गैरसैंण राजधानीः एक और आन्दोलन की जरूरत
दिनेश ध्यानी
उत्तराखण्ड राज्य का गठन हुए दस साल होने को हैं लेकिन जिन समस्याओं और परेशानियों को ध्यान में रखकर यह राज्य बना था उनका निराकरण तो दूर की बात है अभी तक उनके निराकरण हेतु किसी भी प्रकार की बातें न तो सरकारों के स्तर पर और न आन्दोलनकारी संगठनों की तरफ से ही हुई। राज्य तो बन गया सत्तर विधायक और लाल बत्तियों की लम्बी कतारें देहरादून, नैनीताल और पौड़ी पिथौरागढ़ की सड़कों पर दिखाई देतीं हैं लेकिन उत्तराखण्ड के शहीदों के सपनों का क्या होगा? राज्य के उस आम आदमी का क्या होगा जिसने सोचा था कि अपना राज होगा अपनी सरकार होगी और अपना विकास करने का मौका मिलेगा उसके हिस्से का सुख और चैन किसकी झोली में जा रहा है?
राज्य बनने के बाद सबसे अहम पहले था कि इस पहाड़ी राज्य की राजधानी कहां होगी। इनद सालों में राजधानी चयन आयोग का जो गठन किया गया था उसने अपनी बहुप्रतीक्षित रिर्पोट राज्य सरकार को सौंपी जिससे तमाम आन्दोलनकारी संगठनों और आम लोगों में अनिश्चितता का माहौल है। सरकारी आयोग ने नेताओं की पसंद और दलालों की सुविधा का पूरा ध्यान तो रखा लेकिन उत्तराखण्ड की पहाड़ी लोगों की भावनाओं को रौंदकर देहरादून को प्रथमतय राजधानी के लिए उपयुक्त बताकर एक बार उत्तराखण्ड की वादियों को आन्दोलन के लिए उकसा दिया है। आज स्पष्ट हो गया है कि जिस लिये राज्य मांगा गया था वह संकट और समस्या जस की तस है और सत्रह विधायकों से सत्तर विधायकों का बोझा इस प्रदेश की जनता पर ड़ालकर नेताओं ने अपनी संकीर्ण मानसािकता का ही परिचय दिया है। उत्तराखण्ड का आम आदमी आज पुनः गैरसैंण के लिए एक और आन्दोलन की जरूरत महसूस होने लगी है। और इस बार अगर पहाड़ में आन्दोलन होगा तो यह राज्य आन्दोलन की तरह न तो शन्ति पूर्ण होगा और न ही अल्पकालिक होगा। नेताओं के कारण पहाड़ और मैंदान को जो भेद किया गया है उसकी लपटें सत्तासीनों के सिहांसन पर भी ग्रहण लगा सकते हैं।
राज्य बनने के बाद दो निर्वाचित सरकारें सत्तासीन हो चुकी हैं लेकिन राजनैतिक गोटियां बिछाने के सिवाय किसी को भी आम आदमी की फिकर नही है। लोगों ने सोचा था कि हमारी सरकार में हमारे मंत्री, नेता हमारी बात सुनेंगे, विकास की नई योजनायें बनेंगी, क्षेत्रवाद तथा भाई भतीजावाद कम होगा और भ्रष्टाचार खत्म होगा लेकिन यहां तो उलटी गंगा बह निकली है। उत्तर प्रदेश में जब हम थे तब इतना भ्रष्टाचार, क्षेत्रवाद और भाई भतीजावाद नही था लेकिन अब तो हद ही हो गई है, पूरा प्रदेश भष्टाचार के गर्त में डूबा हुआ है। किसी भी विभाग में बिना घूस लिए कोई बात करने को तैयार नही है। सबसे अधिक पहाड़ को स्थानीय कर्मचारी वर्ग, ठेकेदार माफिया तथा स्थानीय छुटभैया नेताओं ने भ्रष्टाचार और निकम्मपन के गर्त में डुबोया है। शराब माफिया प्रदेश में इस कदर हावी है कि आज हमारे गाॅंवों में महिलाओं को भी शराब को सेवन करते हुए देखा जा सकता है। जिस शराब के विरोध में पहाड़ की नारी का संर्घष दशकों तक रहा वही महिलायें आज वैचारिक और सैद्धान्तिक तौर पर इतनी कमजोर हो चुकी हैं कि उन्हें भी शराब में जिन्दगी का असली सुख दिख रहा है। कल्पना कीजिए उस समाज की जिसमें माॅं और बाप दोनों शराब के आदी हों उस परिवार की सन्तानें कैसी होंगी और उस समाज का विकास कैसे होगा? हो सकता है यह बात अभी आम नही है लेकिन जो बात आज चन्द गाॅंवों या घरों में है उसे आम जनता तक पहुॅंचने में कितना समय लगेगा? असल में हमारा बैचारिक, सामाजिक और चारित्रिक स्तर काफी निचल पायदान पर पहॅंुच चुका है। प्रदेश के सरकारी विभिन्न विभागों में सरकारी धन पर ड़ाका ड़ाला जा रहा है। इसका जीता जागता उदाहरण है प्रदेश की भाषा और संस्कृति विभाग की दो घटनायें, दोनों घटनायें प्रदेश की राजधानी देहरादून में में ही घटित हुई हैं, यहां कोई सुलेमान मियां जी गढ़वाली कुआउॅंनी भाषा सिखाने के लिए अपना इंस्टीट्यूट चला रहे हैं तथा सरकार से लाखों रूपये लेकर गढ़वाली कुमाॅंउनी की आड़ में उर्दू भाषा का प्रचार प्रसार कर रहे हैं। दूसरी घटना में किन्ही खुराना जी ने गढ़वाली की लिपि इजाद कर दी और वे लोगों को गढ़वाली सिखा रहे हैं। तत्कालीन राज्यपाल माननीय सुदर्शन अग्रवाल जी ने उन्हें राजभवन में सम्मानित भी कर दिया। दोनों घटनायें हमारी उदासीनता और राज्य में सत्ता माफिया और दलालों की एक बानगी मात्र है। उक्त दोनों घटनायें इंगित करती हैं कि हम कितने संवेदनशून्य और खुदगर्ज हो चुके हैं कि हमें यह भी नही दिख रहा है कि हमारी अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक मान्यतायें हैं। एक रोचक वाकया पिछली काॅग्रेस सरकार के दौरान हुआ दिल्ली से कोई परिचित सपरिवार मसूरी घूमने आये, उनकी गाड़ी देहरादून में खराब हो गई। उन्हौंने राजपुर रोड़ एक गैराज में गाड़ी ठीक करवाई। गैराज वाले ने बातों बातों में उन्हें अपना विजटिंग कार्ड़ थमाते हुए कहा कि साहब देहरादून में किसी भी प्रकार का कोई काम हो तो बन्दे को याद करें मेरी मुख्यमंत्री से लेकर राज्यपाल तथा किसी भी विभाग में सीधी पहुॅंच है। मैं आपका काम चुटकी में करवा सकता हॅॅू। असल में सड़क से सत्ता तक का सम्बन्ध सामान्य तो होना चाहिए लेकिन उस आम आदमी के लिए जो विकास और सत्ता का असली भागीदार है। ऐसी व्यवस्था हो कि सरकारें सभी के बारे में सोचें लेकिन गैराज से जो सत्ता के सम्बन्ध हैं वे उसी गठजोड़ की ओर इशारा करते हैं जो दशकों से यहां सत्तासीनों तथा भू माफिया, जंगल माफिया तथा शराब माफिया के बीच चला आ रहा है। यह उसी दलाली की ओर इशारा करते हैं जिससे निजात पाने के लिए उत्तराखण्ड राज्य मांगा गया था। राज्य बनने के बाद यहां के लोगों के भोलेपन का फायदा इसी तरह के तत्व उठा रहे हैं।
राज्य के लिए संर्घष किया आम आदमी ने और सत्ता का सुख भोग रहे हैं दलाल कैसा प्रचलन है यह? आज आम पहाड़ी आदमी अपने को ठगा सा महसूस कर रहा है। न तो पहाड़ से पलायन रूका और न यहां विकास की किरण ही दिखी। पहाड़ वैसा ही वीरान लाचार बेवस। हालात यह हैं कि स्कूल हैं तो मास्टर जी नही और मास्टर जी हैं तो विद्यालय नहीं। यातायात और स्वास्थ्य सुविधायें जस की तस हैं। न तो उद्योग हैं न रोजगार के साधन अपनी व्यथा कहंे तो किससे? सुनने वाला कोई नही है। पहाड़ में नेताओं की भीड़ बढ़ने से घर-घर में राजनीतिक संकीर्णता ने सामाजिक सौहार्द और आपसी सामंजस्य को बर्वाद कर दिया है इससे गाॅंवों में पारम्परिक सम्बन्ध और अपनापन खत्म हो गया है। प्रधान के चुनाव से लेकर लोक सभा चुनाव तक में इतना विष वमन और अभद्रता होती है कि मन खराब हो जाता है। देवभूमि की मर्यादा और सामाजिक समरसता समाप्त हो गई है। चारों तरफ एक अजीब सी बेचैनी और अविश्वास का माहौल है।
पहाड़ के विकास के लिए सबसे पहले सरकार को प्रदेश की स्थाई राजधानी गैरसैंण बनानी चाहिए थी तथा पहाड़ की सामाजिक व भौगोलिक परिवेश के हिसाब से उद्योग धन्धे स्थापित करने चाहिए जिससे स्थानीय युवा अपने गाॅंवों में ही रहकर अपनी आजीविका कमा सकें तथा प्रदेश का विकास भी हो। प्रकृति ने हमें प्राकृतिक सम्पदा से भरपूर किया है लेकिन हम उसका दोहन जनहित में नहीं कर पा रहे हैं। इस हेतु अभी से प्रयास और योजनायें बननी चाहिए। जगह-जगह डैम बनाकर सरकारें विकास का कौन सा सोपान पूरा करने जा रही हैं। इससे पूरा पहाड़ विनास के चैराहे पर खड़ा हो जायेगा और यदि भविष्य में कभी भूकंप आया तो किस तरह की हानि होगी इसकी कल्पना शायद किसी ने की हो। स्वास्थ्य सेवाओं का पहाड़ में सर्वथा अभाव है। देहरादून पहाड़ नही है। पहाड़ शब्द का तात्पर्य हैं पिथौरागढ़ और सीमान्त जिले उत्तरकाशी, चमोली और सुदूर जिलों से जहां आज भी याता यात के साधन नहीं हैं, चिकित्सा अभाव में आज भी सैकड़ों अबलायें प्रसब के दौरान भगवान भरोसे रहकर अपनी जान गवां रहे हैं, इन्हीं परेशानियों के देखते हुए अलग उत्तराखण्ड राज्य की मांग की गई थी लोगों ने सोचा था कि अपना राज होगा अपने लोग हमारी परेशानियों से काफी वाकिफ हैं उन्हें दूर करने के लिए योजनायें बनायेंगे लेकिन राज्य बनने के आठ साल बाद भी नेताओं की सोच देहरादून या नैनताल से दूर उन गाॅंवों तक नही जा रही हैं जहां आज भी न तो सड़क है न बिजली और न स्वास्थ्य सेवायें। देहरादून और नैनीताल को केन्द्र में रखकर जो भी योजनायें बनेंगी वे सब पहाड़ विरोधी होगीं।
उत्तराखण्ड राज्य गठन के बाद आन्दोलनकारी संगठनों का दायित्व था कि वे सरकार पर दबाव बनाते कि जनआकांक्षाओं को ध्यान में रखकर राज्य का विकास हो। राजधानी सहित तमाम मुद्दों पर राज्य बनने के बाद विचार होना था लेकिन आन्दोलनकारी नेता फटाफट राजनैतिक दलों की गोद में इस तरह दुबके जैसे फिर इन्हें जीवन में राजनीति में नही आने दिया जायेगा। सत्ता की भूख ने राज्य के लिए लगाये गये नारों की आवाज दबा दी। जो आन्दोलनकारी आज किसी राजनैतिक दल में नहीं हैं उनमें से अधिकांश येनकेन प्रकारेण अपनी जुगत जुगाड़ लगाकर अपना काम निकालने में मशगूल दिख जायेंगे। इसलिए जनता की आवाज को सर्वथा दबाया जा रहा है। हालात यह हैं कि राज्य के गठन के लिए जिस दल का जन्म हुआ था वह भी आज भाजपा की आॅफिस काॅपी बन गया है। भाजपा जब चाहे उसे फालतू कागज समझकर अपनी फाईल से फेंक बाहर कर सकती है और जब चाहे उसे प्रयोग कर सकती है। यह हश्र उक्रांद का सत्ता लोभ संवरण न कर पाने के कारण हुआ है। यदि उसके शीर्ष नेताओं में जरा भी आन्दोलन की लौ रही होती तो आज इस दल का ऐसा हश्र न हुआ होता लेकिन सत्ता का नशा और सत्ता की भूख आदमी को आदमी नही रहने देती है। सो उत्तराखण्ड क्रांतिदल के बारे कुछ उम्मीद करना आज के परिपेक्ष्य में कमसे कम उचित नही होगा।
उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद का परिदृश्य स्थानीय जनता की आशाओं तथा आकांक्षाओं पर खरा नही उतरा। आज विकास की बाट जो रहा यह पर्वतीय राज्य अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक तथा भौगोलिक सीमाओं को भी नही सहेज पा रहा है। तत्कालीन भाजपा सरकार ने जो भौगोलिक धरातल इस राज्य को दिया उसका खामियाजा यहां की जनता जिसने असल में उत्तराखण्ड की मांग की तथा पिछड़े पहाड़ के लिए राज्य की परिकल्पना की थी उसे भुगतना पड़ रहा है और यह आने वाली पीढ़ियों को भी सालता रहेगा। आज पहाड़ बनाम मैदान के बीच एक रेखा खींची जा रही है। पहाड़ के हिस्से का सुख, साधन और अवसरों पर उन लोगों का कब्जा है जिन्हौंने राज्य के बारे मे सोचा भी नही था। जब उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन के दौरेान देहरादून, नैनीताल की सड़कों पर रैलियां, प्रदर्शन होते थे तो एक वर्ग किनारे अपनी दुकानों तथा गाड़ियों में बैठकर कहता था कि इन्हें अभी उत्तराखण्ड दे दो, लोग आन्दोलनकारियों पर हंसते थे और उनका उपहास उड़ाया जाता था। आज वे ही लोग सत्ता के गलियारों में काबिज हैं तथा असली हकदार अभी भी नारे और प्रदर्शन करने पर मजबूर हैं। हालात यह हैं कि आने वाले दिनों में पहाड़ के लोगों को अपने अधिकारों तथा अपनी पीढ़ियों के हकों के लिए पुनः एक संर्घष करना होगा जिसकी कल्पना लोगों ने उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद की भी नही होगी। लेकिन पुनः एक आन्दोलन की ओर उत्तराखण्ड का पहाड़ी भूभाग बढ़ रहा है।
सरकारों ने उत्तराखण्ड के पहाड़ी जिलों की सर्वथा अवहेलना ही की है। अन्यथा रोजगार और समान अवसरों के लिए लालायित यह पर्वतीय प्रदेश आज भी पलायन तथा बेरोजगारी की त्रासदी को न झेल रहा होता। वन सम्पदा, जल तथा पर्यटन आदि प्राकृतिक सम्पदाओं से सम्पन्न प्रदेश में इस तरह की अराजकता तथा बेरोजगारी होना अपने आप में सरकारी योजनाकारों तथा जनता के भाग्यविधाताओं की अदूरदर्शिता तथा स्वार्थपरता को दर्शाता है। रोजगार के साधन पहाड़ों में तो नगण्य हैं नये-नये उद्योग धन्धे जसपुर, काशीपुर तथा हरिद्वार तथा रूद्रपुर में लग रहे हैं जिसका पर्वतीय जनमानस को किसी भी प्रकार का उचित लाभ नही मिल रहा है। कुल मिलाकर जिस पर्वतीय राज्य की परिकल्पना और सपना लोगों ने संजोया था वह पूरी तरह से राजनीति की बलिवेदी पर हलाक कर दिया गया है। आज जो परिदृश्य हमारे सामने दिख रहा है उससे लगता है कि हमें एक और उत्तराखण्ड की मांग करनी होगी।
उत्तराखण्ड में जो परिसीमन हुआ है उसने सारे समीकरणों को बदलकर रख दिया है। इससे पहाड़ बनाम मैदान के बीच जो खींचतान सत्ता के लिए मचेगी उसका पूरा खामियाजा पहाड़ को भुगतना होगा। पहाड़ में छः विधानसभा सीटें कम हो जायेंगी तथा मैदान में छः सीटों का इजाफा होगा जिसका आने वाले दिनों में विधानसभा में सरकार बनाने तथा पैसे के दम पर मुख्यमंत्री का चुनाव होने से पहाड़ को तिरस्कार और लाचारगी के अतिरिक्त कुछ नही मिलेगा। इसका जीता जागता उदाहरण हाल के आठ सालों से लिया जा सकता है। प्रदेश की सत्ता के गलियारों में मैदानी लोगों की पकड़ होने के कारण मलाई मैदान काट रहे हैं और पहाड़ ठंूठ के ठंूठ। इसलिए आगे जो समीकरण राजनैतिक स्तर पर दिख रहे हैं उससे पहाड़ में असन्तोष के सिवाय कुछ नही पनपेगा। इसका खामियाजा नेपाल को लाल सलाम और माओवाद की चपेट में ले चुके अलगाववादी इस शान्त प्रदेश को भी अराजकता की ओर न मोड़ दें इसका भी ख्याल रखा जाना चाहिए। पहाड़ में विकास और पलायन की विभीषिका ने जो हालात पैदा कर दिये हैं वे बारूद के ढ़ेर में तिल्ली दिखाने से भभक सकते हैं। सत्ता और राजनैतिक दलों के प्रति लोगों में गुस्सा सातवें आसमान पर हैै इसका फायदा अलगाववादी तत्व उठा सकते हैंै। यदि उत्तराखण्ड की शान्त वादियों में एक बार अराजकता की आग लग गई तो उसको रोक पाना किसी के बस में नही होगा।
प्रदेश सरकार को पहाड़ बनाम मैदान बनती इस लड़ाई को विकास की ओर तथा पहाड़ के प्रति भी कुछ सकारात्मक कदम उठाने के आवश्यकता है अन्यथा जनता में बढ़ रही बेचैनी किस दिशा में मुड़ेगी इसका आकलन लगाना मुश्किल है। जनता ने जो संर्घष किया और उसè