Uttarakhand Updates > Articles By Esteemed Guests of Uttarakhand - विशेष आमंत्रित अतिथियों के लेख

Articles By Hem Pandey - हेम पाण्डेय जी के लेख

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

दोस्तों,

श्री हेम पाण्डेय जी जो कि मेरापहाड़ के एक वरिष्ठ सदस्य है और लेखनी मे उनका काफ़ी अच्छी रूचि है ! हेम जी एक पत्रकार और समाजसेवी भी है !

हेम जी इस थ्रेड मे अपने लेखों में पहाड़ एव अन्य जनसमस्याओं पर लिखेंगे !

एम् एस मेहता

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हेम जी संक्षिप्त परिचय

Pandey ji was born in 1946 in Kanpur. He has studied in G.I.C. Almora and D.S.B. College Nainital.At present he posses a small business of stationery Supply at Bhopal. He is deeply attached to Uttarakhand  and its culture that’s why he always been a very active member of Kumaon Samaj Bhopal. They started Kumaoni Ramlila at Bhopal which recieved very good response from the public and also published the "smarika" named "SHAKUNAKHAR".

 

hem:
इस श्रृंखला में लिखने से पहले मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैं स्वयं को इस योग्य नहीं समझता | किंतु  'मेरा पहाड़' और श्री मेहता ने मुझे दायित्व सौंपा है तो उसे यथाशक्ति पूरा करने का यत्न करूंगा | सबसे पहले मैं अपनी उस तुकबंदी के द्बारा 'मेरा पहाड़' का आभार प्रकट करना चाहता हूँ, जिसकी प्रत्येक पंक्ति के पहले अक्षर से फॉरम का नाम बनता है और जिसे मैं पहले भी अन्यत्र पोस्ट कर चुका हूँ:-
                          मेरे मन की पीड़ा को कुछ हल्का करता
                          राहत देता मुझको अपनों से मिलवा कर
                          पन्कज, मेहता आदि बहुत से मित्र बने हैं
                          हाड़ तोड़ मेहनत से करते फॉरम बेहतर
आभार प्रकट करना इस लिए जरूरी है कि मैंने इन्टरनेट में हिन्दी लिखना पंकज मेहर जी की पोस्टों से ही सीखा है |
  इस लेख के द्बारा मैं प्रवासियों की एक समस्या की चर्चा करना चाहता हूँ | वह है प्रवासियों का अपने अंचल के प्रति मोह | इस मोह को कभी कभी स्थानीय लोग पचा नहीं पाते |  मुंबई में उत्तरभारतीयों के प्रति असहिष्णुता इसी अपच का परिणाम है (यद्यपि यह तुच्छ क्षेत्रीय राजनीति है) | मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि प्रवास पर रहते हुए भी हमें अपनी आंचलिक संस्कृति के प्रति सजग रहना चाहिए और आने वाली पीढ़ी,जिसका जीवंत संपर्क पहाड़ से नहीं है,को भी सजग करना चाहिए,ताकि कोई धोनी अपने को उत्तरांचली कहने से न कतराए |  दुर्भाग्य से अपने व्यक्तिगत जीवन में मुझे कुछ पहाड़ी इस प्रवृति  के मिले |       
१९८५ में कुमाऊँ समाज भोपाल की स्मारिका "शकुनाखर" में प्रकाशन हेतु हमने दैनिक भास्कर के तत्कालीन सम्पादक श्री महेश श्रीवास्तव एवं स्वर्गीय मोहन उप्रेती के अग्रज डाक्टर धीरेन्द्र उप्रेती के विचार 'आंचलिकता  बनाम राष्ट्रीयता ' के सन्दर्भ में जानना चाहे | उसी के कुछ अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ :
महेश श्रीवास्तव कहते हैं:
"आंचलिकता और राष्ट्रीयता का विषय आजकल टकराहट की दृष्टि से देखा जाने लगा है |राजनीति में आन्चलिकता को ही क्षेत्रीयता शब्द की चौखट में रख कर घातक और खतरनाक निरूपित किया जा रहा है |इस निरूपण के पीछे भी राजनीति है और राजनीति ही क्षेत्रीयता में विषाणुओं का संचार करती है |   
वैसे शाब्दिक और ध्वनिगत अर्थों को ग्रहण किया जाए तो आंचलिकता और क्षेत्रीयता में अन्तर स्पष्ट है | आंचलिकता के साथ कोमलता,सहजता और मिट्टी के साथ जुडे होने का जो अहसास है वह क्षेत्रीयता जैसे शब्दों में नहीं | क्षेत्रीयता में प्रेम तत्व उतने उदात्त और निःस्वार्थ भाव में प्रकट नहीं होता जितना आंचलिकता में |     
क्षेत्रीयता के साथ हित-अहित, आग्रह-दुराग्रह,स्वार्थ और अंहकार जैसे तत्व भी जुड़े हैं | यही कारण है कि क्षेत्रीयता के ये ज्वलनशील तत्व राजनीति की माचिस से तत्काल सुलग उठते हैं | किंतु आंचलिकता की अनुभूति एक प्रकार का  निर्विकार सम्मोहन है,निःस्वार्थ लगाव है,एक प्रकार की गीली मिट्टी है, जो सुलगना नहीं जानती | अतः क्षेत्रीय भावना शीघ्र ही राष्ट्रीय भावना के विरुद्ध जा सकती है, किंतु आंचलिक भावना नहीं | 
जैसे कोई व्यक्ति सम्पूर्ण समाज का हो कर भी यह नहीं कह सकता कि वह अपने माता पिता से अलग है वैसे ही राष्ट्रीयता की बात करने वाला व्यक्ति भी आंचलिकता से पृथक नहीं किया जा सकता | वास्तविकता तो यह है कि आंचलिकता की पगडंडी से हो कर ही व्यक्ति राष्ट्रीयता के राजमार्ग पर पहुंचता है |"

 इसी बात को पर्वतीय प्रवासियों के सन्दर्भ में डाक्टर धीरेन्द्र उप्रेती ने कुछ इस प्रकार कहा:
"क्या ये सम्भव है कि वे उन बिम्ब-प्रतिबिम्बों को भूल जाएँ  जो पर्वतीय क्षेत्रों की भौतिक,प्राकृतिक अथवा सामाजिक परिवेश से पैदा होते हैं? जिन मूर्त और अमूर्त बिम्ब-प्रतिबिम्बों को उन्होंने जिया है अथवा अनुभव किया है  वे उनके व्यक्तित्व का अंग बन गए हैं |आधुनिकता के नाम पर नकारना क्या उनके व्यक्तित्व को सीमित-प्राणहीन नहीं बना देगा?         
हिमालय की ऊंचाइयों,विशालता, सौन्दर्य को जिसने अनुभव किया है उसे अपने व्यक्तित्व में कभी न कभी सुखद अनुभूति अवश्य ही होती होगी, विशेषकर पर्वतीय जनों को |

प्रश्न यह है कि प्रवासी पर्वतीय अपने अंचल से दूर कार्यरत होते हुए भी क्या पर्वतीय क्षेत्रों के प्राकृतिक तथा सामाजिक परिवेश,जनमानस से जुड़े रह सकते हैं ? सामान्यतया यह  सम्भव नहीं लगता है | पर जिस परिवेश में वे कार्यरत रहे हैं उससे जुड़े  रहने के साथ-साथ यदि वे अपने पुरुखों की भूमि,परम्परा,वर्तमान में होने वाले परिवर्तनों और भविष्य की संभावनाओं के प्रति सजग रहें तो उन्हें अपने वर्तमान कार्यक्षेत्र में भी अधिक समझ का अनुभव होगा क्योंकि स्थान,समय की भिन्नताओं के होते हुए भी अधिकांश नैसर्गिक एवं सामजिक मूल्यों में एकरूपता मिलती है |
 प्रवासी पर्वतीयों में एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो विभिन्न क्षेत्रों में अग्रणी स्थानों-पदों पर कार्यरत है | इस बुद्धिजीवी वर्ग ने कला, साहित्य, विज्ञान, शिक्षा,प्रशासन आदि क्षेत्रों में अनुभव अर्जित किया है | अपने अंचल की सामयिक गतिविधियों से दूर रहने के बावजूद यह सम्भव है और वांछनीय भी कि उनकी क्षमताओं,अनुभवों का लाभ पर्वतीय अंचलों के विकास में हो सके | यह तभी सम्भव है जब यह वर्ग भावनात्मक स्तर पर अपने को पर्वतीय अंचल से जुड़ा हुआ महसूस करे | बौद्धिक स्तर पर पर्वतीय अंचलों की वर्तमान समस्याओं का विवेचन, भविष्य में विकास की दिशा और संभावनाओं का विश्लेषण इस वर्ग के सहयोग से किया जा सकता है | इस पारस्परिक सहयोग से उन दूरियों को भी कम किया जा सकता है जो पर्वतीय अंचल में कार्यरत और प्रवासी पर्वतीयों के बीच बौद्धिक स्तर में भी मालूम पड़ती है |इस वर्ग का भी  दायित्व है कि अपनी भावी पीढ़ी को अपने पुरखों की भूमि,समाज से जुड़े रहने की आकांक्षा, ललक धरोहर में दे जाए |"   

सारांश यह कि प्रवासी पर्वतीयों को अपने अंचल की संस्कृति,परिवेश और समस्याओं से भी अवगत होना चाहिए तथा आने वाली पीढ़ी को भी अवगत कराना चाहिए | इतना ही नहीं प्रवास में रहते हुए भी वह अपने अंचल-विशेष के लिए क्या कर सकता है-यह विचारना चाहिए | मैंने सुना है कि विदेशों में रहने वाले कुछ पर्वतीय युवा अपने मूल ग्राम के उत्थान हेतु प्रयत्नशील हैं |यह एक अच्छी  शुरुआत है |
लेकिन समस्या का समाधान कुछ और है -पलायन रोकना | आज के वैश्वीकरण के युग में
बेहतर भविष्य के लिए अंचल से बाहर जाना मैं बुरा नहीं समझता लेकिन पहाडों में मुख्यतः उदर-पूर्ति के लिए ही पलायन हो रहा है, जो अत्यन्त चिंताजनक है | चारु तिवारी जी ने अपने लेख में इस ओर इंगित किया है | इस प्रकार का पलायन रोकना  मुख्यतः राज्य सरकार की जिम्मेदारी है | आज भी पहाडों में रोजगार के समुचित साधन नहीं हैं |

संभवतः उत्तराखंड  बन जाने के बाद भी राज्य सरकार ने रोजगार के साधन बढ़ाने के लिए कुछ विशेष नहीं किया | मेरे विचार में राज्य ने पर्यटन को बढावा देने के लिए विशेष कार्य योजना बनानी चाहिए|  राज्य में पर्यटन की असीम संभावनाएं हैं | पाताल भुवनेश्वर जैसे अद्भुत स्थान के बारे में उत्तराखंडियों  के अलावा गिने-चुने लोगों ने ही सुना होगा | राज्य के सैकड़ों पर्यटन स्थलों को पर्यटकों हेतु सुगम्य और सुविधाजनक बनाना और उसका प्रचार करना राज्य का उत्तरदायित्व है | पर्यटन बढ़ने से निश्चित रूप से रोजगार के अवसर भी बढेंगे |         
 

hem:
पिछले पोस्ट में मैंने 'आंचलिकता बनाम राष्ट्रीयता' के अंतर्गत प्रवासी पर्वतीयों की एक समस्या की ओर ध्यान खींचा था | आज प्रवासीयों की ही एक अन्य समस्या 'नराई' की चर्चा करूंगा | पर्वतीय प्रवासी प्रवास में रहते हुए पर्वत के लिए भले ही कुछ सकारात्मक न कर पाएं किंतु जब-तब 'नराई' के शिकार होते रहते हैं | इसी से सम्बंधित एक कहानी हमने 'शकुनाखर' में प्रकाशित के थी जिसे देवेन्द्र कुमार पांडे ,जो वर्तमान में कोटबाग, जिला नैनीताल में भारतीय स्टेट बैंक के शाखा प्रबंधक हैं,ने लिखी थी :     

                                     देबिया

मैं याने देवकीनंदन पांडे उर्फ़  डी. एन. पांडे  पुत्र गंगा दत्त पांडे इस शहर के कई फलानों वल्द ढिकानों में से एक हूँ, जो विगत अनेक वर्षों से एक बोर रूटीन वाली जिन्दगी से चिपका हुआ है, जिसे आम तौर पर सामान्य जिन्दगी कहा जाता है | पर मेरे अन्दर एक और 'मैं' है जिसका कई बार गला घोंटने के बाद भी वह एक उद्दंड बालक की तरह मेरे सामने आ खड़ा होता है | न जाने कहाँ ढील रह गयी इतने साल के 'देशीपने' के बाद भी कि यह साला कुकुरी का चेला 'देबिया' मेरे अन्दर जिंदा है | हाँ.............हाँ वही 'देबिया' जो काफलीगैर, कनालीछीना या खरई, खत्याड़ी या फ़िर गणई, गंगोली में कहीं रहता था या रहता है |
अब इस देबिया को कैसे समझाऊं कि मैं यहाँ,इस शहर में अदब -तमीज वाला एक संभ्रांत व्यक्ति हूँ | लोहा की हुई पतलून और बुशशर्ट पहनता हूँ | अपने मिलने वालों से 'हेल्लो' या 'हाय'  करता हूँ | अंग्रेजी फ़िल्म या हिन्दी नाटक देखता हूँ |   काफी हाउस में राजनीतिक या साहित्यिक बहस करता हूँ | हाथ में चुरुट और बगल में पत्रिका रखता हूँ | संक्षेप में इंटेलेक्चुअल-कम-सोफिस्टिकेटेड  होने का दंभ भरता हूँ | अब इस साले देबिया को क्या मालूम कि आज कल ये सब करना कितना जरूरी है - रोटी खाने और पानी पीने से भी ज्यादा जरूरी
लेकिन अपना देबिया रहा वही भ्यास का भ्यास | चाहता है कि मैं मैली कुचैली बंडी और पैजामा -जिसका नाड़ा कम से कम छै इंच लटका हो- पहन कर गोरु-बाछों का ग्वाला जाऊं, रास्ते में हिसालू,किलमोड़ी या काफल चुन-चुन कर खाऊँ,पत्थर के नीचे दबी बीड़ी के सुट्टे मारूं | पहाड़ के उस तरफ़ पहुँच कर धात लगाऊँ -गितुली...........गितुली वे उईईईईई और शाम को घर पंहुंच कर ईजा के सिसुणे की झपकार खाऊँ |       
मेरे अन्दर का यह देबिया नामक जंतु असभ्यता की पराकाष्ठा पार करते हुए साबित करना चाहता है कि  स्कूल में मास्सेप के झोले से मूंगफली चुराकर खाने और दंडस्वरूप जोत्याये जाने पर 'ओ इजा मर गयूं' की हुंकार लगाने का आनंद किसी नाटक देखने से बढ़कर है | बकौल देबिया 'लोहे की कढाई में लटपट  जौला धपोड़ने या फ़िर धुंए और गर्मी के मिले जुले असर के बीच तेज मिर्च वाले सलबल रस-भात का स्यां-स्यां करते हुए और सिंगाणा सुड़कते हुए रसास्वादन करना, बिरयानी खाने से ज्यादा प्रीतकर है |'
 ये देबिया जब मोटर की भरभराट से उठ कर विस्फारित नेत्रों से रेल नामक चीज को देख रहा था, वह दृश्य मुझे अभी तक याद है |'बबा हो इसका तो अंती नहीं हो कका' उसने अपने कका से कहा था | धीरे-धीरे देबिया ऐसे कई चमत्कारों का अभ्यस्त हो चला था | अब उसकी आँखें विस्फारित न रह कर शून्य रहतीं,देबिया धीरे-धीरे गुम होता जा रहा था जीवन की आपाधापी में| मैं भी यही चाहता था| मुझे यकीन था की एक दिन देबिया सुसाइड कर लेगा|   
 पर समय बीतने के साथ-साथ महसूस होने लगा की देबिया मरा नहीं है | अक्सर उसकी मंद-मंद आवाज़ मुझे सुनाई देती | धीरे-धीरे मेरा शक विश्वास में बदल गया कि देबिया जिंदा है- पूरी शिद्दत से | उसकी आवाज़ चीख में बदल गयी थी और वह मुझ पर हावी होने लगा था | इस देबिया से मैं हमेशा लड़ता रहता हूँ | बहुत गुस्सा आता है इस पर जब यह चीख-चीख कर कहता है -'होगा तू यहाँ लाट सैप कुकुरी के चेले, मुझे तो अभी तक तेरे पैजामे से चुरैन आ रही है |' गनीमत है कि उसकी यह चीख और कोई सुन नहीं पाता वरना मेरी सभ्यता के जामे की चिंदी-चिंदी हो जाती | 
पर फुर्सत के क्षणों में जब कभी मैं सोचता हूँ तो लगता है     कि  क्या वह देबिया ही नहीं, जो हमारी तथाकथित गंवाड़ी सभ्यता को जिंदा रखने के लिए निरंतर जूझ रहा है और हमें हमारी 'सभ्यता' की परवाह किए बिना यह अहसास कराने से बाज नहीं आता   कि अपनी मिट्टी  की सोंधैन इन कपडों में लगे सेंट से अच्छी  है |
(समाप्त)   



   लेकिन देबिया केवल उन्हीं प्रवासियों के पीछे पड़ा रहता है जिनका बचपन पहाड़ में बीता है. आज देबिया के एक नए संस्करण की जरूरत है जो प्रवास में ही पैदा हुई, पली, पढ़ी पीढी को भी कचोटने की क्षमता रखे |         

हेम पन्त:
क्या गजब लिख दिया ठैरा देवेन्द्र जी ने... आज बहुत दिनों बाद कुछ पङने के दौरान शरीर में "झुरझुराट" जैसी महसूस की.  इतनी ईमानदारी से सच्ची बात बोल देने के लिये भी ’पहाङी दिल" होना चाहिये... दिल्ली, मुम्बई और मैदान के अन्य शहरों में रहकर दो रोटी की जुगत भिङाते हुए अपने अन्दर एक ठेठ पहाङी को जिन्दा रख पाना भी एक छोटा सा संघर्ष जैसा ही है...


--- Quote from: hem on September 27, 2008, 01:38:42 PM ---
पर फुर्सत के क्षणों में जब कभी मैं सोचता हूँ तो लगता है     कि  क्या वह देबिया ही नहीं, जो हमारी तथाकथित गंवाड़ी सभ्यता को जिंदा रखने के लिए निरंतर जूझ रहा है और हमें हमारी 'सभ्यता' की परवाह किए बिना यह अहसास कराने से बाज नहीं आता   कि अपनी मिट्टी  की सोंधैन इन कपडों में लगे सेंट से अच्छी  है |
(समाप्त)  

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   लेकिन देबिया केवल उन्हीं प्रवासियों के पीछे पड़ा रहता है जिनका बचपन पहाड़ में बीता है. आज देबिया के एक नए संस्करण की जरूरत है जो प्रवास में ही पैदा हुई, पली, पढ़ी पीढी को भी कचोटने की क्षमता रखे |         

--- End quote ---

hem:
उत्तराखंड के पहाड़ों  की एक प्रमुख समस्या पलायन है, जिसका मुख्य कारण है -रोजगार की खोज | एक बार पलायन हो जाने के बाद बुनियादी सुविधाओं का अभाव व्यक्ति को वापस लौटने से भी रोकता है | अर्थात् रोजगार की अनुपलब्धता और बुनियादी सुविधाओं का अभाव पहाडों की दो प्रमुख समस्याएं हैं | यहाँ पर हम रोजगार संबन्धी कुछ चर्चा करेंगे |

यह तो तय है कि पहाड़ों से पलायन रोकने हेतु रोजगार के अवसर बढाने होंगे | केवल सरकारी नौकरियों के भरोसे समस्या का हल नहीं निकल सकता |रोजगार की समस्या का समाधान तो मुख्यतः राज्य सरकार ही कर सकती है | पर्यटन को बढ़ावा इस का एक पहलू है | पर्यटन के बढ़ावे के साथ-साथ सम्बंधित रोजगार भी बढेंगे | उदाहरणतः पाताल भुवनेश्वर और हाटकाली जैसे दर्शनीय स्थल जो पास-पास हैं, के निकट समर्थ  पर्यटकों के लिए सर्किट हाउस या अच्छे होटल की व्यवस्था हो; वहीं अधिक खर्च न कर सकने वाले पर्यटक निकटवर्ती गाँव के मकानों में अस्थाई किराए पर रह सकते हैं | इससे खाली मकानों का भी उपयोग हो जायेगा और स्थानीय रहवासियों को आमदनी का एक जरिया मिल जायेगा | शिर्डी के रहवासियों का मुख्य स्रोत इसी तरह का अस्थायी किराया है | लेकिन यह सब तभी सम्भव है जब पर्यटन हेतु अन्य मूलभूत सुविधायें भी उपलब्ध हों|

बहरहाल मैं यहाँ रोजगार के एक अन्य साधन पर जोर देना चाह रहा हूँ, जो प्रवासी पर्वतीयों हेतु भी लागू होता है  और वह है - स्वरोजगार | पर्वतीयों ने ( यहाँ पर्वतीयों से मेरा तात्पर्य उत्तराखंडियों से है ) शिक्षा, साहित्य, राजनीति, विशिष्ट सरकारी नौकरियों , फ़िल्म, विज्ञापन , खेल आदि में अपना नाम कमाया है | संभवतः व्यापार ही वह अछूता क्षेत्र है जहाँ हमारी पहुँच विशिष्टता की हद तक नहीं पहुँच पायी है |       

इसका मुख्य कारण यह है कि हमारी मानसिकता व्यापार के अनुकूल नहीं है | हम १० से पाँच की ड्यूटी,पहली तारीख को तनख्वाह और रिटायरमेंट के बाद पेंसन वाला कामज्यादा पसंद करते हैं | मारवाड़ियों, गुजरातियों,सिंधियों,जैनियों,बनियों या बोहरों(मुसलमान) की तरह हमारे खून में व्यापार नहीं है | लेकिन मेरा विश्वास है कि हम पहल और प्रयत्न करेंगे तो इस क्षेत्र में भी कोई निरमा वाला, पानपरागवाला , गुलशनकुमार , नारायणमूर्ती या अम्बानी सरीखा पहाड़ी निकल ही आयेगा | ये सभी लोग अपने बूते पर शिखर में पहुंचे हैं |

खैर यह तो बहुत आगे की बात हो गयी | मैं जो बात कहना चाह रहा हूँ वह है कि हमें बहुत छोटी-छोटी नौकरियों की अपेक्षा स्वरोजगार पर भी ध्यान देना चाहिए | इसके लिए सबसे पहले तो यह विचार दिमाग से बिल्कुल निकाल दीजिये कि व्यापार के लिए बहुत बड़ी पूंजी की आवश्यकता होती ही है | बहुत से ऐसे काम हैं जो छोटी-मोटी पूंजी से भी प्रारम्भ किए जा सकते है. उदाहरणतः यदि आप ऐसे शहर में हैं जहाँ डी.टी.पी.कम्पोजिंग की सुविधा उपलब्ध है,( आजकल तमाम कस्बों में यह सुविधा है ) तो स्क्रीन प्रिंटिंग का काम महज पाँच हजार रूपये से शुरू किया जा सकता है -वह भी अपने निवास स्थान पर ही | इसी प्रकार के अन्य धंधे अपनी सुविधानुसार, अपने संसाधनों को देखते हुए , मार्केट का अध्ययन करते हुए शुरू किए जा सकते हैं | जरूरत है थोड़ा हिम्मत करने की |
       
मैं स्वरोजगार की बात इस लिए भी कर रहा हूँ कि मैंने कुछ उत्तराखंडियों को बहुत ही छोटी- छोटी नौकरियां करते हुए पाया है | यह नौकरियां न तो सम्मानजनक कही जा सकती हैं और न उन्हें पर्याप्त वेतन प्राप्त हो पाता  है | ऐसे लोगों को अवश्य स्वरोजगार हेतु प्रयत्न करना चाहिए | महानगरों या बड़े शहरों में छोटे-छोटे होटल या  ढाबों में बर्तन मांजने या खाना बनाने वाले पहाड़ी  तो मिल जायेंगे लेकिन कबाड़े का धंधा करने वाले या फेरी लगाने वाले नहीं मिलेंगे|   

कुछ लोगों को लग सकता है कि वे न तो बैंक से मदद ले सकते हैं और न पर्याप्त छोटी पूंजी का ही प्रबंध कर सकते हैं,ऐसे लोग अपने निकट रिश्तेदारों या परिचितों से कर्ज ले सकते हैं | शर्त यह है कि कर्ज उचित ब्याज सहित समय पर लौटाया जाए | मैंने पाया है कि पहाड़ी निकट रिश्तेदारी या दोस्ती  में ब्याज  लेना भी उचित नहीं समझते | मैंने  एक पहाड़ी को दूसरे पहाड़ी की  सहायता हेतु बैंक की  एफ डी तुड़वाते देखा | जब सहायता प्राप्त करने वाले व्यक्ति ने पैसा लौटाते समय ब्याज की हानि की भरपाई करनी चाही तो लेने वाले ने स्पष्ट मना कर दिया | उधार लेने वाले व्यक्ति ने भी यह नहीं कहना चाहिए- 'बड़ डबल दीं | पुर ब्याज लै त ल्हे |'  व्यापारी जातियों में पिता-पुत्र या भाई बहन के बीच ब्याज का लेनदेन सामान्य बात है |
   
 एक कार्यक्रम में मैं , जाति से कायस्थ एक व्यंगकार का भाषण सुन रहा था | वे बोले कायस्थों के शादी-बाज़ार में व्यापारी वर की वेल्यु सबसे कम है | यही हाल पहाड़ी समाज में भी है | लेकिन समय के साथ यह धारणा धीरे-धीरे बदल रही है |
 
वैसे अब बहुत से उत्तराखंडियों ने व्यापार के क्षेत्र में कदम रखना शुरू कर दिया है और वे अपने व्यापार से सम्मानजनक कमाई भी  कर रहे हैं, जैसा मेरा पहाड़ के 'उत्तराखंडियों के छोटे-छोटे व्यवसाय ' में भी दिखाई देता है |  जैसा में कह च्रुका हूँ कि  उत्तराखंडी  अन्य अनेक क्षेत्रों में विशिष्टता हासिल कर चुके हैं | आशा है इस क्षेत्र में भी कोई बिज़नस टायकून अवश्य आयेगा |   

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