Author Topic: Articles By Famous Science Writer Sh. Devendra Mewari-देवेन्द्र मेवाड़ी जी के लेख  (Read 32234 times)

विनोद सिंह गढ़िया

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[justify]मंडुवा की रोटी भली

कल मंडुवा की रोटी खाई। एक लेसुवा भी खाया। बहुत आनंद आया। दिनों-महीनों बाद मंडुवा की रोटी मिलने पर पाई हुई जैसी लगती है। घी तो मलाई से घर में ही निकाल लेते हैं। वह ताजा घी मंडुवे की रोटी का स्वाद और भी बढ़ा देता है। बनाने को तो हरा नमक भी बना रखा है। कुछ गास उसके साथ खाने पर अलग ही स्वाद मिलता है। कभी-कभी भांगे की चटनी और पिनालू के साग के साथ भी मंडुवे की काली रोटी खाने का मौका मिल जाता है। इन सब चीजों का जुगाड़ करके रखते हैं हम।
पहाड़ के कठिन जीवन में आड़े वक्त मंडुवा ही तो साथ निभाता था। मंडुवा गरीब-गुरबों का भोजन माना जाता था और उसकी काली रोटी को कमतर मानने वाले कोई कम नहीं थे। लेकिन, तब किसे पता था कि मंडुवा कोई गया-गुजरा अनाज नहीं बल्कि पोषक तत्वों से भरपूर भोजन है। रोटी काली है मगर गुणवाली है। इतनी गुणी कि आज वैज्ञानिक भी कह रहे हैं- मंडुवा खाइए, स्वस्थ रहिए।
मंडुवा, मक्का और चावल से अधिक पौष्टिक माना गया है। पोषक गुणों में यह गेहूं की बराबरी करता है। इसमें प्रोटीन है, खनिज हैं और विटामिन भी हैं। इसकी प्रोटीन बेहतर मानी जाती है क्योंकि उसमें खास तौर पर मेथियोनिन नामक ऐमिनो अम्ल पाया जाता है। रुखा-सूखा और असंतुलित आहार लेने वाले लाखों लोगों के भोजन में इस ऐमिनो अम्ल की कमी रह जाती है। मंडुवा इसकी भरपाई कर देता है। एक बात और। इसमें कैल्सियम, फास्फोरस और आयरन (लौह) तत्व भी काफी होता है। दूसरे अनाजों की तुलना में मंडुवे में कैल्सियम की मात्रा ज्यादा पाई जाती है। इसलिए यह दांतों और हड्डियों को मजबूत बनाता है। इसमें जिंक और गंधक भी होता है। इसके अलावा विटामिन-ए और बी 1 भी पाए जाते हैं।
आज हालात काफी कुछ बदल गए हैं। पहाड़ में मंडुवे की खेती का रकबा घटता चला गया है। जो कुछ पैदा भी होता है, वह हेल्थ फूड बनाने के लिए जापान तक को भेजा जा रहा है।
मंडुवे की बंद और खुली बालियों की अंगुलियां देख कर ही शायद अंग्रेजी में इसे ‘फिंगर मिलेट’ कहा गया होगा। मुझे याद है, मंडुवे की खेती बड़ी मेहनत-मशक्कत का काम होता था। इसकी संगत में कुछ दूसरी फसलें भी मजे से उगती थीं- चुवा (चैलाई), लोबिया, कौनी और पहाड़ी खीरे। मेहनत तो लगती थी, मगर भरपूर उपज भी मिलती थी। मंडुवा साल भर खाने के काम आ जाता था। इसकी एक अच्छाई यह भी थी कि इसे भंडार में काफी समय तक रखना संभव था। इसलिए अच्छे-बुरे वक्त में मंडुवा ही काम आता था।
मंडुवे के मुरीदों को यह शहर में किसी दक्षिण भारतीय दुकान पर ‘रागी पाउडर’ के नाम से मिल सकता है। कोदो भी इसी को कहते हैं। असल में यह केवल उत्तराखंड के पहाड़ों में ही नहीं बल्कि देश के कई दूसरे इलाकों में भी उगाया जाता है। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में इसकी काफी खेती की जाती है। वहां यह ‘रागी’ कहलाता है। बिहार और उड़ीसा में भी मंडुवा उगाया जाता है। बिहार में तो इसे मंडुवा ही कहते हैं मगर उड़िया भाषा में यह ‘मंडिया’ कहलाता है। अन्य राज्यों में भी इसकी थोड़ी-बहुत खेती की जाती है। यों,
मंडुवे की रोटी ही नहीं, इसका हलुवा, दलिया और पुडिंग भी स्वादिष्ट होता है। यही नहीं, कई इलाकों में तो लोग इसकी बीयर जैसी हलकी मदिरा भी बना लेते हैं। कई साल पहले सिक्किम के एक होटल में मेरे चाहने वाले होटल कर्मचारियों ने किसी गांव से लाकर मुझे मंडुवे की वह हलकी मदिरा चखाई थी।
मंडुवा हमारे देश में ही नहीं, अफ्रीका और एशिया के कम से कम 25 देशों में उगाया जाता है। कुछ वैज्ञानिक कहते हैं मंडुवा अफ्रीका के इथियोपिया देश से लगभग 4000 वर्ष पहले भारत पहुंचा। वहीं इसका जन्म हुआ। लेकिन, दूसरे वैज्ञानिक कहते हैं, मंडुवा कहीं और से नहीं आया बल्कि इसका जन्म यहीं हुआ। और, यह भी कि आज मंडुवा की जो ऐल्युसाइन कोराकाना प्रजाति उगाई जा रही है, वह मंडुवा की ऐल्युसाइन इंडिका नामक जंगली प्रजाति से ही विकसित हुई है।
बहरहाल, मंडुवा चाहे सुदूर इथियोपिया से आया अथवा यहीं हमारी भारत भूमि में जन्मा, हमने तो इसे सदा अपना ही समझा है। और, यह भी यहीं की मिट्टी और जलवायु को गले लगा कर, सदियों से लहलहा कर अपनी काली पौष्टिक रोटी से हमारा पेट भर रहा है।

श्री Deven Mewari जी की वॉल से.
www.MeraPahad.com

विनोद सिंह गढ़िया

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[justify]सिसुणा को साग-

लेख – श्री देवेन मेवाड़ी जी

असल में लोकोक्ति है- “मंडुवा की रोटी भली, सिसुणा को साग।” बचपन में सुना ही सुना था। सिसुणा का साग बनता बहुत कम घरों में था। फिर भी, जहां बनता था, चखने को मिल जाता था। लेकिन, सच यह है कि जो सम्मान इसे मिलना चाहिए था, वह अब तक नहीं मिला है। सिसुणा का साग पौष्टिक तो है ही, औषधि भी है। बात वही है, सिसुणा गरीबों का ही भोजन माना जाता रहा।
पहाड़ से बाहर के लोग इसे ‘बिच्छू बूटी’ के रूप में जानते हैं और पहाड़ में ही कई जगह यह कंडाली कहलाता है। वनस्पति विज्ञानी अपनी भाषा में इसे ‘अर्टिका पर्विफ्लोरा’ कहते हें। पहाड़ में इसे बच्चा-बच्चा जानता है क्योंकि बचपन में इसी डंक मारने वाली बिच्छू बूटी की झपक से डरा कर बच्चों को शैतानी न करने की सीख दी जाती रही है। फेसबुक पर पिछले दिनों किसी मित्र ने इसका क्या खूब नया नामकरण किया है- ‘देवभूमि बाल सुधारक बूटी!’
आज उत्तराखंड के हमारे पहाड़ों में भले ही इसकी कोई कदर न हो, सिक्किम के पर्यटन विभाग की किसी भी पुस्तिका को देख लीजिए। उसमें लिखा मिलेगा- सिक्किम आएं तो यहां का प्रसिद्ध ‘नेटल सूप’ जरूर चखें। मैंने चखा। पता लगा वह तो सिसुणा का साग है!’
प्रकृति ने भी क्या जोड़ी मिलाई है- पहाड़ों में जहां मंडुवा होता है वहां सिसुणा भी खूब उगता है। लोग चिमटे से सिसुणा के नरम सिरे तोड़ कर, उन्हें धूप में फैला देते हैं। धूप में सूख कर वे मुरझा जाते हैं और उनका थोड़ा पानी भी सूख जाता है। फिर पानी में उबालने के बाद पीस कर साग तैयार कर लेते हैं। इसके तने और पत्तियों पर तीखे, नुकीले रोए या कांटे होते हैं जो शरीर से छू जाने पर सुई की तरह चुभ जाते हैं। उनमें फार्मिक एसिड होता है।
डंक मारने वाला यह अपनी तरह का अनोखा पौधा आखिर आया कहां से होगा? पता लगा, यह एशिया, यूरोप, अफ्रीका और उत्तरी अमेरिका का मूल निवासी पौधा है। यानी, हमारा सिसुणा हो सकता है यहीं पैदा हुआ हो।
गाय-भैंसें भी धूप दिखा कर मुरझाया हुआ सिसुणा चाव से खा लेती हैं। मनुष्य और गाय-भैंसों के अलावा कोई और भी है जिसे यह बेहद पसंद है। लप-लप करने वाले लार्वा यानी गीजू!
कहते हैं महान तिब्बती धर्मगुरु मिलारेपा ने वर्षों लंबी समाधि लगाई थी जिसमें उन्होंने केवल सिसुणा खाया। मगर हमें पता ही नहीं है कि यह कितना पौष्टिक है।
दूसरे देशों की ओर देखें तो मुंह में अंगुली दबा लेंगे। लोग वहां इसका न केवल सूप बना रहे हैं बल्कि इसकी नरम पत्तियों का सलाद खा रहे हैं, पुडिंग बना रहे हैं, पत्तियों के नाना प्रकार के व्यंजन बना रहे हैं, उन्हें सुखा कर ‘नेटल टी’ पी रहे हैं। वे इसका कार्डियल पेय और हल्की मदिरा यानी ‘नेटल बीयर’ बना रहे हैं। इतना ही नहीं, इससे कई तरह की दवाइयां बना रहे हैं और इसके रेशे से कपड़े तैयार कर रहे हैं।
यह ‘माल न्यूट्रिशन’ यानी कुपोषण, एनीमिया, और सूखा रोग से बचा सकता है क्योंकि इसमें कई जरूरी विटामिन और खनिज पाए जाते हैं। सिसुणा में विटामिन ए और सी तो पर्याप्त मात्रा में पाए ही जाते हैं, विटामिन ‘डी’ भी पाया जाता है जो पौधों में दुर्लभ है। इसके अलावा इसमें आयरन (लौह), पोटैशियम, मैग्नीशियम, कैल्सियम आदि खनिज भी पाए जाते हैं। अब बताइए, घर के आसपास बिना उगाए उगे सिसुणे में इतने पोषक तत्व और लोग तंदुरूस्ती की दवाइयां दुकानों में ढूंढते फिरते हैं। अरे, पालक की तरह उबालिए सिसुणा और सूप या साग बना कर खाते रहिए।
कहते हैं, इसकी चाय पेट के लिए बड़ी मुफीद है, पेचिस में भी आराम पहुंचाती है और गुर्दों के लिए भी फायदेमंद है। इसका रस पीने पर एक-एक चम्मच रस शरीर में से यूरिक एसिड को घटाता जाता है। इसे चर्म रोगों, जोड़ों के दर्द, गाउट और गठिया में लाभकारी पाया जाता है। सिसुणा के झपाके मार कर लकवा पड़े अंगों को भी सचेत किया गया है। कहते हैं, इससे दर्द और सूजन भी घटती है। इसकी जड़ प्रोस्टेट ग्रंथि के बढ़ने की शुरुआती अवस्था में लाभकारी पाई गई है। सिसुणा बार-बार छींक आने की समस्या में भी फायदा पहुंचाता है। यह जोड़ों के दर्द, खिंचाव, पेशियों की पीड़ा और कीड़ों के काटने की दवा के रूप में मलहम बनाने के भी काम आता है।
और हां, आपने हेंस एंडरसन की परी कथा ‘द वाइल्ड स्वांस’ पढ़ी होगी। उसमें राजकुमारी ने हंस बन गए अपने ग्यारह राजकुमार भाइयों के लिए सिसुणे के रेशों से ही तो कमीजें बुनी! यह कहानी 2 अक्टूबर 1838 को छपी थी। यानी, तब भी लोग सिसुणे के कपड़ों के बारे में जानते थे!

लेख – श्री Deven Mewari जी

विनोद सिंह गढ़िया

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[justify]कहां गया रामदाना ?

लेख श्री देवेन मेवाड़ी जी

अब तो भूले-बिसरे ही याद आता है हमें रामदाना। उपवास के लिए लोग इसके लड्डू और पट्टी खोजते हैं। पहले इसकी खेती का भी खूब प्रचलन था। बचपन में मंडुवे यानी कोदों के खेतों के बीच-बीच में चटख लाल, सिंदूरी और भूरे रंग के चपटे, मोटे गुच्छे जैसे देख कर चकित होता था कि आखिर यह कौन-सी फसल है? पता लगा वह चौलाई है जिसके पके हुए बीज रामदाना कहलाते हैं। जब पौधे छोटे होते थे तो वे चौलाई के रूप में हरी सब्जी के काम आते थे। तब पहाड़ों में मंडुवे की फसल के साथ चौलाई उगाने का आम रिवाज था। यह तो शहर आकर पता लगा कि रामदाना के लड्डू और मीठी पट्टी बनती है। पहाड़ में रामदाना के बीजों को भून कर उनकी खीर या दलिया बनाया जाता था। एक बार गुप्तकाशी के जैक्स वीन नेशनल स्कूल में विद्यार्थियों को विज्ञान की कहानियां सुनाने गया था। तब स्कूल के अध्यक्ष श्री लखपत राणा के घर पर जीवन में पहली बार, नाश्ते में रामदाने की मुलायम और स्वादिष्ट रोटी खाई थी। रोटी का वह स्वाद अब भी याद है। अब तो पहाड़ में भी खेतों में दूर-दूर तक चौलाई के रंगीन गुच्छे नहीं दिखाई देते हैं।
इतिहास टटोला तो पता लगा, चौलाई के गुच्छे तो हजारों वर्ष पहले दक्षिणी अमेरिका के एज़टेक और मय सभ्यताओं के खेतों में लहराते थे। रामदाना उनके मुख्य भोजन का हिस्सा था और इसकी खेती वहां बहुत लोकप्रिय थी। जब सोलहवीं सदी में स्पेनी सेनाओं ने वहां आक्रमण किया, तब चौलाई की फसल चारों ओर लहलहा रही थी। वहां के निवासी चौलाई को पवित्र फसल मानते थे और उनके अनेक धार्मिक अनुष्ठानों में रामदाना काम आता था। विभिन्न उत्सवों, संस्कारों और पूजा में रामदाने का प्रयोग किया जाता था। स्पेनी सेनापति हरनांडो कार्टेज को चौलाई की फसल के लिए उन लोगों का यह प्यार रास नहीं आया और उसने इसकी खड़ी फसल के लहलहाते खेतों में आग लगवा दी। चौलाई की फसल को बुरी तरह रौंद दिया गया और उसकी खेती पर पाबंदी लगा दी गई। इतना ही नहीं, हुक्म दे दिया गया कि जो चौलाई की खेती करेगा उसे मृत्युदंड दिया जाएगा। इस कारण चौलाई की खेती खत्म हो गई।
चौलाई का जन्मस्थान पेरू माना जाता है। स्पेनी सेनाओं ने एज़टेक और मय सभ्यताओं के खेतों में चौलाई की फसल भले ही उजाड़ दी, लेकिन दुनिया के दूसरे देशों में इसकी खेती की जाती रही। दुनिया भर में इसकी 60 से अघिक प्रजातियां उगाई जाती हैं।
पहाड़ों में चौलाई सब्जी और बीज दोनों के काम आती है लेकिन मैदानों में इसका प्रयोग हरी सब्जी के लिए किया जाता है। इसकी ‘अमेरेंथस गैंगेटिकस’ प्रजाति की पत्तियां लाल होती हैं और लाल साग या लाल चौलाई के रूप में काम आती हैं। ‘अमेरेंथस पेनिकुलेटस’ हरी चौलाई कहलाती है। ‘अमेरेंथस काडेटस’ प्रजाति की चौलाई को रामदाने के लिए उगाया जाता है। हालांकि, मैदानों में यह हरी सब्जी के रूप में काम आती है। चौलाई के एक ही पौधे से कम से कम एक किलोग्राम तक बीज मिल जाते हैं। इस फसल की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसे कम वर्षा वाले और रूखे-सूखे इलाकों में भी बखूबी उगाया जा सकता है। इस भूली-बिसरी फसल के बारे में हम यह भूल गए हैं कि यह एक पौष्टिक आहार है। कई विद्वान तो इसे गाय के दूध और अंडे के बराबर पौष्टिक बताते हैं।
यह विडंबना ही है कि जिस फसल को अब तक हमारी मुख्य फसल बन जाना चाहिए था, उसे कई देशों में तो खरपतवार और गरीबों का भोजन तक मान लिया गया। हमारी बेरूखी से रूखे-सूखे में भी उगने वाली यह फसल गेहूं, धान और दालों की दौड़ में पीछे छूट गई।
एक अनुमान के अनुसार अगर हम पौष्टिकता को 100 मान लें तो रामदाने की पौष्टिकता 75, गाय के दूध की 72, सोयाबीन की 68, गेहूं की 60 और मक्का की 44 है। इसमें उच्च कोटि की प्रोटीन पाई जाती है जो दूध की प्रोटीन ‘केसीन’ के समान बताई जाती है।
कई लोगों को गेहूं के आटे में पाए जाने वाले ग्लूटेन के कारण भोजन पचने में परेशानी होती है। साथ ही एलर्जी के कारण चर्म रोग भी हो जाते हैं। लेकिन, रामदाने का आटा अन्य प्रकार के आटे में मिला कर आराम से खाया जा सकता है। रामदाने के कारण यह काफी पौष्टिक आहार बन जाता है। वैज्ञानिक कहते हैं रामदाना हमारे रक्त में हानिकारक कोलेस्ट्राल की मात्रा को कम करता है। इसलिए यह दिल के मरीजों के लिए भी मुफीद आहार माना गया है। बेक्रफास्ट में इसका दलिया या रोटी खाई जा सकती है।
रामदाने के कई व्यंजन बनाए जा सकते हैं। रोटी, पू़ड़ी और लड्डू बनाने के साथ-साथ भुना हुआ रामदाना शहद के साथ भी खाया जा सकता है। यह सुपाच्य उत्तम आहार है।
समय आ गया है जब हमें चौलाई जैसी अपनी भूली-बिसरी फसलों की खेती को फिर से बढ़ावा देना चाहिए।

 

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