Author Topic: Articles By Dr Manju Tiwari ji Exclusively on Merapahad-डॉ मंजू तिवारी जी के लेख  (Read 5754 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Dosto,


जैसा की आप विदित होंगे, मेरापहाड़ पोर्टल में बहुत सारे बुद्धिजीवी लोग जुड़े हुए है जो की इस पोर्टल में माध्यम से उत्तराखंड की नयी पीड़ी-२ जो देश विदेश में है उनको मार्ग दर्शन करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही रहे!  चाहे, ये साहित्य के क्षेत्र में, लोक संगीत और एनी विषयों पर !

आज इसी कड़ी में हमारे साथ जुड़ रही है, डॉक्टर मंजू तिवारी जी जिन्होंने उत्तराखंड के विख्यात साहित्यकार श्री शैलेश मटियानी पर Phd भी की है और एक अध्यापिका भी है !

डॉ मंजू जी के बहुत सारे पत्र पत्रिकाओ में भी लेख लिखती रहती है और मेरापहाड़ पोर्टल में हम लोगो को भी डॉ मंजू तिवारी जी के लिखे लेख पड़ने को मिलेंगे! आशा है आपको डॉक्टर मंजू के लेख पसंद आयेंगे !

डॉ मंजू का संशिप्त परिचय
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Name  -  Dr Manju Tiwari

Husband's Name - Mr Vinod Tiwari

Phd -  Shailesh Matiyarni

Profession - Teacher

Articles :

Both (Vinod Ji and Dr Manju ji write articles on Yoga and Social issues in different magazines. We are writing Educational Books (Hindi Literature) for different Publishers.

Email                            drmanjutiwari123@gmail.com
                                    drmanjutiwari123@rediffmail.com
 
They are basically from Distt. Almora. Her  husband's native place is NAYAL (Near Binta) and My native place is Kumalt Near Kafada on the way to Dwarahaat.

She did her post Graduation in Hindi from Meerut University.

Her  husband has done his Post graduation from Meerut University. B.Ed. and PGDBA from Annamalai University (Tamilnadu).

Dr. Manju Tiwari
Vinod Tiwari

drmanjutiwari123

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नारी की व्यथा


ना ये कोई कविता है,
और ना ही कोई प्रसिद्ध कथा.     
अगर ध्यान से सुनने का प्रयास करो,
तो लगेगी ये हर नारी की व्यथा.      
सुना है कि सतयुग में,       
नारी का बड़ा मान था.
हर तरफ था यश उसी का,         
और हर जगह गुणगान था.       
बचपन से सुनती आई-
नारी श्रद्धेय है,            
वह पूज्यनीय है और अजेय है.   
यह दिल इस बात को मानता है,
क्योंकि वह भावनाओं में बुरी तरह बहना जानता है.   
लेकिन क्या करूं-
यह दिमाग बड़ा शैतान है.
इसे भावनाओं पर नहीं,         
अपने बुद्धि चातुर्य पर बहुत अभिमान है.      
दिमाग मेरे दिल को जैसे कचोटता है,
और एक कांटा सा चुभाते हुए कहता है.   
उठ! और चल बाहर कुछ देर के लिये,      
इन किताबों और ग्रंथों से निकलकर.
क्या तुझे वास्तव में ऐसा लगता है,
कि नारी स्रद्धेय पूज्यनीय या अजेय है?      
सुना तो यह भी है,
वह सतयुग में पूजी जाती थी.
स्वर लहरी उसकी,
चहुं दिशा में गूंज जाती थी.     
किंतु यह सिक्के का सिर्फ एक पक्ष है,
तर्क और परंपराओं से बनाया गया एक नकली वृक्ष है.   
और अगर यह बिल्कुल झूठ भी नहीं,      
तो यह आधा सच है.         
सच तो यह भी है कि,
झूठी शान के लिए-      
आदर्श के लिए   -      
बिना परीक्षा दिए अपने सतीत्व की,      
वह घर में न लाई जाती थी.      
कहते हैं परिवर्तन संसार का नियम है,   
परिवर्तन हुआ चारों ओर-   
फिर समय बदला- काल बदला,
युग बदला- यह भारत विशाल बदला.
लेकिन नहीं बदला,            
तो सिर्फ़ नारी का भाग्य.
वह तो तब भी जलाई जाती थी,
उसकी तो तब भी बलि चढ़ाई जाती थी.   
कभी सीता कभी अहिल्या के नाम पर,
कभी धर्म और कभी समाज की आन पर.   
वह आज भी जलाई जाती है,         
अगर बदले हैं तो मात्र उद्देश्य.
और उद्देश्य भी कहां बदले हैं?      
आज वही नारी आदर्शों के बदले,      
कभी दहेज, कभी परिवर्तन और-
कभी मनोरंजन के लिये जलाई जाती है.   
कभी वह पैदा होते ही मार दी जाती थी,   
देखिए यह है विडंबना उसकी कि-
आज वह पैदा होने का सौभाग्य भी नहीं पाती.   
तब उसके समाज के लोग अग्नि परीक्षा लेते थे,      
आज उसके अपने अग्नि परीक्षा लेते हैं.      
पहले भरे दरबार में,       
वह दाव पर लगाई जाती थी.      
उदाहरण के लिये ही सही,   
कोई कृष्ण आकर उसकी लाज तो बचाता था.   
चाहे प्रतीकात्मक रूप से ही सही,   
दुशासन के नीच प्रयास को धता तो बताता था.   
और ऐसा करके कभी-कभी ही सही,   
नारी के अस्तित्व का अहसास तो जताता था.   
लेकिन वह तो सतयुग था,      
और यह घोर कलियुग है.
आज सरे बाज़ार उसी नारी की,
बोली लगाई जाती है.   
वह जो एक मां है, बहन है,
और एक बेटी भी है.      
वह तो तब भी बिक रही थी,      
वह अब भी बिक रही है.      
खरीदार तब भी हम ही थे,      
और देखिए नियति उसकी-      
खरीदार आज भी हम ही हैं.      
तब खरीदार को दुष्ट कहा जाता था,   
और आज नियति को क्या कहें हम?      
आज उस दुष्ट को सिर पर बिठाया जाता है.
कभी सौंदर्य प्रतियोगिताओं के नाम पर,   
और कभी कला व प्रतियोगिता के दाम पर-      
रोजाना ही द्रोपदी का चीरहरण होता है.
द्रोपदी का चेहरा मुस्कराता है दिल रोता है,      
नारी का भाग्य देखिए तो सही.   
वही श्रीकृष्ण जो सतयुग में,       
संकट की घड़ी में आकर द्रोपदी को बचाते थे.      
आज निर्णायक मंडल में बैठकर,       
द्रोपदी के चीरहरण को मुस्कराकर देखते हैं.
वेरी गुड़ वेरी नाइस वन्स मोर कहते हैं,   
और जब बहुत खुश हो जाते हैं.   
तो द्रोपदी की लाज नहीं बचाते हैं,
आज भी वे अपना धर्म निभाते हैं.   
उस द्रोपदी को सुंदरी का खिताब दिलाते हैं,   
जिसने सौंदर्य प्रतियोगिता के नाम पर-
सबसे अधिक लज्जा त्यागने का साहस जुटाया है.


श्रद्धेय- जिसका मान सम्मान किया जाए.
 


पंकज सिंह महर

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दिल को छू लेने वाली कविता के लिये तालियों के साथ डा० मन्जू तिवारी जी का मेरा पहाड़ पर स्वागत है।

drmanjutiwari123

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चोरी ऊपर से सीनाज़ोरी

आज से कई साल पहले स्व. सरवेश्वर दयाल सक्सेना जी ने एक कविता लिखी थी-
   इब्नेबतूता पहन के जूता, निकल पड़े तूफ़ान में,
   थोड़ी हवा नाक में घुस गई, थोड़ी घुस गई कान में.
   कभी नाक को कभी कान को मलते इब्नेबतूता,
   इसी बीच में निकल गया उनके पैर का जूता.
   उड़ते-उड़ते उनका जूता जा पहुंचा जापान में,
   इब्नेबतूता खड़े रह गए मोची की दुकान में.
सन्‌ २०१० में एक फिल्म आई- इश्किया. इस फिल्म में मशहूर गीतकार गुलज़ार साह्ब ने एक गीत लिखा है-
   इब्नेबतूता बगल में जूता, पहनो तो करता है चुर्र
   उड़ गई चिड़िया फुर्र.....
आजकल दूसरों के लिखे गानों, लेखों, कविताओं आदि को अपने नाम से दे देना बहुत आसान हो गया है. इसी क्रम में नया नाम आया है- मशहूर लेखक, गीतकार गुलज़ार साह्ब का. उन्होंने तो हद ही कर दी और स्व. सरवेश्वर दयाल सक्सेना जी की कविता इब्नेबतूता पहन के जूता की आरंभ की पंक्तियों में ज़रा-सा हेर फेर करके अपना काम चला लिया. उन्हें कम से कम यह तो ध्यान रखना ही चाहिए था कि स्व. सक्सेना जी इस दुनिया में नहीं हैं. यह तो पूरी तरह से अधर्म हुआ.
चलिये यदि इब्नेबतूता को ले भी ले लिया था तो स्व. सक्सेना जी के परिवार के सदस्यों को थैंक्स ही कह देते. लेकिन कैसे कह देते! सक्सेना जी कौन सा जीवित हैं जो वह वापस धरती पर वापिस आ जाएंगे? वाह री दुनिया और वाह रे दुनिया का दस्तूर! सब कुछ भगवान के भरोसे है.
कमाल की बात है कि गुलज़ार साह्ब को स्व. सरवेश्वर दयाल सक्सेना जी की कविता की पंक्तियों प्रेरणा तो देती हैं लेकिन उनका नाम लेने में संकोच लगता है. कुछ नहीं तो वह इस बात पर अपना स्पष्टीकरण दे देते. लेकिन स्पष्टीकरण तो छोटे लोग दिया करते हैं, बड़े लोगों को स्पष्टीकरण देने की क्या आवश्यकता?
इसी तरह की एक घटना कुछ दिनों पहले ही आमिर खान की थ्री ईडियट के लेखक श्री चेतन भगत के साथ भी कुछ ऐसा ही वाकया हुआ था. जब उन्होंने हो-हल्ला मचाया तो थ्री ईडियट की पूरी टीम उल्टा उन लेखक महोदय पर ही टूट पड़ी जैसे कि थ्री ईडियट फ़िल्म की कथा लेखक महोदय ने चुराई हो. इसे कहते हैं चोरी ऊपर से सीनाज़ोरी.
यदि आप आप की याददाश्त सही काम कर रही हो तो पिछ्ले साल मशहूर अभिनेता एवं निर्देशक राकेश रोशन द्वारा निर्मित एक फ़िल्म आई थी- ’क्रेज़ी फोर’. इस फ़िल्म में एक गाना था- क्रेज़ी फोर.... इस गाने का संगीत चुराने का आरोप एक एड्वरटाइजमेन्ट के संगीतकार ने लगाया था. वह न्यायालय गए और अपनी शिकायत दर्ज़ कराई. यही नहीं उन्होंने अपनी बात के समर्थन में कै प्रमाण भी दिये. न्यायाधीश उनकी बात से सहमत हुए. उन्होंने इस विषय में यह निर्णय दिया कि इस गाने को क्रेज़ी फोर फ़िल्म से निकालकर ही फ़िल्म रिलीज की जा सकती है. 
बेचारे राकेश रोशन बुरे फंसे. उन्होंने बड़े नुकसान से बचने के लिए समझौता कर लिया लेकिन सभी लोग न तो इतने साहसी होते हैं और न ही निर्भीक.
आज आवश्यकता इस बात की है कि हर प्रकार की चोरी का विरोध किया जाए और उसे न्यायालय में चुनौती दी जाए. कम से कम इस प्रकार के लोगों को कुछ तो डर रहेगा.

drmanjutiwari123

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संवेदनाएं

संवेदनाएं मरती चली जा रही इंसान की,      
कीमतें शायद तभी तो लग रही हैं जान की.
मैं हूं हिन्दू, सिख हो तुम और वो है मुसलमां,
बात पै इतनी सी बस- बाजी लगी है जान की.
क्या हुआ करता था वो? और आज क्या वो हो गया?
आइये बातें करें कुछ- आज के इंसान की.
बात है इक रोज़ की- मैं जा रही उस ओर को,      
चल रही प्यारी हवाएं- खुशनुमा सी शाम थी.
जिस तरफ को देखती थी- भीड़ और बस भीड़ थी,      
एक मज़मा था दूर तक- खेती खड़ी ज्यों धान की.      
यों ही थी बस जा रही- कि देख कर कुछ रुक गई,      
शोर सा था आ रहा- थी बात इक इंसान की.      
कौन है वह? है कहां का? और न जाने कब से है?      
सब यही थे कह रहे- ज्यूं बात इतमीनान की.      
मैंने भी सोचा ज़रा- चलकर ज़रा सा देख लूं
हो सके तो पूछ लूं- कुछ बात इस इंसान की.   
पास पहुंची और देखा- दिखता था इंसान सा,
वो ही चेहरा- वो ही मोहरा- शक्ल भी इंसान की.   
देखिए तो ठीक से- ये कौन है जो गिर पड़ा?
आइए कर दें मदद कुछ- नाम पर इंसान की.   
महानगरों की संवेदनाओं की बात देखिये   
वाह क्या यह नगर है और क्या है ये संवेदना,
वे अभी जो कर रहे थे बात इस इंसान की,      
बात जैसे ही उठाई करने को थोड़ी मदद,
इंसानियत के नाए और लाचार से इंसान की.   
इंसानियत के नाम की जो थे दुहाई दे रहे,
इंसानियत हुइ हवा, जब उन्होंने चलते यह कहा,   
देखिये साहब हमें- हम तो यहां के हैं नहीं,
नज़रें फेंकी- चल दिए- और पीक थूकी पान की.

drmanjutiwari123

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आम इंसान
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मयस्सर खाने को टुकड़ा नज़र नहीं होता,
तन पै उसके तो चिथड़ा नज़र नहीं आता.
कहां से आया है और किस तगह पै वो रहता है,
तालीम-ओ-शौक से दिखता नहीं कोई नाता.

बात ताज़्जुब की नहीं लगती नहीं ’साहेब’ कि,
उसके इस घर में- कोई आता नज़र नहीं आता.
पर जब भी जुलूसों-औ-जलसों की बात चलती है,
उसको हर बार इन जगहों पै बुलाया जाता.

आप तो आज के ’हाईटैक’ इन्सां लगते हैं,
आपका तो है "चैट’, ’मेल’, ’नेट’ से नाता.
देखना करके यदि ’सर्फ’ हो सके तो गर,
क्या किसी दूसरी ’साइट’ पै भी वो नज़र आता.

मैंने तो ये भी सुन रखा है कहीं पर ’साहेब’,
नज़रों में आप्की ’संजय’ सा सभी कुछ नज़र आता.
शहर में चर्चा है कि आप ढूंढ सकते हैं,
ढूंढिए शहर से- गर है कोई उसका नाता.

drmanjutiwari123

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निर्मल पांडेय का असामयिक निधन
निर्मल पांडेय के निधन (गुरुवार दिनांक १८ फरवरी २०१०) का समाचार १९ फरवरी को समाचार पत्र ’हिन्दुस्तान’ में पढ़ा तो यकीन नहीं हुआ. ४६ साल की उम्र होती भी क्या है! दिल का दौरा पड़ा और एक निज़ी अस्पताल में उन्हें दाखिल किया गया, लेकिन चिकित्सक लाख कोशिशों के बाद भी उन्हें बचा नहीं सके. शायद इसी को विधि का विधान कहते हैं.
नैनीताल में जन्मे निर्मल पांडेय में छोटे से किरदार में भी जान डाल देने की कूवत थी. बहुत पहले (लगभग पंद्र्ह साल पहले) एक पिक्चर आई थी- बैंडिट क्वीन. इसमें बुन्देलखंडी ज़ुबान में डायलाग बोलते हुए निर्मल पांडेय को देखा था. डाकू  का अभिनय करता वह चेहरा शायद जीवन भर याद रहे़गा. इसी तरह ’गाड मदर’ और ’शिकारी’, ’प्यार किया तो डरना क्या’, ’इस रात की सुबह नहीं’, ’वन टू का फोर’ में निभाए नकारात्मक चरित्र भी भुलाए नहीं जा सकते. फ़िल्मों के अतिरिक्त निर्मल पांडेय ने दूरदर्शन के लिये भी काम किया था.
कहते हैं कि प्रतिभाशाली लोगों की आवश्यक्ता हर ज़गह पर होती है. शायद निर्मल पांडेय की आवश्यक्ता ऊपर वाले को भी रही होगी. इससे अधिक और कहा भी क्या जा सकता है.
ईश्वर निर्मल पांडेय की दिवंगत आत्मा को शांति दे और उनके परिवार को इस असीम दुख को सहने की शक्ति प्रदान करे. केवल यही प्रार्थना की जा सकती है.

drmanjutiwari123

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इन हाद्सों से सबक कौन लेगा? संत, संन्यासी, नेता या सरकार?

नीचे लिखी कुछ दुर्घटनाओं पर गौर फरमाएं-
१. १४ मई १९९९ को केरल के सबरीमाला में मची भगदड़ में ६० लोगों की मौत हो गई.
२. २८ सितंबर २००२ को लखनऊ रेलवे स्टेशन पर बहुजन समाज पार्टी की रैली से लौट रहे लोगों में मची भगदड़ में लगभग २० लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा तथा १०० से अधिक घायल हो गए.
३. २७ अगस्त २००३ को कुंभ मेला नासिक (महाराष्ट्र) में मची भगदड़ में ४१ से अधिक लोगों की मौत हो गई.
४. १२ अप्रैल २००४ को लखनऊ में भारतीय जनता पार्टी के नेता श्री लाल जी टंडन के जन्मदिन के अवसर पर साड़ी वितरण कार्यक्रम में मची भगदड़ में लगभग २२ महिलाओं को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा.
५. २५ जनवरी २००५ को महाराष्ट्र के मंधारा देवी नामक स्थान पर मची भगदड़ में लगभग ३४० लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा.
६. ३ अगस्त २००८ को हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर स्थित नैना देवी मंदिर में मची भगदड़ में १६२ से अधिक लोगों की मौत हो गई.
७. ३० सितंबर २००८ को राजस्थान के जोधपुर स्थित चामुंडा मंदिर में मची भगदड़ में २२४ लोगों की मौत हो गई.
    अब आते हैं वर्ष २०१० में. ४ मार्च २०१० को इलैक्ट्रानिक समाचार माध्यमों द्वारा पता चला कि उत्तर प्रदेश के मनगढ़ (प्रतापगढ़ जिला मुख्यालय से लगभग ६० किलोमीटर दूर) में कॄपालु महाराज की दिवंगत पत्नी (पदमा) की बरसी पर आश्रम में एक विशाल भंडारे का आयोजन किया गया था, जिसमें आसपास के हज़ारों लोग जुटे थे. इस विशाल भंडारे के लिए विशाल स्तर पर प्रचार किया गया था, जिसमें इस बात पर विशेष ज़ोर दिया गया था कि आने वाले लोगों को एक थाली, एक रूमाल तथा बीस रुपए भी मिलेंगे.
    इस प्रचार का व्यापक असर पड़ा. आसपास के अलावा दूरदराज़ के हज़ारों गरीब लोग (महिलाएं बच्चे, बूढ़े सभी शामिल) यह घोषणा सुनकर इस भंडारे में इस आशा में चले आए थे कि चलो एक थाली, एक रूमाल तथा बीस रुपए मिलेंगे. लेकिन उन्हें इस बात का अहसास नहीं था कि इस भंडारे उपहार नहीं बल्कि मौत बड़ी बेसब्री से उनका इंतज़ार कर रही है.
    अब जब यह ह्र्दयविदारक दुर्घटना घट चुकी है तो आधिकारिक सूत्रों द्वारा सूचना मिल रही है कि कम से कम साठ-सत्तर लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा तथा सैकड़ों राज्य के विभिन्न सरकारी तथा निज़ी अस्पतालों में बुरी तरह घायल पड़े हैं. घर से चलते समय उन्हें इस बात का गुमान भी नहीं रहा होगा कि थोड़े से लालच में आकर वे लोग एक बहुत बड़ी मुसीबत में फंसने जा रहे हैं. मरने वालों को यह नहीं पता था कि शायद यह उनकी अंतिम यात्रा है.
    अब जब इतनी भारी दुर्घटना घट चुकी है तो राज्य सरकार, केन्द्र सरकार, सभी राजनीतिक दल, सामाजिक संस्थाएं, जिला प्रशासन एक दूसरे पर दोष मढ़ रहे हैं. एक दो दिनों में सभी दलों के नेता घड़ियाली आंसू बहाते हुए वहां चले आएंगे और अपनी राजनीतिक रोटियां सेकेंगे. कुछ नेता (शासक तथा विरोधी दल) प्रभावित लोगों के घरों में भी जाएंगे तथा मदद की फर्ज़ी घोषणाएं भी करेंगे. इस बीच कुछ दलालों की मौज़ आ जाएगी. वे फर्ज़ी लोगों को राहत राशि दिला देंगे और जो इस राहत राशि अथवा सहायता के वास्तविक हकदार हैं, वे दर-दर की ठोकरें खाते फिरेंगे. सरकारी सहायता के इस सरकारी मेले में कुछ सरकारी अधिकारियों की भी मौज़ आ जाएगी.
    आज किसी नेता, प्रशासक, मंत्री, पुलिस अधिकारी, सामाजिक कार्यकर्ता में इतनी हिम्मत नहीं है कि जब कॄपालु महाराज लोगों को धर्म का उपदेश देते हैं (शायद जब यह लेख लिखा जा रहा है, तब भी वह कहीं पर उपदेश दे रहे होंगे), उनसे सामाजिक तथा धार्मिक रूढ़ियों को त्यागने का  आह्वान करते हैं. फिर उन्होंने अपनी पत्नी की बरसी में इतना विशाल आयोजन करके अपने भक्तों को कौन-सा सन्देश दिया? क्या  उनके खाने के और दिखाने के दांत अलग-अलग है? क्या उन्होंने इतने बड़े कार्यक्रम को संभालने के लिए अपनी ओर से कोई प्रबंध किए थे? यदि नहीं, तो वह आगे आकर अपनी गलती क्यों नहीं स्वीकारते? क्या अपनी गलती स्वीकार करने पर वे छोटे हो जाएंगे? यदि नहीं, तो फिर क्या उनमें इतना साहस है कि वे आगे बढ़्कर इतनी बड़ी दुर्घटना के लिए स्वयं की ज़िम्मेदारी लें.
    क्या सरकार में इतनी हिम्मत है कि वह इस दुर्घटना को मात्र एक दुर्घटना न मानकर कॄपालु महाराज तथा उनके प्रबंधन को ज़िम्मेदार मानते हुए उन्हें गिरफ्तार करे? उनके विरुद्ध गैर इराद्तन हत्या का मुकदमा कायम करे जिससे आने वाले समय में यह एक उदाहरण बने.
    क्या लोगों, विशेषकर, कॄपालु महाराज के भक्तों में इतना साहस है कि वे  कॄपालु महाराज से यह प्रश्न करें कि यदि आप जैसे विद्वान लोग भी ऐसे प्रपंच करेंगे तो आम आदमी (विशेषरूप से आपके भक्त) तो बरसी जैसे आयोजनों पर होने वाले अंधाधुंध खर्च किस प्रकार रोक सकेगा?
    धार्मिक महापुरुषों से यह आशा की जाती है कि वे आगे बढ़कर समाज के सामने अच्छे-अच्छे आदर्श रखें, जिससे सामाजिक बुराइयों  (कट्टरता, कूपमंडता, कर्म कान्डों आदि) को रोकने की दिशा में कार्य किए जा सकें, किन्तु यहां तो धार्मिक महापुरषों द्वारा ही मूढों जैसा व्यवहार किया जा रहा है. क्या इन साधुओं, संन्यासियों, बाबाओं, महामंड्लेश्वरों आदि में इतना साहस है कि ये अपने दिल पर हाथ रखकर ऐसा कह सकें-"हमें अपने जीवन में सादगी, ईमानदारी, सच्चाई को अपनाना चाहिए. क्योंकि ये गुण मनुष्यता की निशानी हैं."
अब इन हालातों में क्या किया जा सकता है-
१. इस घटना के बाद इन धार्मिक महापुरुषों में इतना साहस अवश्य आए जिससे वे कम से कम अपने पारिवारिक कार्यक्रमों को सामाजिक प्रतिष्टा, दिखावे आदि से बचा सकें. यदि वे ऐसा कर सके तो वे दूसरों का नहीं बल्कि अपना उद्धार कर पाएंगे.
२. माननीय राजनाथ सिंह जैसे राजनेताओं को व्यर्थ में ही ऐसे धार्मिक महापुरुषों का समर्थन नहीं करना चाहिए, जैसा कि शनिवार को उन्होंने कह दिया कि कॄपालु महाराज या उनके प्रबंधन की कोई गलती नहीं है.
३. राजनेताओं को इन दुर्घटनाओं के बाद में न जाकर ऐसे आयोजनों के समय पर जाना चाहिए, ताकि उन्हें भी पता चल सके कि कुप्रबंधन क्या होता है. मैं तो एक कदम आगे बढ़कर यह कहना चाहूंगी कि राजनेताओं को ऐसे आयोजनों में अवश्य जाना चाहिए, जिससे कि उन्हें आम आदमी का दर्द पता चल सके.
४. प्रशासनिक अधिकारियों को सख्ती से इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि यदि हज़ारों लोगों की संख्या में कोई आयोजन होता है तो वह उनकी मंज़ूरी के बिना न होने दें. वे इस बात पर ध्यान न दें कि यह आयोजन किसी आम आदमी का है या फिर किसी खास आदमी का. यदि उनकी मंज़ूरी के बिना कोई आयोजन होता है तो आयोजक को उसी समय गिरफ्तार किया जाए.
५. आम आदमी को जहां तक हो सके, ऐसे आयोजनों से दूर ही रहना चाहिए, क्योंकि ऐसे आयोजनों में आम आदमी ही पिसता है.
 

Himalayan Warrior /पहाड़ी योद्धा

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Manju Ji,

Really very interesting fact and infact eye opening.

इन हाद्सों से सबक कौन लेगा? संत, संन्यासी, नेता या सरकार?


drmanjutiwari123

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हम भी हैं इंसान
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इस तरह से ना देखिए, चुभती निगाह से,
हैं हम भी तो इंसान ही, यह जान जाइए।
रक्खी हैं पकड़ के जो ये, नफ़रत की कटारें,
नफ़रत को हटा, होठों पै मुस्कान लाइए।
माथे पै अभी भी हैं जो, ये गुस्से की लकीरें,
गुस्से की जगह, चेहरे पै इत्मीनान लाइए।
किसने कहा है आपसे- हम वो नहीं साहेब,
पहचानिए हमको ज़रा - और जान जाइए।
है जात क्या और धर्म क्या, मत पूछिए साहेब,
सुनने को ये तकरीर- ज़रा कान लाइए।
ना कीजिए बरसात अब, आँखों से खून की,
नज़रों में आप प्यार और ईमान लाइए।
अल्लाह है वो- रब है मेरा- कहते रहे हैं आप,
कहता है क्या, सुनिए उसे फ़िर मान जाइए।
लड़ते रहे रब के लिए- ता उम्र आप तो,
लड़ता है क्या वो भी कभी- ये ज़रा जान जाइए।
ईमान की बातें तो सुन रही हूँ हर तरफ़ से,
पर किसमें है ईमान यह- ज़रा मुझको दिखाइए।
सुनती हूँ शोर राम का- इस वक्त- चारों ओर,   
क्या खो गया है ’राम’ कहीं- मुझे यह बताइए।

 

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