Author Topic: Articles By Dr. B. L. Jalandhari - बी. एल. जालंधरी द्वारा लिखे गए लेख  (Read 39400 times)

Dr. B L Jalandhari

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आस्था की बेदी को खून का स्नान
डॉ. बिहारी लाल जलंधरी

देव भूमि के नाम से चर्चित मध्य हिमालयी क्षेत्र का वर्णन धार्मिक और अध्यात्मिक शिक्षा के गुरु के रूप में प्रत्येत पौराणिक धर्मशाश्त्र में मिलता है ! हिमालयन  क्षेत्र  जिसे पौराणिक काल में उत्तर्व्रित भी कहा गया  यह देवताओं की तपस्थली क्षेत्र था ! जम्मू कश्मीर से लेकर उत्तर्पूर्ब के खाशी परबत मालाओं तक का सुमार इस क्षेत्र में किया जाता है ! इस सम्पूर्ण क्षेत्र में मध्य हिमालय क्षेत्र का नाम चर्चित रहा है ! स्कंद पुराण का केदारखंड अध्याय केवल मध्य हिमालय की ब्याख्या करता है ! इस क्षेत्र में अधिकांश देवी देवताओं के मंदिर है इसी क्षेत्र में कई योगी महात्माओं ने अपने मठों  की स्थापना की !  पुराने समय के मैथ जिन्हें उस समय के विश्व विद्यालय कहा जाता था जो उस समय शिक्षा के साथ-साथ धर्म प्रचार का भी कार्य करते थे उसी रीती पर बने आज के मठों के माध्यम से शिक्षा और धर्म प्रचार का कार्य हो रहा है !
यह सर्ब विधित है की शांति की तलास में यहीं कई साधू संत आये ! इस शांत वातावरण वाली भूमि को उनहूँ ने अपनी ताप स्थली के रूप में चुना ! फल्श्वरूप उनके ताप का प्रभाव यहाँ के वातावरण के साथ साथ यहाँ के आम इन्शान पर पड़ा ! जितने भी शिद्ध आये और उन्हूने अपनी साधना के माध्यम से यहाँ के लोगों के जन जीवन को सवारने, भूत प्रेतों से रक्षा करने, बुराई से बचने, महामारियों से बचने, छोटे बच्चों को बल बुध्ही देने, अच्छी फसल के लिए बारिश देने, उचित समय पर मेघों का आह्वान करने, ताकत्बर बैल देने, दुधारू पशु देने सम्बन्धी कई मिन्नतें मांगी ! कोई भी एक मिन्नत पूरी होने के उपरांत उस शिद्ध शधक को खुश करने के लिए बलि दी जाती थी ! यहाँ तक की शिद्ध शाधक जो कुछ भी अपने भक्त से मांगता था अपनी मिन्नत की ख़ुशी में भक्त उस मांग को  जरूर पूरी करता था ! पौराणिक काल से यह परम्परा चलती आ रही है ! पौराणिक काल में जो शिद्ध शाधक यहाँ अपने मठ बनाकर इह लोक से परलोक को गमन कर गए थे या कहीं की उन्हों ने समाधी ले ली थी उनके भक्तिओं या अनुयाइयों ने उशी स्थान पर उनके मंदी बना दिए ! भक्तों का कुनबा बढ़ने की स्तिथि में वह एक स्थान से दुसरे स्थान पर भहे स्तानान्तरित हुए परन्तु वह अपने साथ अपनी आस्था के प्रतीक उस धिध साधार या देवी को ले जाना नहीं भूले ! इसी परम्परा के चलते मध्य हिमाई क्षेत्र में एक ही देवी या देवता के कई मंदिर मिलते हैं ! पहले कुनबा और फिर गाँव तथा उसके बाद पूरा क्षेत्र में जब भी कोई घर से किसी काम के लिए बहार निकलता वह अपने देवी देवता से उस कार्य की सफलता के लिए प्रार्थना करता था वर्तमान तक भी सभी समाजों में यह परिपाटी है !
मध्य हिमालयी क्षेत्र में जिन शिधा साधकों ने ख्याति पी उनमे कई का नाम उल्लेखनीय है ! इसमें नाथ बाबाओं का नाम उल्लेखनीय है ! जैसे भैरब नाथ,  मछंदर नाथ,नर्शिंह नाथ, जालंधर नाथ, गोरख नाथ, नाग नाथ, चौरंगी नाथ, अध्वेत नाथ, शिध्वाली नाथ, ग्वेल, कलुवा, हरु हित, बीर,  घंदियल,  यहाँ तक बाहरवीं शताब्दी के बढ़ जगत गुरु संकराचार्य द्वारा निर्मित मध्य हिमालय क्षेत्रे के दो मंदिरों का नाम भी बद्री नाथ, केद्र नाथ नाम से रखा गया ! उसके बाद जितने भी गुरु मंदिरों की स्थापना हुई उनके नाम के अंतिम अक्षर नाथ ही लगाया गया ! प्रत्येक कुंवा या गाँव ने इनमे से अपने एक शधक को देवता मानकर अपना ग्राम देवता बना दिया तथा उसका मंदिर उछ स्थल पर या गाँव से ऊपर छोटी पर बना दिया ! मध्य हिमालयी क्षेत्र में सभी देवी देवताओं के मंदिर ऊँची चोटियों पर बने हैं ! इसी प्रकार देवियों के मंदिर जगह जगह स्थापित हैं ! यहाँ देवी और देवता सामान रूप से विराजमान हैं! किसी भी देवी देवता में भेद भाव नहीं है ! स्थानीय लोगों द्वारा अपने देवताओं का आह्वान जागर के रूप में किया जाता है! इस अवसर पर यह शिद्ध सहाधर और देवी देवता अपने भक्तों पर अपनी भावना रखते हैं तथा नाचते हैं ! नचले समाया इनके द्वारा जो कुछ भी माँगा जाता है उशे उसका भक्त पूरा करता है ! यहाँ खाडू या कांतू (बागी) की ही बलि चढ़ती है ! बहुत कम मामले देखे गए जब मुर्गे की बलि मांगी जाती है ! अधिकतर मुर्गे तो उदा दिया जाता है !
आस्था प्रतीक मन जेने वाले इस क्षेत्र में लोगों के दिलों में श्रधा है ! अपने देव के प्रति श्रधा रखते हुए केवल ऊँची चोटियों के कंदिर ही नहीं परन्तु छोटे छोटे थानों पर भी बेजुवां जानवरों की बलि दी जाती है ! यहाँ तक देखा गया की उत्तराखंड में कई देवी देवता ऐसे हैं जिनको पुत्र के जनम पर, पुत्री के जनम पर, लड़की के ससुराल में बच्चे होने पर बकरा या मंदा दिया जाता है ! यहाँ तक जितनी बार कुनवे में बच्चे पैदा होते हैं यदि उनके द्वारा देवता की पूजा की जाती है तो सबसे पहले एक बकरी मरी जाती है ! इस परम्परा को स्थानीय सामान्य भाषा में भीतर चुखियाना कहते हैं ! एक मायने में कहा जाय तो यहाँ होने वाली प्रत्येक पूजा में बलि अवश्य चढ़ती है ! बहुत कम क्षेत्र के लोगों में मंदितों में बलि के खिलाप जागरूकता उत्पन्न हुई है ! कई स्थान एइसे हैं जहाँ केवल श्रीफल नारियल में पूजा होती है ! वहां श्रीफल नारियल में पूजा के पश्चात् देवी देवता का प्रकोप नहीं हुआ न ही किसी भक्त तो कोइ हानि हुई !
मध्य हिमालय क्षेत्र में स्थित कई मंदिरों में हर साल या हर तीसरे साल मेला लगता है ! इसी मेला में देवी देवता के भक्त मिन्नत मानते हैं तथा उस मिन्नत के रूप में कोई निशान इस मंदिर से ले जाते हैं ! जैसे खाडू और काँटा (बागी) के गली पर बंधी रस्सी का टुकड़ा, मंदिर पर बंधी चुनी आदि तो देवी या देवता की धरोहर के रूप में अपने साथ ले जाते हैं ! जब उनकी मिनट पूरी होती हैं तब वह उशी रूप में रस्से के साथ बागी या मैंडा या दोनों साथ लेट हैं तथा देवी को खुश करने के लिए उनकी बलि देते हैं !
यह सिलसिला लगातार चल रहा है ! बड़े बड़े मेलों का आयोजन हो रहा है जहाँ हजारों के हिसाब से बेजुवां जानवर मेंडे और बागियों की बलि दी जाती हैं ! गढ़वाल कुमाऊं दुसंत पर बना कलिंका का मंदिर में हर तीसरे साल मेला लगर है ! यहाँ पशु बलि रोकने की बहुत कोशिस की गई परन्तु लोगों के दिल में घर कर गई आस्था की भावना के सामने सभी प्रयाश बोने साबित हो जाते हैं ! यह भी देवी की ही शक्ति मानी जा रही है ! इस प्रकार के मेलों के दोरान जिस मंदिर स्थल पर आयोजन होता है वहां की मिट्टी भी खून से लाल हो जाती है ! मंदिर से लेकर उसके दूर दराज क्षेत्र तक जगह जगह बेजुवां जानवरों का खून पूरे वर्ष भर मेले की यद् को तजा कर देता है !
जहाँ बलि के माध्यम से खून देने की बात आती है वहां यदि अपनी भावना बलि के स्थान पर श्रीफल दूध और चावल से अपने देवी देवता को मानाने की कोशिस की जाय तो निशंदेह ही आपका देवता मान जायेगा ! परन्तु यह परिवार या कुनबे में एक सदस्य द्वारा प्रस्तावित होने के बजे सभी सदस्यों के साथ वह सदस्य जिसपर देवता प्रकट होता है उस से भी सलाह ली जय तो निसंदेह आपका देवता अवश्य मन जायेगा और यह बलि प्रथा धीरेधीरे कम होती जाएगी !

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Jalandhari Ji.

We really appreciate the efforts being put in by you towards our regional languages.


                     बोली का साहित्यकार सम्मान का हकदार
डा. बिहारीलाल जलंधरी
यह सर्ब विदित है कि बोलियाँ स्वतन्त्र रह कर ही विकसित हुई ! इस प्रकार विश्व मे तेरह भाषाये ऐसी  हैं जिसमे प्रत्येक को पन्द्रह करोड से अधिक लोग बोलते हैं ! इन् मे प्रत्येक भाषा का अपना अलग क्षेत्र है ! यदि किसी दौर मे एक क्षेत्र का भाषा भाषी दूसरे क्षेत्र मे चला जाता है ऐसी स्थिति में वह अपनी भाषा को अवश्य ही अपने पैत्रिक स्थान से दूर अपने साथ ले जाता है ! इस प्रकार की कई भाषाएं हैं ! जिनका विकास अपने पैत्रिक स्थान से बाहरी क्षेत्र मे अधिक हुआ ! विश्व की इन् भाषाओं मे कई भाषाये अतिपरिनिष्ठ हैं तथा कुछ परिनिष्ठ ! इन् भाषाओं मे प्रत्येक की अपनी बोली तथा कई उपबोलियाँ भी है जिसके एक रुप को एक व्यक्ति, परिवार या समाज तथा उनके अश्रितों के साथ प्रयोग किया जाता  है ! यह उनकी अपनी बोली है जिसे वह अपनी भाषा के रुप मे मानते हैं ! वह भाषा ही उनकी अपनी मात्र भाषा होती है ! यह भाषा उनकी व्यक्तिगत बोली हो सकती है ! एक मायेने मे कहा जा सकता है कि विश्व मे उतनी ही व्यक्ति बोलियाँ हैं या जीवित भाषा के उतने ही स्वरुप हैं  जितने उनके बोलने वाले !
बोली का एक छोटा सा उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है कि किस प्रकार बोली अपने परिनिष्ठ स्वरूप के ओर बढी ! वाक को परिनिष्ठ भाषा का स्वरूप कैसे प्राप्त होता है ! इसके उत्तर के लिए परिस्तिथियाँ निहित हैं ! उदाहरण के रुप मे चोदहवीं और पन्द्र्हवीं सताब्दी से पहले लंदन की बोली का उत्कर्ष नहीं हुआ था अंग्लोसेक्सन इंगलैंड से विन्चेस्टर की बोली  नवी से ग्यारहवी  सताब्दी तक  साहित्य का परिवर्धित और परिनिष्ठित  रुप में रही किन्तु १०६६  ईस्वी मे नार्मन लोगों के आगमन ने इस परम्परा को नष्ट कर दिया और तीन क्रमगत  सताब्दियों तक इंगलैंड की बोलियाँ समान रुप से व्यवहार मे आती रही ! जीवन के उच्चस्थरीय विकास की चाहत में राज्य की जनसंख्या धीरे धीरे नगरों, महानगरों मे आकार रहने लगी ! व्यवहार की भाषा मे कई बोलियों के शब्दों का प्रयोग होता रहा ! फलश्वरूप इसी दौर में सभी बलियो के सयुक्त रुप का प्रयोग होने से लंदन की बोली का उत्कर्ष हुआ ! लंदन इंगलैंड का नाभिकीय क्षेत्र था ! लोग गांव से विभिन्न बोलियों का रुप लेकर लंदन आते रहे ! इस प्रकार काफी समय तक लंदन की बोली मे बहुत बिभिन्नताये रही ! उसका स्वरूप तब स्थिर हो पाया जब सत्रह्वी सताब्दी के बाद एक्सफोर्ड और  केम्ब्रिज  विश्व विध्यालयों के शिक्षित लोगों के उच्चारण और उनकी वाक प्रव्रतियों को परिनिष्ठित मान लिया गया तब भी यह स्थायित्व से दूर थी  और पेरिश की भाषा फ्रेन्च की तुलना मे अधिक स्वतन्त्र थी ! पेरिश की फ्रेन्च भाषा का अपना एक निश्चित इतिहास रहा है ! पहले तो फ्रान्स की बोली फ्रंसियाँ राष्ट्र द्वारा संरक्षित की गई उसे साहित्यिक भाषा के रुप मे अपनाया गया !  भाषा को संरक्षण मिलने के कारण उसे मूलतः मध्यम वर्ग द्वारा अपनाया गया जिस कारण वह मध्यम वर्ग की बोली कही जाने लागी ! इस भाषा को राज दरबार द्वारा स्वीकार करने के कारण इसका धीरे धीरे सम्पूर्ण राज्य के प्रान्तों मे अभूतपूर्व प्रयोग होने लगा  !  लब्धिनिष्ठ  सहित्याकारों द्वारा इसका प्रयोग किया गया और प्रत्येक स्थान पर इस भाषा को प्राथमिकता दी गई ! बाद मे पेरिस की भाषा फ्रेन्च का विस्तार देश के प्रान्तों की ओर अनिवार्य शिक्षा, राष्ट्रिय एकता और सुनियोजित मुद्रण प्रणाली के कारण बढ्ता गया ! इस प्रकार फ्रेन्च के निर्माण मे स्थानीय बोलियों ने बहुत ही काम सहयोग दिया है ! भाषा को जब किसी राजा दरबार या शासकीय तन्त्र का संरक्षण मिल जाता है तब उस राजा या शासन द्वारा प्रदत नियमों के अनुसार उस भाषा  पूरे राज्य मे अनिवार्य कर दिया  गया !  उसके बाद ही उस राज्य मे राज्य द्वारा संरक्षित भाषा मे कार्य शुरु हो सका  ! 
भारत देश मे अनेक आदि भाषाओं का कोई परिनिष्ठित इतिहास नहीं है अतः उन्हें बोली के रुप मे लिया जा सकता है ! यह ऐसा द्रष्ठिकोंन  है  कि जो भाषा के लिखित और साहित्यिक रुप पर आधारित है ! प्रायः वाक के लिए लिखित रुप को भाषा कहा जाता है! जिसे अङ्कित करने के लिए अंकन पद्धती का होना  आवश्यक  होता है यह वह पद्धती  है जो उस भाषा के स्थानीय वाक समुदाय को परिभाषित्   और  उच्चारित करती हो !
वर्तमान मे कई क्षेत्र की बोलियों मे साहित्यकार साहित्य सृजन कर रहे हैं परन्तु बोली मे लिखे गए साहित्य को प्रायः सन्देह की द्रष्ठी से क्यों देखा जाता है  जो साहित्यकार बोली मे साहित्य स्रज़न कर रहे हैं उन सहित्यकारों को परिनिष्ठित भाषा की शिक्षा प्राप्त होती है और वे स्वयम को उस से अप्रभावित नहीं रख पाते ! कभी ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है कि उनका चिन्तन परिनिष्ठित भाषा मे होता है और वे उसे बोली कि ध्वनि संरचना और ब्याकरण के अनुसार अनुदित मात्र कर देते हैं ! ऐसी स्थिति मे उनका शब्द संग्रह परिनिष्ठित भाषा से अत्यन्त प्रभावित होता है और उसी प्रकार उसकी शैली वाक्य रचना और अभिव्यक्ति भी प्रस्तुत करती है !
वस्तुतः मध्य हिमालय क्षेत्र की बोलियों के साहित्यिक स्वरूप के आधार पर हम यह नहीं कह सकते हैं कि तत्समय मे जनता मे साहित्यिक सृजन हुआ ! जो बोली यदि समाज के अशिक्षित वर्ग तक ही सीमित रह जाती है उसमे साहित्य के स्रोत नहीं फूटते है बोली का साहित्य उन्हीन क्षेत्रों मे प्रकट होता है जहाँ पर उसे सामाजिक सम्मान प्राप्त होता है और शिक्षित व्यक्ति उसे बोलने का अव्यस्त होता है ! जो लेखक  उन बोलियों से अनभिज्ञ है और बोलियों को परिनिष्ठित भाषाओं के स्थान पर अपदस्थ समझते है वे प्रायः उसे सीखने के लिए उनमें हास्य और व्यंग्य की रचना करने का प्रयत्न करते हैं किन्तु जिस क्षेत्र मे बोली अब भी सम्पूर्ण समाज के दैनिक विचार विनिमय का माध्यम है और समाज के प्रत्येक वर्ग द्वारा बोली जाती है वहाँ वह साहित्य के मध्यम के रुप मे परिपुष्ठ होकर किसी भी परिनिष्ठित भाषा का सामना कर सकती है ! इस सम्बन्ध मे तुलसी दास ने कहा था :-
"भाषा भावती भोरी मति भोरी, हैसिवे जोग हाँसे नहीं खोरी"
कहा जा सकता है कि क्षेत्रीय बोलियों का कोई लिखित पौराणिक साहित्य नहीं होता या जिन बोलियों को उसके चर्चित क्षेत्र मे राजकीय संरक्षण प्राप्त नहीं होता ऐसी बोलियों को लिपिवद्ध भी नहीं किया जा सका ! इन  बोलियों का मौखिक साहित्य पर आधारित लोकगीत,  दन्तकथा कहानियाँ ही स्थानीय धरोहर के रुप मे सुरक्षित हैं ! वर्तमान मे स्थानीय बोलियाँ इसी रुप मे  अपनी श्रुति साहित्यक परम्परा लिए भविष्य के लिए असुरक्षित होती जा रही है ! श्रुति साहित्यक होने के कारण यह साहित्यिक परम्परा दिन प्रतिदिन अपने स्थान से  स्खलित होती जा रही है ! यदि कभी इस बोलियों के लिपिवद्ध करने कि आवश्यकता समझी गई तो किसी भी लिपि मे इसे लिपिवद्ध किया गया परन्तु इसकी स्थानीय बोली की ध्वनियों को उस लिपि मे पूर्ण  रुप से उच्चारित नहीं किया जा सका ! जिसके कारण स्थानीय भाषा अपनी मूल ध्वनियों के अभाव मे हमेशा अधूरी  रही !
उपरोक्त परिस्थितियों के रहते हुए जो साहित्यकार अपनी निज भाषा या बोली मे साहित्य सृजन कर रहे हैं निसन्देह उस बोली या भाषा बोलने वाले समाज को अपनी भाषा के सहित्याकारों,  भाषा पर शोध करने वाले विध्यर्थियों, कवियों का सम्मान करना चाहिए ! यह उस समाज के लिए महानता का परिचायक भी है !

Dr. B L Jalandhari

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महासभा की रसियन कल्चर सेंटर की बैठक सफल
नई दिल्ली : दे.भू.विशेष संबाददाता : राशियाँ कल्चर सेंटर में अखिल भारतीय उत्तराखंड महासभा का दिनांक २२ सितम्बर को राष्ट्रीय कार्यकारणी की पांच सूत्रीय बैठक का आयोजन संगठन स्तर से आयोजित किया गया ! दिल्ली फिरोजशाह रोड स्थित रसियन कल्चर सेंटर के सभागार में पाए थे ! इन चुनिन्दा लोगों में महासभा के आधार स्तम्भ कहे जाने वाले कई संस्थापक सदस्य महासभा के वह सभी पदाधिकारी उपस्थित हुए जो पिछली बैठकों में किसी करानबस उपस्थित नहीं हो उपस्थित हुए जिनमे श्री मोहन सिंह बिष्ट (राष्ट्रीय मुख्य संयोजक)  डॉ. पुष्कर मोहन नैथानी (राष्ट्रीय मुख्य सलाहकार) श्री चन्द्र दत्त जोशी (राष्ट्रीय संरक्षक)
श्री भवान सिंह रावत (राष्ट्रीय अध्यक्ष) डॉ.बिहारी लाल जालंधरी (राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं सचेतक), श्री शम्भू प्रसाद पोखरियाल (राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं मुख्य प्रभारी)श्री मनमोहन दुद्पुड़ी (राष्ट्रीय महासचिव), श्री अनिल चन्द्र जोशी (राष्ट्रीय मुख्य संगठन सचिव), श्री चन्दन सिंह बिष्ट (राष्ट्रीय कार्यालय सचिव), श्री राजेंद्र प्रसाद घिल्डियाल (उ.प. अध्यक्ष),  श्री ज्ञानदेव घंश्याली (पंजाब  प्रदेश अध्यक्ष), श्री मदन मोहन बिष्ट (हरियाणा प्रदेश अध्यक्ष, जय सिंह रावत (दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष) शिशुपाल सिंह नेगी (कार्यकारी अध्यक्ष उत्तराखंड), डॉ हरपाल नेगी (अध्यक्ष उत्तराखंड), श्री विनोद घंसला, श्री बी डी रतूड़ी, श्री कैलाश नौटियाल आदि कई बरिष्ठ पदाधिकारियों ने भाग लिया ! इस बैठक का आयोजन महासभा के राष्ट्रीय मुख्य संगठन सचिव श्री अनिल चन्द्र जोशी द्वारा किया गया !महासभा की यह इस प्रकार की पहली बैठक है जिसमे कुछ अहम् निर्णय लिए गए और बैठक सोहार्द ढंग से संपन्न हुयी !
बैठक मै कुछ अहम् निर्णय लिए गए जिसमे मध्य  प्रदेश भोपाल मै श्री विनोद घनशाला जी द्वारा दान मै दी गई  5 बीघा  जमीन की रजिस्ट्री हेतु लगभग 1.54 लाख धन की व्यवस्था पदाधिकारियों/ सदस्यों द्वारा की गयी है सभा ने निर्णय लिए कि अक्टूबर के पहले हफ्ते मै रजिस्ट्री के लिए दिया गया महासभा के कार्यालय या खाते में पहुँच जाना चाहिए उसके बाद तमीं की रजिस्ट्री की जायेगी ! महासभा के संविधान मै आवश्यक संशोधन करने के लिए एक समिति का गठन दिया गया जिसमे श्री मोहन सिंह बिष्ट, डॉ.पुष्कर मोहन नैथानी, श्री भवान सिंह रावत, डॉ.बिहारी लाल जलंधरी, श्री मनमोहन दुद्पुड़ी  को मनोनीत किया गया ! इस समिति की बैठक अगले दिन २३ सितम्बर को नॉएडा गेल इंडिया लिमिटेड सेक्टर-16A फिल्म सिटी मै आयोजित की गयी ! इस बैठक में समिति ने आवश्यक संविधान संशोधन बिन्दुओं पर निर्णय ले लिया है| उन बिन्दुओं को जल्दी ही  (सितम्बर माह) में लखनऊ रजिस्टार कार्यालय से संशोधित कर जमा कर दिया जायेगा|
महासभा के संचालन और नए पदाधिकारियों/ सदस्यों के मनोनयन और अनुशासनात्मक कार्यवाही, कार्यक्रमों के लिए धन की व्यवस्था हेतु एक कोर कमेटी का किया गया ! जिसमे श्री मोहन सिंह बिष्ट,  डॉ. पुष्कर मोहन नैथानी,श्री चन्द्र दत्त जोशी, श्री भवान सिंह रावत, श्री योगेन्द्र ममगाई, डॉ.बिहारी लाल जालंधरी,श्री शम्भू प्रसाद पोखरियाल, श्री मनमोहन दुद्पुड़ी,श्री अनिल चन्द्र जोशी, श्री चन्दन सिंह बिष्ट,श्री राजेंद्र प्रसाद घिल्डियाल, श्री ज्ञानदेव घंश्याली, श्री मदन मोहन बिष्ट को मनोनीत किया ! महासभा द्वारा उत्तराखंड के 10 जिलों में से प्रत्येक जिले में एक स्कूल को चिन्हित कर गरीब और बुद्धिमान बच्चों को आर्थिक सहायता प्रदान करने का निर्णय  लिया !   महासभा लगातार  शिक्षा के क्षेत्र में उत्तराखंड के दूर दराज के पहाड़ी इलाको  के विध्यालाओं में विद्यार्थियों को प्रोत्साहित का कार्य क्रम करती रहेगी| राष्ट्रीय कार्यकारणी की बैठक मै विभिन्न प्रदेशों के प्रतिनिधि उपस्थित थे|
     महासभा अपने उत्तर प्रदेश अध्यक्ष (श्री राजेंद्र प्रसाद घिल्डियाल), हरियाणा प्रदेश अध्यक्ष (श्री मदन मोहन बिष्ट), राजस्थान से राष्ट्रीय सचिव (श्री एस. डी. जोशी जी) से अनुरोध करती है की अपने प्रदेशों की कार्यकारणी घोषित कर जल्दी कार्यालय सचिव को भेजने का कष्ट करेंगे|
महासभा के भोपाल स्थित भूमि की रजिस्ट्री के लिए जिन पदाधिकारियों ने बचन दान दिया उनमे सर्ब श्री राजेंद्र प्रसाद घिल्डियाल-10,000 श्री मोहन सिंह बिष्ट -  5,000 -चेक प्राप्त किया डॉ. पुष्कर मोहन नैथानी  - रू.5,000 श्री कैलाश नौटियाल - रू.5,000श्री शम्भू प्रसाद पोखरियाल -रू.5,000 -चेक प्राप्त किया श्री चन्दन सिंह बिष्ट  - रू.5,000 -चेक प्राप्त किया श्री जय सिंह रावत  - रू.12000 श्री गजेन्द्र चौहान - रू 5,000 डॉ.बिहारी लाल जालंधरी- रू 5100 श्री ज्ञान देव घंश्याली - रू २१०० श्री हरपाल सिंह नेगी - रू 5,००० श्री दिनेश राणा  - रू.5,000 श्री शिशुपाल सिंह नेगी - रू 21,000 श्री भगवती प्रसाद रतूड़ी -रू11,000 स्वामी भवानी नंदन यती-रू 5,000 श्री भवान सिंह रावत -रू.11000  श्री पंचम सिंह नेगी  - रू 2100 श्री शुभाष चन्द्र डोभाल - रू 1000 - नकद प्राप्त किया
श्री बिजेंद्र ध्यानी  -  रू 2100 श्री कुंवर सिंह रौधियल - रू 2100 हेमंत सिंह गाड़िया      - रू 2100 श्री अनिल चन्द्र जोशी   रू 11000 श्री चन्द्र दत्त जोशी  - रू 5100 -नकद प्राप्त ) श्री मदन मोहन बिष्ट   रू 5100 - नकद प्राप्त किया ! इस बैठक में महासभा के अपूरब सफलता मिली ! 

Dr. B L Jalandhari

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गढ़वाली कुमाउनी भाषा की गोष्ठि संपन्न
दे.भू.पु. संबाददाता : नई दिल्ली : पंचकुइया रोड गढ़वाल भवन में गढ़वाली कुमाउनी भाषा की गोष्ठी का आयोजन किया गया ! इस बैठक का आयोजन उत्तराखंड की गढ़वाली कुमाउनी भाषा को संरक्षण दिलाने व स्थानीय भाषा की ध्वनियों को मान्यता दिलाने के लिए प्रयासरत  डॉ बिहारीलाल जलंधरी द्वारा किया गया ! इस बैठक में मुख्य रूप से उत्तराखंड  की गढ़वाली कुमाउनी भाषा के साहित्यकारों को आमंत्रित किया गया !  उन साहित्यकारों को विशेष तोर पर आमंत्रित किया गया जिनका अपनी भाषा के प्रति रुझान काम हो रहा है तथा जिन साहित्यकारों की पाण्डुलिपि किन्हीं कारनवस अभी तक प्रकाशित नहीं हो पाई हैं !  इस अवसर पर डॉ जलंधरी ने कहा कि उत्तराखंड की दोनों भाषा क्रमशः गढ़वाली और कुमाउनी के विकास के लिए उत्तराखंड भाषा परिषद् का गठन किया जाना चाहिए ! इस परिषद् के अंतर्गत दोनों भाषाओँ पर सामान रूप से काम किया जा सकता है ! उन्होंने कहा कि हमारी इन दोनों ही भाषाओ में पाठ्यक्रम तैयार किया जाना चाहिए तथा कम से कम विद्यालयों में कक्षा ६ से पढ़ने के लिए लागू किया जाय ! उन्होंने कहा कि उत्तराखंड कि इन दोनों भाषाओँ को आधारिक और माध्यमिक स्थर में पध्यक्रम में सामिल किया जाना चाहिए ! उन्होंने कहा कि हम भाषा के नाम पर उत्तराखंड को गढ़वाल कुमाऊं में नहीं बाँट सकते ! उन्होंने कहा कि हम उत्तराखंड में भाषाई एकता चाहते हैं ! उन्होंने कहा कि उत्तराखंड की भाषा (गढ़वाली कुमाउनी)  के साहित्यकार अभी तक अपनी भाषा के लिए सकारात्मक नहीं कर पाए हैं !  यदि कर पाते तो निशंदेह हमारी यह दोनों भाषाएँ अपने प्रदेश में सम्मान प्राप्त कर भारतीय संबिधान की अष्ठम सूची में सामिल हो गयी होती !
गोष्ठी में उपस्थित श्री जयपाल सिंह रावत ने कहा कि उत्तराखंड का जो ब्यक्ति अपनी भाषा में  काम कर रहा है उसे बिलकुल भी प्रोत्साहन नहीं मिलता ! खुद मै भाषा के इस पचड़े में चुप हो जाना चाहता हूँ ! उन्हों ने कहा कि सबसे पहले हमें अपने घर में अपने बच्चों के साथ गढ़वाली या कुमाउनी में बाते करनी चाहिए ! उसके बाद जहाँ भी बैठकें होती हैं वहां अपनी भषा में बात बात करने का माहोल बनाना चाहिए !
श्री दिनेश विज्ल्वान ने कहा कि लगभग सभी भाषाओँ का मूल एक ही है परन्तु प्रत्येक भाषा की  कुछ ध्वनि उसकी पहचान कराती हैं हमारी भाषा की उन ध्वनियों की पहचान जो "गऊं आखरों" के रूप में हो चुकी है उसका प्रचार प्रसार आवश्यक है ! उन्हों ने कहा कि हमें उत्ताराखंड  की दोनों भाषाओँ पर काम करने के लिए साहित्यकारों का एक ग्रुप बनाना चाहिए जो सीधे शासन के साथ बात कर सके ! श्री ब्रिजमोहन वेदवाल ने कहा कि भाषा की यह लडाई बहुत पुरानी है परन्तु अब जोश खरोश से काम करने की आवश्यकता है हम सभी को अपनी भाषा को स्थान दिलाने के लिए काम करना चाहिए !  श्री शिवचरण मुन्ड़ेपी ने कहा कि हमें भाषा को शासकीय स्थर से मान्यता दिलाने, इसमें पाठ्यक्रम तैयार कर आधारिक विद्यालयों से लागू करने तथा भाषा के लिए एक साझा मंच के माध्यम से काम किया जाने की आवश्यकता है ! श्री पृथ्वी सिंह केदारखंडी ने कहा कि उत्तराखंड की भाषा गढ़वाली कुमाउनी को संरक्षण मिलना आवश्यक है ! इसके लिए एक एकेडेमिक कमेटी बनाई जाय ! उत्तराखंड में भाषा परिषद् की स्थापना के उपरांत ही जिन प्रदेशों में उत्तराखंड के अधिकांश लोग रहते हैं वहां उत्तराखंड भाषा अकेडमी की स्थापना की जाय ! श्री चंद्रमणि चन्दन ने कहा कि हमें उत्तराखंड की भाषा गढ़वाली कुमाउनी को मान्यता दिलाने के लिए प्रयाश करना चाहिए ! सबसे पहले हमें डॉ जलंधरी जी के प्रयाश की सराहना करनी चाहिए ! उत्तराखंड की भाषा के सभी साहित्यकारों को एकजुट होकर भाषा के इस आन्दोलन को धारदार बनाना चाहिए ! यह भाषा की अस्तित्व की लडाई है यदि हम आज सचेत नहीं हुए तो हमारी भाषा विलुप्त हो जायेगी तथा आने वाली पीढी हमें माफ नहीं करेंगी !
डॉ जलंधरी ने सभी साहित्यकारों का धन्यबाद किया तथा भविष्य में इस प्रकार की गोष्ठियों के आयोजन के लिए प्रस्ताव रखा ! उपस्थित ब्यक्तियो ने अक्टूबर ३१ रविवार को साय चार बजे इसी स्थान यानी गढ़वाल भवन में बैठने की सहमति दी!

Dr. B L Jalandhari

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साहित्य अकादमी का गढ़वाली अलाप
कहीं शाजिस तो नहीं गढ़वाल-कुमाऊं को भाषाई आधार पर बाँटने की
उत्तराखंड की गढ़वाली कुमाउनी बोली अपने ही गढ़ में अपने ही अस्तित्व के लिए छटपटा रही है! इनदोनोंबोलियों का दुर्भाग्यइनके साथपौराणिक काल से ही चलता आरहा है ! पूर्ब मेंवेदों की भाषा संस्कृतका अत्यधिक प्रभावहोनेके कारनइन भाषाओँ को अपने क्षेत्रके रजवाड़ों केदरबार मेंवहसम्मान नहीं मिलसकाजो उसराज्य में वहां के लोगों द्वारा
अधिकप्रयोगकी जाने वाली एक मात्रभाषा को मिलना चाहिए था! फल्श्वरूपयह बोलियाँक्रमश गढ़वाल तथाकुमाऊं में दरबारी भाषा का स्थान न ले सकी ! जिसके कारन राजे महाराजे भी आम जनमानस द्वारा अपने रोजमर्रामें प्रयोग की जाने वाली भाषा को संस्कृत लोलुप्तचाटुकारदरबारियोंवतत्कालीनविद्वानोंके संस्कृत के प्रति प्रबल विचारधाराहोने के
कारन स्थानीय प्रचलित भाषा को संरक्षण देने का सामर्थ्य नहींजुटासके! यदिऐसानहीं होतातो गढ़वाल के राजाओं द्वारागढ़वालीऔरकुमाऊं केशासकों द्वारा कुमाउनी को संरक्षणदेकरइन्हें अपनी राजकीयभाषा के रूप मेंस्थापित कर दिया होता !
यह सर्ब विधित है कि गढ़वाल कुमाऊंके पौराणिकइतिहासनेएक दुसरेको आसानीसे स्वीकार नहीं किया! कडुवाहटभरे इस इतिहास की यादगार में कुमाऊं में अभी तकएक त्यौहार'खताडवा' मनायाजाता है स्थानीय लोगों को इस त्यौहार को मानाने की प्रवृति उस पौराणिक यादको दुहरा कर वर्तमान के लिए सबक लेना है ! हमें आज के परिवेश में रहते हुए इस प्रकार की पौराणिक
चंदगलतियों को बार बार याद करनाइन दोनों क्षेत्रोंसे बने उत्तराखंड प्रदेश के हित मेंनहीं है ! किसने क्या किया वह तो चले गए परन्तु आज हमउनके द्वारा खींची गयी लकीर को लगातार पीटते जा रहे हैं ! वह हो एक घटना थी जिसको ऐतिहासिक बना दिया परन्तु बर्तमान में यह सब कुछ जानते हुए भी उसी प्रकार की घटनाओं को नए सिरे से जन्म दिया जा रहा है !
भारत देश में क्षेत्रीय भाषाओ वउसके साहित्यकारों की दीनहीन स्थिति की सुध सदैब से ही साहित्य अकादमी लेती रही है साहित्य अकादमी एक सिर्फ गढ़वाली के लिए ही नहीं बल्कि अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही उन सभी क्षेत्रीय भाषाओ के लिए कार्य कर रही है जिनका बर्चश्व दिन प्रति दिन कम होता जा रहा है ! साहित्य अकादमी द्वारा गढ़वाली की बात भाषा के रूप में उठाकर उत्तराखंड की अन्य
बोलियों पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है !
विद्वानों ने भारतीय भाषाओँ के वर्गीकरण में गढ़वाली कुमाउनी को हिंदी की उप भाषा और इन्हें मध्य पहाड़ी भाषा का नाम दिया है ! भाषा के विद्वान ग्रियर्सन, एटकिंसन तथा सुनीतिकुमार चतुर्ज्यो ने कहीं भी इनका मध्य पहाडी से हट कर उल्लेख नहीं किया ! गढ़वाली के लिए यह सबसे बड़ी खुशी की बात हो सकती है कि साहित्य अकादमी द्वारा इसे हिंदी की उपबोली के श्राप से मुक्त किया है तथा
गढ़वाली को एक स्वतंत्र भाषा के रूप में माना है
परन्तु साहित्य अकादमी द्वारा निर्मित उत्तराखंड कि इस गढ़वाली भाषा कि स्थिति अपने ही घर में किस प्रकार की बनी हुई है इस सम्बन्ध में शायद साहित्य अकादमी अनभिज्ञ है ! इसमें संदेह नहीं कि उत्तराखंड से बहार की संस्था को जो कुछ बताया जायेगा वह विश्वाश करते हुए उसपर अमलकरेगीपरन्तु जो लोग उत्तराखंडमें रहकर यहाँके समाज का प्रतिनिधित्वकर रहे हैवह भी गढ़वाली
भाषा की स्थिति से अनभिज्ञ है ! भाषणबाजीकी हद को पर करते हुए उन्हों ने गढ़वाली को संबिधान की अष्टम सूची में दर्ज करने के लिए संसद मेंचर्चा करने की बात तक कह डाली! यह सभी बातें गढ़वाली के लिए कहने में अच्छी लगती है परन्तु जब वास्तवित धरातल पर देखाजायेगा तोगढ़ावाली के भाषा का रूप तो दूर वह अपनी स्थानीय बोलीके रूप को बचाने केलिएजूझतीमिलेगी !
गढ़वाली बोली को सबसे पहले उस क्षेत्र की शासकीय ब्यवस्था में रह्जीह दी जानी चाहिए थी ! जिस प्रकार उत्तर प्रदेश से अलग होकर यह क्षेत्र उत्तराखंड के रूप में स्थापित हुआ था उसी दोरान यहाँ की स्थानीय बोलियों को सम्मान देकर उन्हें प्रादेशिक भाषा का दर्जा दिया जाना चाहिए था ! यहाँ तो पृथक राज्य बनने के दश वर्षबादभी यहाँ की भाषा केविषय मेंस्थिति ज्यो की त्योंहै
! साहित्यअकादमी के कार्यक्रम में बक्ताओं द्वारा गढ़वाली बोलीको भाषा बना दिया उसेहिंदी की उपभाषाके अभिशाप से मुक्ति दिला दीतथा उसे किसी भी सीमामें न बंधने का अहवानकर उसे संसद में संबिधान की आठवीसूचीमें स्थान दिलानेके लिएचर्चा करने की घोषणा कर दी! यह सबकुछ हवाई तोर पर हो रहा है ! वास्तविकता तो यह है कि गढ़वाली तो अपने ही क्षेत्र में
साहित्यिक भाषाके रूप में स्थापित नहीं हो पाई है ! इस कथित भाषा के साहित्यिक रूपको कहीं भी पठान पाठनके रूप में प्रयोग नहीं किया जाता, ना ही किसी विश्वविद्यालय मेंइसके नाम की कोई भाषा पीठहै ! इस कथित भाषा के लिए प्रदेश सरकारअभी तक कोई भी अध्यादेश नहीं निकाल सकी है ! इन सभी स्थितियोंके देखते हुए यहाँ प्रश्न पूछा जा सकता है किकेवल गढ़वाल मेंगढ़वाली
कथित भाषा की क्या स्थिति है ? भाषा के नाम पर थोथी लोकप्रियता हासिल करने वालों को पूछा जाना चाहिए कि उन्हों ने सरकार में रहते हुए इसके लिए अध्य्देश निकलने वभाषा का दर्जा देने विधान सभा के कब चर्चा की? नेपाली को प्रादेशिकभाषा का स्थान दिलाने के लिए एक बरिष्ठनेताचर्चामें जरूर रहे !
यह सर्ब विदित है कि उत्तराखंडमें मुख्यदोबोलियाँ है ! जो भाषा का रूप धारण करने के लिए प्रदेश के शासनादेशका इन्तजार कर रही है !एक शोधसे यह सिद्धहो गया है कि यह दोनों भाषाएँएक दूसरे के काफीनजदीक है ! यहाँ केवलगढ़वाली और केवल कुमाउनी के रागअलापनेसे इन दोनों के बीचकी दूरी बढेगी! प्रदेश सरकार यदि इनमे से किसी एक भाषा को मान्यतादेकर
स्वीकार करती है तो निशानदेहदूसरीभाषा भाषीआन्दोलन का रहा पकड़ कर रास्ते मेंउतर सकते है ! जिस से गढ़वाल कुमाऊं के बीच कलह उत्पन्न हो सकता है ! उत्तराखंड के कई साहित्यकार तथा नेता इस स्थिति को हवा देना चाहते हैं ! इस प्रकार की स्थिति से बचने के लिएकेवल एक भाषा की गोष्ठीकरनेसे बचनाहै ! दोनों भाषाओँ की स्थानीय ध्वनियोंकी पहचानयुक्तशोध के आधार पर
निर्मित चिन्होंको प्रचलित लिपि केसाथजोड़करएक विषयतैयार किया जानाचाहिए ! दोनोंमें बहुतकम अंतरहोनेसे इन दोनों में सर्ब प्रथमएक विषयतैयार कर प्राथमिकविद्यालयोंसे अध्ययन केलिएलागू किया जाय!जब तकउत्तराखंड की यह दोनों भाषाएँ अध्ययन केविषय बनकर अपने साहित्यिक रूप में उभरकर नहीं आती तबतक इन बोलियोंको भाषा कहना इन के साथ
नाइंसाफी होगी !
साहित्य अकादमी ने केवल गढ़वाली भाषा की बात की है उसी प्रकार कुमाऊ में कुमौनी की बात कर सकती है ! एक सूबे में एक निकाय द्वारा दो भाषाओँ द्वारा अलग अलग सम्मान देना एक विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न हो रही है ! जहाँ तक समग्र उत्तराखंड की बात आती है वहां दोनों भाषाओँ को एक ही मंच दिया जाना चाहिए था ! यहाँ एक प्रश्न उठता है कि यदि साहित्य अकादमी की सूचि में गढ़वाली भाषा का सोलहवां
स्थान है तो कुमाउनी भाषा को उसी सूचि में कौनस्थान पर स्थापित किया गया है !
उत्तराखंड कि इन दोनों भाषाओँ के लिए संबिधान की अष्टम सूचि अभी बहुत दूर है ! जिस भाषा की बात की जा रही है उसे उसके क्षेत्र में शासन द्वारा शासित किया जानाचाहिए तभी हम उत्तराखंड की भाषाओँ के साथ न्याय कर सकते हैं ! नहीं तो यह मानाजायेगा कि अपनी राजनीती बचाने के लिए भाषा के आधार पर गढ़वाल और कुमाऊं को बाँटने की साजिश आरम्भ हो चुकी है ! अब यह साजिश की बात तभी झूटी साबित हो
सकती है जब दोनों में एक विषय तैयार कर प्राथमिक विद्यालय से अध्ययन करने का अध्यादेश निकाल कर उसे लागू करवाया जाय !

Bhishma Kukreti

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Sankalp: Appreciable Efforts for Raising Vital Issues of Survival of Indian Regional Languages

                                   Bhishma Kukreti

              Dr. Bihari Lal Jalandhari is a well know personality in keeping alive the Uttarakhandi journalism in Delhi besides his research on Garhwali-Kumauni languages. He has been publishing a fortnightly ‘Dev Bhumi ki Pukar for more than sixteen years. 
            ‘Sankalp’ is annual special issue of Dev Bhumi being published from 2011. This present issue of Sankalp’ is about raising vital issue of survival of Indian regional languages. 
              Bihari lal jalandhari opens various issues of conspiracy against the local and oldest living languages in Uttarakhand – Kumauni and Garhwali in his ‘Bhasha ke Mudde par Chuppi Kyon?
  Surendra Rawat tries to discover the reasons for worsening situation of local languages in ‘Uttarakhandi Bhasha ka Khisktaa Janadhar’.
  Tara Datt Tripathi offers a few important aspects of protection of Kumauni and Garhwali languagesby providing details of dieing languages or dead languages in ‘Himalayi Bhashaon ka Bhavishy’.
 Prem Lal Bhatt is senior Garhwali literature creative and unnecessary he tries to write brief history of Garhwali prose in  Gadhwali gady ku lekhan. This is one of the weakest articles of Sankalp’ as Bhatt does not have any knowledge or he never tried about the Garhwali prose from 1985. The editors should restrain from calling language historical articles from those who do not do labor in finding the exact data. Senior literature creative never means he/she knows history of literature.
  DProfesor Keshav datt rubali raised the issue of spelling of Kumaun, Kumau, Kumauni, Kumaunni in ‘Kumauni Bhasha: Adharbhoot Sandarbh’. Dr Rubali provides historical details of word Kumaun. It is surprising that learned scholar did not mention the name od Dr.Bhavani datt Upreti’s famous book.
   Bhishma Kukreti puts light on the critical history of Garhwali language Criticism in ‘Garhwali Sahity me Samalochna/Alochana/Sameeksha’.
  Dr Parma nand Chaube provides reasons for proving Garhwali, Kumauni and Jaunsari as perfect languages in ‘Uttarakhand ke Mool ko Abhivykt krne me Samarth..’
  Kamla Jalandhari speaks about the work of Dr B.L. Jalandhari forgetting recognition for regional languages of Uttarakhand in ‘Bhasha Rojgar ka Sadhan bane: Dr Jalandhari
  Famous Hindi and Kumauni poet Pooran Chand kandpal discusses about Garhwali and Kumauni ’
  By profession Dr Chandra Mohan is medical practitioner but he has strong affiliation towards regional languages of Uttarakhand. Dr Dhoundiyal shows the special characteristics of Garhwali language in Apni Matri Bhasha Garhwali-Kumauni’.
  Famous social worker Drashan Sing (Udaypur) narrates the appreciable works of migrated Uttarakhandis for developing and protecting their languages in ‘Pravasiyon Dwara Matribhasha ka Vikas’.
   Famous Garhwali poet discusses about the importance of making new language from the present Kumauni and Garhwali languages in the article- ‘Boli-Bhasha me Rachi Basi hai Mitti ki khushboo’.
  ‘Panch Bhai Kathait ki gatha ‘ is famous drama by Dr D.R. Purohit. Now the readers will love the script of the said drama.
   Damodar Joshi Devans argues the reasons for clean Ganges in ‘Ganga hun Main’.
  Suraj Singh Rawat discusses about lack of cooperation among Garhwali-Kumauni creative in ‘Hamare sahitykaro me Eka nahi’ . Without providing proofs by Rawat the subject loses its importance. In fact the title and the story inside do not have any relation too.
Nidhi Semwal’s article is just filler. It is surprising that editor kept the articles of Suraj Rawat and Semwal  in this serious volume.
  Dev Vrat Sharma provides history and characteristics of Asames language literature in ‘Matribhasha ki Bhasha hi Hamari Bhasha’.
   Honorable judges Pranjal Barua and Upen Basumtari provide critical aspects of Bodo language and its literature in ‘Ashmita ki Pahchan hai: Bodo’.
  V.m Meshnamba discusses about history and characteristics of Manipuri language in Mool Skript ko purarjeevit karne ki avshyakata’.
  T. Gangopadhyay specifies the critical characteristics of Bengali language in ‘ek Samridh Bhasha ke sabhi Gun’.
Vandana vete provides glimpses of Santhali language in ‘ Ary Bhashao se Adhik Purani hai Santhali Bhasha’.
Professor K.K.Jha discusses various aspects of Maithali language in ‘Mukut ki Tarah mana Jata hai Maithali sahity’.
  Ved kumara Ghai endows with rich history and characteristics of Dogari language in ‘Sanrakshit hai Dogari Bhasha ka Mool Roop’.
       Onkar N.kaul presents knowledge about Kashmiri Language in ‘Apni Dhwaniyon ko Samete Huye hain Sthaniy Bhasha’.
  B.k.Sharma details about the history strength of Gujarati language in ‘Rajgar ka sadhan hai Gujrati Bhasha’. 
Ashwani Kumar Pankaj cautions about endangering situation of local languages in India.
Eminent language expert Dr Karmchandra Aheer briefs about history and characteristics of Panchparganiya languge in “ Hamare log Sanskritik Shadyantra ke Shikar ho rahe hain’.
  Dr Roj Kerketta argues that the people should not pursue strictness of conventional wisdom in local language literature in ‘Shudhata ka Agrah Bhashai Vikas me Badhak hota hai’.
    Dr Girdhari Ram Gaunjhu pins point the features and different phases of Nagpuri language in ‘  Nagpuri Bhasha ka Udhbhav v Vikash’.
    Ashish Kumar Anshu converses the vital issues of protection of regional languages in ‘Bhashai vashudha: Boliyon ka Kumbh’.
  There are life sketches of Dr. Ghana nand jadli, Arun rawat, Sandip Sharma, Raghva Nand jadli, Kanti Ballabh Dhulakhandi, Kushla nand Bhatt, and poems in Garhwali and Kumauni languages by Ashok Pal Singh’Shikshak’, Shanti Prakash Jigyasu’, Shiv dayal Shailaj, Dr Asha rawat, Lalt Keshwan, Dinesh Dhyani, Om Prakash semwal, Jalandhari, Pooran kandpal, Radheshyam Semwal, Ramesh Hitaishi, Damodar Joshi, Jagdish Joshi, and hmeant Bisht.
  The issue of ‘sankalp(2012) is an important issue that discusses various aspects of language protection and development. The most appreciable aspect is including the historical aspect articles of other languages in this issue.  It is necessary that Garhwali and Kumauni literature also know development of other languages as Garhwali and Kumauni.
  Kudos to Dr. Bihari lal Jalandhari for making Himalayan efforts in publishing such collector magazine ‘Sankalp’ (2012)

Sankalp
(Year-16 issue -2)
Edited by Dr. Bihari Lal Jalandhari
Year of publication 2012
Address- G-4/87 Chhuriya Mohalla Tuglakabad, New Delhi.
Contact – 9650188494, 9650199494

Copyright@ Bhishma Kukreti 19/6/2012

 

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