Uttarakhand Updates > Articles By Esteemed Guests of Uttarakhand - विशेष आमंत्रित अतिथियों के लेख

Articles By Dr Manju Tiwari ji Exclusively on Merapahad-डॉ मंजू तिवारी जी के लेख

(1/3) > >>

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

Dosto,


जैसा की आप विदित होंगे, मेरापहाड़ पोर्टल में बहुत सारे बुद्धिजीवी लोग जुड़े हुए है जो की इस पोर्टल में माध्यम से उत्तराखंड की नयी पीड़ी-२ जो देश विदेश में है उनको मार्ग दर्शन करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही रहे!  चाहे, ये साहित्य के क्षेत्र में, लोक संगीत और एनी विषयों पर !

आज इसी कड़ी में हमारे साथ जुड़ रही है, डॉक्टर मंजू तिवारी जी जिन्होंने उत्तराखंड के विख्यात साहित्यकार श्री शैलेश मटियानी पर Phd भी की है और एक अध्यापिका भी है !

डॉ मंजू जी के बहुत सारे पत्र पत्रिकाओ में भी लेख लिखती रहती है और मेरापहाड़ पोर्टल में हम लोगो को भी डॉ मंजू तिवारी जी के लिखे लेख पड़ने को मिलेंगे! आशा है आपको डॉक्टर मंजू के लेख पसंद आयेंगे !

डॉ मंजू का संशिप्त परिचय
=============

Name  -  Dr Manju Tiwari

Husband's Name - Mr Vinod Tiwari

Phd -  Shailesh Matiyarni

Profession - Teacher

Articles :

Both (Vinod Ji and Dr Manju ji write articles on Yoga and Social issues in different magazines. We are writing Educational Books (Hindi Literature) for different Publishers.

Email                            drmanjutiwari123@gmail.com
                                    drmanjutiwari123@rediffmail.com
 
They are basically from Distt. Almora. Her  husband's native place is NAYAL (Near Binta) and My native place is Kumalt Near Kafada on the way to Dwarahaat.

She did her post Graduation in Hindi from Meerut University.

Her  husband has done his Post graduation from Meerut University. B.Ed. and PGDBA from Annamalai University (Tamilnadu).

Dr. Manju Tiwari
Vinod Tiwari

drmanjutiwari123:
नारी की व्यथा

ना ये कोई कविता है,
और ना ही कोई प्रसिद्ध कथा.     
अगर ध्यान से सुनने का प्रयास करो,
तो लगेगी ये हर नारी की व्यथा.      
सुना है कि सतयुग में,       
नारी का बड़ा मान था.
हर तरफ था यश उसी का,         
और हर जगह गुणगान था.       
बचपन से सुनती आई-
नारी श्रद्धेय है,            
वह पूज्यनीय है और अजेय है.   
यह दिल इस बात को मानता है,
क्योंकि वह भावनाओं में बुरी तरह बहना जानता है.   
लेकिन क्या करूं-
यह दिमाग बड़ा शैतान है.
इसे भावनाओं पर नहीं,         
अपने बुद्धि चातुर्य पर बहुत अभिमान है.      
दिमाग मेरे दिल को जैसे कचोटता है,
और एक कांटा सा चुभाते हुए कहता है.   
उठ! और चल बाहर कुछ देर के लिये,      
इन किताबों और ग्रंथों से निकलकर.
क्या तुझे वास्तव में ऐसा लगता है,
कि नारी स्रद्धेय पूज्यनीय या अजेय है?      
सुना तो यह भी है,
वह सतयुग में पूजी जाती थी.
स्वर लहरी उसकी,
चहुं दिशा में गूंज जाती थी.     
किंतु यह सिक्के का सिर्फ एक पक्ष है,
तर्क और परंपराओं से बनाया गया एक नकली वृक्ष है.   
और अगर यह बिल्कुल झूठ भी नहीं,      
तो यह आधा सच है.         
सच तो यह भी है कि,
झूठी शान के लिए-      
आदर्श के लिए   -      
बिना परीक्षा दिए अपने सतीत्व की,      
वह घर में न लाई जाती थी.      
कहते हैं परिवर्तन संसार का नियम है,   
परिवर्तन हुआ चारों ओर-   
फिर समय बदला- काल बदला,
युग बदला- यह भारत विशाल बदला.
लेकिन नहीं बदला,            
तो सिर्फ़ नारी का भाग्य.
वह तो तब भी जलाई जाती थी,
उसकी तो तब भी बलि चढ़ाई जाती थी.   
कभी सीता कभी अहिल्या के नाम पर,
कभी धर्म और कभी समाज की आन पर.   
वह आज भी जलाई जाती है,         
अगर बदले हैं तो मात्र उद्देश्य.
और उद्देश्य भी कहां बदले हैं?      
आज वही नारी आदर्शों के बदले,      
कभी दहेज, कभी परिवर्तन और-
कभी मनोरंजन के लिये जलाई जाती है.   
कभी वह पैदा होते ही मार दी जाती थी,   
देखिए यह है विडंबना उसकी कि-
आज वह पैदा होने का सौभाग्य भी नहीं पाती.   
तब उसके समाज के लोग अग्नि परीक्षा लेते थे,      
आज उसके अपने अग्नि परीक्षा लेते हैं.      
पहले भरे दरबार में,       
वह दाव पर लगाई जाती थी.      
उदाहरण के लिये ही सही,   
कोई कृष्ण आकर उसकी लाज तो बचाता था.   
चाहे प्रतीकात्मक रूप से ही सही,   
दुशासन के नीच प्रयास को धता तो बताता था.   
और ऐसा करके कभी-कभी ही सही,   
नारी के अस्तित्व का अहसास तो जताता था.   
लेकिन वह तो सतयुग था,      
और यह घोर कलियुग है.
आज सरे बाज़ार उसी नारी की,
बोली लगाई जाती है.   
वह जो एक मां है, बहन है,
और एक बेटी भी है.      
वह तो तब भी बिक रही थी,      
वह अब भी बिक रही है.      
खरीदार तब भी हम ही थे,      
और देखिए नियति उसकी-      
खरीदार आज भी हम ही हैं.      
तब खरीदार को दुष्ट कहा जाता था,   
और आज नियति को क्या कहें हम?      
आज उस दुष्ट को सिर पर बिठाया जाता है.
कभी सौंदर्य प्रतियोगिताओं के नाम पर,   
और कभी कला व प्रतियोगिता के दाम पर-      
रोजाना ही द्रोपदी का चीरहरण होता है.
द्रोपदी का चेहरा मुस्कराता है दिल रोता है,      
नारी का भाग्य देखिए तो सही.   
वही श्रीकृष्ण जो सतयुग में,       
संकट की घड़ी में आकर द्रोपदी को बचाते थे.      
आज निर्णायक मंडल में बैठकर,       
द्रोपदी के चीरहरण को मुस्कराकर देखते हैं.
वेरी गुड़ वेरी नाइस वन्स मोर कहते हैं,   
और जब बहुत खुश हो जाते हैं.   
तो द्रोपदी की लाज नहीं बचाते हैं,
आज भी वे अपना धर्म निभाते हैं.   
उस द्रोपदी को सुंदरी का खिताब दिलाते हैं,   
जिसने सौंदर्य प्रतियोगिता के नाम पर-
सबसे अधिक लज्जा त्यागने का साहस जुटाया है.

श्रद्धेय- जिसका मान सम्मान किया जाए.
 

पंकज सिंह महर:
दिल को छू लेने वाली कविता के लिये तालियों के साथ डा० मन्जू तिवारी जी का मेरा पहाड़ पर स्वागत है।

drmanjutiwari123:
चोरी ऊपर से सीनाज़ोरी
आज से कई साल पहले स्व. सरवेश्वर दयाल सक्सेना जी ने एक कविता लिखी थी-
   इब्नेबतूता पहन के जूता, निकल पड़े तूफ़ान में,
   थोड़ी हवा नाक में घुस गई, थोड़ी घुस गई कान में.
   कभी नाक को कभी कान को मलते इब्नेबतूता,
   इसी बीच में निकल गया उनके पैर का जूता.
   उड़ते-उड़ते उनका जूता जा पहुंचा जापान में,
   इब्नेबतूता खड़े रह गए मोची की दुकान में.
सन्‌ २०१० में एक फिल्म आई- इश्किया. इस फिल्म में मशहूर गीतकार गुलज़ार साह्ब ने एक गीत लिखा है-
   इब्नेबतूता बगल में जूता, पहनो तो करता है चुर्र
   उड़ गई चिड़िया फुर्र.....
आजकल दूसरों के लिखे गानों, लेखों, कविताओं आदि को अपने नाम से दे देना बहुत आसान हो गया है. इसी क्रम में नया नाम आया है- मशहूर लेखक, गीतकार गुलज़ार साह्ब का. उन्होंने तो हद ही कर दी और स्व. सरवेश्वर दयाल सक्सेना जी की कविता इब्नेबतूता पहन के जूता की आरंभ की पंक्तियों में ज़रा-सा हेर फेर करके अपना काम चला लिया. उन्हें कम से कम यह तो ध्यान रखना ही चाहिए था कि स्व. सक्सेना जी इस दुनिया में नहीं हैं. यह तो पूरी तरह से अधर्म हुआ.
चलिये यदि इब्नेबतूता को ले भी ले लिया था तो स्व. सक्सेना जी के परिवार के सदस्यों को थैंक्स ही कह देते. लेकिन कैसे कह देते! सक्सेना जी कौन सा जीवित हैं जो वह वापस धरती पर वापिस आ जाएंगे? वाह री दुनिया और वाह रे दुनिया का दस्तूर! सब कुछ भगवान के भरोसे है.
कमाल की बात है कि गुलज़ार साह्ब को स्व. सरवेश्वर दयाल सक्सेना जी की कविता की पंक्तियों प्रेरणा तो देती हैं लेकिन उनका नाम लेने में संकोच लगता है. कुछ नहीं तो वह इस बात पर अपना स्पष्टीकरण दे देते. लेकिन स्पष्टीकरण तो छोटे लोग दिया करते हैं, बड़े लोगों को स्पष्टीकरण देने की क्या आवश्यकता?
इसी तरह की एक घटना कुछ दिनों पहले ही आमिर खान की थ्री ईडियट के लेखक श्री चेतन भगत के साथ भी कुछ ऐसा ही वाकया हुआ था. जब उन्होंने हो-हल्ला मचाया तो थ्री ईडियट की पूरी टीम उल्टा उन लेखक महोदय पर ही टूट पड़ी जैसे कि थ्री ईडियट फ़िल्म की कथा लेखक महोदय ने चुराई हो. इसे कहते हैं चोरी ऊपर से सीनाज़ोरी.
यदि आप आप की याददाश्त सही काम कर रही हो तो पिछ्ले साल मशहूर अभिनेता एवं निर्देशक राकेश रोशन द्वारा निर्मित एक फ़िल्म आई थी- ’क्रेज़ी फोर’. इस फ़िल्म में एक गाना था- क्रेज़ी फोर.... इस गाने का संगीत चुराने का आरोप एक एड्वरटाइजमेन्ट के संगीतकार ने लगाया था. वह न्यायालय गए और अपनी शिकायत दर्ज़ कराई. यही नहीं उन्होंने अपनी बात के समर्थन में कै प्रमाण भी दिये. न्यायाधीश उनकी बात से सहमत हुए. उन्होंने इस विषय में यह निर्णय दिया कि इस गाने को क्रेज़ी फोर फ़िल्म से निकालकर ही फ़िल्म रिलीज की जा सकती है. 
बेचारे राकेश रोशन बुरे फंसे. उन्होंने बड़े नुकसान से बचने के लिए समझौता कर लिया लेकिन सभी लोग न तो इतने साहसी होते हैं और न ही निर्भीक.
आज आवश्यकता इस बात की है कि हर प्रकार की चोरी का विरोध किया जाए और उसे न्यायालय में चुनौती दी जाए. कम से कम इस प्रकार के लोगों को कुछ तो डर रहेगा.

drmanjutiwari123:
संवेदनाएं

संवेदनाएं मरती चली जा रही इंसान की,      
कीमतें शायद तभी तो लग रही हैं जान की.
मैं हूं हिन्दू, सिख हो तुम और वो है मुसलमां,
बात पै इतनी सी बस- बाजी लगी है जान की.
क्या हुआ करता था वो? और आज क्या वो हो गया?
आइये बातें करें कुछ- आज के इंसान की.
बात है इक रोज़ की- मैं जा रही उस ओर को,      
चल रही प्यारी हवाएं- खुशनुमा सी शाम थी.
जिस तरफ को देखती थी- भीड़ और बस भीड़ थी,      
एक मज़मा था दूर तक- खेती खड़ी ज्यों धान की.      
यों ही थी बस जा रही- कि देख कर कुछ रुक गई,      
शोर सा था आ रहा- थी बात इक इंसान की.      
कौन है वह? है कहां का? और न जाने कब से है?      
सब यही थे कह रहे- ज्यूं बात इतमीनान की.      
मैंने भी सोचा ज़रा- चलकर ज़रा सा देख लूं
हो सके तो पूछ लूं- कुछ बात इस इंसान की.   
पास पहुंची और देखा- दिखता था इंसान सा,
वो ही चेहरा- वो ही मोहरा- शक्ल भी इंसान की.   
देखिए तो ठीक से- ये कौन है जो गिर पड़ा?
आइए कर दें मदद कुछ- नाम पर इंसान की.   
महानगरों की संवेदनाओं की बात देखिये   
वाह क्या यह नगर है और क्या है ये संवेदना,
वे अभी जो कर रहे थे बात इस इंसान की,      
बात जैसे ही उठाई करने को थोड़ी मदद,
इंसानियत के नाए और लाचार से इंसान की.   
इंसानियत के नाम की जो थे दुहाई दे रहे,
इंसानियत हुइ हवा, जब उन्होंने चलते यह कहा,   
देखिये साहब हमें- हम तो यहां के हैं नहीं,
नज़रें फेंकी- चल दिए- और पीक थूकी पान की.

Navigation

[0] Message Index

[#] Next page

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 
Go to full version