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Articles By Dinesh Dhyani(Poet & Writer) - कवि एव लेखक श्री दिनेश ध्यानी के लेख

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

दोस्तों,

मेरापहाड़ टीम के साथ जुड़े रहे एक प्रसिद्ध लेखक एव कवि श्री दिनेश ध्यानी जी की एक लम्बे समय से उत्तराखंड के विभिन्न सामाजिक कार्यो एव अपनी लेखनी से भी उत्तराखंड के सेवा में कार्यरत है!

ध्यानी जी एक कवि एव लेखक भी है! विभिन्न पत्रिकाओ के लिए भी ध्यानी जी लेख लिखते है रहे है!  इस थ्रेड में ध्यानी जी उत्तराखंड के विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक मुद्दों पर अपना लेख लिखिंगे !

एम् एस मेहता

श्री दिनेश ध्यानी का संशिप्त परिचय
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परिचय
 
नाम-        दिनेश ध्यानी                                        
जन्म तिथि-    8अगस्त, 1966
पिता का नाम-    स्वर्गीय गोबर्द्धन प्रसाद ध्यानी

माता जी का नाम-  स्वर्गीय माहेश्वरी देवी ध्यानी

निवास-       76-ड़ी. संसदीय आवास, वसंत विहार, नई दिल्ली-110057

शैक्षिक योग्यता-    एम.ए. हिन्दी

अन्य-       अनुवाद सिद्धान्त में स्नातकोत्तर ड़िप्लोमा।

लेखन-      सन् 1986 से शुरू पर्वतीय टाईम्स, पाक्षिक, से शुरू

कार्यकारी सम्पादक- शैलसाक्षी पत्रिका, जनविकास साप्ताहिक, देवभूमि की पुकार पाक्षिक      समाचार पत्र,
वर्तमान में लेखन-    आज समाज दैनिक, प्रभासाक्षी पोर्टल, लेखनी पोर्टल, साहित्यकुज पोर्टल आदि पर लेखन

परिवार-       पत्नी व दो बेटे

बड़ा बेटा केन्द्रीय विद्यालय में 10वीं कक्षा में छोटा 6वीं कक्षा में

पत्नी-       गृहणी

सामाजिक-       उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन में सक्रिय वर्तमान में गढ़वाल की  
                         सबसे पुरानी संस्था- गढ़वाल हितैषिणी सभा, स्थापित- 1923, के उपाध्यक्ष,
         महासचिव उत्तराखण्ड लोक मंच, दिल्ली,

सदस्य-       कादम्बिनी क्लब राज्य सभा, उत्तराखण्ड पत्रकार संघ

अभिरूचि -       लेखन तथा घूमना

सम्प्रति-       लेखन तथा अध्ययन।

विशेष-    हिन्दी में एक कविता संग्रह मुझे मत मारो कन्याभ्रूण हत्या पर, क कविता संग्रह खुच्या गढ़वाली में प्रकाशनाधीन, हिन्दी कहानी संग्रह एवं एक लघु उपन्यास प्रकाशनाधीन।

ईमेल-        : dineshdhyani@hotmail.com
                             dineshdhyani@yahoo.com



dinesh dhyani:
सत्संग के नाम पर बाबाओं के जाल में फंसते लोग

दिनेश ध्यानी

देश में इन दिनों सत्संग मंचों की बाढ़ सी आई हुई है। जहां देखों बाबा और गुरूओं की दुकानें चल निकली हैं। ऐसा लगता है कि सब लोग परम गुरू को पाकर गुरू मंत्र के सहारे दुनियादारी के चक्कर से मुक्ति पाकर मोक्ष प्राप्त करने ही वाले हैं। जिसे देखों सत्संगी बना हुआ है। सत्संग अच्छी बात है लेकिन उसकी भी तो कुछ मर्यादा और नियम विनियम होते होंगे। सत्संग का शाब्दिक अर्थ है अच्छा साथ और वह अच्छा साथ अगर गुरूओं के ही आश्रम में मिलता हो तो यह अतिवाद होगा। अपने घर में या अपनों के साथ क्या सत्संग नही हो सकता है? हम किसी गुरू या किसी पंथ पर आक्षेप नही करना चाहते हैं लेकिन उन लोगों को आगाह जरूर करना चाहते हैं जो सत्संग और बाबाओं के चक्कर में अपना घर बर्वाद करने पर तुले हुए हैं।
आजकल काॅलोनियों मंे अक्सर महिलायें सुबह सबेरे नहाधोकर और एक बैग टांगकर झुण्ड के झुण्ड बाबाओं के आश्रमों की ओर चल पड़ती हैं और घर में उनके छोटे-छोटे बच्चे खुद ही स्कूल आदि के लिए तैयार होते हैं, पति देव खुद ही खाना बनाते हैं और बच्चियों किचन में अक्सर घर का चूल्हा चैका करते देखी जा सकती हैं। जिस घर की महिला अपना घर का दायित्व छोड़कर बाबाओं की शरण में मोक्ष के जाल में फंस चुकी है उसे मोक्ष तो नही बल्कि अपने परिवार का श्राप अवश्य लगना चाहिए। जो महिला अपने घर की जिम्मेदारियों को नही निभा सकती हैं और बाबाओं के चक्कर में घूमती रहती हैं वे किसी भी लिहाज से संस्कारी नही हो सकती हैं। हां अपना दायित्व पूरा करने के बाद यदि उम्र दराज लोग सत्संग में जाते हैं तो वह उचित है। वहां भी पहले यह देखना चाहिए कि जिस बाबा के आश्रम या सत्संग में हम जा रहे हैं वह कैसा है? उसका इतिहास और संस्कार वास्तव में परिपक्व हैं या वह मात्र अपने नाम और लालच के चक्कर में लोगों को सत्संग का अफीम खिला रहा है। जितने बाबा और महाराज आज गली गली में उभर आयें हैं उन्हें देखकर तो लगता है कि इनमें से अधिकाश्ंा दुकाने मात्र हैं। हजारों में से एकाध होगा जो सही शिक्षा और ज्ञान देता होगा अन्यथा अधिकांश स्वार्थी और लालची ही हैं। वे बाबा क्या शिक्षा देंगे जो समाज में दो-दो शादियां करके बैठे हैं? जो समाज में जातिवाद और क्षेत्रवाद के नाम पर लोगों को लड़वाकर कभी वोट मांगते हैं और चुनाव के बाद लोगों को शिक्षा देते हैं कि माया मोह में मत पड़ो। चुनावों मंे तो सबके सामने हाथ फैलाये भिखारी की तरह खडे़ रहते हैं और बाद में लोगों के तारनहार बनकर अपनी दुकानें सजा देते हैं।
अधिकांश लोग सत्संग के नाम पर दिल्ली या उससे बाहर जाकर इन बाबाओं के शिविरों में भारी भरकम राशि देकर सत्संग करते हैं। दिल्ली में अधिकांश देखने में आता है कि लोग बसें करके तथा पैसा इकट्ठा करके सत्संग का आयोजन अपने घरों में करते हैं। जिन लोगों की आर्थिक हालात ठीक है वे तो जो करें लेकिन निम्न आय वर्ग के लोग धीरे-धीरे इस प्रकार की वाहयात खर्चे के कारण कर्जे के ऐसे गर्त में डूबते हैं कि जिन्दगी भर उबर नही पाते हैं। आज जहां आम आदमी को दो जून की रोटी जुटाना दूभर होता जा रहा है वहीं सत्संग और धर्म के नाम पर इस तरह से पैसे और समय की बर्वादी क्यों की जा रही है समझ से परे है।
कई ऐसे लोग हैं जो सत्ंसगी हैं लेकिन वे शराब का खूब सेवन करते हैं, उने घरों में मीट और मांस खूब खाया जाता है । जब उनसे पूछा कि ऐसा क्या है आप तो सत्संगी हैं तो वे कहते हैं कि हमारे बाबा जी ने कहा कि तुम जो मर्जी खाओ जो मर्जी पियो कुछ रोक टोक नही है। ऐसे सत्संगियों के बारे में आप क्या कहेंगे। असल में अधिकांश बाबा ऐसे हैं जो अपनी दुकान से मतलब रखते हैं उनके पास इस तरह के मूर्ख ग्राहक आने चाहिए। कुछ लोग सत्संग के चक्कर मंे अपने देवी देवताओं को  और अपने बूढे माॅं-बाप को भूलकर गुरूओं की शरण में इस तरह विलीन हो गये हैं कि जैसे इन्हें इन्ही गुरूओं ने पैदा किया हो। अरे जिन मां-बाप ने पैदा किया उनकी सेवा से बड़ा सत्संग क्या है? जिन देवी देवताओं को तुम्हारे पूर्वज सदियों से मानते आये हैं उनका तिरस्कार क्यों? क्या ये बाबा देवी देवताओं या भगवान से भी बड़े हैं? अगर ये बडे़ हैं तो इन्हें भी तो किसी ने जन्म दिया होगा? इन्हें भी तो उसी भगवान की लीला के कारण मानव देह मिली होगी जो आज अपनी दुकान चलाने के चक्कर में लोगों से कहते हैं कि तुम भगवान को मत मानो? अपने पूर्वजों या पितृों को मत मानो। मुझे मानो, मेरी पूजा करो बस।
   कोई बता रहा था कि उनके पड़ोस में रहने वाली एक औरत जिसका पति बहुत ही सीधा है वह किसी से न मिलता और न ही कुछ करता है उसे अपनी नौकरी से मतलब है और बाकी वह कुछ नही करता है। लेकिन उसकी बीवी सत्संगी है और वह हर रोज सुबह आठ बजे घर से बाहर सत्संग के नाम पर चली जाती है और रात को आठ बजे तक घर आती है। उसके दो बेटे और एक बेटी है, बड़ा बेटा शराबी हो गया है बेटी यों ही काॅलोनी में घूमती रहती है, छोटा बेटा कभी स्कूल जाता है और कभी नही। घर के हालात इस कदर खराब हैं कि किसी को न तो खाने को समय से मिलता है और कौन कहां जा रहा है? क्या कर रहा है? किसी को पता नही है। लेकिन उस महिला को अपने सत्संग के अलावा किसी चीज से मतलब नही है। अब इसे क्या कहेंगे? जब परिवार को गृहणी की जरूरत है उस समय तो वह सत्संगी बन गई है और जब औलाद बरबाद हो जायेगी तब दूसरों को दोष देती फिरेंगी। कहने का तात्पर्य है कि जब आपका परिवार सही है, घर में हम अपने परिवार और बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारी को ढंग से निभा रहे हैं तब तो कोई सत्संग करे या कुछ भी करे लेकिन जब परिवार में ही एका नही है और परिवार विखर रहा हो तो उस सत्संग से क्या फायदा होगा। हां ऐसा वे लोग कर सकते हैं जिनके परिवार नही हैं। या जो परिवार की जिम्मेदारी से मुक्त हो गये हैं लेकिन परिवार तो सड़क पर आ रहा है बेटा और बेटियां बरवाद हो रही हैं और माॅं-बाप हैं कि सत्संगी बने हैं। कैसा सत्संग है यह? दूसरी बात पैसे की अनावश्यक बरबादी सो अलग।
   अधिकांश ठग और अपने घर भरने वाले सत्संगी बाबाओं की दुकानें देश के कोने कोने में फैल गई हैं और गरीब और लाचार लोग इनके झांसे में आकर पूरी तरह से बर्वाद हो रहे हैं। हम ऐसा नही कर रहे हैं कि सत्संग अच्छा नही है लेकिन उसके लिए गुरू भी तो पात्र हो जो वास्तव में हमारा आन्तरिंक और बाह्य विकास करे तथा हमें सन्मार्ग दिखायें। लेकिन जो गुरू खुद ही माया मोह के जाल में फंसे हों वे दूसरों को सन्मार्ग कैसे दिखा सकते हैं?
   सत्संग हो या कुछ धार्मिक कार्य सब सही हैं लेकिन उनका समय होना और माहौल होना चाहिए।

dinesh dhyani:
पहाड़ में पानी के लिए तरसता गंगा यमुना का मायका

गर्मी बढ़ने के साथ ही गंगा-यमुना सहित दर्जनों छोटी-बड़ी नदियों का मायका उत्तराखण्ड के अधिकांश गांवों में पेयजल का संकट गहराने लगा है। हालात इस कदर खराब हैं कि जनता को धरने-प्रदर्शन करने के बावजूद भी पेयजल मुहैया नही हो पा रहा है। कई गांवों में तो दसियों किलोमीटर से टैंकरो द्वारा पीने का पानी मंगाया जा रहा है। ग्रामीणी सुबह से शाम तक पानी के लिए पंधेरों-नौलों पर लाईन लगाये देखे जा सकते हैं लेकिन फिर भी गला तर करने की हसरत पूरी नही हो पा रही है। पारा बढ़ने के साथ ही हालात और खराब होने के पूरे आसार हैं। माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में पहाड़ में पानी की भयंकर कमी हो जायेगी। इसके मूल में ग्लोबल वार्मिंग तथा धरती के तापमान में बढ़त तो जिम्मेदार है ही स्थानीय निवसियों द्वारा जंगलों का नाश करना तथा सरकारों की गलत नीतियां भी इस स्थिति के लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं। हालात इस कदर खराब हैं कि नैनीड़ांड़ा विकास खण्ड के अपोला गांव में लोगों को अपने ही गांव मंें पानी की किल्लत के मारे धरने पर बैठना पड़ा। यहां दीबाड़ांड़ा से एक पेयजल योजना रवणा रौल से आयी है जिससे लगभग पन्द्रह बीस स्थानीय गांव लाभान्वित होते हैं। अपोला मंगरों इस योजना के दूसरे छोर पर हैं लगभग पन्दह बीस किलोमीटर लम्बी इस योजना का रखरखाव ठीक से नही हो पा रहा है तथा स्थानीय जनता मेने लाईन से अवैध कनैक्शन लेकर आगे वाले गांवों के लिए दिक्क्त पैदा कर देते हैं। अपोल गांव का अपना परम्परागत पानी का श्र्रोत है लेकिन धीरे-धीरे यह सूखने लगा है। हालात यह है कि लोगों को बंूद-बूंद पानी के लिए तरसना पड़ रहा है। पाईप लाईन से यहां तीन साल से पानी आना बन्द हो गया है अभी तक गांव वाले जैसे तैसे काम चला रहे थे लेकिन अब समस्या विकट होने के कारण लोगों को धरना प्रदर्शन करने को मजबूर होना पड़ रहा है। यही हाल पोखार  लोल्यूंड़ांडा के गांवों की है यहां भी रेवा से पानी लाया गया है लेकिन अक्सर लाईन टूटने के कारण ग्रामीणों को परेशानी होती है। पौड़ी जिले के पोखड़ा प्रखण्ड में भी गंभीर पेयजल का संकट बरकरार है। यही हाल अल्मोड़ा तथा नैनी ताल के कई इलाकों का है। कुल मिलाकर समूचे उत्तराखण्ड में पेयजल समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है। हालात कभी भी काबू से बाहर हो सकते हैं। वीरोंखाल विकासखण्ड के कांड़ा, सैंधार तथा कदोला आदि गांवों में भी हालात काबू से बाहर हैं लोगों को रात रात भर जागकर पानी की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। जिला मुख्यालय पौड़ी की पेयजल समस्या तो दशकों से जस की तस है लेकिन अभी तक कोई कारगार योजना तैयार नही हुई जो इस प्यासे शहर को दो बूंद पानी पिला सके। कोटद्वार हो या रामनगर, सतपुली हो या रिखणीखाल सभी जगह पेयजल संकट से दो चार होते लोगों को देखा जा सकता है।
यों तो समूचे देश तथा पूरी दुनियां में पीने के पानी की किल्लत शिद्दत से महसूस की जा रही है लेकिन जिस धरा से नदियों का उद्गम होता हो और जहां वरसात में असंख्य नदी नाले पूरे उफान पर होते हैं वहां पेयजल का इस कदर संकट कि लोग पानी के लिए सड़कों पर उतर आयें तथा पूरा दिन पानी ढोने में ही खप जाये। इससे ज्ञात होता है कि कहीं न कहीं गंभीर चूक हुई है। उसी का खामियाजा आज भयंकर जल संकट के रूप में सामने है।     
उत्तराखण्ड के गाॅंवों में जो हालात बेकाबू हो रहे हैं उसके पीछे कई कारक हैं जिसमें सरकार तथा वन विभाग के नुमाइंदों अदूरदर्शिता व स्थानीय ग्रामीणों की नासमझी तथा निजी स्वार्थों के कारण जंगलों का बिनाश करना आदि हैं यही कारण है कि जल श्रोत सूख गये हैं। पहली बात यहां के ग्रामीणों ने जंगलों का इस कदर विनाश कर दिया है कि जंगलों में हरियाली की जगह झाड़-फंूस ही बची है। लोग अपनी दैनिक जरूरतों के लिए हरे पेड़ों को बेरहमी से काटते है, घास, जलाने के लिए तथा दैनिक कृर्षि कार्य आदि के लिए स्थानीय किसान जंगलों पर पूरी तरह से निर्भर हैं। लोगों में इतनी जागरूकता नही है कि जिन जंगलों को हम बेरहमी से काट रहे हैं उनके बिना हमारा जीवन नही चल सकता है। रहभी वन विभाग पहाड़ों में हरियाली के नाम पर यूकेलिप्टिस, सफेदा तथा चीड़ के पेड़ों को बढ़ावा दे रहे हैं जो कि धरती से पानी सोख लेते हैं तथा अपने नीचे न तो पानी सिंचित करते हैं और न अपने नीचे किसी अन्य वनस्पतियों को उगने देते हैं। पहाड़ में जहां बाॅंज तथा बुरांश के जंगल हैं वहां का वातावरण सुहावना तथा वहां बाराहोंमास पानी की कमी नही होती है। लेकिन बांज बुरांश की पौध तैयार करना उतना आसान नही जितनी आसानी से चीड़ तथा सफेदा की पौध उगाई जा सकती है। इनका संचयन तथा रोपण भी सस्ता तथा आसान होता है इसलिए सरकारी स्तर पर बाॅंज-बुरांश को तिलांजलि दे दी गई है। जहां भी देखें पूरे पहाड़ में चीड़ के जंगल हैं जोकि धरती को सूखा करते हैं तथा जंगलों में आग लगने का मुख्य कारण होता है। आजकल पहाड़ में जंगल आग की चपेट में हैं पहले भी यहां जंगलों मेें आग लगती थी लेकिन इतनी भंयकर आग पहले नही लगती थी। यह सब चीड़ के कारण हो रहा है। आये दिन पहाड़ मेें जंगल भयंकार आग में स्वाहा हो रहे हैं। इस साल भी गढ़वाल-कुमाॅंउ की तमाम जंगल आग की भंेट चढ़ चुके हैं। कहीं-कहीं तो यह आग स्थानीय लोगों द्वारा भी लगाई जाती है। कारण जंगलों में आग लगाने से बरसात में घास अच्छी होती है इसलिए घास के लालच में लोग पूरे जंगलों को आग के हवाले कर देते हैं। जंगलों में बीड़ी-सिगरेट आदि पीने के बाद माचिस बीड़ी को जंगलों में ही छोड़ देने के कारण आग लग जाती है। इसलिए वन विभाग को वनों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए तमाम तरह के उपाय करने चाहिए।
पीने के पानी के लिए आग भी कम जिम्मेदार नही है। इससे भी धरती का जल सूख रहा है। तीसरी बात जो मुख्य है यहां सड़को का अव्यवस्थित जाल जो फैलाया जा रहा है उसमें यह नही देखा जाता कि गांवों के प्राकृतिक जलश्रोतों पर इसका क्या असर पड़ेगा। फलतः सड़क बनने से गाॅंवों के पेयजल श्र्रोत सूख जाते हैं। पहाड़ में जल संचयन की भी व्यवस्था नही है। इसलिए अच्छी बरसात होने के बावजूद पूरा का पूरा पानी नदियों के माध्यम से बह जाता है। गाॅंवों में अब पारम्परिक रास्तों की जगह सीमेंट के खंड़जें बन गये हैं जिनसे पानी सीधे बह जाता है। इसलिए खेतों-खलिहानों में पानी जमा नही हो पाता है। एक अहम पहलू यह भी है कि जिन गांवों में नलों द्वारा पेयजल पहुॅंचाया जा रहा है उनमें से अधिकांश गांवों ने अपने परम्परागत पेयजल श्र्रातों को लावारिश छोड़ दिया है जिस कारण धरती का जल स्तर कम हो गया है तथा परम्परागत पेयजल श्र्रोत समय के साथ-साथ बिलुप्त हो गये हैं। भारतीय संस्कृति में प्रत्येक चीज का महत्व है इसीलिए पानी का महत्व भी कुछ कम नही है। जल ही जीवन है यह यों ही नही कहा गया है। हमारे गाॅंवो में पानी के श्र्रोत का पूजन देवता के समान किया जाता है। गांव में जब दुल्हर अपने ससुराल आती है तो उसके पहले दिन की शुरूआत पानी भेंट से होती है। नई नवेली दुल्हन अपने ससुराल में पंधेरे में पूजा करने जाती है और वहां देवता के समान पानी को पूजती है। पुराने लोगों ने पानी की महत्ता को ध्यानी में रखते हुए यह रिवाज शुरू किया होगा लेकिन आज यह मात्र एक औपचारिकता रह गया है इसके मूल में जो गूढ़ अर्थ छुपा है उसे लोग भूल गये हैं। असल में जल ही जीवन है की उक्त को ध्यान में रखते हुए नई दुल्हन को यह अहसास दिलाया जाता है कि पानी जीवन के लिए महत्वपूर्ण है इसलिए आज से तुम इस गांव में अपने परिवार में पानी का कभी निरादर नही करोगी। इसीलिए पानी की देवतुल्य पूजा की जाती रही है।
वर्तमान में पहाड़ में वर्षा जल संचयन तथा नदियों के बहाव को एकत्र कर पानी को धरती के अन्दर जाने का मार्ग प्रशस्त करना हेागा तभी धरती का जल स्तर बढ़ेगा। दूसरी बात पहाड़ में बांज-बुरांश प्रजाति के पेड़ अधिक से अधिक लगायें जायें ताकि धरती में नमी तथा सघन वनस्पतियों को उपजाने का मार्ग प्रशस्त हो सके। सरकार तथा गांवों के स्तर पर पानी तथा जंगलों की महत्ता को ध्यान में रखते हुए कार्य किये जाने चाहिए। यदि हम आज भी नही चेते तो आने वाले समय में पहाड़ में पानी के झरने तथा नदियां जनश्रुतियों की चीजें बनकर रह जायेंगी।
आज आवश्यकता है जल, जंगल तथा जमीन की सुरक्षा तथा पर्यावरण संरक्षण की ताकि हम आराम से अपना जीवन यापन कर सकें तथा आने वाली पीढ़ियों को स्वच्छ जल तथा सुन्दर पर्यावरण दिया जा सके। पानी की उपयोगिता के आधार पर नई-नई योजनायें बनाने की आवश्यता है तथा गांव-गांव में पानी को जमा करके दैनिक कार्यों के लिए जल का संचयन किया जाना चाहिए। इससे एक तो लोगों की जरूरते पूरी होंगी तथा दूसरे धरती में जल का भण्डारण करने में भी मदद मिलेगी। देखने में आ रहा है कि दिनों दिन पहाड़ में पानी की समस्या विकाराल रूप धारण करती जा रही है यदि हमारी उदासीनता इसी प्रकार रही तो आने वाले दिनों में हमें बूंद-बंूद पानी के लिए तरसना होगा और तब हमारे पास प्रयाश्चित करने का समय भी नही रहेगा। इसलिए अभी समय है कि हम अपने सूखते जल श्र्रोतो का संरक्षण करें तथा धरती के पर्यावरण को अपने अनुकूल बनाने के लिए वनों के संरक्षण की ओर भी ध्यान दें।


dinesh dhyani:
गैरसैंण राजधानीः एक और आन्दोलन की जरूरत

दिनेश ध्यानी

उत्तराखण्ड राज्य का गठन हुए दस साल होने को हैं लेकिन जिन समस्याओं और परेशानियों को ध्यान में रखकर यह राज्य बना था उनका निराकरण तो दूर की बात है अभी तक उनके निराकरण हेतु किसी भी प्रकार की बातें न तो सरकारों के स्तर पर और न आन्दोलनकारी संगठनों की तरफ से ही हुई। राज्य तो बन गया सत्तर विधायक और लाल बत्तियों की लम्बी कतारें देहरादून, नैनीताल और पौड़ी पिथौरागढ़ की सड़कों पर दिखाई देतीं हैं लेकिन उत्तराखण्ड के शहीदों के सपनों का क्या होगा? राज्य के उस आम आदमी का क्या होगा जिसने सोचा था कि अपना राज होगा अपनी सरकार होगी और अपना विकास करने का मौका मिलेगा उसके हिस्से का सुख और चैन किसकी झोली में जा रहा है?
   राज्य बनने के बाद सबसे अहम पहले था कि इस पहाड़ी राज्य की राजधानी कहां होगी। इनद सालों में राजधानी चयन आयोग का जो गठन किया गया था उसने अपनी बहुप्रतीक्षित रिर्पोट राज्य सरकार को सौंपी जिससे तमाम आन्दोलनकारी संगठनों और आम लोगों में अनिश्चितता का माहौल है। सरकारी आयोग ने नेताओं की पसंद और दलालों की सुविधा का पूरा ध्यान तो रखा लेकिन उत्तराखण्ड की पहाड़ी लोगों की भावनाओं को रौंदकर देहरादून को प्रथमतय राजधानी के लिए उपयुक्त बताकर एक बार उत्तराखण्ड की वादियों को आन्दोलन के लिए उकसा दिया है। आज स्पष्ट हो गया है कि जिस लिये राज्य मांगा गया था वह संकट और समस्या जस की तस है और सत्रह विधायकों से सत्तर विधायकों का बोझा इस प्रदेश की जनता पर ड़ालकर नेताओं ने अपनी संकीर्ण मानसािकता का ही परिचय दिया है। उत्तराखण्ड का आम आदमी आज पुनः गैरसैंण के लिए एक और आन्दोलन की जरूरत महसूस होने लगी है। और इस बार अगर पहाड़ में आन्दोलन होगा तो यह राज्य आन्दोलन की तरह न तो शन्ति पूर्ण होगा और न ही अल्पकालिक होगा। नेताओं के कारण पहाड़ और मैंदान को जो भेद किया गया है उसकी लपटें सत्तासीनों के सिहांसन पर भी ग्रहण लगा सकते हैं।
राज्य बनने के बाद दो निर्वाचित सरकारें सत्तासीन हो चुकी हैं लेकिन राजनैतिक गोटियां बिछाने के सिवाय किसी को भी आम आदमी की फिकर नही है। लोगों ने सोचा था कि हमारी सरकार में हमारे मंत्री, नेता हमारी बात सुनेंगे, विकास की नई योजनायें बनेंगी, क्षेत्रवाद तथा भाई भतीजावाद कम होगा और भ्रष्टाचार खत्म होगा लेकिन यहां तो उलटी गंगा बह निकली है। उत्तर प्रदेश में जब हम थे तब इतना भ्रष्टाचार, क्षेत्रवाद और भाई भतीजावाद नही था लेकिन अब तो हद ही हो गई है, पूरा प्रदेश भष्टाचार के गर्त में डूबा हुआ है। किसी भी विभाग में बिना घूस लिए कोई बात करने को तैयार नही है। सबसे अधिक पहाड़ को स्थानीय कर्मचारी वर्ग, ठेकेदार माफिया तथा स्थानीय छुटभैया नेताओं ने भ्रष्टाचार और निकम्मपन के गर्त में डुबोया है। शराब माफिया प्रदेश में इस कदर हावी है कि आज हमारे गाॅंवों में महिलाओं को भी शराब को सेवन करते हुए देखा जा सकता है। जिस शराब के विरोध में पहाड़ की नारी का संर्घष दशकों तक रहा वही महिलायें आज वैचारिक और सैद्धान्तिक तौर पर इतनी कमजोर हो चुकी हैं कि उन्हें भी शराब में जिन्दगी का असली सुख दिख रहा है। कल्पना कीजिए उस समाज की जिसमें माॅं और बाप दोनों शराब के आदी हों उस परिवार की सन्तानें कैसी होंगी और उस समाज का विकास कैसे होगा? हो सकता है यह बात अभी आम नही है लेकिन जो बात आज चन्द गाॅंवों या घरों में है उसे आम जनता तक पहुॅंचने में कितना समय लगेगा? असल में हमारा बैचारिक, सामाजिक और चारित्रिक स्तर काफी निचल पायदान पर पहॅंुच चुका है। प्रदेश के सरकारी विभिन्न विभागों में सरकारी धन पर ड़ाका ड़ाला जा रहा है। इसका जीता जागता उदाहरण है प्रदेश की भाषा और संस्कृति विभाग की दो घटनायें, दोनों घटनायें प्रदेश की राजधानी देहरादून में में ही घटित हुई हैं, यहां कोई सुलेमान मियां जी गढ़वाली कुआउॅंनी भाषा सिखाने के लिए अपना इंस्टीट्यूट चला रहे हैं तथा सरकार से लाखों रूपये लेकर गढ़वाली कुमाॅंउनी की आड़ में उर्दू भाषा का प्रचार प्रसार कर रहे हैं। दूसरी घटना में किन्ही खुराना जी ने गढ़वाली की लिपि इजाद कर दी और वे लोगों को गढ़वाली सिखा रहे हैं। तत्कालीन राज्यपाल माननीय सुदर्शन अग्रवाल जी ने उन्हें राजभवन में सम्मानित भी कर दिया। दोनों घटनायें हमारी उदासीनता और राज्य में सत्ता माफिया और दलालों की एक बानगी मात्र है। उक्त दोनों घटनायें इंगित करती हैं कि हम कितने संवेदनशून्य और खुदगर्ज हो चुके हैं कि हमें यह भी नही दिख रहा है कि हमारी अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक मान्यतायें  हैं।  एक रोचक वाकया पिछली काॅग्रेस सरकार के दौरान हुआ दिल्ली से कोई परिचित सपरिवार मसूरी घूमने आये, उनकी गाड़ी देहरादून में खराब हो गई। उन्हौंने राजपुर रोड़ एक गैराज में गाड़ी ठीक करवाई। गैराज वाले ने बातों बातों में उन्हें अपना विजटिंग कार्ड़ थमाते हुए कहा कि साहब देहरादून में किसी भी प्रकार का कोई काम हो तो बन्दे को याद करें मेरी मुख्यमंत्री से लेकर राज्यपाल तथा किसी भी विभाग में सीधी पहुॅंच है। मैं आपका काम चुटकी में करवा सकता हॅॅू। असल में सड़क से सत्ता तक का सम्बन्ध सामान्य तो होना चाहिए लेकिन उस आम आदमी के लिए जो विकास और सत्ता का असली भागीदार है। ऐसी व्यवस्था हो कि सरकारें सभी के बारे में सोचें लेकिन गैराज से जो सत्ता के सम्बन्ध हैं वे उसी गठजोड़ की ओर इशारा करते हैं जो दशकों से यहां सत्तासीनों तथा भू माफिया, जंगल माफिया तथा शराब माफिया के बीच चला आ रहा है। यह उसी दलाली की ओर इशारा करते हैं जिससे निजात पाने के लिए उत्तराखण्ड राज्य मांगा गया था। राज्य बनने के बाद यहां के लोगों के भोलेपन का फायदा इसी तरह के तत्व उठा रहे हैं।
   राज्य के लिए संर्घष किया आम आदमी ने और सत्ता का सुख भोग रहे हैं दलाल कैसा प्रचलन है यह? आज आम पहाड़ी आदमी अपने को ठगा सा महसूस कर रहा है। न तो पहाड़ से पलायन रूका और न यहां विकास की किरण ही दिखी। पहाड़ वैसा ही वीरान लाचार बेवस। हालात यह हैं कि स्कूल हैं तो मास्टर जी नही और मास्टर जी हैं तो विद्यालय नहीं। यातायात और स्वास्थ्य सुविधायें जस की तस हैं। न तो उद्योग हैं न रोजगार के साधन अपनी व्यथा कहंे तो किससे? सुनने वाला कोई नही है। पहाड़ में नेताओं की भीड़ बढ़ने से घर-घर में राजनीतिक संकीर्णता ने सामाजिक सौहार्द और आपसी सामंजस्य को बर्वाद कर दिया है इससे गाॅंवों में पारम्परिक सम्बन्ध और अपनापन खत्म हो गया है। प्रधान के चुनाव से लेकर लोक सभा चुनाव तक में इतना विष वमन और अभद्रता होती है कि मन खराब हो जाता है। देवभूमि की मर्यादा और सामाजिक समरसता समाप्त हो गई है। चारों तरफ एक अजीब सी बेचैनी और अविश्वास का माहौल है।
   पहाड़ के विकास के लिए सबसे पहले सरकार को प्रदेश की स्थाई राजधानी गैरसैंण बनानी चाहिए थी तथा पहाड़ की सामाजिक व भौगोलिक परिवेश के हिसाब से उद्योग धन्धे स्थापित करने चाहिए जिससे स्थानीय युवा अपने गाॅंवों में ही रहकर अपनी आजीविका कमा सकें तथा प्रदेश का विकास भी हो। प्रकृति ने हमें प्राकृतिक सम्पदा से भरपूर किया है लेकिन हम उसका दोहन जनहित में नहीं कर पा रहे हैं। इस हेतु अभी से प्रयास और योजनायें बननी चाहिए। जगह-जगह डैम बनाकर सरकारें विकास का कौन सा सोपान पूरा करने जा रही हैं। इससे पूरा पहाड़ विनास के चैराहे पर खड़ा हो जायेगा और यदि भविष्य में कभी भूकंप आया तो किस तरह की हानि होगी इसकी कल्पना शायद किसी ने की हो। स्वास्थ्य सेवाओं का पहाड़ में सर्वथा अभाव है। देहरादून पहाड़ नही है। पहाड़ शब्द का तात्पर्य हैं पिथौरागढ़ और सीमान्त जिले उत्तरकाशी, चमोली और सुदूर जिलों से जहां आज भी याता यात के साधन नहीं हैं, चिकित्सा अभाव में आज भी सैकड़ों अबलायें प्रसब के दौरान भगवान भरोसे रहकर अपनी जान गवां रहे हैं, इन्हीं परेशानियों के देखते हुए अलग उत्तराखण्ड राज्य की मांग की गई थी लोगों ने सोचा था कि अपना राज होगा अपने लोग हमारी परेशानियों से काफी वाकिफ हैं उन्हें दूर करने के लिए योजनायें बनायेंगे लेकिन राज्य बनने के आठ साल बाद भी नेताओं की सोच देहरादून या नैनताल से दूर उन गाॅंवों तक नही जा रही हैं जहां आज भी न तो सड़क है न बिजली और न स्वास्थ्य सेवायें। देहरादून और नैनीताल को केन्द्र में रखकर जो भी योजनायें बनेंगी वे सब पहाड़ विरोधी होगीं।
   उत्तराखण्ड राज्य गठन के बाद आन्दोलनकारी संगठनों का दायित्व था कि वे सरकार पर दबाव बनाते कि जनआकांक्षाओं को ध्यान में रखकर राज्य का विकास हो। राजधानी सहित तमाम मुद्दों पर राज्य बनने के बाद विचार होना था लेकिन आन्दोलनकारी नेता फटाफट राजनैतिक दलों की गोद में इस तरह दुबके जैसे फिर इन्हें जीवन में राजनीति में नही आने दिया जायेगा। सत्ता की भूख ने राज्य के लिए लगाये गये नारों की आवाज दबा दी। जो आन्दोलनकारी आज किसी राजनैतिक दल में नहीं हैं उनमें से अधिकांश येनकेन प्रकारेण अपनी जुगत जुगाड़ लगाकर अपना काम निकालने में मशगूल दिख जायेंगे। इसलिए जनता की आवाज को सर्वथा दबाया जा रहा है। हालात यह हैं कि राज्य के गठन के लिए जिस दल का जन्म हुआ था वह भी आज भाजपा की आॅफिस काॅपी बन गया है। भाजपा जब चाहे उसे फालतू कागज समझकर अपनी फाईल से फेंक बाहर कर सकती है और जब चाहे उसे प्रयोग कर सकती है। यह हश्र उक्रांद का सत्ता लोभ संवरण न कर पाने के कारण हुआ है। यदि उसके शीर्ष नेताओं में जरा भी आन्दोलन की लौ रही होती तो आज इस दल का ऐसा हश्र न हुआ होता लेकिन सत्ता का नशा और सत्ता की भूख आदमी को आदमी नही रहने देती है। सो उत्तराखण्ड क्रांतिदल के बारे कुछ उम्मीद करना आज के परिपेक्ष्य में कमसे कम उचित नही होगा।
   उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद का परिदृश्य स्थानीय जनता की आशाओं तथा आकांक्षाओं पर खरा नही उतरा। आज विकास की बाट जो रहा यह पर्वतीय राज्य अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक तथा भौगोलिक सीमाओं को भी नही सहेज पा रहा है। तत्कालीन भाजपा सरकार ने जो भौगोलिक धरातल इस राज्य को दिया उसका खामियाजा यहां की जनता जिसने असल में उत्तराखण्ड की मांग की तथा पिछड़े पहाड़ के लिए राज्य की परिकल्पना की थी उसे भुगतना पड़ रहा है और यह आने वाली पीढ़ियों को भी सालता रहेगा। आज पहाड़ बनाम मैदान के बीच एक रेखा खींची जा रही है। पहाड़ के हिस्से का सुख, साधन और अवसरों पर उन लोगों का कब्जा है जिन्हौंने राज्य के बारे मे सोचा भी नही था। जब उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन के दौरेान देहरादून, नैनीताल की सड़कों पर रैलियां, प्रदर्शन होते थे तो एक वर्ग किनारे अपनी दुकानों तथा गाड़ियों में बैठकर कहता था कि इन्हें अभी उत्तराखण्ड दे दो, लोग आन्दोलनकारियों पर हंसते थे और उनका उपहास उड़ाया जाता था। आज वे ही लोग सत्ता के गलियारों में काबिज हैं तथा असली हकदार अभी भी नारे और प्रदर्शन करने पर मजबूर हैं। हालात यह हैं कि आने वाले दिनों में पहाड़ के लोगों को अपने अधिकारों तथा अपनी पीढ़ियों के हकों के लिए पुनः एक संर्घष करना होगा जिसकी कल्पना लोगों ने उत्तराखण्ड राज्य बनने  के बाद की भी नही होगी। लेकिन पुनः एक आन्दोलन की ओर उत्तराखण्ड का पहाड़ी भूभाग बढ़ रहा है।
   सरकारों ने उत्तराखण्ड के पहाड़ी जिलों की सर्वथा अवहेलना ही की है। अन्यथा रोजगार और समान अवसरों के लिए लालायित यह पर्वतीय प्रदेश आज भी पलायन तथा बेरोजगारी की त्रासदी को न झेल रहा होता। वन सम्पदा, जल तथा पर्यटन आदि प्राकृतिक सम्पदाओं से सम्पन्न प्रदेश में इस तरह की अराजकता तथा बेरोजगारी होना अपने आप में सरकारी योजनाकारों तथा जनता के भाग्यविधाताओं की अदूरदर्शिता तथा स्वार्थपरता को दर्शाता है। रोजगार के साधन पहाड़ों में तो नगण्य हैं नये-नये उद्योग धन्धे जसपुर, काशीपुर तथा हरिद्वार तथा रूद्रपुर में लग रहे हैं जिसका पर्वतीय जनमानस को किसी भी प्रकार का उचित  लाभ नही मिल रहा है। कुल मिलाकर जिस पर्वतीय राज्य की परिकल्पना और सपना लोगों ने संजोया था वह पूरी तरह से राजनीति की बलिवेदी पर हलाक कर दिया गया है। आज जो परिदृश्य हमारे सामने दिख रहा है उससे लगता है कि हमें एक और उत्तराखण्ड की मांग करनी होगी।
उत्तराखण्ड में जो परिसीमन हुआ है उसने सारे समीकरणों को बदलकर रख दिया है। इससे पहाड़ बनाम मैदान के बीच जो खींचतान सत्ता के लिए मचेगी उसका पूरा खामियाजा पहाड़ को भुगतना होगा। पहाड़ में छः विधानसभा सीटें कम हो जायेंगी तथा मैदान में छः सीटों का इजाफा होगा जिसका आने वाले दिनों में विधानसभा में सरकार बनाने तथा पैसे के दम पर मुख्यमंत्री का चुनाव होने से पहाड़ को तिरस्कार और लाचारगी के अतिरिक्त कुछ नही मिलेगा। इसका जीता जागता उदाहरण हाल के आठ सालों से लिया जा सकता है। प्रदेश की सत्ता के गलियारों में मैदानी लोगों की पकड़ होने के कारण मलाई मैदान काट रहे हैं और पहाड़ ठंूठ के ठंूठ। इसलिए आगे जो समीकरण राजनैतिक स्तर पर दिख रहे हैं उससे पहाड़ में असन्तोष के सिवाय कुछ नही पनपेगा। इसका खामियाजा नेपाल को लाल सलाम और माओवाद की चपेट में ले चुके अलगाववादी इस शान्त प्रदेश को भी अराजकता की ओर न मोड़ दें इसका भी ख्याल रखा जाना चाहिए। पहाड़ में विकास और पलायन की विभीषिका ने जो हालात पैदा कर दिये हैं वे बारूद के ढ़ेर में तिल्ली दिखाने से भभक सकते हैं। सत्ता और राजनैतिक दलों के प्रति लोगों में गुस्सा सातवें आसमान पर हैै इसका फायदा अलगाववादी तत्व उठा सकते हैंै। यदि उत्तराखण्ड की शान्त वादियों में एक बार अराजकता की आग लग गई तो उसको रोक पाना किसी के बस में नही होगा।
प्रदेश सरकार को पहाड़ बनाम मैदान बनती इस लड़ाई को विकास की ओर तथा पहाड़ के प्रति भी कुछ सकारात्मक कदम उठाने के आवश्यकता है अन्यथा जनता में बढ़ रही बेचैनी किस दिशा में मुड़ेगी इसका आकलन लगाना मुश्किल है। जनता ने जो संर्घष किया और उसè

dinesh dhyani:
गैरसैंण राजधानीः एक और आन्दोलन की जरूरत

दिनेश ध्यानी

उत्तराखण्ड राज्य का गठन हुए दस साल होने को हैं लेकिन जिन समस्याओं और परेशानियों को ध्यान में रखकर यह राज्य बना था उनका निराकरण तो दूर की बात है अभी तक उनके निराकरण हेतु किसी भी प्रकार की बातें न तो सरकारों के स्तर पर और न आन्दोलनकारी संगठनों की तरफ से ही हुई। राज्य तो बन गया सत्तर विधायक और लाल बत्तियों की लम्बी कतारें देहरादून, नैनीताल और पौड़ी पिथौरागढ़ की सड़कों पर दिखाई देतीं हैं लेकिन उत्तराखण्ड के शहीदों के सपनों का क्या होगा? राज्य के उस आम आदमी का क्या होगा जिसने सोचा था कि अपना राज होगा अपनी सरकार होगी और अपना विकास करने का मौका मिलेगा उसके हिस्से का सुख और चैन किसकी झोली में जा रहा है?
   राज्य बनने के बाद सबसे अहम पहले था कि इस पहाड़ी राज्य की राजधानी कहां होगी। इनद सालों में राजधानी चयन आयोग का जो गठन किया गया था उसने अपनी बहुप्रतीक्षित रिर्पोट राज्य सरकार को सौंपी जिससे तमाम आन्दोलनकारी संगठनों और आम लोगों में अनिश्चितता का माहौल है। सरकारी आयोग ने नेताओं की पसंद और दलालों की सुविधा का पूरा ध्यान तो रखा लेकिन उत्तराखण्ड की पहाड़ी लोगों की भावनाओं को रौंदकर देहरादून को प्रथमतय राजधानी के लिए उपयुक्त बताकर एक बार उत्तराखण्ड की वादियों को आन्दोलन के लिए उकसा दिया है। आज स्पष्ट हो गया है कि जिस लिये राज्य मांगा गया था वह संकट और समस्या जस की तस है और सत्रह विधायकों से सत्तर विधायकों का बोझा इस प्रदेश की जनता पर ड़ालकर नेताओं ने अपनी संकीर्ण मानसािकता का ही परिचय दिया है। उत्तराखण्ड का आम आदमी आज पुनः गैरसैंण के लिए एक और आन्दोलन की जरूरत महसूस होने लगी है। और इस बार अगर पहाड़ में आन्दोलन होगा तो यह राज्य आन्दोलन की तरह न तो शन्ति पूर्ण होगा और न ही अल्पकालिक होगा। नेताओं के कारण पहाड़ और मैंदान को जो भेद किया गया है उसकी लपटें सत्तासीनों के सिहांसन पर भी ग्रहण लगा सकते हैं।
राज्य बनने के बाद दो निर्वाचित सरकारें सत्तासीन हो चुकी हैं लेकिन राजनैतिक गोटियां बिछाने के सिवाय किसी को भी आम आदमी की फिकर नही है। लोगों ने सोचा था कि हमारी सरकार में हमारे मंत्री, नेता हमारी बात सुनेंगे, विकास की नई योजनायें बनेंगी, क्षेत्रवाद तथा भाई भतीजावाद कम होगा और भ्रष्टाचार खत्म होगा लेकिन यहां तो उलटी गंगा बह निकली है। उत्तर प्रदेश में जब हम थे तब इतना भ्रष्टाचार, क्षेत्रवाद और भाई भतीजावाद नही था लेकिन अब तो हद ही हो गई है, पूरा प्रदेश भष्टाचार के गर्त में डूबा हुआ है। किसी भी विभाग में बिना घूस लिए कोई बात करने को तैयार नही है। सबसे अधिक पहाड़ को स्थानीय कर्मचारी वर्ग, ठेकेदार माफिया तथा स्थानीय छुटभैया नेताओं ने भ्रष्टाचार और निकम्मपन के गर्त में डुबोया है। शराब माफिया प्रदेश में इस कदर हावी है कि आज हमारे गाॅंवों में महिलाओं को भी शराब को सेवन करते हुए देखा जा सकता है। जिस शराब के विरोध में पहाड़ की नारी का संर्घष दशकों तक रहा वही महिलायें आज वैचारिक और सैद्धान्तिक तौर पर इतनी कमजोर हो चुकी हैं कि उन्हें भी शराब में जिन्दगी का असली सुख दिख रहा है। कल्पना कीजिए उस समाज की जिसमें माॅं और बाप दोनों शराब के आदी हों उस परिवार की सन्तानें कैसी होंगी और उस समाज का विकास कैसे होगा? हो सकता है यह बात अभी आम नही है लेकिन जो बात आज चन्द गाॅंवों या घरों में है उसे आम जनता तक पहुॅंचने में कितना समय लगेगा? असल में हमारा बैचारिक, सामाजिक और चारित्रिक स्तर काफी निचल पायदान पर पहॅंुच चुका है। प्रदेश के सरकारी विभिन्न विभागों में सरकारी धन पर ड़ाका ड़ाला जा रहा है। इसका जीता जागता उदाहरण है प्रदेश की भाषा और संस्कृति विभाग की दो घटनायें, दोनों घटनायें प्रदेश की राजधानी देहरादून में में ही घटित हुई हैं, यहां कोई सुलेमान मियां जी गढ़वाली कुआउॅंनी भाषा सिखाने के लिए अपना इंस्टीट्यूट चला रहे हैं तथा सरकार से लाखों रूपये लेकर गढ़वाली कुमाॅंउनी की आड़ में उर्दू भाषा का प्रचार प्रसार कर रहे हैं। दूसरी घटना में किन्ही खुराना जी ने गढ़वाली की लिपि इजाद कर दी और वे लोगों को गढ़वाली सिखा रहे हैं। तत्कालीन राज्यपाल माननीय सुदर्शन अग्रवाल जी ने उन्हें राजभवन में सम्मानित भी कर दिया। दोनों घटनायें हमारी उदासीनता और राज्य में सत्ता माफिया और दलालों की एक बानगी मात्र है। उक्त दोनों घटनायें इंगित करती हैं कि हम कितने संवेदनशून्य और खुदगर्ज हो चुके हैं कि हमें यह भी नही दिख रहा है कि हमारी अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक मान्यतायें  हैं।  एक रोचक वाकया पिछली काॅग्रेस सरकार के दौरान हुआ दिल्ली से कोई परिचित सपरिवार मसूरी घूमने आये, उनकी गाड़ी देहरादून में खराब हो गई। उन्हौंने राजपुर रोड़ एक गैराज में गाड़ी ठीक करवाई। गैराज वाले ने बातों बातों में उन्हें अपना विजटिंग कार्ड़ थमाते हुए कहा कि साहब देहरादून में किसी भी प्रकार का कोई काम हो तो बन्दे को याद करें मेरी मुख्यमंत्री से लेकर राज्यपाल तथा किसी भी विभाग में सीधी पहुॅंच है। मैं आपका काम चुटकी में करवा सकता हॅॅू। असल में सड़क से सत्ता तक का सम्बन्ध सामान्य तो होना चाहिए लेकिन उस आम आदमी के लिए जो विकास और सत्ता का असली भागीदार है। ऐसी व्यवस्था हो कि सरकारें सभी के बारे में सोचें लेकिन गैराज से जो सत्ता के सम्बन्ध हैं वे उसी गठजोड़ की ओर इशारा करते हैं जो दशकों से यहां सत्तासीनों तथा भू माफिया, जंगल माफिया तथा शराब माफिया के बीच चला आ रहा है। यह उसी दलाली की ओर इशारा करते हैं जिससे निजात पाने के लिए उत्तराखण्ड राज्य मांगा गया था। राज्य बनने के बाद यहां के लोगों के भोलेपन का फायदा इसी तरह के तत्व उठा रहे हैं।
   राज्य के लिए संर्घष किया आम आदमी ने और सत्ता का सुख भोग रहे हैं दलाल कैसा प्रचलन है यह? आज आम पहाड़ी आदमी अपने को ठगा सा महसूस कर रहा है। न तो पहाड़ से पलायन रूका और न यहां विकास की किरण ही दिखी। पहाड़ वैसा ही वीरान लाचार बेवस। हालात यह हैं कि स्कूल हैं तो मास्टर जी नही और मास्टर जी हैं तो विद्यालय नहीं। यातायात और स्वास्थ्य सुविधायें जस की तस हैं। न तो उद्योग हैं न रोजगार के साधन अपनी व्यथा कहंे तो किससे? सुनने वाला कोई नही है। पहाड़ में नेताओं की भीड़ बढ़ने से घर-घर में राजनीतिक संकीर्णता ने सामाजिक सौहार्द और आपसी सामंजस्य को बर्वाद कर दिया है इससे गाॅंवों में पारम्परिक सम्बन्ध और अपनापन खत्म हो गया है। प्रधान के चुनाव से लेकर लोक सभा चुनाव तक में इतना विष वमन और अभद्रता होती है कि मन खराब हो जाता है। देवभूमि की मर्यादा और सामाजिक समरसता समाप्त हो गई है। चारों तरफ एक अजीब सी बेचैनी और अविश्वास का माहौल है।
   पहाड़ के विकास के लिए सबसे पहले सरकार को प्रदेश की स्थाई राजधानी गैरसैंण बनानी चाहिए थी तथा पहाड़ की सामाजिक व भौगोलिक परिवेश के हिसाब से उद्योग धन्धे स्थापित करने चाहिए जिससे स्थानीय युवा अपने गाॅंवों में ही रहकर अपनी आजीविका कमा सकें तथा प्रदेश का विकास भी हो। प्रकृति ने हमें प्राकृतिक सम्पदा से भरपूर किया है लेकिन हम उसका दोहन जनहित में नहीं कर पा रहे हैं। इस हेतु अभी से प्रयास और योजनायें बननी चाहिए। जगह-जगह डैम बनाकर सरकारें विकास का कौन सा सोपान पूरा करने जा रही हैं। इससे पूरा पहाड़ विनास के चैराहे पर खड़ा हो जायेगा और यदि भविष्य में कभी भूकंप आया तो किस तरह की हानि होगी इसकी कल्पना शायद किसी ने की हो। स्वास्थ्य सेवाओं का पहाड़ में सर्वथा अभाव है। देहरादून पहाड़ नही है। पहाड़ शब्द का तात्पर्य हैं पिथौरागढ़ और सीमान्त जिले उत्तरकाशी, चमोली और सुदूर जिलों से जहां आज भी याता यात के साधन नहीं हैं, चिकित्सा अभाव में आज भी सैकड़ों अबलायें प्रसब के दौरान भगवान भरोसे रहकर अपनी जान गवां रहे हैं, इन्हीं परेशानियों के देखते हुए अलग उत्तराखण्ड राज्य की मांग की गई थी लोगों ने सोचा था कि अपना राज होगा अपने लोग हमारी परेशानियों से काफी वाकिफ हैं उन्हें दूर करने के लिए योजनायें बनायेंगे लेकिन राज्य बनने के आठ साल बाद भी नेताओं की सोच देहरादून या नैनताल से दूर उन गाॅंवों तक नही जा रही हैं जहां आज भी न तो सड़क है न बिजली और न स्वास्थ्य सेवायें। देहरादून और नैनीताल को केन्द्र में रखकर जो भी योजनायें बनेंगी वे सब पहाड़ विरोधी होगीं।
   उत्तराखण्ड राज्य गठन के बाद आन्दोलनकारी संगठनों का दायित्व था कि वे सरकार पर दबाव बनाते कि जनआकांक्षाओं को ध्यान में रखकर राज्य का विकास हो। राजधानी सहित तमाम मुद्दों पर राज्य बनने के बाद विचार होना था लेकिन आन्दोलनकारी नेता फटाफट राजनैतिक दलों की गोद में इस तरह दुबके जैसे फिर इन्हें जीवन में राजनीति में नही आने दिया जायेगा। सत्ता की भूख ने राज्य के लिए लगाये गये नारों की आवाज दबा दी। जो आन्दोलनकारी आज किसी राजनैतिक दल में नहीं हैं उनमें से अधिकांश येनकेन प्रकारेण अपनी जुगत जुगाड़ लगाकर अपना काम निकालने में मशगूल दिख जायेंगे। इसलिए जनता की आवाज को सर्वथा दबाया जा रहा है। हालात यह हैं कि राज्य के गठन के लिए जिस दल का जन्म हुआ था वह भी आज भाजपा की आॅफिस काॅपी बन गया है। भाजपा जब चाहे उसे फालतू कागज समझकर अपनी फाईल से फेंक बाहर कर सकती है और जब चाहे उसे प्रयोग कर सकती है। यह हश्र उक्रांद का सत्ता लोभ संवरण न कर पाने के कारण हुआ है। यदि उसके शीर्ष नेताओं में जरा भी आन्दोलन की लौ रही होती तो आज इस दल का ऐसा हश्र न हुआ होता लेकिन सत्ता का नशा और सत्ता की भूख आदमी को आदमी नही रहने देती है। सो उत्तराखण्ड क्रांतिदल के बारे कुछ उम्मीद करना आज के परिपेक्ष्य में कमसे कम उचित नही होगा।
   उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद का परिदृश्य स्थानीय जनता की आशाओं तथा आकांक्षाओं पर खरा नही उतरा। आज विकास की बाट जो रहा यह पर्वतीय राज्य अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक तथा भौगोलिक सीमाओं को भी नही सहेज पा रहा है। तत्कालीन भाजपा सरकार ने जो भौगोलिक धरातल इस राज्य को दिया उसका खामियाजा यहां की जनता जिसने असल में उत्तराखण्ड की मांग की तथा पिछड़े पहाड़ के लिए राज्य की परिकल्पना की थी उसे भुगतना पड़ रहा है और यह आने वाली पीढ़ियों को भी सालता रहेगा। आज पहाड़ बनाम मैदान के बीच एक रेखा खींची जा रही है। पहाड़ के हिस्से का सुख, साधन और अवसरों पर उन लोगों का कब्जा है जिन्हौंने राज्य के बारे मे सोचा भी नही था। जब उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन के दौरेान देहरादून, नैनीताल की सड़कों पर रैलियां, प्रदर्शन होते थे तो एक वर्ग किनारे अपनी दुकानों तथा गाड़ियों में बैठकर कहता था कि इन्हें अभी उत्तराखण्ड दे दो, लोग आन्दोलनकारियों पर हंसते थे और उनका उपहास उड़ाया जाता था। आज वे ही लोग सत्ता के गलियारों में काबिज हैं तथा असली हकदार अभी भी नारे और प्रदर्शन करने पर मजबूर हैं। हालात यह हैं कि आने वाले दिनों में पहाड़ के लोगों को अपने अधिकारों तथा अपनी पीढ़ियों के हकों के लिए पुनः एक संर्घष करना होगा जिसकी कल्पना लोगों ने उत्तराखण्ड राज्य बनने  के बाद की भी नही होगी। लेकिन पुनः एक आन्दोलन की ओर उत्तराखण्ड का पहाड़ी भूभाग बढ़ रहा है।
   सरकारों ने उत्तराखण्ड के पहाड़ी जिलों की सर्वथा अवहेलना ही की है। अन्यथा रोजगार और समान अवसरों के लिए लालायित यह पर्वतीय प्रदेश आज भी पलायन तथा बेरोजगारी की त्रासदी को न झेल रहा होता। वन सम्पदा, जल तथा पर्यटन आदि प्राकृतिक सम्पदाओं से सम्पन्न प्रदेश में इस तरह की अराजकता तथा बेरोजगारी होना अपने आप में सरकारी योजनाकारों तथा जनता के भाग्यविधाताओं की अदूरदर्शिता तथा स्वार्थपरता को दर्शाता है। रोजगार के साधन पहाड़ों में तो नगण्य हैं नये-नये उद्योग धन्धे जसपुर, काशीपुर तथा हरिद्वार तथा रूद्रपुर में लग रहे हैं जिसका पर्वतीय जनमानस को किसी भी प्रकार का उचित  लाभ नही मिल रहा है। कुल मिलाकर जिस पर्वतीय राज्य की परिकल्पना और सपना लोगों ने संजोया था वह पूरी तरह से राजनीति की बलिवेदी पर हलाक कर दिया गया है। आज जो परिदृश्य हमारे सामने दिख रहा है उससे लगता है कि हमें एक और उत्तराखण्ड की मांग करनी होगी।
उत्तराखण्ड में जो परिसीमन हुआ है उसने सारे समीकरणों को बदलकर रख दिया है। इससे पहाड़ बनाम मैदान के बीच जो खींचतान सत्ता के लिए मचेगी उसका पूरा खामियाजा पहाड़ को भुगतना होगा। पहाड़ में छः विधानसभा सीटें कम हो जायेंगी तथा मैदान में छः सीटों का इजाफा होगा जिसका आने वाले दिनों में विधानसभा में सरकार बनाने तथा पैसे के दम पर मुख्यमंत्री का चुनाव होने से पहाड़ को तिरस्कार और लाचारगी के अतिरिक्त कुछ नही मिलेगा। इसका जीता जागता उदाहरण हाल के आठ सालों से लिया जा सकता है। प्रदेश की सत्ता के गलियारों में मैदानी लोगों की पकड़ होने के कारण मलाई मैदान काट रहे हैं और पहाड़ ठंूठ के ठंूठ। इसलिए आगे जो समीकरण राजनैतिक स्तर पर दिख रहे हैं उससे पहाड़ में असन्तोष के सिवाय कुछ नही पनपेगा। इसका खामियाजा नेपाल को लाल सलाम और माओवाद की चपेट में ले चुके अलगाववादी इस शान्त प्रदेश को भी अराजकता की ओर न मोड़ दें इसका भी ख्याल रखा जाना चाहिए। पहाड़ में विकास और पलायन की विभीषिका ने जो हालात पैदा कर दिये हैं वे बारूद के ढ़ेर में तिल्ली दिखाने से भभक सकते हैं। सत्ता और राजनैतिक दलों के प्रति लोगों में गुस्सा सातवें आसमान पर हैै इसका फायदा अलगाववादी तत्व उठा सकते हैंै। यदि उत्तराखण्ड की शान्त वादियों में एक बार अराजकता की आग लग गई तो उसको रोक पाना किसी के बस में नही होगा।
प्रदेश सरकार को पहाड़ बनाम मैदान बनती इस लड़ाई को विकास की ओर तथा पहाड़ के प्रति भी कुछ सकारात्मक कदम उठाने के आवश्यकता है अन्यथा जनता में बढ़ रही बेचैनी किस दिशा में मुड़ेगी इसका आकलन लगाना मुश्किल है। जनता ने जो संर्घष किया और उसè

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