है राजा भरत का जन्म स्थान। कोटद्वार से यहां लगभग सत्रह किलोमीटर का मोटर मार्ग है जहां अपने वाहन से भी आया जा सकता है। यहां ठहरने के लिए गढ़वाल मंण्डल विकास निगम का अपना अतिथि गृह है बाकी यहां आकर रात्रि में वापस कोटद्वार में ठहरा जा सकता है।  आज भी यहां गढ़वाल मण्डल निगम के पर्यटन गृह एवं कण्वआश्रम के जीर्णशीर्ण धर्मशाला में महर्षि कण्व के आश्रम व मंदिर के शिलालेख एवं तत्कालीन पत्थर एवं शिलापट इस धरा के गौरव का गान कर रहे हैं लेकिन शासन एवं स्थानीय लोगों को जैसे इससे कुछ लेना देना ही नही है। कण्व आश्रम में आज भी मालनी नदी बहती है लेकिन उतने वेग एवं उत्साह से नही, आज यह नदी एक नाले के रूप में तब्दील हो चुकी है। कारण हजारों साल पहले की यह नदी पर्यावरण संरक्षण एवं देखरेख की कमी के कारण सूख रही है। कण्व आश्रम जहां आज स्थिति है वहां पर काफी शोध एवं छानबीन के बाद यह स्थान ढूंढ़ा गया। यहां पर महर्षि कण्व, राजा दुष्यन्त, शकुन्तला एवं कुमार भरत का चित्र मंदिर में स्थापित है। पास में ही एक टूटी-फूटी धर्मशाला है जिसमें स्वामी रामानन्द भारती जी रहते हैं और इस धार्मिक एवं ऐतिहासिक महत्व की विरासत की देखभाल भी करते हैं। यहां पर कण्व आश्रम लगभग दो-तीन बीघा में सिमटा हुआ है। यहां पर पहले एक स्कूल एवं एक पौराणिक मंदिर था जो कि आज वन विभाग ने अपनी दायरे में ले लिया है। इस आश्रम की हालत काफी दयनीय हैं जहां एक ओर धर्मशाला जर्जर हालात में है वहीं यहां पर न तो पीने के पानी की उचित व्यवस्था है और न ही अन्य सुविधायें। मालनी नदी में जहां एक ओर मुर्दों को जलाया जाता है वहीं बाहर से आने वाले पर्यटकों ने जगह-जगह पाWलीथीन एवं गन्दगी के ढेर लगाकर इस स्थान को और भी कुरूप बना दिया है। प्राकृतिक धरोहरों एवं वन्य प्राणियों की आवाजाही से भरपूर यह स्थान दर्शनीय एवं रमणीक तो है ही यहां का भौगोलिक परिवेश भी तन और मन को आकृष्ट कर देता है।
वहीं इस आश्रम से करीब आधा किलोमीटर दक्षिण पूर्व में एक विशाल आश्रम है जो कि किसी बाबा का है। कहा जाता है कि वहां पर सरकार ने कई एकड़ जमीन वन विभाग की इस आश्रम को लीज पर दी हुई है। यहां की सुख-सुविधायें देखकर लगता  है कि यहां पर धन आदि की किसी प्रकार की कमी नही होगी। असल बात यह है कि एक शाजिस के तहत इस आश्रम को कण्व आश्रम के नाम से प्रचारित करके पैसा उगाया जाता है और सरकारी वजट भी यदाकदा जो जाता है वह इसी आश्रम में खपाया जाता है जब कि असल कण्व आश्रम की दशा दयनीय ही बनी हुई है। इस प्रकार की शाजिस में जहां एक ओर इस आश्रम के संचालक जानबूझकर ऐसा करते हैं वहीं लगता है कि स्थानीय प्रशासन एवं नेता इस पहलवाननुमा बाबा की कृपा दृष्टि का सुविधा प्रसाद लेते रहते हैं तभी तो कोई भी इसका विरोध नही करता है। अन्यथा क्या कारण है कि असल कण्व आश्रम की घोर उपेक्षा की जा रही है और जो स्थान कण्व आश्रम है ही नही उसे इस प्रकार से प्रचारित किया जा रहा है और उसके नाम से चन्दा किन्ही लोगों की जेबों मे जा रहा है।
कण्व आश्रम में रह रहे स्वामी रामानन्द सरस्वती ने बताया कि कोई विश्वपाल जयन्त नाम का व्यक्ति जो कि पहलवान है वह कण्व आश्रम के नाम से चन्दा लेकर अपने इस आश्रम में लगा रहा है। उसने यहां कलालघाटी में एक संस्कृत विद्यालय खोला है जिसमें पढ़ने वाले बच्चों के अविभावकों से मासिक पैसा लिया जाता है वहीं यहां के नाम से चन्दा लेकर कोटद्वार-नजीबाबाद रोड़ पर एक अंगzेजी माध्यम का विशाल स्कूल खोला हुआ है। असल इस व्यक्ति का यहां के विकास या यहां की उन्नति से कुछ भी सरोकार नही है वह तो मात्र कण्व आश्रम के नाम पर लोगों को गुमराह करके घन अर्जित कर रहा है।
विड़म्बना देखिये कि एक ओर जहां पेशावर में 30 अप्रैल सन~ 1923 को निहत्थे पठानों पर गोलियां न चलाने वाले महानायक वीरचन्दz सिंह गढ़वाली को यही कण्व आश्रम के समीप हल्दूखत्ता में उनकी पैतृक जमीन जो कि अल्मोड़ा में उनकी पुस्तैनी जमीन के एवज में 99 साल के लीज पर मिली थी उसको खाली करने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार से नोटिस आ रहे हैं वहीं इस आश्रम को किन शर्तो पर इतनी जमीन दी गई है किसी को भी पता नही है? गढ़वाली जी को दी गई जमीन उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश के परिसीमन में कोटद्वार में होते हुए उत्तर प्रदेश में चली गई है इसलिए गढ़वाली जी के परिजनों को दर-दर की ठोकरें खानी पड़ रही है।
उत्तराखण्ड सरकार का ध्यान कब कण्व आश्रम की ओर जायेगा पता नही जो सरकारें इतने सालों तक इस महत्व के स्थान का उद्धार नही कर पाये भविष्य में उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है लेकिन हमारा आगzह सुधी पाठकों एवं देश की जनता से है कि आइए हम और आप कण्व आश्रम के विकास एवं सुधार के लिए कुछ कर सकें तो हमारा जीवन धन्य होगा। जब कभी भी मौका मिले तो आप भी कण्व आश्रम जरूरी जाइए और उस धरा से रूबरू होने का सौभाग्य प्राप्त करें जो कि इतने महत्व की है। कोटद्वार तक रेल एवं बस से भी आया जा सकता है, वहंा से कण्व आश्रम तक मोटर जीपें एवं अपने वाहन से भी जाया जा सकता है। आप कोटद्वार से कण्व आश्रम जाकर आराम से घूमकर वापस आ सकते हैं किसी प्रकार की असुविधा नही है। मालन नदी पर अब भव्य पुल बन चुका है इसलिए पहले की तरह अब बरसात में भी किसी प्रकार की समस्या नही है समस्या है तो बस इतनी कि हमारे कर्णाधारों के समझ में इस कण्व आश्रम का महत्व समझ नही आ रहा है। अन्यथा आज भी यह ऐतिहासिक धरोहर यों वीरान न पड़ी होती और इसके नाम पर कुछ स्वार्थी लोगों की चांWदी न हुई होती।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Thanks Dhyani Ji.

The birth place of Raja Bharat in Kalalghati is un-noticed tourism point of view. Govt must look into this. There are many historical places in Uttarakhand which has not been promoted properly.


राजा भरत की जन्मस्थली उपेक्षित


जिस राजा के नाम से हमारे देश का नाम भारत पड़ा अगर आपको कहें कि उसकी जन्म स्थली आज उपेक्षित पड़ी हुई है तो पहले पहल शायद आपको विश्वास नही होगा लेकिन यह सच है और सोलह आने सही भी कि राजा भरत ने जिस भू-भाग में अपने जीवन की शुरूआत की, जिस मालनी नदी के तट पर दुष्यन्त और शकुन्तला का प्रणय हुआ वह ऐतिहासिक भू-भाग आज सब ओर से उपेक्षित है।
देश की राजधानी से मात्र दो सौ पच्चीस किलोमीटर दूर उत्तराखण्ड की वादियों में गढ़वाल के मुख्य व्यापारिक एवं ऐतिहासिक द्वार कोटद्वार नगर के समीन कलालघाटी में स्थित है राजा भरत का जन्म स्थान। कोटद्वार से यहां लगभग सत्रह किलोमीटर का मोटर मार्ग है जहां अपने वाहन से भी आया जा सकता है। यहां ठहरने के लिए गढ़वाल मंण्डल विकास निगम का अपना अतिथि गृह है बाकी यहां आकर रात्रि में वापस कोटद्वार में ठहरा जा सकता है।  आज भी यहां गढ़वाल मण्डल निगम के पर्यटन गृह एवं कण्वआश्रम के जीर्णशीर्ण धर्मशाला में महर्षि कण्व के आश्रम व मंदिर के शिलालेख एवं तत्कालीन पत्थर एवं शिलापट इस धरा के गौरव का गान कर रहे हैं लेकिन शासन एवं स्थानीय लोगों को जैसे इससे कुछ लेना देना ही नही है। कण्व आश्रम में आज भी मालनी नदी बहती है लेकिन उतने वेग एवं उत्साह से नही, आज यह नदी एक नाले के रूप में तब्दील हो चुकी है। कारण हजारों साल पहले की यह नदी पर्यावरण संरक्षण एवं देखरेख की कमी के कारण सूख रही है। कण्व आश्रम जहां आज स्थिति है वहां पर काफी शोध एवं छानबीन के बाद यह स्थान ढूंढ़ा गया। यहां पर महर्षि कण्व, राजा दुष्यन्त, शकुन्तला एवं कुमार भरत का चित्र मंदिर में स्थापित है। पास में ही एक टूटी-फूटी धर्मशाला है जिसमें स्वामी रामानन्द भारती जी रहते हैं और इस धार्मिक एवं ऐतिहासिक महत्व की विरासत की देखभाल भी करते हैं। यहां पर कण्व आश्रम लगभग दो-तीन बीघा में सिमटा हुआ है। यहां पर पहले एक स्कूल एवं एक पौराणिक मंदिर था जो कि आज वन विभाग ने अपनी दायरे में ले लिया है। इस आश्रम की हालत काफी दयनीय हैं जहां एक ओर धर्मशाला जर्जर हालात में है वहीं यहां पर न तो पीने के पानी की उचित व्यवस्था है और न ही अन्य सुविधायें। मालनी नदी में जहां एक ओर मुर्दों को जलाया जाता है वहीं बाहर से आने वाले पर्यटकों ने जगह-जगह पाWलीथीन एवं गन्दगी के ढेर लगाकर इस स्थान को और भी कुरूप बना दिया है। प्राकृतिक धरोहरों एवं वन्य प्राणियों की आवाजाही से भरपूर यह स्थान दर्शनीय एवं रमणीक तो है ही यहां का भौगोलिक परिवेश भी तन और मन को आकृष्ट कर देता है।
वहीं इस आश्रम से करीब आधा किलोमीटर दक्षिण पूर्व में एक विशाल आश्रम है जो कि किसी बाबा का है। कहा जाता है कि वहां पर सरकार ने कई एकड़ जमीन वन विभाग की इस आश्रम को लीज पर दी हुई है। यहां की सुख-सुविधायें देखकर लगता  है कि यहां पर धन आदि की किसी प्रकार की कमी नही होगी। असल बात यह है कि एक शाजिस के तहत इस आश्रम को कण्व आश्रम के नाम से प्रचारित करके पैसा उगाया जाता है और सरकारी वजट भी यदाकदा जो जाता है वह इसी आश्रम में खपाया जाता है जब कि असल कण्व आश्रम की दशा दयनीय ही बनी हुई है। इस प्रकार की शाजिस में जहां एक ओर इस आश्रम के संचालक जानबूझकर ऐसा करते हैं वहीं लगता है कि स्थानीय प्रशासन एवं नेता इस पहलवाननुमा बाबा की कृपा दृष्टि का सुविधा प्रसाद लेते रहते हैं तभी तो कोई भी इसका विरोध नही करता है। अन्यथा क्या कारण है कि असल कण्व आश्रम की घोर उपेक्षा की जा रही है और जो स्थान कण्व आश्रम है ही नही उसे इस प्रकार से प्रचारित किया जा रहा है और उसके नाम से चन्दा किन्ही लोगों की जेबों मे जा रहा है।
कण्व आश्रम में रह रहे स्वामी रामानन्द सरस्वती ने बताया कि कोई विश्वपाल जयन्त नाम का व्यक्ति जो कि पहलवान है वह कण्व आश्रम के नाम से चन्दा लेकर अपने इस आश्रम में लगा रहा है। उसने यहां कलालघाटी में एक संस्कृत विद्यालय खोला है जिसमें पढ़ने वाले बच्चों के अविभावकों से मासिक पैसा लिया जाता है वहीं यहां के नाम से चन्दा लेकर कोटद्वार-नजीबाबाद रोड़ पर एक अंगzेजी माध्यम का विशाल स्कूल खोला हुआ है। असल इस व्यक्ति का यहां के विकास या यहां की उन्नति से कुछ भी सरोकार नही है वह तो मात्र कण्व आश्रम के नाम पर लोगों को गुमराह करके घन अर्जित कर रहा है।
विड़म्बना देखिये कि एक ओर जहां पेशावर में 30 अप्रैल सन~ 1923 को निहत्थे पठानों पर गोलियां न चलाने वाले महानायक वीरचन्दz सिंह गढ़वाली को यही कण्व आश्रम के समीप हल्दूखत्ता में उनकी पैतृक जमीन जो कि अल्मोड़ा में उनकी पुस्तैनी जमीन के एवज में 99 साल के लीज पर मिली थी उसको खाली करने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार से नोटिस आ रहे हैं वहीं इस आश्रम को किन शर्तो पर इतनी जमीन दी गई है किसी को भी पता नही है? गढ़वाली जी को दी गई जमीन उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश के परिसीमन में कोटद्वार में होते हुए उत्तर प्रदेश में चली गई है इसलिए गढ़वाली जी के परिजनों को दर-दर की ठोकरें खानी पड़ रही है।
उत्तराखण्ड सरकार का ध्यान कब कण्व आश्रम की ओर जायेगा पता नही जो सरकारें इतने सालों तक इस महत्व के स्थान का उद्धार नही कर पाये भविष्य में उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है लेकिन हमारा आगzह सुधी पाठकों एवं देश की जनता से है कि आइए हम और आप कण्व आश्रम के विकास एवं सुधार के लिए कुछ कर सकें तो हमारा जीवन धन्य होगा। जब कभी भी मौका मिले तो आप भी कण्व आश्रम जरूरी जाइए और उस धरा से रूबरू होने का सौभाग्य प्राप्त करें जो कि इतने महत्व की है। कोटद्वार तक रेल एवं बस से भी आया जा सकता है, वहंा से कण्व आश्रम तक मोटर जीपें एवं अपने वाहन से भी जाया जा सकता है। आप कोटद्वार से कण्व आश्रम जाकर आराम से घूमकर वापस आ सकते हैं किसी प्रकार की असुविधा नही है। मालन नदी पर अब भव्य पुल बन चुका है इसलिए पहले की तरह अब बरसात में भी किसी प्रकार की समस्या नही है समस्या है तो बस इतनी कि हमारे कर्णाधारों के समझ में इस कण्व आश्रम का महत्व समझ नही आ रहा है। अन्यथा आज भी यह ऐतिहासिक धरोहर यों वीरान न पड़ी होती और इसके नाम पर कुछ स्वार्थी लोगों की चांWदी न हुई होती।


 

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