Author Topic: Articles By Hem Pandey - हेम पाण्डेय जी के लेख  (Read 44813 times)

hem

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लम्बे अंतराल  के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ .

पंकज सिंह महर

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लम्बे अंतराल  के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ .

आपके आशीर्वाद और मार्गदर्शन के हम सदैव अभिलाषी हैं। आशा है कि अब आप अपने लेखों के द्वारा विलम्ब को भी भरने का प्रयास करेंगे।

hem

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शराबियों से खराब होती है  पहाड़ की छवि   


पिछले दिनों एक टूर पैकेज में यात्रा की | वहाँ विभिन्न क्षेत्रों से आये यात्री अपने अपने क्षेत्र की प्रशंसा कर रहे थे | मैंने भी कुमाऊँ की प्रशंसा करना शुरू कर दी | वहाँ की प्राकृतिक  सुन्दरता, जलवायु , दर्शनीय स्थल, लोगों की सरलता, निश्छलता, ईमानदारी आदि की प्रशंसा की | तभी इलाहाबाद से आये  ८२  वर्षीय एक सज्जन बोले - हमारे  पड़ोस में भी  अल्मोड़ा का एक आदमी रहता है | बहुत पीता है | ऐसे भी अपवाद होते हैं- कह कर मैंने  बात टाल दी, लेकिन यह बुराई एक बड़े पहाडी  वर्ग में है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता और इस बात से पहाड़ और पहाड़ियों की छवि  खराब होती है |



एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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हेम जी स्वागत छो बहुत दिनों के बाद मेरापहाड़ फोरम में !

मी आपुन बात दगे बिलकुल सहमत छियो !

वैसे सारी दुनिया में दारु विकती है और शायद हर मुल्क में लोग शराब पीते है लेकिन हमारे यहाँ के लोग कुछ ज्यादे बदनाम है इस मामले में! शर्म की बात है! शराब पीने का भी एक समय होता है, किसी भी वक्त और शुभ अशुभ को बिना देखे शराब पीना अनुचित है !

शराबियों से खराब होती है  पहाड़ की छवि   


पिछले दिनों एक टूर पैकेज में यात्रा की | वहाँ विभिन्न क्षेत्रों से आये यात्री अपने अपने क्षेत्र की प्रशंसा कर रहे थे | मैंने भी कुमाऊँ की प्रशंसा करना शुरू कर दी | वहाँ की प्राकृतिक  सुन्दरता, जलवायु , दर्शनीय स्थल, लोगों की सरलता, निश्छलता, ईमानदारी आदि की प्रशंसा की | तभी इलाहाबाद से आये  ८२  वर्षीय एक सज्जन बोले - हमारे  पड़ोस में भी  अल्मोड़ा का एक आदमी रहता है | बहुत पीता है | ऐसे भी अपवाद होते हैं- कह कर मैंने  बात टाल दी, लेकिन यह बुराई एक बड़े पहाडी  वर्ग में है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता और इस बात से पहाड़ और पहाड़ियों की छवि  खराब होती है |




Anil Arya / अनिल आर्य

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मै भी हेम दा के लेख से प्रेरित होकर एक संस्मरण लिखना चाहूँगा .. बात है २७-१२-२०१० की .. मै पिथोरागढ़ से बागेश्वर जा रहा था ,, थल मै मेरे एक दोस्त ने कहा की चाय पीते है. मैंने भी हामी भरी और गाड़ी रोक कर थल मै उतर गए . उतरते सामने देखा तो दारू के २ दुकान . एक देशी एक अंग्रेजी. खैर हम एक ढाबे मै गए चाय के लिए आर्डर किया तो उत्तर मिला की चाय तो नहीं है .. मैंने कहा की चाचा (नाम नहीं लिख रहा हूँ ) चाय कहा मिलेगी फिर ? उन्होंने कहा की आप अन्दर बाजार मै जाइये मिल जाएगी  मैंने कहा .. काक ज्यू  तुम मान्छ, दाव, भात सब ठीक छ अरे यक केतली चहा लै धरा. खैर मै घर कै  भयो लेकिन या कतुक दूर दूर बै लोग बाग औनि चहा तो हूँ चैनी . और यो की छ दारू की द्वी दूकान चहा की यक लै नै .. कटुक आबादी छ याकि? चाचा ने कहा की बेटा (हिंदी मै ) यहाँ की आबादी लगभग १६००० है चाय का कोई स्कोप नहीं है . दारू की बिक्री प्रतिदिन एक लाख से ऊपर है . मैली कौ की अरे तुमर इलाक भोते संपन्न छ जब १६०००  लोग रोजाना १ लाखेकी दारू पी सकनी उनु हुनि और बात त सामान्य हुनैली .. लेकिन फिरि लै है सक छ एक केतली चहा की जरूर धरिया तुमेरी जय जय कै हुवेली . इतना कह कर हम बिना चाय पिए थल से हम चल पड़े और चकोडी मै जा कर चाय पी हमने  .:(

Anil Arya / अनिल आर्य

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सूर्य अस्त पहाड़ी मस्त
शराबियों से खराब होती है  पहाड़ की छवि   


पिछले दिनों एक टूर पैकेज में यात्रा की | वहाँ विभिन्न क्षेत्रों से आये यात्री अपने अपने क्षेत्र की प्रशंसा कर रहे थे | मैंने भी कुमाऊँ की प्रशंसा करना शुरू कर दी | वहाँ की प्राकृतिक  सुन्दरता, जलवायु , दर्शनीय स्थल, लोगों की सरलता, निश्छलता, ईमानदारी आदि की प्रशंसा की | तभी इलाहाबाद से आये  ८२  वर्षीय एक सज्जन बोले - हमारे  पड़ोस में भी  अल्मोड़ा का एक आदमी रहता है | बहुत पीता है | ऐसे भी अपवाद होते हैं- कह कर मैंने  बात टाल दी, लेकिन यह बुराई एक बड़े पहाडी  वर्ग में है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता और इस बात से पहाड़ और पहाड़ियों की छवि  खराब होती है |



शराबियों से खराब होती है  पहाड़ की छवि   


पिछले दिनों एक टूर पैकेज में यात्रा की | वहाँ विभिन्न क्षेत्रों से आये यात्री अपने अपने क्षेत्र की प्रशंसा कर रहे थे | मैंने भी कुमाऊँ की प्रशंसा करना शुरू कर दी | वहाँ की प्राकृतिक  सुन्दरता, जलवायु , दर्शनीय स्थल, लोगों की सरलता, निश्छलता, ईमानदारी आदि की प्रशंसा की | तभी इलाहाबाद से आये  ८२  वर्षीय एक सज्जन बोले - हमारे  पड़ोस में भी  अल्मोड़ा का एक आदमी रहता है | बहुत पीता है | ऐसे भी अपवाद होते हैं- कह कर मैंने  बात टाल दी, लेकिन यह बुराई एक बड़े पहाडी  वर्ग में है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता और इस बात से पहाड़ और पहाड़ियों की छवि  खराब होती है |




Thul Nantin

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अति सुन्दर ||
पिछले पोस्ट में मैंने 'आंचलिकता बनाम राष्ट्रीयता' के अंतर्गत प्रवासी पर्वतीयों की एक समस्या की ओर ध्यान खींचा था | आज प्रवासीयों की ही एक अन्य समस्या 'नराई' की चर्चा करूंगा | पर्वतीय प्रवासी प्रवास में रहते हुए पर्वत के लिए भले ही कुछ सकारात्मक न कर पाएं किंतु जब-तब 'नराई' के शिकार होते रहते हैं | इसी से सम्बंधित एक कहानी हमने 'शकुनाखर' में प्रकाशित के थी जिसे देवेन्द्र कुमार पांडे ,जो वर्तमान में कोटबाग, जिला नैनीताल में भारतीय स्टेट बैंक के शाखा प्रबंधक हैं,ने लिखी थी :     

                                     देबिया

मैं याने देवकीनंदन पांडे उर्फ़  डी. एन. पांडे  पुत्र गंगा दत्त पांडे इस शहर के कई फलानों वल्द ढिकानों में से एक हूँ, जो विगत अनेक वर्षों से एक बोर रूटीन वाली जिन्दगी से चिपका हुआ है, जिसे आम तौर पर सामान्य जिन्दगी कहा जाता है | पर मेरे अन्दर एक और 'मैं' है जिसका कई बार गला घोंटने के बाद भी वह एक उद्दंड बालक की तरह मेरे सामने आ खड़ा होता है | न जाने कहाँ ढील रह गयी इतने साल के 'देशीपने' के बाद भी कि यह साला कुकुरी का चेला 'देबिया' मेरे अन्दर जिंदा है | हाँ.............हाँ वही 'देबिया' जो काफलीगैर, कनालीछीना या खरई, खत्याड़ी या फ़िर गणई, गंगोली में कहीं रहता था या रहता है |
अब इस देबिया को कैसे समझाऊं कि मैं यहाँ,इस शहर में अदब -तमीज वाला एक संभ्रांत व्यक्ति हूँ | लोहा की हुई पतलून और बुशशर्ट पहनता हूँ | अपने मिलने वालों से 'हेल्लो' या 'हाय'  करता हूँ | अंग्रेजी फ़िल्म या हिन्दी नाटक देखता हूँ |   काफी हाउस में राजनीतिक या साहित्यिक बहस करता हूँ | हाथ में चुरुट और बगल में पत्रिका रखता हूँ | संक्षेप में इंटेलेक्चुअल-कम-सोफिस्टिकेटेड  होने का दंभ भरता हूँ | अब इस साले देबिया को क्या मालूम कि आज कल ये सब करना कितना जरूरी है - रोटी खाने और पानी पीने से भी ज्यादा जरूरी
लेकिन अपना देबिया रहा वही भ्यास का भ्यास | चाहता है कि मैं मैली कुचैली बंडी और पैजामा -जिसका नाड़ा कम से कम छै इंच लटका हो- पहन कर गोरु-बाछों का ग्वाला जाऊं, रास्ते में हिसालू,किलमोड़ी या काफल चुन-चुन कर खाऊँ,पत्थर के नीचे दबी बीड़ी के सुट्टे मारूं | पहाड़ के उस तरफ़ पहुँच कर धात लगाऊँ -गितुली...........गितुली वे उईईईईई और शाम को घर पंहुंच कर ईजा के सिसुणे की झपकार खाऊँ |       
मेरे अन्दर का यह देबिया नामक जंतु असभ्यता की पराकाष्ठा पार करते हुए साबित करना चाहता है कि  स्कूल में मास्सेप के झोले से मूंगफली चुराकर खाने और दंडस्वरूप जोत्याये जाने पर 'ओ इजा मर गयूं' की हुंकार लगाने का आनंद किसी नाटक देखने से बढ़कर है | बकौल देबिया 'लोहे की कढाई में लटपट  जौला धपोड़ने या फ़िर धुंए और गर्मी के मिले जुले असर के बीच तेज मिर्च वाले सलबल रस-भात का स्यां-स्यां करते हुए और सिंगाणा सुड़कते हुए रसास्वादन करना, बिरयानी खाने से ज्यादा प्रीतकर है |'
 ये देबिया जब मोटर की भरभराट से उठ कर विस्फारित नेत्रों से रेल नामक चीज को देख रहा था, वह दृश्य मुझे अभी तक याद है |'बबा हो इसका तो अंती नहीं हो कका' उसने अपने कका से कहा था | धीरे-धीरे देबिया ऐसे कई चमत्कारों का अभ्यस्त हो चला था | अब उसकी आँखें विस्फारित न रह कर शून्य रहतीं,देबिया धीरे-धीरे गुम होता जा रहा था जीवन की आपाधापी में| मैं भी यही चाहता था| मुझे यकीन था की एक दिन देबिया सुसाइड कर लेगा|   
 पर समय बीतने के साथ-साथ महसूस होने लगा की देबिया मरा नहीं है | अक्सर उसकी मंद-मंद आवाज़ मुझे सुनाई देती | धीरे-धीरे मेरा शक विश्वास में बदल गया कि देबिया जिंदा है- पूरी शिद्दत से | उसकी आवाज़ चीख में बदल गयी थी और वह मुझ पर हावी होने लगा था | इस देबिया से मैं हमेशा लड़ता रहता हूँ | बहुत गुस्सा आता है इस पर जब यह चीख-चीख कर कहता है -'होगा तू यहाँ लाट सैप कुकुरी के चेले, मुझे तो अभी तक तेरे पैजामे से चुरैन आ रही है |' गनीमत है कि उसकी यह चीख और कोई सुन नहीं पाता वरना मेरी सभ्यता के जामे की चिंदी-चिंदी हो जाती | 
पर फुर्सत के क्षणों में जब कभी मैं सोचता हूँ तो लगता है     कि  क्या वह देबिया ही नहीं, जो हमारी तथाकथित गंवाड़ी सभ्यता को जिंदा रखने के लिए निरंतर जूझ रहा है और हमें हमारी 'सभ्यता' की परवाह किए बिना यह अहसास कराने से बाज नहीं आता   कि अपनी मिट्टी  की सोंधैन इन कपडों में लगे सेंट से अच्छी  है |
(समाप्त)   



   लेकिन देबिया केवल उन्हीं प्रवासियों के पीछे पड़ा रहता है जिनका बचपन पहाड़ में बीता है. आज देबिया के एक नए संस्करण की जरूरत है जो प्रवास में ही पैदा हुई, पली, पढ़ी पीढी को भी कचोटने की क्षमता रखे |         

Thul Nantin

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हम अधिकाँश  पहाडियों में लोक लाज की चिंता बीमारी की हद तक भरी हुयी है | उदाहार्ण हम दिल्ली बम्बई आ कर बर्तन माँज लेंगे पर पहाड़ पर सब्जी नहीं बेच सकते | बाहर के लोग आ कर यही काम कर के मालामाल हो चुके हैं | पर हम नहीं करेंगे क्योंकि लोग क्या कहेंगे |


खैर यह तो बहुत आगे की बात हो गयी | मैं जो बात कहना चाह रहा हूँ वह है कि हमें बहुत छोटी-छोटी नौकरियों की अपेक्षा स्वरोजगार पर भी ध्यान देना चाहिए | इसके लिए सबसे पहले तो यह विचार दिमाग से बिल्कुल निकाल दीजिये कि व्यापार के लिए बहुत बड़ी पूंजी की आवश्यकता होती ही है | बहुत से ऐसे काम हैं जो छोटी-मोटी पूंजी से भी प्रारम्भ किए जा सकते है. उदाहरणतः यदि आप ऐसे शहर में हैं जहाँ डी.टी.पी.कम्पोजिंग की सुविधा उपलब्ध है,( आजकल तमाम कस्बों में यह सुविधा है ) तो स्क्रीन प्रिंटिंग का काम महज पाँच हजार रूपये से शुरू किया जा सकता है -वह भी अपने निवास स्थान पर ही | इसी प्रकार के अन्य धंधे अपनी सुविधानुसार, अपने संसाधनों को देखते हुए , मार्केट का अध्ययन करते हुए शुरू किए जा सकते हैं | जरूरत है थोड़ा हिम्मत करने की |
       
मैं स्वरोजगार की बात इस लिए भी कर रहा हूँ कि मैंने कुछ उत्तराखंडियों को बहुत ही छोटी- छोटी नौकरियां करते हुए पाया है | यह नौकरियां न तो सम्मानजनक कही जा सकती हैं और न उन्हें पर्याप्त वेतन प्राप्त हो पाता  है | ऐसे लोगों को अवश्य स्वरोजगार हेतु प्रयत्न करना चाहिए | महानगरों या बड़े शहरों में छोटे-छोटे होटल या  ढाबों में बर्तन मांजने या खाना बनाने वाले पहाड़ी  तो मिल जायेंगे लेकिन कबाड़े का धंधा करने वाले या फेरी लगाने वाले नहीं मिलेंगे|   



 

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