Author Topic: Articles by Mani Ram Sharma -मनी राम शर्मा जी के लेख  (Read 78476 times)

Mani Ram Sharma

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वकीलों से सावधान ......
« Reply #30 on: March 30, 2013, 06:27:59 AM »
जी हाँ ! क्या आपने वकील नियुक्त करने पूर्व कभी वकालतनामे का अवलोकन किया है ? यदि नहीं तो उपयुक्त समय आने पर अब अवश्य करें| वैसे वास्तविकता तो यह है कि वकालतनामें का मुवक्किलों ने तो क्या अधिकांश वकीलों ने भी अवलोकन नहीं किया होगा| आप पाएंगे कि इसमें समस्त शर्तें आपके हित के विपरीत हैं और आप के अनुकूल मुश्किल से ही कोई शर्त होगी| इनमें समस्त दायित्व आप (मुवक्किल) पर डाला गया है और वकील साहब ने कोई जिम्मेदारी नहीं ली है|  इस महान भारतभूमि में कानून एवं न्याय तंत्र (मुकदमेबाजी उद्योग) अभी भी स्थापित (अस्वस्थ) परम्पराओं पर ही चल रहा है| कानूनी प्रावधान का सहारा लेना स्वछन्द  विचरण करने वाले न तो वकील मुनासिब समझते हैं और न ही न्यायाधीश| इस तथ्य के समर्थन में मैं कहना चाहूँगा कि हाल ही में मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा अपर सत्र न्यायाधीश के पद के लिए लगभग सम्पूर्ण भारत के 3000 वकीलों ने परीक्षा दी थी और परिणाम बड़े ही दुखद रहे| प्रारंभिक परीक्षा में मात्र 226 परीक्षार्थी  ही उत्तीर्ण हुए| मुख्य परीक्षा में 22 परीक्षार्थियों के अलग अलग पेपरों में शून्य अंक था व उत्तीर्ण होने हेतु आवश्यक (आरक्षित श्रेणी 33% व सामान्य श्रेणी 40%) अंक एक भी परीक्षार्थी  प्राप्त नहीं कर सका| मात्र 6 परीक्षार्थी ही 35% अंक प्राप्त कर पाए| देश में विधि व्यवसाय में न तो सम्यक ज्ञान की आवश्यकता है और न ही ज्ञानवान लोग इस व्यवसाय में आना उचित समझते हैं|  यही नहीं गत वर्ष राजस्थान उच्च न्यायालय ने विधिक शोध सहायक के लिए परीक्षा ली थी जिसमें भी एक भी परीक्षार्थी उत्तीर्ण नहीं हुआ और अब यह भर्ती मात्र साक्षात्कार के आधार पर ली गयी है| राजस्थान उच्च न्यायालय में दो वर्ष पूर्व अपर सत्र न्यायाधीशों के पद पर हुई भर्ती में माननीय मुख्य न्यायाधिपति जगदीश भल्ला पर भ्रष्टाचार के आरोप किस तरह लगे थे और अंततोगत्वा वह भर्ती निरस्त हुई इसे सारा भारत जानता है|

देश में कानून बनाने के लिए परामर्श देने हेतु विधि योग कार्यरत है जिसके सदस्य जानेमाने न्यायविद, अनुभवी न्यायाधीश और वकील होते हैं| स्वतन्त्रता के बाद देश में अधिकांश विधि एवं न्याय मंत्री भी अनुभवी वकील रहे हैं| हमारे सांसदों में भी एक बड़ा हिस्सा विधि की शिक्षा प्राप्त तबके का है| देश में कानून और न्याय व्यस्था की स्थिति पाठकों के सामने है जो गवाही देती है कि हमारी कानून निर्माण और ज्ञान की गुणवता किस स्तर की है| अभी हमारे गृह मंत्री, जोकि पेशे से स्वयम एक वकील हैं,  ने यातनाओं के विषय में एक विधेयक रखा था| इस विधेयक में कुल 7 धाराएं हैं जिनमें से 5 धाराएं तो औपचारिक हैं और मात्र दो धाराओं में अपराध व उनकी सजाओं को परिभाषित किया गया है| इन दो धाराओं में से भी एक धारा में गंभीर उपहति और प्राण को खतरे से सम्बंधित हो जो दंड संहिता में पहले से विद्यमान है| शेष अन्य प्रकार की यातनाओं को इस विधेयक में कोई स्थान नहीं दिया गया है जबकि पुलिस द्वारा नाना प्रकार की और नई नई यातनाएं दी जाती हैं किन्तु वे सब अधिनियम के दायरे से मुक्त हैं| दूसरी ओर फिलिपिन्स कि ओर देखें तो उन्होंने इसी विषय पर 27 धाराओं वाला व्यापक कानून  बनाया है जिसमें हर संभव प्रयास किया गया है कि सभी प्रकार की यातनाएं अधिनियम के दायरे में आयें और उनमें उपचार उपलब्ध हो| इस अधिनियम में 30 से अधिक प्रकार की यातनाओं की उदाहरणात्मक सूची देते हुए स्पष्ट किया गया है कि यह सूची मात्र नमूना है किन्तु यातना के अन्य प्रकारों को सीमित नहीं करती है| फिलिपींस की आबादी मात्र 9 करोड़ है जिसमें इतने अच्छे कानून के ज्ञाता लोग हैं जितने भारत की 125 करोड़ की आबादी में भी उपलब्ध नहीं हैं| इससे न केवल देश में विधि के ज्ञान बल्कि लोगों की संवेदनशीलता, गहन चिंतन और विधि के विषय में शोध  के स्तर का भी पता चलता है| यह भी संकेत मिलता है कि देश का विधि व्यवसाय ज्ञान और शोध के स्थान पर अन्य आधारों पर संचालित है| 
     
वकीलों का मुख्य-कार्य तकनीकी बारीकियों के आधार पर मामले उलझाकर उन्हें लंबा खेंचना है| इसी तथ्य को ध्यान में रखकर परिवार न्यायालयों में वकीलों के माध्यम से पैरवी की मनाही है| श्रम आयुक्तों के यहाँ भी वकील की अनुमति नहीं है| बहुत से राज्य सूचना आयोगों ने भी वकील के माध्यम पैरवी को प्रतिबंधित कर रखा है|
प्रायः वकालतनामों में शर्त होती है कि कि यदि किसी तारीख पेशी पर वकील साहब उपस्थित नहीं हुए और कोई प्रतिकूल आदेश पारित हो गया तो यह दायित्व भी मुवक्किल का ही होगा क्योंकि वकालतनामें में मुवक्किल द्वारा  यह भी परिवचन (अंडर्टेकिंग) दी जाती है कि वह हर तारीख पेशी पर हाजिर होगा| अधिकांश वकालतनामों में यह भी लिखा होता है कि देरी के लिए हर्जा खर्चा देना पड़ा तो मुवक्किल देगा और प्राप्त होने पर यह माल वकील साहब का होगा| विडम्बना यह है कि हमारे कानूनविदों ने अभी तक वकालतनामें का कोई मानक प्रारूप निर्धारित नहीं किया है और वकीलों और भूतपूर्व वकीलों(न्यायाधीशों) के मध्य यह दुरभि संधि चली आरही है| वैसे विलम्ब से प्रायः प्रार्थी पक्ष को हानि होती है अतः इसके लिए मिलने वाली क्षतिपूर्ति पर पक्षकार का ही अधिकार बनता है| सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 35 ख में भी यह प्रावधान है कि विलम्ब के लिए पक्षकार को क्षतिपूर्ति दी जायेगी| किन्तु इसके बावजूद वकालतनामें में विधिविरुद्ध प्रावधान रखे जाते हैं और हमारी विकलांग न्याय व्यवस्था मूक दर्शक बने यह सब देखती  रहती  है|

यहाँ यह उल्लेख करना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपनी वेबसाइट पर वकालतनामें का प्रारूप दे रखा था उसमें भी वकीलों के लिए बहुत ही अनुकूल शर्तें हैं| इस वकालतनामें में कहा गया है कि दी गयी फीस वापिस नहीं होगी और यह फीस मात्र तीन वर्ष के लिए है व यदि मुक़दमा अधिक अवधि तक चला तो प्रत्येक अतिरिक्त तीन वर्ष की अवधि के लिए तयशुदा फीस की आधी फीस और दी जायेगी| अब आप सोचें जब वकालतनामें में मुवक्किल के लिए ऐसी आत्मघाती शर्तें थोपी गयीं हों तो वकील साहब क्यों कर मुकदमें का जल्दी निपटान चाहेंगे| प्रश्न यह है कि मुवक्किल ने तो मुकदमे का निपटान करवाने के लिए वकील नियुक्त किया है न कि वकील को एक कमरे की तरह किराये पर लिया है ताकि अवधि के अनुसार उसे फीस/किराया देना पड़ेगा| सिद्धांततः वकील के दुराचरण के लिए बार काउन्सिल में शिकायत की जा सकती है और उपभोक्ता मंच में भी परिवाद पेश किया जा सकता है किन्तु बार काउन्सिल तो वकीलों का एक बंद क्लब मात्र ही है और उपभोक्ता मंच भी उसी प्रकार के एक न्यायाधीश द्वारा अध्याक्षित है जिन्होंने  ऐसा सुन्दर वकालतनामा अपनी वेबसाइट पर दे रखा है| मुवक्किलों को इनसे राहत की संभावनाएं नगण्य नहीं तो धूमिल अवश्य हैं|  अतः सावधान रहें ....

Mani Ram Sharma

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[justify]जापान के संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि हम जापानी जो कि हमारी संसद के लिए विधिवत चुने गए प्रतिनिधियों  के माध्यम से हमारे तथा भावी पीढ़ियों के लिए समस्त देशों के साथ शांतिपूर्ण सहयोग से फलीभूत होने का निश्चय करते हैं और सम्पूर्ण राष्ट्र में स्वतंत्रता,  और हम पुनः कभी भी युद्ध के आतंक के भुगत भोगी न हों का शुभवचन, और यह घोषणा करते हैं कि संप्रभुता की समस्त शक्तियाँ लोगों में निहित हैं तथा दृढतापूर्वक इस संविधान की स्थापना करते हैं| सरकार लोगों का पवित्र विश्वास है, जिसके लिए लोगों से अधिकृति प्राप्त की गयी है, जिसकी शक्तियाँ जन प्रतिनिधियों द्वारा प्रयुक्त की गयी हैं और जिसके लाभों का लोग उपभोग कर रहे हैं| यह विश्व मानवजाति का सार्वभौम सिद्धांत है जिस पर यह संविधान आधारित है| हम उन समस्त संविधानों, कानूनों, अध्यादेशों, और उल्लेखों को अस्वीकार और खंडित करते हैं जो संविधान के विपरीत हों|

हम जापानी लोग सदैव के लिए शांति चाहते हैं और मानव संबंधों से व्यवहार करने वाले समस्त आदर्शों के प्रति गहनता से सजग हैं, और विश्व के शांतिप्रिय लोगों में विश्वास व न्याय में आस्था के साथ हमारे अस्तित्व व सुरक्षा को सुनिश्चित करने के प्रति कृत संकल्प हैं| हम विश्व में शांति की स्थापना के लिए प्रयासशील विश्व समुदाय में सम्मानजनक स्थान धारण करना चाहते हैं और उत्पीडन और दासता, असहिष्णुता व शोषण को पृथ्वी पर से हमेशा के लिए प्रतिबंधित करना चाहते हैं| हमारी मान्यता है कि विश्व में सभी लोगों को भय और अभाव से मुक्त  शांतिपूर्ण जीवन जीने का अधिकार है| हमारा विश्वास है कि कोई भी अकेला राष्ट्र इसके लिए जिम्मेदार नहीं है अपितु राजनैतिकता के कानून सार्वभौमिक हैं, और ऐसे कानूनों का अनुपालन, जो अपनी संप्रभुता को रखना चाहते हैं व अन्य राष्ट्रों के साथ अपने सम्प्रभुत्वयुक्त संबंधों को न्यायोचित ठहराते हैं, ऐसे समस्त राष्ट्रों का दायित्व है| हम जापानी लोग इन उच्च आदर्शों और उद्देश्यों की पूर्ति में हमारा रष्ट्रीय गौरव  समझते हैं|

जापानी संविधान के अनुच्छेद 11 के अनुसार लोगों को किसी मौलिक मानवाधिकार का भोग करने से नहीं रोका जायेगा| इस संविधान द्वारा गारंटीकृत ये मौलिक मानवाधिकार इस व भावी पीढ़ियों को शाश्वत और न छिनने योग्य रूप में प्रदत किये जाते हैं| इस संविधान द्वारा गारंटीकृत स्वतंत्रताएँ और अधिकार लोगों के अथक प्रयासों से अक्षुण्ण बनाये रखे जायेंगे जोकि इन स्वतन्त्रताओं व अधिकारों का दुरुपयोग करने से परहेज करेंगे और सदैव जन कल्याण के लिए इनका प्रयोग करने के लिए  जिम्मेदार होंगे| आगे अनुच्छेद 13 में कहा गया है कि सभी लोगों का व्यक्ति के तौर पर सम्मान किया जायेगा| उनके  जीवन, स्वतंत्रता के  अधिकार, खुशहाली  का अनुसरण जहाँ तक सार्वजनिक कल्याण में हस्तक्षेप नहीं करेंगे कानून निर्माण व  अन्य राजकीय मामलात में सर्वोच्च होंगे|
कानून के अधीन सभी लोग समान हैं और उनमें राजनैतिक, आर्थिक या जाति, वंश, लिंग, सामाजिक हैसियत, या परिवार के उद्भव के सामाजिक संबंधों के आधार पर भेदभाव नहीं किया जायेगा| किसी सम्मान, अलंकरण या अन्य भेदभाव का कोई विशेषाधिकार नहीं होगा और न ही ऐसा पारितोषिक जिसे दिया जाता है या इसके बाद प्राप्त किया जाता है ऐसे व्यक्ति के जीवन के पश्चात वैध होगा| लोगों को अपने लोक पदाधिकारी  चुनने और निरस्त करने का अहस्तांतरणीय अधिकार देते हैं| समस्त लोक पदाधिकारी सम्पूर्ण समाज के लोक सेवक होंगे और किसी समूह के नहीं| [जबकि भारत में प्रतिनिधि का चुनाव निरस्त करने का जनता को अधिकार नहीं है|]
लोक पदाधिकारियों के चयन में सार्वभौमिक वयस्कता की गारंटी होगी| समस्त चुनावों में मतपत्र की गोपनीयता का उल्लंघन नहीं होगा| एक मतदाता अपने द्वारा दी गयी पसंद के लिए, व्यक्तिगत या सार्वजनिक रूप से, जवाबदेय नहीं होगा|
आगे अनुच्छेद 16 में कहा गया है कि प्रत्येक नागरिक को हानि के निवारण, लोक पदाधिकारी को हटाने, कानून, अध्यादेश या विनियमों तथा  अन्य मामलों  में परिवर्तन, बनाने या निरस्त करने  के लिए शांतिपूर्ण तरीके से मांग करने का अधिकार होगा, ऐसी याचिका के प्रयोजन, में किसी भी व्यक्ति के साथ भेदभाव नहीं किया जायेगा| [भारत में रामदेव बाबा और अन्ना के साथ एक ही मुद्दे के लिए हुए भिन्न भिन्न व्यवहार जनता के सामने हैं|] यदि किसी लोक पदाधिकारी के अवैध कृत्य से किसी नागरिक को हानि पहुंची हो तो वह राज्य या लोक अधिकारी के विरुद्ध प्रतितोष के लिए दावा कर सकेगा| [भारतीय संविधान में ऐसे सुन्दर प्रावधान का अभाव खलता है|] किसी भी व्यक्ति को किसी प्रकार से बंधुआ नहीं रखा जायेगा| अपराध के लिए दण्ड के अतिरिक्त किसी से भी बेगार नहीं ली जायेगी|
विचार एवं अंतरात्मा की स्वतंत्रता का उल्लंघन नहीं होगा| धर्म की स्वतंत्रता की सभी को गारंटी दी जाती है| कोई भी धार्मिक संगठन राज्य से कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं करेगा और न ही कोई राजनैतिक प्राधिकार का प्रयोग करेगा| [हमारी कायर व कथित धर्म निरपेक्ष सरकारें तो धार्मिक यात्राओं के लिए राजकीय अनुदान तक देती हैं|] किसी भी व्यक्ति को  किसी धार्मिक कार्य, उत्सव, संस्कार, या रिवाज़ में भाग लेने के लिए विवश नहीं किया जायेगा| राज्य और उसके अंग धार्मिक शिक्षा देने या अन्य धार्मिक गतिविधि से दूर रहेंगे| भाषण के साथ साथ सभा तथा संगठन बनाने, प्रेस और अभिव्यक्ति के अन्य प्रारूपों की गारंटी होगी| न तो कोई सेंसरशिप लगायी जायेगी और न ही संचार के किसी साधन में गोपनीयता का अतिक्रमण होगा| [सेंसरशिप और पुलिस बल की कर्कश आवाज़ और  क्रूरता का उपयोग तो हमारी सरकारों की आधारसिला है, भला इन सबके बिना सरकारें चल ही कैसे सकती हैं|]
प्रत्येक व्यक्ति को अपना निवास चुनने और परिवर्तित करने का तथा इस सीमा तक व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता होगी जहाँ तक यह सार्वजनिक कल्याण में हस्तक्षेप नहीं करता है| समस्त लोगों की विदेश जाने और अपनी राष्ट्रीयता छोडने  की स्वतंत्रता का अतिक्रमण नहीं किया जायेगा| शिक्षा की स्वतंत्रता की गारंटी है| विवाह दोनों लिंगों की सहमति पर आधारित होगा तथा यह पति-पत्नी के समान अधिकारों पर पारस्परिक सहयोग पर बनाये रखा जायेगा| जीवन साथी का चयन, सम्पति सम्बंधित अधिकार, विरासत, अधिवास का चयन, तलाक तथा विवाह व परिवार सम्बन्धित अन्य मामलों में दोनों लिंगों की समानता तथा गरिमा को दृष्टिगत रखते हुए कानून बनाये जायेंगे| 
आगे अनुच्छेद 25 में कहा गया है कि सभी लोगों को न्यूनतम हितकर स्तर और सांस्कृतिक जीवन धारित करने का अधिकार है| राज्य जीवन के सभी क्षेत्रों में समाज कल्याण व सुरक्षा तथा जन स्वास्थ्य का विस्तार और प्रोन्नति करने का  हर संभव प्रयास करेगा| विधि के प्रावधानों के अनुसार सभी लोगों को अपनी क्षमता के अनुसार समान शिक्षा का अधिकार होगा| सभी लोगों का यह दायित्व होगा कि उनके संरक्षण के अधीन सभी लडकियों और लड़कों को कानून के अनुसार सामान्य शिक्षा दिलवाएं| ऐसी अनिवार्य शिक्षा निःशुल्क होगी| सभी लोगों का कार्य करना दायित्व व अधिकार है| मजदूरी का स्तर, घंटे, और अन्य कार्य दशाएं, कानून द्वारा निर्धारित की जाएँगी| बच्चों का शोषण नहीं होगा|
आगे अनुच्छेद 28 में कहा गया है कि श्रमिकों के संगठित होने और सौदेबाजी करने व सामूहिक कार्य करने के अधिकार की गारंटी है| सम्पति धारण करने या रखने के अधिकार का अतिक्रमण नहीं होगा| [सम्पति सम्बंधित अधिकार अब भारतीय संविधान में समाहित मूल अधिकारों की सूची में से हटा दिया गया है|] सम्पति की परिभाषा समाज कल्याण के अनुरूप विधि द्वरा परिभाषित होगी| [भारत में सार्वजनिक सम्पति टू जी जैसे घोटालों के माध्यम से लुटा दी जाती है और हमारे माननीय प्रधान मंत्री इसे गठबंधन की विवशता कहकर पल्ला झाड लेते हैं| हमारे नेतृत्व के लिए देश और संविधान से बड़ी सरकार है|] किसी भी व्यक्ति को न्यायालय तक पहुँच मना नहीं की जायेगी| [भारत में तो न्यायालय के लिपिक ही न्यायालय तक पहुँच को बाधित करने के लिए  सशक्त हैं| कई मामलों में राजीनामा करते समय या अन्यथा सरकारें या उनकी एजेंसियां न्यायालय में नहीं जाने के लिए नागरिकों से लिखित अंडरटेकिंग ले लेती हैं और सरकार का पक्षपोषण करने वाले माननीय न्यायालय उन विधि विरुद्ध अंडरटेकिंग दस्तावेजों को मान्यता भी दे देते हैं|] किसी भी व्यक्ति को सक्षम न्यायिक अधिकारी द्वारा वारंट जारी किये बिना जिसमें कि आरोपित व्यक्ति पर अपराध को बताया गया हो, व यदि उसे पकड़ा नहीं जाता, तो अपराध हो जाता, गिरफ्तार नहीं किया जायेगा| [भारत में तो पुलिस सर्वशक्तिमान है वह जब, जहां चाहे, जिसे किसी भी बनावटी आरोप में गिरफ्तार कर सकती है और न्यायालय में जाने पर भी ऐसे पुलिस अधिकारी का कुछ नहीं बिगडता है|]
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Mani Ram Sharma

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[justify]जापान के संविधान के अनुच्छेद 35 में आगे प्रावधान है कि समस्त लोगों का अपने घरों में, कागजात और सामान का प्रवेश, तलाशी और जब्ती के प्रति  सुरक्षित रहने के अधिकार का पर्याप्त कारण और विशेष रूप से तलाशी के स्थान और तलाशी की वस्तुओं का उल्लेख  सहित जारी वारंट या अनुच्छेद 33 में प्रावधान  के अतिरिक्त  अतिक्रमण नहीं किया जायेगा| प्रत्येक तलाशी या  जब्ती सक्षम न्यायिक अधिकारी द्वारा अलग अलग जारी वारंट से की जायेगी| किसी भी लोक अधिकारी द्वारा यातना और निर्दयी दण्ड पूर्णतया मना  है|[ भारत में पुलिस यातनाएं एक सामान्य बात है और यातनाओं  से अपराधी से जुर्म आदि कबुलाना भारतीय आपराधिक न्यायतंत्र का अभिन्न अंग है|] प्रत्येक आपराधिक मामले में अभियुक्त को निष्पक्ष ट्राइब्यूनल द्वारा त्वरित व सार्वजानिक विचारण का अधिकार है| [भारत में तो ऐसे प्रावधान का नितांत अभाव है और अपराध के लिए निर्धारित दण्ड से अधिक अवधि तक कारागार में रहने के बावजूद विचारण पूर्ण नहीं होता|] उसे समस्त गवाहों की परीक्षा हेतु पूर्ण अवसर दिया जायेगा और उसे सार्वजनिक व्यय पर अनिवार्य प्रक्रिया से समस्त गवाहों को आहूत करने का अधिकार होगा| अभियुक्त हमेशा सक्षम परामर्शी की सहायता ले सकेगा , यदि अभियुक्त अपने प्रयासों से यह प्राप्त नहीं कर सके तो राज्य द्वारा उपलब्ध करवाया जायेगा|
किसी भी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध गवाही देने के लिए विवश नहीं किया जायेगा| यातना, धमकी, लंबी गिरफ़्तारी या बंदीकरण, विवशता से प्राप्त  दोष संस्वीकृति  साक्ष्य में ग्राह्य नहीं होगी| मात्र स्वयं की संस्वीकृति के प्रमाण के आधार पर किसी भी व्यक्ति को दोषसिद्ध या दण्डित नहीं किया जायेगा| अनुच्छेद 40 में आगे प्रावधान है कि कोई भी व्यक्ति जिसे गिरफ्तार करने या निरुद्ध करने के पश्चात दोषमुक्त कर दिया गया हो विधि के प्रावधानों के अनुसार प्रतितोष के लिए राज्य पर वाद ला सकेगा| [भारत में ऐसे प्रावधानों का नितांत अभाव है जिससे पुलिस का आचरण स्वछन्द है|]

अनुच्छेद 41 में आगे प्रावधान है कि डाईट (संसद) राज्य शक्ति का सर्वोच्च अंग होगी, और राज्य का विधि बनाने वाला एकमात्र अंग होगी| जब प्रतिनिधि (लोक) सभा भंग की जाये तो भंग किये जाने के 40 दिन के भीतर उसके सदस्यों के लिए आम चुनाव होंगे, और संसद की सभा चुनाव के 30 दिवस के भीतर संपन्न होगी| संसद, दोनों सदनों के सदस्यों में से, एक महाभियोग न्यायालय स्थापित करेगी जो उन न्यायाधीशों का विचारण करेगी जिन्हें हटाने के लिए प्रक्रिया प्रारंभ की गयी है| [भारत में न्यायपालिका नियंत्रणहीन  घोड़े के समान कार्य करती है| स्वतंत्र भारत के 64 वर्ष के इतिहास में न्यायिक भ्रष्टाचार के कई मामले गुंजायमान होने पर भी आज तक एक न्यायाधीश पर भी महाभियोग की प्रक्रिया पूर्ण नहीं हो सकी है जबकि जापान में महाभियोग न्यायालय सदन का एक स्थायी अंग है|] अनुच्छेद 76  में आगे कहा गया है कि  समस्त न्यायिक शक्तियाँ एक सर्वोच्च  न्यायालय और विधि द्वारा स्थापित अधीनस्थ न्यायालयों में निहित होंगी| न तो कोई विशेष ट्राइब्यूनल बनाया जायेगा और न ही किसी कार्यपालक एजेंसी या अंग को अंतिम न्यायिक शक्ति दी जायेगी| [भारत में न्यायिक न्यायालयों से ज्यादा संख्या में ट्राइब्यूनल्स कार्यरत हैं और इस प्रकार न्यायिक क्षेत्र में राज्य कार्यपालकों का हस्तक्षेप दिनों दिन बढ़ रहा है जिसे न्यायालयों का भी मूक समर्थन प्राप्त है|] समस्त न्यायाधीश अपनी अंतरात्मा के प्रयोग में स्वतंत्र होंगे और मात्र इस संविधान व कानूनों से बाध्य होंगे| अनुच्छेद 79 के अनुसार सुप्रीम कोर्ट (सर्वोच्च न्यायालय) में एक मुख्य न्यायाधीश और विधि द्वारा निर्धारित संख्या में न्यायाधीश होंगे, मुख्य न्यायाधीश को छोड़कर  ऐसे समस्त न्यायाधीश मंत्रिमंडल द्वारा नियुक्त किये जायेंगे| सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों की नियुक्ति उनकी नियुक्ति के बाद प्रथम आम चुनाव में लोगों द्वरा समीक्षा की जायेगी, और दस वर्ष के बाद संपन्न प्रथम चुनाव में पुनः समीक्षा की जायेगी और इसी प्रकार उसके बाद भी| इस पुनरीक्षा में यदि मतदाताओं का बहुमत, पूर्वोक्त पैरा में उल्लेखित मामले में, यदि एक न्यायाधीश की बर्खास्तगी के पक्ष में है तो उसे बर्खास्त कर दिया जायेगा|[इतिहास साक्षी है कि भारत में सरकार को तो अपदस्थ किया जा सकता है किन्तु न्यायाधीश को नहीं|]
 
निचले न्यायालयों के न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट द्वारा नामित न्यायाधीशों की सूची में से मंत्री मंडल द्वरा नियुक्त किये जायेंगे| ऐसे समस्त न्यायाधीश पुनः  नियुक्त के विशेषाधिकार सहित 10 वर्ष के लिए पद धारण करेंगे| [भारत में न्यायाधीशों की नियुक्ति में मुख्य न्यायाधीश की राय बाध्यकारी है| न्यायाधीश पद पर नियुक्ति होने बाद सेवानिवृति की आयु पूर्ण करने तक की लगभग गारंटी है| भारतीय लोक(?)तंत्र के पास अवांछनीय न्यायाधीशों को सहन करने अतिरिक्त व्यवहार में कोई विकल्प नहीं है|] सुप्रीम कोर्ट कानून, आदेश, विनियम  या शासकीय कृत्य की संवैधानिकता के निर्धारण की अंतिम शक्ति रखेगा| अनुच्छेद 82 में यह विशेष प्रावधान है कि  राजनैतिक अपराधों, प्रेस से सम्बंधित अपराधों या लोगों को गारंटीकृत अधिकारों से सम्बंधित मामलों की अन्वीक्षा हमेशा सार्वजानिक रूप में होगी|



उक्त विवरण से सपष्ट है कि जापानी लोगों का देश के प्रति समर्पण है और वे उच्च नैतिकता वाले हैं अतः वे शर्मनाक कार्य को सहन नहीं कर सकते| यही कारण है कि विश्व में जनसँख्या के अनुपात में सर्वाधिक आत्महत्याएं जापान में ही होती हैं| दूसरी और देखें तो यह भी सपष्ट है कि भारतीय एवं जापानी संविधान लगभग समकालीन ही हैं किन्तु हमारा संविधान तो एक स्थिर और जीवित मात्र दस्तावेज है और जापानी संविधान विकासशील राष्ट्र का दर्पण है| आज हमारी प्रतिव्यक्ति आय मात्र 35000 रुपये प्रतिवर्ष है जबकि हमारे पास विस्तृत कृषि योग्य भूभाग और समृद्ध वन, जल स्रोत  व खनिज सम्पदा है किन्तु जापान में प्रति व्यक्ति आय रुपये 2200000 प्रतिवर्ष है| उनके पास मात्र 1/6 भाग ही कृषि योग्य है शेष भाग पठारी और पहाड़ी है जिसमें भी लगातार भूकंप एवं ज्वालमुखी जैसी प्राकृतिक आपदाओं का खतरा मंडराता रहता है| उचित नियोजन के अभाव में भारत आज बाढ़ व अकाल दोनों से एकसाथ पीड़ित है|
हमारे नेतृत्व द्वारा भारतीय संविधान की भूरी भूरी प्रशंसा की जाती है और कहा जाता है कि हमारा संविधान विश्व के श्रेष्ठ संविधानों में से एक है| वास्तविकता क्या  है यह निर्णय विद्वान पाठकों के विवेक पर छोडते हुए लेख है कि मेरी सम्मति में तो हमारा संविधान कोई मौलिक कृति न होकर भारत सरकार अधिनयम,1935 का प्रतिरूप मात्र है| अब हमें  जागना है, अन्य प्रगतशील राष्ट्रों के संविधानों  से हमारे संविधान की तुलना करनी है और हमारे संविधान का सामन्तशाही कलेवर बदलकर इसे समसामयिक और जनतांत्रिक रूप देना है| 

जय भारत ,



 
 
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Mani Ram Sharma

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[justify]तुर्की के संविधान के अनुच्छेद 40 के अनुसार लोक पद धारण करने वाले व्यक्ति के अवैध कृत्यों से होने वाली हानि के लिए राज्य द्वारा पूर्ति की जाएगी| राज्य ऐसे अधिकारी के विरुद्ध अपना अधिकार सुरक्षित रखता है| भारत में ऐसे प्रावधान का नितांत अभाव है|  कानून में स्थापित व्यवस्था के अनुसार नागरिकों को मतदान और चुने जाने, व  राजनैतिक गतिविधियों या राजनैतिक पार्टी  में स्वतंत्रतापूर्वक संलग्न होने तथा रेफ्रेंडम में भाग लेने  का अधिकार है| भारत में ऐसे प्रावधान का नितांत अभाव है तथा मतदान का अधिकार एक सामान्य अधिकार है जिसके लिए कोई प्रभावी  उपचार कानून में उपलब्ध नहीं हैं | राजनैतिक वैमनस्य से या लापरवाही से मतदाताओं के नाम काटे जाना भारत में सामान्य सी घटना है |आस्ट्रेलिया जैसे देशों ने तो मताधिकार को मानवाधिकार के रूप में परिभाषित कर रखा है| तुर्की के संविधान के अनुसार  राजनैतिक पार्टियों की गतिविधियां, आतंरिक विनियम और क्रियाकलाप लोकतान्त्रिक  सिद्धांतों के अनुरूप होंगे| भारत में राजनैतिक पार्टियों के अपने विधान हैं जिनका देश के संविधान से कोई सरोकार नहीं है और उनमें अधिनायक वाद की बू आती है| यहाँ पार्टियां व्हिप जारी करके सदस्य को इच्छानुसार मतदान से रोक देती हैं | पार्टी सदस्य पार्टी के प्रतिनिधि अधिक व जनता के प्रतिनिधि कम होते हैं|
तुर्की के संविधान में नागरिकों और (पारस्परिकता के सिद्धांत पर) विदेशी निवासियों को सक्षम अधिकारी तथा टर्की की महाराष्ट्रीय सभा (संसद) को अपने या जनता से सम्बंधित प्रार्थना और शिकायतें लिखने का अधिकार है| स्वयं  से संबंधित आवेदन का परिणाम बिना विलम्ब के लिखित में सूचित किया जायेगा| भारत में यद्यपि ऐसी प्रक्रिय औपचारिक रूप में तो  विद्यमान है किन्तु सदनों के सचिवालयों ने इसे लगभग निष्क्रिय कर रखा है तथा व्यक्तिगत मामले इसके दायरे में नहीं आते हैं  व उनके निपटान की कोई समय सीमा निर्धारित नहीं होने से मनमानापन के अवसर अनंत रूप से खुले हैं| तुर्की के संविधान में चुनाव न्यायिक अंगों के सामान्य प्रशासन व पर्यवेक्षण में संपन्न होंगे| भारत में चुनावों के पर्यवेक्षण के लिए चुनाव आयोग जैसी संस्था अलग से कार्यरत है|
तुर्की के संविधान के अनुच्छेद 84 के अनुसार जो संसद सदस्य बिना अनुमति या कारण के एक माह में पांच बैठकों में उपस्थित होने में विफल रहता है उस स्थिति पर सदन का ब्यूरो बहुमत से निर्णय कर  सदस्यता निरस्त कर सकेगा|  भारत में ऐसे आवश्यक प्रावधान का नितांत अभाव है| संसद सदस्यों के वेतन, भत्ते और सेवानिवृति व्यवस्थाएं कानून द्वारा विनियमित की जाएँगी | सदस्य का मासिक वेतन वरिष्ठतम सिविल सेवक के वेतन से अधिक नहीं होगा व यात्रा भत्ता उस वेतन के आधे से अधिक नहीं होगा|  भारत में ऐसे स्पष्ट  प्रावधान का नितांत अभाव है और जन प्रतिनिधियों के वेतन भत्ते बढ़ाने के प्रस्ताव निर्बाध रूप से  सर्वसम्मति से ध्वनिमत से पारित किये जाते हैं| आगे अनुच्छेद 137 में कहा गया है कि लोक सेवा में रत कोई भी व्यक्ति, अपने पद और हैसियत पर बिना ध्यान दिए, यदि यह पाता है कि उसके वरिष्ठ द्वारा दिया गया कोई आदेश संविधान, या किन्ही उपनियमों, विनियमों, कानूनों  के प्रावधानों के विपरीत है तो उनकी अनुपालना नहीं करेगा, और ऐसे आदेश देने वाले अधिकारी को विसंगति के विषय में सूचित करेगा| फिर भी यदि उसका वरिष्ठ यदि आदेश पर बल देता है व उसका लिखित में नवीनीकरण  करता है तो उसके आदेश की पालना की जायेगी किन्तु ऐसी स्थिति में आदेश की अनुपालना करने वाला जिम्मेवार नहीं ठहराया जायेगा| भारत में ऐसे प्रावधान का नितांत अभाव है| एक आदेश यदि अपने आप में अपराध का गठन करता है तो किसी भी सूरत में उसकी अनुपालना नहीं की जायेगी, ऐसे आदेश की अनुपालना करने वाला अपने दायित्व से मुक्त नहीं होगा|

तुर्की के संविधान के अनुच्छेद 138 के अनुसार विधायी व कार्यपालक अंग तथा प्रशासन, न्यायालयों के निर्णयों का अनुपालन करेंगे; ये अंग  और प्रशासन उनमें किसी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं करेंगे और न ही उनकी पालना में कोई विलम्ब करेंगे| भारत में ऐसे  प्रावधान का नितांत अभाव है व स्वयं न्यायालय के कार्मिक भी  किसी न किसी बहाने से पालना से परहेज करते रहते हैं और न्याय प्रशासन मूक दर्शक बना रहता है| आगे  के अनुच्छेदों में कहा गया है कि समस्त न्यायलयों के निर्णय औचित्य के विवरण  के साथ लिखित में होंगे| भारत में ऐसे आवश्यक प्रावधान का नितांत अभाव है| न्यायपालिका  दायित्व है कि वह परीक्षण यथा संभव शीघ्र और न्यूनतम लगत पर पूर्ण करेंगे| भारत में ऐसे आवश्यक प्रावधान का नितांत अभाव है| न्यायाधीशों और  लोक अभियोजकों के कानून के अनुसार कर्तव्य निष्पादन के सम्बन्ध में इस बात का अनुसन्धान कि क्या उन्होंने कर्तव्य निर्वहन में कोई अपरध किया है, या उनका व्यवहार और प्रवृति उनकी  हैसियत और कर्तव्यों के अनुरूप है व यदि आवश्यक हो तो उनसे सम्बंधित जाँच  और अनुसन्धान न्याय मंत्रालय की अनुमति से न्यायिक निरीक्षकों द्वारा की जायेगी| न्याय मंत्री किसी न्यायाधीश या लोक अभियोजक, जो जांच किये जाने वाले न्यायधीश या लोक अभियोजक से वरिष्ठ हो, से  जांच की अपेक्षा कर सकेगा| भारत में ऐसे आवश्यक प्रावधान का नितांत अभाव है जिससे न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की अमरबेल फलफूल रही है| आगे  के अनुच्छेदों में कहा गया है कि संवैधानिक न्यायालय के स्थानपन्न या नियमित न्यायाधीश के पद पर नियुक्त होने के लिए उच्च संस्थान में अध्यापक, वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी और वकील का चालीस वर्ष से अधिक उम्र का होना आवश्यक होगा और उच्च शिक्षा पूर्ण करना  या उच्च शिक्षण संसथान में न्यूनतम पन्द्रह वर्ष का अध्यापन का अनुभव आवश्यक है या न्यूनतम  पन्द्रह वर्ष वकील के रूप में प्रैक्टिस या लोक सेवा में होना आवश्यक है| भारत में ऐसे आवश्यक प्रावधान का नितांत अभाव है| इंग्लैंड में भी इसी प्रकार की योग्यताएं लोर्ड चांसलर के लिए बताई गयी हैं किन्तु भारत में तो न्यायिक पद मात्र वकीलों के लिए सुरक्षित करके भ्रष्टाचार के लिए मानो एक चरगाह ही सुरक्षित कर लिया गया है|
अब पाठकगण से मेरा सादर अनुरोध है कि वे निर्णय करें कि हमारा संविधान किस प्रकार बेहतर है या हमें अनावश्यक महिमा मंडन करने का  उन्माद है| यदि देश की आतंरिक न्याय व्यवस्था शक्तिहीन और अलोकतांत्रिक रही तो जन विश्वास डगमगा सकता है व हमारा अस्तित्व ही संदिग्ध हो जायेगा| मेरा विचार है कि अब समय आ गया है कि हमें न्यायिक सुधारों के लिए मात्र देशीय चिंतन पर ही निर्भर  नहीं रहना है अपितु सीमा पार के अनुभवों का भी लाभ उठाना है तभी विश्व व्यापार में शामिल भारत अपने सशक्त अस्तित्व को प्रमाणित कर सकेगा|
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Mani Ram Sharma

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[justify]भारत में लोकतंत्र के कार्यकरण पर समय समय पर सवाल उठते रहे हैं| पारदर्शी एवम भ्रष्टाचारमुक्त शासन के लिए शक्तियों के  प्रयोग करने में पारदर्शिता और समय मानक निर्धारित होना आवश्यक है क्योंकि विलम्ब भ्रष्टाचार की जननी है|  इस दिशा में सूचना का अधिकार अधिनियम,2005 की धारा 4 (1) (b) (ii) में  सभी स्तर के अधिकारियों की शक्तियां स्वप्रेरणा से प्रकाशित करना बाध्यता है किन्तु सरकारों ने इसकी अभी तक अनुपालना नहीं की है और सचिवगण अपनी शक्तियों के अतिक्रमण में निर्णय ले रहे हैं व नीतिगत मामलों में जन परिवेदनाओं को, बिना किसी सक्षम जनप्रतिनिधि/प्रभारी की अनुमति के, सचिव स्तर पर ही निस्संकोच निरस्त कर  दिया जाता है| जो भी आंशिक सूचना अधिनियम की धारा 4 के अनुसरण में प्रकाशित कर रखी है वह बिखरी हुई है व एक स्थान  पर उपलब्ध नहीं होने से नागरिकों के लिए दुविधाजनक है| लोक प्राधिकारियों ने धारा 4(1)(b)(i) से लेकर 4(1)(b)(xvii) तक की भावनात्मक अनुपालना नहीं की है और धारा 4 (1) (b) (ii)  की तो बिलकुल भी अनुपालना नहीं की है| अत: अब धारा 4 (1) (b) (ii) की अनुपालना अविलम्ब  की जानी चाहिए और धारा 4 से सम्बंधित समस्त सूचना एक ही स्थान पर समेकित कर बिन्दुवार/धारा –उपधारावार  सहज दृश्य रूप में प्रदर्शित करने की व्यवस्था की जाये ताकि सुनिश्चित हो सके कि सभी प्रावधानों की अनुपालना कर दी गयी है व कोई प्रावधान अनुपालना से छूटा नहीं है|
एक मंत्रालय  की समस्त निर्णायक शक्तियां प्रभारी मंत्री में ही निहित हैं और उसे परामर्श देने और निर्णय में सहायता देने के लिए विभिन्न स्तर के सचिव  और कमेटियां हैं किन्तु उन्हें किसी भी नियम, नीति सम्बद्ध विषय या नागरिकों के प्रतिवेदन/याचिका  को स्वीकार करने का अधिकार नहीं है| स्वीकृति के साथ ही अस्वीकृति का अधिकार जुड़ा हुआ है| अत: स्वस्प्ष्ट है कि किसी भी स्तर के सचिव को किसी जन प्रतिवेदन/याचिका को अन्तिमत: अस्वीकार करने का कोई अधिकार किसी कानून, नियम, अधिसूचना, आदेश आदि में नहीं दिया गया है और न ही लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में ऐसा कोई अधिकार किसी सचिव को दिया जा सकता है|
विधायिकाओं के मामले में सरकार को निर्देश देने की शक्तियाँ भी आसन में ही समाहित हैं अत: ऐसे किसी निवेदन को सचिव स्तर पर नकारने का भी स्वाभाविक रूप से कोई अधिकार नहीं है| चूँकि प्रतिवेदन प्रस्तुत करने का यह अधिकार जनता को संविधान के अनुच्छेद 350 से प्राप्त है अत: इस मार्ग में बाधा उत्पन्न करने के लिए किसी भी आधार पर कोई भी सचिव प्राधिकृत नहीं है| यदि कोई प्रकरण वास्तव में स्वीकृति योग्य नहीं पाया जाए तो उसका अंतिम निर्णय भी सक्षम समिति या आसन ही कर सकता है| सदन की कार्यवाहियों की पवित्रता और श्रेष्ठता की सुरक्षा के लिए समस्त अधिकारियों को तदनुसार निर्दिष्ट किया जाना चाहिए और उनकी प्रशासनिक/निर्णायक शक्तियों/क्षेत्राधिकार को विधायिका की वेबसाइट पर सहज दृश्य रूप में प्रदर्शित किया जाए| 
प्रजातंत्र के सफल संचालन के लिए आवश्यक है कि जन प्रतिनिधि जन हित में निर्णय लें और उसके अनुरूप नीतियों, नियमों और कानूनों का निर्माण कर उन्हें लागू करने का दायित्व अधिकारियों पर छोड़ दें तथा समय समय पर अपने अधीनस्थों के कार्य की, यदि सम्पूर्ण जांच संभव न हो तो,  नमूना आधार पर जांच करते रहें कि वे उन निर्धारित नियमों की परिधि में ही कार्य कर रहे हैं| नीति भी कहती है कि राजा को सदैव विश्वासपात्र बना रहना चाहिए किन्तु उसे कभी भी किसी पर भी पूर्ण विश्वास  नहीं करना चाहिए| जन प्रतिनिधियों को रोजमर्रा के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए| जहाँ कहीं किसी नियम, नीति के अपवाद में को निर्णय लिया जाना हो वह मात्र सक्षम प्रभारी के अनुमोदन से ही लिया जाए| वास्तव में भारत में इससे ठीक विपरीत ढंग से कार्य हो रहा है अर्थात जन प्रतिनिधि रोजमर्रा के कार्यों में हस्तक्षेप करते हैं और अपने स्वामी भक्तों को ठेके, लाइसेंस आदि दिलाने में असाधारण रूचि रखते हैं| दूसरी ओर नीतिगत मामलों में जनता से प्राप्त प्रतिवेदनों को सचिव  स्तर पर, बिना प्रभारी मंत्री की अनुमति के, निरस्त कर दिया जाता है| इस प्रकार दोनों ही एक दूसरे के क्षेत्राधिकार में अतिक्रमण कर रहे हैं| शासन चलाना जनप्रतिनिधियों का कार्य है और प्रशासन चलाना अधिकारियों का कर्तव्य है| यदि नीतिगत मामलों में सचिव ही अंतिम निर्णय लेने लगें तो फिर देश में आपात स्थिति या राष्ट्रपति शासन  में और लोकतांत्रिक सरकार के कार्यरत होने में अंतर क्या रह जाएगा यह एक यक्ष प्रश्न है जिसका हमें भारतीय शासन प्रणाली में जवाब ढूंढना  है|     
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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Very good articles you have posted Sir.

Hope viewers must be going through these exclusive articles by you.

Mani Ram Sharma

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[justify]हमारे नेतृत्व द्वारा भारतीय संविधान की भूरी-भूरी प्रशंसा की जाती है और कहा जाता है कि हमारा संविधान विश्व के श्रेष्ठ संविधानों में से एक है| वास्तविकता क्या  है यह निर्णय पाठकों के विवेक पर छोडते हुए लेख है कि हमारा संविधान ब्रिटिश संसद के भारत सरकार अधिनयम,1935 के प्रावधानों से  काफी कुछ मेल खाता है| विश्व में तुर्की गणराज्य जैसे ऐसे छोटे देश भी हैं जिनके संविधान में वास्तव में जनतांत्रिक, सुन्दर और स्पष्ट  प्रावधानों का समावेश है जो हमारे संविधान में मौजूद नहीं हैं| यह भी स्मरणीय है कि तुर्की की प्रति व्यक्ति आय भारत से आठ गुणा है व विश्व में इस दृष्टि से तुर्की का स्थान 57 वां और भारत का स्थान 138 वां है|

तुर्की के संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि यह संविधान अमर तुर्की राष्ट्र और मातृभूमि व तुर्की राज्य की  अविभाज्य एकता की पुष्टि करता है| इसमें तुर्की गणराज्य के अनंत अस्तित्व, समृद्धि और भौतिक व आध्यात्मिक कुशलता  की रक्षा करने, और विश्व राष्ट्र परिवार के समानता आधारित  सम्माननीय सदस्य के रूप में सभ्यता के समसामयिक मानक प्राप्त करने के लिए दृढ संकल्प समाविष्ट है |

समस्त तुर्की नागरिक राष्ट्रीय सम्मान और गौरव, राष्ट्रीय खुशी एवं दुखः में, राष्ट्रीय अस्तित्व के प्रति अपने अधिकारों व कर्तव्यों में, और प्रत्येक राष्ट्रीय जीवन में संगठित हों और उन्हें एक दूसरे के अधिकारों व स्वतंत्रता, आपसी प्रेम व साह्चर्यता  पर आधारित शांतिमय जीवन की मांग करने का अधिकार है और “घर में शांति, विश्व में शांति” में विश्वास करते और  चाहते हैं| एतदद्वारा तुर्की देश द्वारा यह संविधान उसके  जनतंत्र प्रेमी बेटों और बेटियों की  देशभक्ति और राष्ट्रीयता  को समर्पित किया जाता है| तुर्की  गणराज्य के संविधान के अनुच्छेद 10 में कहा गया है कि समस्त व्यक्ति कानून के समक्ष भाषा, जाति, रंग, लिंग, राजनैतिक विचार, दार्शनिक आस्था, धर्म, समुदाय या अन्य किसी आधार पर बिना भेदभाव के समान हैं| जबकि भारत में निवास स्थान के आधार पर नौकरियों में भेदभाव किया जाताहै और समानता का दायरा  भी व्यापक न होकर अत्यंत सीमित है|
तुर्की के संविधान में पुरुष और नारी के समान अधिकार हैं| राज्य का यह दायित्व है कि वह यह सुनिश्चित करे कि यह समानता व्यवहार में विद्यमान रहती है| किसी भी व्यक्ति, परिवार, समूह या वर्ग को कोई विशेषाधिकार नहीं दिया जायेगा| राज्य अंग और प्रशासनिक प्राधिकारी अपनी समस्त कार्यवाहियों में समानता के सिद्धांत का अनुसरण करेंगे| जबकि भारत में समानता  का ऐसा स्पष्ट  और व्यापक प्रावधान नहीं है| अनुच्छेद 11 में आगे कहा गया है कि इस संविधान के प्रावधान विधायिका, कार्यपालिका, और न्यायिक अंग तथा प्रशासनिक और अन्य संस्थाओं व व्यक्तियों पर बाध्यकारी मौलिक कानूनी नियम हैं| कानून संविधान के टकराव में नहीं होंगे| जबकि भारत में संवैधानिक कानून का ऐसा स्पष्ट  और व्यापक प्रावधान नहीं है|
तुर्की  के संविधान के अनुच्छेद 17 के अनुसार प्रत्येक को जीवन और सुरक्षा का अधिकार है व अपने  भौतिक और आध्यात्मिक विकास का अधिकार है| जबकि भारत में सुरक्षा के विषय में ऐसे  स्पष्ट  और व्यापक प्रावधान का अभाव है और आवश्यक होने पर पुलिस सुरक्षा भुगतान करने पर उपलब्ध करवाई जाती है| किसी को भी यातना या दुर्व्यवहार के अध्यधीन नहीं किया जायेगा , किसी को भी मानवोचित गरिमा से भिन्न दण्ड या व्यवहार से बर्ताव नहीं किया जायेगा| जबकि भारत में यातना  के विषय में किसी भी  प्रावधान का अभाव है और पुलिस द्वारा यातानाओं को भारतीय जीवन का आज एक सामान्य भाग कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगा| अभी हाल ही पंजाब में महिला की सरे आम पिटाई में जिला मजिस्ट्रेट की रिपोर्ट में कहा गया है कि यह आम बात है |
तुर्की के संविधान के अनुच्छेद 19 में कहा गया है कि मात्र वे व्यक्ति जिनके विरुद्ध अपराध करने के पुख्ता प्रमाण हों को सिर्फ पलायन, या प्रमाणों का विनाश  रोकने, या प्रमाण के साथ छेड़छाड रोकने  मात्र  के उद्देश्य जैसी परिस्थितियों जो बंदी बनाना आवश्यक बनाती हैं और कानून द्वारा निर्धारित हैं, में न्यायधीश के निर्णय से ही गिरफ्तार किया जा सकेगा| जबकि भारत में गिरफ़्तारी  के विषय में किसी भी  अलग कानून  का अभाव है और पुलिस द्वारा किसी को कहीं भी कोई (मनगढंत) आरोप लगाकर गिरफ्तार किया जा सकता है| भारत में तो पुलिस ने नडीयाड में मजिस्ट्रेट को भी गिरफ्तार कर उसे जबरदस्ती शराब पिलाकर उसका सार्वजानिक जूलुस भी निकाल दिया था तो आम आदमी कि तो यहाँ औकात ही क्या है| तुर्की में न्यायाधीश के आदेश के बिना गिरफ़्तारी मात्र ऐसी परिस्थिति में ही की जायेगी जब किसी व्यक्ति को अपराध करते पकड़ा जाता है या विलम्ब करने से न्याय मार्ग में व्यवधान पहुंचना संभावित हो, ऐसी परिस्थितियां कानून द्वारा परिभाषित  जाएँगी| जबकि भारत में गिरफ़्तारी की आवश्यकता के विषय में संवैधानिक प्रावधान तो दूर किसी भी  अलग कानून में ऐसी परिस्थितियां के वर्णन का अभाव है|
तुर्की के संविधान के अनुच्छेद 26 के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचारों व मत को भाषण द्वारा, लिखित में या चित्रों से या अन्य संचार माध्यमों से, व्यक्तिगत या सामूहिक रूप में  व्यक्त करने और प्रसारित करने का अधिकार है |इस अधिकार में बिना शासकीय हस्तक्षेप के सूचना व विचार  प्राप्त करना और देने का अधिकार समाहित है| तुर्की के संविधान में व्यक्तियों और राजनैतिक पार्टियों को, सार्वजानिक निगमों द्वारा रखी जाने वाली प्रेस को छोड़कर, संचार माध्यमों और संचार के साधनों को प्रयोग करने का अधिकार है| प्रत्येक व्यक्ति को बिना पूर्वानुमति के निशस्त्र और शांतिमय सभा व प्रदर्शन जुलूस अधिकार है| भारत में सभा, प्रदर्शन, जुलूस आदि के लिए पूर्वानुमति आवश्यक है पुलिस को उसके बावजूद भी रामलीला मैदान में रावणलीला खेलने का निर्बाध अधिकार है| मृत्युदण्ड  और सामान्य जब्ती को दण्ड  के रूप में लागू नहीं किया जायेगा| भारत में ऐसे प्रावधान का अभाव है|
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Mani Ram Sharma

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[justify]मृच्छकटिका के अंक 9 श्लोक 5 में कहा गया है कि न्यायाधीश  सम्पूर्ण विधि संहिता से परिचित, छल का पता लगाने में दक्ष व वाकपटु होना चाहिए। उसे कभी भी मिजाज नहीं बिगाड़ना चाहिए और सम्बन्धियों, मित्रों या अपरिचितों के प्रति निष्पक्ष होना चाहिए। उसके निर्णय वास्तविक घटनाओं के परीक्षण पर आधारित होने चाहिए। उसकी नैतिकता उच्च होनी चाहिए व लालच के प्रभाव में नहीं आना चाहिए, उसे दुष्टों के हृदय में भय उत्पन्न करने व अशक्त जनों की रक्षा करने हेतु पर्याप्त सशक्त होना चाहिए। उसका मानस हर संभव तरीके से अधिकतम सत्य का अन्वेषण  करने में संलग्न होना चाहिए।
संचार जगत में न्यायतंत्र के विषय में विधिवेताओं एवं न्यायाधिपतियों के विचार समय-समय पर प्रकट होते रहते है किन्तु उनमें लोकतान्त्रिक दृष्टिकोण का अभाव प्रायः अखरता है। इन प्रकट विचारों में प्रायः आम जनता के अन्तर्मन की पीड़ाओं की अभिव्यक्ति का अभाव पाया जाता है। इस लेख के माध्यम से न्यायतंत्र के विषय में, बिना किसी पूर्वाग्रह के, जन दृष्टिकोण अभिव्यक्त करने का हार्दिक प्रयास कर रहा हूं। उच्चतम न्यायालय के आंकडों के अनुसार वर्ष  2009 में क्रमशः मद्रास, उडी़सा एवं गुजरात उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने 5005, 4583, एवं 3746 प्रकरण प्रति न्यायाधीश की दर से प्रकरणों का निपटारा किया है जबकि भारत के समस्त उच्च न्यायालयों का इसी अवधि में प्रति न्यायाधीश औसत मात्र 2537 प्रकरण रहा है। दूसरी ओर क्रमशः उत्तराखंड, दिल्ली और गौहाटी उच्च न्यायालयों का इस अवधि में यह औसत 1140, 1258 एवं 1301 आता है।
वहीं उच्च न्यायालयों द्वारा निर्णित मामलों का उच्चतम न्यायालय में पहुंचने के अनुपात के दृष्टिकोण से स्थिति अग्रानुसार है। क्रमशः दिल्ली, पंजाब व उत्तराखंड  उच्च न्यायालयों द्वारा निर्णित मामलों के 8.6 प्रतिशत, 7.1 प्रतिशत एवं 6.3 प्रतिशत प्रकरण इनके क्षेत्र से उच्चतम न्यायालय पहुंचे हैं जबकि समस्त भारतीय उच्च न्यायालयों द्वारा निर्णित प्रकरणों के 2.5 प्रतिशत प्रकरण औसतन उच्चतम न्यायालय पहुंचे हैं। तथ्यों से स्पष्ट है कि दिल्ली एवं उत्तराखंड उच्च न्यायालय प्रति न्यायाधीश कम प्रकरण निपटाने के साथ-साथ अधिक आनुपातिक प्रकरण उच्चतम न्यायालय में पहुँचाने वाले उच्च न्यायालय है। इन उच्च न्यायालयों में निस्तारण का गुणात्मक एवं गणात्मक दोनों पहलू असंतोषजनक और चिन्ताजनक है। दूसरी ओर मद्रास, उड़ीसा एवं गुजरात उच्च न्यायालय अधिक निस्तारण के साथ-साथ कम प्रकरण उच्चतम न्यायालय पहुंचने वाले उच्च न्यायालयों में से है। इन उच्च न्यायालयों का कार्य अन्य उच्च न्यायालयों के लिए अनुकरणीय हो सकता है। आलोच्य अवधि में क्रमशः उड़ीसा, जम्मू-काश्मीर एवं मद्रास उच्च न्यायालयों द्वारा निर्णित प्रकरणों का मात्र 0.6 प्रतिशत, 0.7 प्रतिशत एवं 0.8 प्रतिशत प्रकरण इस क्षेत्र से उच्चतम न्यायालय पहुंचे है।
सम्पूर्ण भारत के उच्च न्यायालयों के औसत निष्पादन के मानक को लागू करने पर वर्ष में दायर कुल 1779482 प्रकरणों के लिए 701 न्यायाधीशों की समस्त उच्च न्यायालयों में आवश्यकता है। तद्नुसार क्रमशः दिल्ली, गौहाटी एवं पंजाब में 24, 13 और 8 न्यायाधीश  अधिशेष हैं जबकि दूसरी ओर मद्रास, कर्नाटक एवं उडी़सा में क्रमशः 45, 25 और 20 न्यायाधीशों की कमी है। सर्वोत्तम निस्तारण के आधार पर क्रमशः बम्बई, दिल्ली एवं इलाहबाद उच्च न्यायालयों में 35, 33 एवं 28 न्यायाधीश अधिशेष हैं जबकि मात्र उड़ीसा उच्च न्यायालय में 2 न्यायाधीशों  की कमी है। इस प्रकार समस्त उच्च न्यायालयों में कुल 272 न्यायाधीश अधिशेष हैं जिन्हें बकाया मामलों के निस्तारण में संलग्न किया जा सकता है।अधिनस्थ न्यायालयों में भी केरल, मद्रास एवं पंजाब के न्यायाधीशों ने इसी अवधि में प्रति न्यायाधीश  क्रमशः 2575, 1842 एवं 1575 प्रकरणों का निस्तारण किया है जबकि समस्त भारतीय न्यायाधीशों का यह औसत 1142 प्रकरण है। बिहार, झारखण्ड एवं उडी़सा के अधीनस्थ न्यायाधीशों का यह औसत क्रमशः 284, 285 एवं 525 है। दूसरी ओर आलोच्य अवधि में अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा निर्णित प्रकरणों का उच्च न्यायालय पहुंचने का अनुपात क्रमशः उडी़सा, बिहार और हिमाचल प्रदेश से 39.1 प्रतिशत, 27.4 प्रतिशत और 25.1 प्रतिशत रहा जो कि देश के औसत 11.1 प्रतिशत से बहुत अधिक है। बिहार, उड़ीसा एवं झारखण्ड के अधीनस्थ न्यायालयों का प्रति न्यायाधीश कम निस्तारण होते हुए भी अधिक अनुपातिक भाग उच्च न्यायालय पहुंचा है। इन अधीनस्थ न्यायालयों का निस्तारण भी गुणात्मक व गणात्मक दोनों दृष्टिकोणों से चिन्ताजनक है और इन परिस्थितियों में भ्रष्टाचार की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। दूसरी ओर क्रमशः गुजरात, उत्तराखण्ड एवं केरल के अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा निर्णित मामलों का मात्र 5.4 प्रतिशत, 6.2 प्रतिशत एवं 7.6 प्रतिशत ही उच्च न्यायालयों तक पहुंचा है। केरल एवं गुजरात के अधीनस्थ न्यायालयों की स्थिति गुणात्मक एवं गणात्मक दोनों दृष्टिकोण से सुदृढ़ है।
समस्त भारत के अधीनस्थ न्यायालयों के औसत निपटान की दृष्टि से वर्ष में दायर कुल 16965198 प्रकरणों के लिए कुल 14856 न्यायाधीशों की अधीनस्थ न्यायालयों में आवश्यकता है। इस दृष्टिकोण से क्रमशः बिहार, झारखण्ड एवं महाराष्ट्र में 747, 298 एवं 264 अधीनस्थ न्यायाधीश अधिशेष हैं तथा इसी प्रकार उत्तरप्रदेश, तमिलनाडू एवं केरल के अधीनस्थ न्यायालयों में क्रमशः 610, 571 एवं 543 न्यायाधीशों  की कमी है। सर्वोत्तम निस्तारण के आधार पर क्रमशः महाराष्ट्र, बिहार एवं उत्तरप्रदेश के अधीनस्थ न्यायालयों में 1136, 923 एवं 805 न्यायाधीश अधिशेष हैं जबकि मात्र केरल के अधीनस्थ न्यायालयों में 7 न्यायाधीशों का अभाव है। सर्वोत्तम निस्तारण के आधार पर समस्त भारतीय अधीनस्थ न्यायालयों में 7507 न्यायाधीश अधिशेष हैं जिनका उपयोग बकाया मामलों के निपटान में किया जा सकता है। विडम्बना यह है कि सम्पूर्ण देश में एक समान मौलिक कानून-संविधान, व्यवहार प्रक्रिया संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता, साक्ष्य अधिनियम व दण्ड संहिता- के उपरान्त न्यायालयों द्वारा अपनायी जाने वाली मनमानी व स्वंभू प्रक्रिया व परम्पराओं के कारण निस्तारण में गंभीर अन्तर है और इसे कानून का राज नहीं कहा जा सकता। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने सोमप्रकाश के  प्रकरण में कहा है कि प्रत्येक विवेकाधिकार गैरकानूनी मांग प्रेरित करता है। देश के उच्चतम न्यायालय को समस्त न्यायालयों पर पर्यवेक्षण, अधीक्षण एवं नियन्त्रण का अधिकार प्राप्त हैं किन्तु उक्त चिन्ताजनक परिस्थितियों के बावजूद मौन है। स्मरण रहे जन कल्याण की प्रोन्नति ही सर्वोच्च कानून है।
उच्च न्यायालयों में प्रति न्यायाधीश  प्रतिवर्ष निर्णित प्रकरणों की संख्या 284 से लेकर 2575 तक है वहीं अधीनस्थ न्यायालयों में प्रति न्यायाधीश यह संख्या 1140 से  3736 तक है। ठीक इसी प्रकार उच्चतर स्तर पर प्रस्तुत होने वाले प्रकरणों का प्रतिशत  अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा निर्णित प्रकरणों की दषा में 5.4 प्रतिशत से लेकर 39.1 प्रतिशत तक है व उच्च न्यायालयों द्वारा निर्णित प्रकरणों की स्थिति में 0.7 प्रतिशत से 8.6 प्रतिशत तक है। यह असहनीय अंतर  4 से 12 गुणा तक आता है।
                                                         
भारत में अधिकांश राज्यों में न्यायालयों एवं न्यायाधीशों के पद सृजन हेतु कोई ठोस सैद्धान्तिक नीति-पत्र नहीं है। अतः सुस्पष्ट नीति के अभाव में न्यायाधीशों एवं राजनेताओं को मनमानी करने का अवसर उपलब्ध है। न्याय-विभाग भारत सरकार के अनुसार यद्यपि न्यायाधीशों की पदस्थापना दायर औसत मुकदमों एवं बकाया के आधार पर की जाती है किन्तु उक्त वस्तुस्थिति से सरकार का दावा प्रथम दृष्टया खोखला प्रतीत होता है। भारतीय न्यायालयों द्वारा प्रकरणों में उठने वाले सभी विवाद्यक बिन्दुओं का न तो निर्धारण किया जाता है और न ही कारण लिखे जाते हैं| परिणामतः उतरोतर अपील के लिए मार्ग खुले रहते हैं व मुकदमेबाजी रक्तबीज की तरह वृद्धि करती है। इस प्रकार न्यायालयों में बढते कार्यभार का प्रमुख कारण गुणवताहीन और औपचारिक निस्तारण है जिससे न तो आहत को पर्याप्त राहत मिलती है और न ही दोषी  को इतना पर्याप्त दण्ड मिलता है कि जिसे देखकर विधि का उल्लंघन करने को लालायित होने वाले अन्य लोग हतोत्साहित हो सकें। वैसे भी हमारी न्याय व्यवस्था में खर्चे व क्षतिपूर्ति के कोई मानक निश्चित नहीं है जिससे न्यायालयों को खुली मनमानी का अवसर मिलता है। अपनी शक्तियों से बाहर जाकर न्यायाधीशों द्वारा दुस्साहसपूर्ण ढंग से कार्यवाहियां करने तथा बिना विधिक प्रावधान के संदर्भ के दण्डात्मक खर्चे लगाना और वरिष्ठ न्यायालयों द्वारा ऐसे अनुचित और अन्यायपूर्ण आदेशों की पुष्टि जैसे दुखद उदाहरणों का भी भारत भूमि पर अभाव नहीं है। दैवीय कार्य करने वाले संवैधानिक न्यायालयों द्वारा एक ही प्रकरण (भ्रष्टाचार  निर्मूलन संगठन) में एक न्यायालय द्वारा रू0 25000/-  और दूसरे न्यायालय द्वारा  रू0 40,00,000/-  खर्चे व क्षतिपूर्ति मूल्यांकन किया जाना भारतीय न्यायपालिका के लिए कोई आश्चर्यजनक तथ्य नहीं है।
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Mani Ram Sharma

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कानून के राज का मिथ्या दम
« Reply #38 on: April 08, 2013, 11:38:20 AM »
[justify]भारत में न्यायिक, अर्द्धन्यायिक या कार्यपालक न्यायाधीशों की कार्यशैली, चरित्र और गुणधर्म में मुश्किल से ही कोई अन्तर हो सकता है अपितु न्यायिक न्यायालयों की कार्यवाही अधिक जटिल एवं लम्बी होने के कारण विलम्बकारी और खर्चीली अवश्य  होती है। एक जिले के नमूना आँकड़ों से प्रकट होता है कि वर्ष भर में दोषसिद्ध होने वाले प्रकरण उस वर्ष में दर्ज प्रथम सूचना प्रतिवेदनों का मात्र 1.5 प्रतिशत हैं, शेष 98.5 प्रतिशत कथित अभियुक्तों का अभियोजन के नाम पर अनुचित उत्पीड़न होता है। अन्य जिलों की स्थिति भी कमोबेश इसी स्तर के समकक्ष प्रतीत होती है। इस प्रसंग में प्रायः विधि तन्त्र से जुडे़ लोग कुतर्कों का सहारा लेकर बचाव करते देखेसुने जा सकते है। उनके अनुसार झूठी प्रथम सूचनाएं दर्ज करवाना, न्यायालय की मदद हेतु जनता का आगे न आना, पक्षकारों में समझौता होना आदि कारणों से दोष सिद्धियां नहीं हो पाती हैं। वास्तविक स्थिति यह है कि झूठे अभियोग दर्ज करवाने पर धारा 182, 211 व क्षतिपूर्ति आदि के प्रावधान हैं जिनका उपयोग कर ऐसी मनोवृति को बदला जा सकता है। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357 के क्षतिपूर्ति के प्रावधान का उपयोग भी न्यायालयों द्वारा यदाकदा और आपवादिक ही होता है। न्याय तन्त्र में जनता के विश्वास में कमी होने के कारण ही मदद हेतु आगे न आना, समझौता होना आदि परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं। अधिकांश आपराधिक मामलों में न्यायाधीशों द्वारा तकनीकी आधार गढ़कर अभियुक्त को दोषमुक्त कर दिया जाता है किन्तु ऐसा करने में प्रायः यह स्पष्ट नहीं किया जाता कि आरोपित धारा के अपराध का कौनसा घटक-भाग पूर्ण नहीं होता है। दूसरी ओर दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 76 से 95 तक में दोष सिद्धि के सीमित अपवाद वर्णित है| फिर भी न्यायाधीश  इस लक्ष्मण रेखा को लांघकर स्वरचित अपवादों के आधार पर दोषमुक्त कर देते हैं।
न्यायालयों द्वारा दिए गए कुछ अनुकरणीय निर्णय भी उपलब्ध हैं किन्तु इनकी संख्या नगण्य है तथा वे भी किसी भावावेश  में आकर किसी अज्ञात या अपवित्र कारण से प्रभावित प्रतीत होते हैं। नाम-मात्र के अपवादिक अच्छे निर्णयों से न तो आम नागरिक का कल्याण हो सकता और न ही कानून का शासन स्थापित हो सकता। यदि वास्तव में अच्छे निर्णय दिए जाए तो कानून का उल्लंघन करने वाले हतोत्साहित होंगे और मुकदमेबाजी  स्वतः कम हो जायेगी। किन्तु न्यायालयों के अधिकांश  निर्णय भी, स्थानीय पंचायतों की तरह, तुष्टिकरण पर आधारित लोकप्रियता उन्मुख नीति का अनुसरण कर दिए जाते हैं। जनता की न्यायपालिका से अपेक्षा है, आपवादिक उदाहरणों को छोड़कर, सभी न्यायिक निर्णय अनुकरणीय हो।
आज देश  में सिविल प्रकृति के वाद अत्यन्त सीमित रह गये है। न्याय-तन्त्र से जुडे़ लोगों का रात-दिन अपराधियों से वास्ता पड़ता रहता है व दंड से बचने के लिए उनके द्वारा अपनायी जाने वाली नई नई तकनीक, क्रिया विधि से वे सभी परिचित होते रहते हैं। ऐसी स्थिति में न्याय-तन्त्र से जुडे़ लोगों- पुलिस, अधिवक्ता व न्यायाधीश - की मनोवृति पर आपराधिक छाप पडने  की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। प्रभावी नैतिक व आध्यात्मिक शिक्षा और सुसंस्कार ही एकमात्र इसकी रोकथाम हो सकती है। न्याय का उद्गम स्त्रोत अंतरात्मा है, ज्ञान नहीं। इंग्लैण्ड के लॉर्ड चांसलर के अनुसार न्यायाधीश  होने के लिए भला व्यक्ति होना आवश्यक है तथा कानूनी ज्ञान तो एक अतिरिक्त गुण है। मात्र जाति, ज्ञान और शक्ति से देश का भला नहीं हो सकता है| ब्राहमण कुल में जन्मे पंडित और महाबली रावण का उदाहरण हमारे सामने है| 
विगत तीन दशकों से जनहित याचिका के नाम पर न्यायपालिका का महिमामडंन कर इसे एक सामाजिक न्याय के नए साधन के रूप में प्रचारित जा रहा है जबकि व्यवहार प्रक्रिया संहिता की धारा 91 में इसके समानान्तर प्रावधान निचले स्तर तक के न्यायालयों के लिए सन् 1908 से विद्यमान हैं। हमारी जटिल न्यायिक प्रक्रिया मात्र न्यायतन्त्र से जुडे़ लोगों के लिए स्वर्ग के समान है तथा इसके प्रत्येक सरलीकरण का वे प्रत्यक्ष एवं परोक्ष विरोध करते हैं। वास्तविक न्यायोन्मुख सरलीकरण के किसी भी कदम को उनका हार्दिक समर्थन प्राप्त नहीं होता है। त्वरित निर्णय हेतु वर्ष 1999 व 2002 में व्यवहार प्रक्रिया संहिता में किए गए संशोधनों का अधिवक्तागणों द्वारा संगठित और राष्ट्रव्यापी विरोध किया गया और अंततः सलेम बार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में रिट याचिका भी दायर की गयी। इस याचिका के निर्णय में त्वरित निस्तारण हेतु  प्रकरण प्रवाह प्रबन्धन नियम बनाये जाने की अनुशंसा की गयी। किन्तु स्वयं सर्वोच्च न्यायालय तथा अधिकांश उच्च न्यायालयों ने स्वानुशासन के लिए ऐसे नियम आज तक नहीं बनाये हैं। कुछ उच्च न्यायालयों ने जो अनमने मन से नियम बनाये हैं उनमें मौलिक बातों के समावेश  का अभाव है। इससे अधिक दुखद पहलू यह है कि इन नियमों की भी व्यवहार में अनुपालना नहीं हो रही है। दाण्डिक नियमों के अनुसार दाण्डिक याचिका पर तुरन्त कार्यालय रिपोर्ट होकर न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की जानी चाहिए किन्तु व्यवहार में एक-दो सप्ताह तक का समय लगना सामान्य बात है। प्रकरणों के निपटान में लगने वाला औसत 15 वर्ष का समय भी चिन्ताजनक है। सरकारी सेवाओं के बदले मांगा जाने वाला समस्त प्रकार का कर, उपकर, शुल्क आदि भुगतान करने वाली जनता को समय पर न्याय दिया जाना चाहिए। लोक अदालत प्रणाली भी न्यायतंत्र का कोई विजय-स्तम्भ नहीं है बल्कि न्याय-तंत्र द्वारा संविधान सम्मत न्याय देने में विफलता का दुष्परिणाम  है। समझौते प्रायः कमजोर पक्ष के हित की बलि से ही सम्पन्न होते हैं क्योंकि जिनके पास प्रचुर संसाधन हैं वे न्याय प्रवाह को अपनी सुविधानुसार मोडने और गति प्रदान  करने में सफल हो जाते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने भी एक प्रकरण (ललिता कुमारी) में कहा है कि पक्षकार के व्यवहार कुशल होने पर कार्यवाही सुपरसोनिक जेट की गति से प्रगति करती है।

हमारे न्यायालयों के पास प्रमुख कार्य गिरफ्तारी एवं जमानत से सम्बन्धित ही रह गया  है। सर्वोच्च न्यायालय ने जितेन्द्र कुमार बनाम उत्तरप्रदेश राज्य के मामले में यह सिद्धान्त प्रतिपादित कर रखा है कि जघन्य अपराध के अतिरिक्त गिरफ्तारी नहीं की जानी चाहिए किन्तु छोटे-मोटे अपराधों में ही नहीं अपितु जमानतीय अपराधों में भी पुलिस द्वारा गिरफ्तारी करना आम बात है और न्यायाधीश ऐसी गिरफ्तारी का मौन रहकर निष्क्रिय वैधानिकरण करते रहते हैं। 1.3 करोड़ की आबादी एवं 43 न्यायाधीशों वाले दिल्ली राज्य के उच्च न्यायालय में वर्ष 2009 में 2517 जमानत याचिकाएं प्रस्तुत हुई जबकि 7 करोड़ की आबादी एवं 30 न्यायाधीशों के राजस्थान राज्य के उच्च न्यायालय में समान अवधि में 17225 जमानत याचिकाएं प्रस्तुत हुई। इन आकंड़ों से स्पष्ट  है कि राजस्थान राज्य में सदोष परिरोध (अनावश्यक गिरफ्तारियां) अधिक होने के साथ-साथ अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा अधिक प्रकरणों में जमानत से इन्कार भी किया जाता है। विडम्बना यह है कि दोनों राज्यों में लागू कानून यद्यपि समान है किन्तु उसे लागू करने के मानदंड अलग अलग हैं फिर भी हम कानून के राज का मिथ्या दम भरते रहते हैं| गिरफ्तारी एवं जमानत की परिहार्य कार्यवाही में जन समय व संसाधनों  का अनावश्यक  अपव्यय होने से न्यायालयों को प्रकरणों के वास्तविक निस्तारण हेतु बहुत कम समय उपलब्ध होना भी दुखद पहलू है। इस प्रकार के न्यायालयी निर्णय प्रक्रियागत न्याय तो हो सकतें है किन्तु इन सभी निर्णयों को वास्तविक न्याय की परिधि में मानना कठिन हैं। 
राजस्थान में न्यायाधीश  सामान्यतः न्याय सदन में 2-3 घन्टे प्रतिदिन बैठक करते हैं। औसत भारतीय की आय से लगभग 15 गुणा से भी अधिक वेतनमान न्यायाधीशों  को इसलिए दिया जाता है कि वे पूरे नियत समय में न्यायालय में बैठें तथा निर्णय लेखन, छानबीन जैसा कार्य गृह-कार्य के रूप में करेंगे। इस हेतु उन्हें इन्टरनेट एवं लेपटॉप की सुविधाएं भी उपलब्ध करवायी गयी हैं किन्तु इस सभी व्ययभार की एवज में जनता को मिलने वाला लाभ जनता के हृदय-तराजू में तोला जा सकता है।
हमारे संविधान के अनुच्छेद 50 में न्यायपालिका को कार्यपालिका के नियंत्रण से मुक्त होने की आदर्श स्थिति का उल्लेख है, किन्तु शनैः शनैः विभिन्न बोर्डों, अधिकरणों, आयुक्तालयों, मंचों  आदि अर्द्धन्यायिक निकायों का गठन कर न्यायिक न्यायालयों के क्षेत्राधिकार में कटौती कर दी गयी है। जो प्रकरण पूर्व में न्यायिक न्यायालयों द्वारा अन्वीक्षणीय थे अब अन्य अधिकरणों के क्षेत्राधिकार में है। इस प्रकार न्यायिक एवं कार्यपालक न्यायालयों के मध्य विभाजक रेखा अत्यन्त क्षीण व धुंधली हो गयी। आज स्थिति यह है कि देश  में कुल न्यायिक कार्य का 50% से अधिक भाग इन अधिकरणों द्वारा सम्पन्न किया जा रहा है जिनका वास्तव में कोई पर्यवेक्षण या अधीक्षण उच्च न्यायालयों द्वारा नहीं किया जा रहा है। विडंबना यह भी है कि इनके सदस्यों के लिए कानून का ज्ञान होना आवश्यक नहीं है किन्तु यहाँ पैरवी के लिए पेशेवर को कानून का ज्ञान आवश्यक है|  इन अर्धन्यायिक संस्थानों के गठन के पक्ष में सस्ते एवं त्वरित न्याय प्रदानगी का तर्क दिया जाता है किन्तु इनमें भी होने वाला विलम्ब कोई कम पीडादायी नहीं है| उल्लेखनीय है कि इन अधिकरणों में पदस्थापना, स्थानान्तरण आदि सरकारों द्वारा किये जाने के कारण ये संविधान की भावना के अनुरूप कार्यपालिकीय नियन्त्रण से मुक्त भी नहीं है।             
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Mani Ram Sharma

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[justify]डॉ मनमोहन सिंह ,
माननीय प्रधान मंत्री,
भारत सरकार ,
नई  दिल्ली
 
मान्यवर, 
भारतीय न्याय व्यवस्था : न्यायाधीश संख्या का निर्धारण
हाल में संपन्न मुख्यमंत्रियों की बैठक में आपने न्यायालयों की संख्या बढाने की आवश्यकता पर बल दिया है| इस सन्दर्भे में मैं आपका ध्यान कुछ तथ्यों की ओर आकर्षित करना चाहता हूँ|   देश के पुलिस आयोग के अनुसार 60% गिरफ्तारियां अनावश्यक हो रही हैं| कमजोर और भ्रष्ट न्याय व्यवस्था के चलते देश में मात्र 2% मामलों में दोष सिद्धियाँ हो पाती हैं और बलात्कार जैसे संगीन अपराधों में भी यह 26% से अधिक नहीं है|  हमारी यह व्यवस्था जनतांत्रिक सिद्धांतों के विपरीत और साम्राज्यवादी नीतियों की पोषक है| इल्लाहाबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने पुलिस को सबसे बड़ा अपराधी समूह बताया था |
अमेरिका में एक अभियुक्त को “संयुक्त राज्य का अपराधी” कहा जाता है और वहां सभी आपराधिक मामले राज्य द्वारा ही प्रस्तुत किये जाते हैं व वहां भारत की तरह कोई व्यक्तिगत आपराधिक शिकायत नहीं होती है| अमेरिका में प्रति लाख जनसंख्या 256 और भारत में 130 पुलिस है जबकि अमेरिका में भारत की तुलना में प्रति लाख जनसंख्या 4 गुणे मामले दर्ज होते हैं| तदनुसार भारत में प्रति लाख जनसंख्या 68 पुलिस होना पर्याप्त है| भारत में भी गोरे कमेटी ने वर्ष 1971 में यही सिफारिश की थी कि समस्त आपराधिक मामलों को राज्य का मामला समझा जाये किन्तु उस पर आज तक कोई सार्थक कार्यवाही नहीं हुई है|
 
पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित महानगरीय संस्कृति को छोड़ दिया जाये तो भारत आज भी एक आध्यात्मिक चिंतन और उन्नत सांस्कृतिक पृष्ठ भूमि वाला देश है| यहाँ लोग धर्म- कर्म और ईश्वरीय सत्ता में विश्वास करते हैं| भारत में मात्र 4.2% लोगों के पास बंदूकें हैं जबकि हमारे पडौसी देश पकिस्तान में 11.6% और अमेरिका में 88.8% लोगों के पास बंदूकें हैं| अमेरिका में प्रति लाख जनसंख्या 5806 मुकदमे दायर होते हैं जबकि भारत में यह दर मात्र 1520 है| प्रति लाख जनसंख्या पर अमेरिका में 10.81  और भारत में 1.6 न्यायाधीश हैं|
एक अनुमान के अनुसार भारत के न्यायालयों में दर्ज होने वाले मामलों में से 10% तो प्रारंभिक चरण में या तकनीकी आधार पर ही ख़ारिज कर कर दिये जाते हैं, कानूनी कार्यवाही लम्बी चलने के कारण 20% मामलों में पक्षकार अथवा गवाह मर जाते हैं| 20% मामलों में पक्षकार थकहार कर राजीनामा कर लेते हैं और 20% मामलों में गवाह बदल जाते हैं परिणामत: शेष 30 % मामले ही पूर्ण परीक्षण तक पहुँच पाते हैं वहीं वकील फीस पूरी ले लेते हैं| इस प्रकार परिश्रम और समय की लागत के दृष्टिकोण से भारत में दायर होने वाले मामलों को आधा ही मना जा सकता है और भारत में प्रति लाख जनसंख्या पर दायर होने वाले मामलों की संख्या मात्र 760 आती है जो अमेरिका से लगभग 1/7 है और भारत में प्रति लाख जनसंख्या न्यायाधीशों की संख्या भी लगभग 1/7 ही है जो दायर होने वाले मामलों को देखते हुए किसी प्रकार से कम नहीं है| इतना ना ही नहीं बिहार राज्य में एक अधीनस्थ न्यायाधीश वर्ष में औसत 284 मामले निपटता है जबकि केरल में 2575 और राजस्थान  में 1286 | मद्रास उच्च न्यायालय में न्यायाधीश वर्ष में औसत 5005 मामले निपटता है जबकि  दिल्ली में 1258 और  राजस्थान में 2656 | दूसरी ओर समस्त भारत में लागू मौलिक कानून- संविधान, दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता, साक्ष्य विधि, सिविल संहिता एक हैं फिर भी कानून की मनमानी व्याख्या और स्वयं के लिए सुहावनी प्रक्रियाएं अपनाकर भिन्न भिन्न परिणाम दे रहे हैं| यह स्थिति न्यायपालिका के अनियंत्रित और स्वछन्द होने के अशुभ संकेत देती है|मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधिपति किरुबकरन  ने हाल ही एक अवमान मामले की सुनवाई में कहा है कि देश की जनता पहले ही न्यायपालिका से कुण्ठित है अत: पीड़ित लोग में से मात्र 10% ही न्यायालय तक पहुंचते हैं| यह स्थिति न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर स्वत: ही एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लगाती है|
 
देश के संवैधानिक न्यायालयों में नियुक्तियां भी पारदर्शी और स्वच्छ ढंग से नहीं हो रही हैं अत: राज्य सभा की 44 वीं रिपोर्ट दिनांक 09.12.10 में यह अनुसंशा की गयी है कि उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्तियां लिखित परीक्षा के आधार पर की जानी चाहिए| सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीशों के समूह या मुख्य न्यायाधीश द्वारा उन्हीं लोगों को पदलाभ दिया जाता है जो उनके समान विचार रखते हों| बहु सदस्यीय या कोलोजियम प्रणाली का भी कोई लाभ नहीं है क्योंकि इससे सदस्यों का दायित्व कमजोर हो जाता है| वहीं एक अध्यन में पाया गया है कि सुप्रीम कोर्ट के 40% न्यायाधीश किसी न्यायाधीश या वकील के पुत्र रहे हैं| इसी अध्ययन के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के 95% न्यायाधीश धनाढ्य या ऊपरी माध्यम वर्ग से रहे हैं अत: उनके मौलिक विचारों, संस्कारों और आचरण में सामजिक व आर्थिक न्याय की ठीक उसी प्रकार कल्पना नहीं की जा सकती जिस प्रकार एक बधिक से दया की अपेक्षा नहीं की जा सकती| देश के संवैधानिक न्यायालयों का संचालन अंग्रेजी भाषी-पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव में शिक्षित - उच्च वर्ग के  लोगों द्वारा किया जा रहा है जिन्होंने मात्र पुस्तकों में ही “इंडिया” को पढ़ा होता है| उन्हें आम भारतीय की कठिनाइयों का धरातल स्तरीय ज्ञान नहीं होता है|
121 करोड़ की आबादी वाले भारत में 3 करोड़ मुक़दमे, 20 हजार न्यायाधीश, 17 लाख वकील, 16 लाख पुलिस है| देश में वकीलों की संख्या पुलिस से भी ज्यादा है| इस प्रकार प्रति न्यायाधीश 85 वकील और 80 पुलिस है| वहीं प्रति न्यायाधीश 1500 व पक्ष व विपक्ष को शामिल करते हुए प्रति वकील 34 मुक़दमे औसत हिस्से में आते हैं| किसी मामले में वास्तव में सुनवाई से पूर्व प्रकरण पत्रावली का अध्ययन और होमवर्क आवश्यक है अत: एक न्यायाधीश औसतन एक दिन में 50 मुकदमों में सुनवाई कर सकता है| कानून के समक्ष समानता को वास्तव में कोई अधिकार समझा जाये तो वर्ष में 250 कार्य दिवस मानते हुए औसतन मामले में 50 दिन बाद सुनवाई का पुन: अवसर मिल जाना चाहिए और एक वर्ष में एक मामले में 8 अवसर सुनवाई हेतु मिलने चाहिए| किन्तु कई मामलों में वर्षों तक कोई सुनवाई नहीं होती और कुछ मामले राहत देकर कुछ दिनों में ही निपटा दिए जाते हैं|
 
दक्षिण ऑस्ट्रेलिया में एक दिन में एक न्यायालय के सामने सुनवाई की सूची सामान्यतया 40 तक सीमित रखी जाती है व उन सब में सुनवाई  होती है वहीं भारत के उच्च न्यायालयों में तो एक दिन  में 400 तक मामले सुनवाई हेतु अनावश्यक ही लगा दिए जाते हैं और सुनवाई हेतु शेष बचे मामले स्थगित कर दिए जाते हैं| यह भी एक कूटनीति है कि मामले न्यायालय के सामने लगाये जाते रहें ताकि जनता में भ्रम बना रहे कि उनकी सुनवाई हो रही है|   
   
अमेरिका में न्यायालयों में वर्ष भर में मात्र 10 छुटियाँ होती हैं वहीँ भारत में उच्चतम न्यायालय में 100, उच्च न्यायलय में 80 और अधीनस्थ न्यायालयों में 60 छुटियाँ होती है व वर्ष में औसतन 60 दिन वकील हड़ताल रखते हैं | इस दृष्टि से देखा जाये तो भारतीय न्यायाधीशों का वेतन बहुत अधिक है| इस प्रकार भारत की जनता कानून और न्याय प्रशासन पर अपनी क्षमता से काफी अधिक धन व्यय कर रही है| भारत में कानून, प्रक्रियाओं और अस्वस्थ परिपाटियों के जरिये  जटिलताएं उत्पन्न कर न्यायमार्ग में कई बाधाएं खड़ी कर दी गयी हैं जिससे मुकदमे द्रौपदी के चीर की भांति लम्बे चलते हैं| भारत में 121 करोड़ की आबादी के लिए 17 लाख वकील कार्यरत हैं अर्थात प्रति लाख जनसँख्या पर 141 वकील हैं और अमेरिका में प्रति लाख जनसंख्या पर 391 वकील हैं| परीक्षण पूर्ण होने वाले मामलों के साथ इसकी तुलना की जाये भारत में यह संख्या 60 तक सीमित होनी चाहिए| दूसरी ओर हमारे पडौसी चीन में 135 करोड़ लोगों की सेवा में मात्र 2 लाख वकील हैं| इस दृष्टिकोण से भारत में प्रति लाख जनसंख्या पर चीन से 10 गुने ज्यादा वकीलों की फ़ौज हैं जिनके पालन पोषण का दायित्व अप्रत्यक्ष रूप से न्यायार्थियों पर आ जाता है|

 न्यायालय के आदेश तब मात्र उपदेश बनकर रह जाते हैं जब पीड़ित को कोई राहत और कानून का उल्लंघन करने वाले को दंड देने के स्थान पर कोई अनुशंसा करके न्यायालय अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं| इस सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय की स्थिति भी समान रूप से खराब है| उच्चतम और उच्च न्यायालयों में सामान्यतया कोई साक्ष्य नहीं दिया जाता है और मात्र बहस व शपथपत्र के आधार पर निर्णय होते हैं अत: इनमें लंबा समय लगने को उचित नहीं ठहराया जा सकता है| अधिकाँश भारतीय न्यायाधीश पद के मद और भ्रष्टाचार से संक्रमित हैं| यदि, तर्क के लिए, यह मान भी लिया जाए तो भी पुराने मामलों में सुनवाई पहले होनी चाहिए जबकि सुप्रीम कोर्ट के आंकड़े बताते हैं कि एक दिन सुनवाई में  35%, 20%, 12%, 3%, और  30% मामले क्रमश: वर्ष  2013, 2012, 2011, 2010 के और  2010 से पूर्व के थे | यह स्थिति  मिलीभगत और कुप्रबंधन  से ही संचालित होने का परिणाम है |
न्यायपूर्ण समाज में ही शांति, सदभाव, मैत्री, सहअस्तित्व कायम हो पाता है। अत: उक्त परिपेक्ष्य में आपसे अपेक्षा है कि वे इस स्थिति पर मंथन कर देश में न्यायाधीशों की संख्या बढाने की बजाय उन पर नियंत्रण बढाया जाए और उन्हें सुप्रबंधित किया जाए |जय हिन्द !   
 
भवनिष्ठ                                                                           
 
मनीराम शर्मा                                                        दिनांक 9.04 .13
एडवोकेट
नकुल निवास, रोडवेज डिपो के पीछे
सरदारशहर-331403
जिला-चुरू(राज)
 





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