एक कविता-
मेरा पहाड़
मेरे गांव के एक चबूतरे में,
मेरे नाम का भी एक पत्थर था,
इन पत्थरों के शहर में,
गुमनाम सा हो गया हूं।
माता-पिता, गुरु-मित्रों का,
होनहार "होशियार" था मैं,
कठोर मुकाबलों के इस दौर में,
शायद नाकाम हो गया हूं।
जुड़ा था, शिखर-शिलाओं से,
बस बह गया, गंगा तेरे प्रवाह में,
बहता-लुढ़कता, टूटता-फूटता,
शिला से पत्थर, फिर कंकड़, आम हो गया हूं।
मैदानों में चलते-चलते,
छोड़ छोर सब पीछे अपने,
कंकड़ से बालू, रेत, मिट्टी, बस
निर्माण का सामान सा हो गया हूं।
ओ भागीरथी! क्या मुझे तुम,
पुनः स्थापित कर सकोगी, गंगोत्री तट पर?
हिम शिलाओं, श्रृंखलाओं मे?
मैं तो यहां बेदम सा खो गया हूं॥