Author Topic: Articles By Parashar Gaur On Uttarakhand - पराशर गौर जी के उत्तराखंड पर लेख  (Read 54208 times)

sanjupahari

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Waah Gaur jew...waah....bhauttey dhanyawaad idu badiya likh haman dagar share karnak lizi

apan
sanjupahari

Parashar Gaur

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मौसम

उमड़ घुमड़ कर आई है बदरा
घूम घूम कर चली पवन
दुरत दामनी  क्यूँ दमकी
क्यूँ गरजे है घन  !

बदरा येसा बरसा
आंखोका धो गया काजल
पुरबया चली है ऎसी निगोडी
खींच के ले गई आँचल
भीगे भीगे है तन मन है
भिगो गया वो बदन  ...  दुरत दामनी ...

कुर्ती चिपकी तन से ऐसी
उभर के ई अंग
लाज के मारी , मरी मै जाऊ
छुपते छपाए  बदन
लाज न आये उस बदरा को
बरसे है जो घन घनन घन घन .. द्रुत दामनी ...

घटा घटी घाट में
असर दिखाए  मौसम
प्रीत की ज्वाल भड़की मन में
बिन प्रीतम के लगे ना मन
ठंडी ठंडी चली बयार
उठी बंदन में सिरहन ... द्रुत दामनी ...

बरसात का अंधियार
और भी जी को जलाए
सो बार बारी जाऊ  उस पे
ऐसे में जो प्रीतम को लाये लिवाए
ऋण तो दे ना पाउंगी उसका
करूंगी  सो सो बार नमन  .... द्रुत दामनी

घन से कह दो रुके वो अब
बिजुरी से कहे न दमके
प्रीतम है मेरे आनेवाले
कुछ तो रहम करो मुझ पे
आने दो उनको , आयेंगे जब
करूंगी सिकायत , मिला नयन  ... द्रुत दामनी ..

पराशर गौर
१२ अक्तूबर 03 , १०.३० सुबह

Parashar Gaur

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Thank u sanju for incouraging  word
parashar

dayal pandey/ दयाल पाण्डे

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Gaur Sir Pranam, aapki kavita ko v pranam karana chahunga bahut achchhi kavita hai

Dayal

Parashar Gaur

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Parashar Gaur

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" ललकार  "(    reaction on Kargil )


ओ ..,
सरहद के उस पार रहने वाले
सुन ... ............, 
सुन मेरे सब्दो की गर्जना
कबी हूँ ..
कोमल ह्रदय रखता हूँ
पर
समझ ना तू मुझको भाउक 
ह्रदय मै मेरे ---
उमड़ रहे है सोले
कविता बन्दूक बनेगी मेरी
अर, सब्द बनेगे गोले
सब्द सब्द और पंगती पंगती
करेंगी तेरी भर्तशना   ---------


मेरी ही सीमा में आकर
ना खेल, खेल तू आग से
अरे -वो मुर्ख -, उदंड , मतिमूड
जल जाएगा तू --
अपनी ही नादानी से ,

छोड़ दी है मैंने अब
पंचशील की भाषा
अब ना सहूंगा
अब  शान्ति  की बात नहीं
अब तो कारन्ति की बात करूंगा
कवी और उसकी कविता के सब्दो की
के क्रोध को ......
है अब तुझको झेलना  ....!


बहुत खेल ली तू ने
अब तक आँख मिचोली
माँ. ला- अब तू
मेरे माथे पे लगा दे रण रोली
सच कहता हूँ अब
हाथो में कलम नहीं   
बन्दूक उठाऊगा...
आ गया है समय
ऋण माँ का चुकाऊगा 
मुझे अब सब्दो से नहीं
रक्त से है खेलना ..   सुन सुन मेरे सब्दो की गर्जना

पराशर गौड़
११ सितम्बर १९९९

Parashar Gaur

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 सैनिक का आग्रह

रोको मत, मेरा पथ
मुझको जाना है प्रिय  मुझको जाने दो
किसकी का ऋण है मुझ पर
उस ऋण को चुकाने दो  !

अधरों पे मुस्कान
नयनो पे नीर ना हो
सनद रहे ये बेला
प्रिय इस पल को मत जाने दो  ...

रोको अपना रुदन क्रन्दन
प्रिय मुझको समझो
देसा  है पहला प्रेम मेरा
उस प्रेम को कलंकित मत होने दो  ...

प्रिय , तुम तो प्रिय हो मेरी
भारत माँ धरती है मेरी
सरहद पे दुसमन है खडा
माने पुकारा आज नुझे है
ला ओ  रण रोली प्रिय
माथे पे तुम मेरी आज लगवा दो  ...

उठो.....बन पध्मानी  चूडावत
हंसते हंसते बिदा करो
ये सौगात रहेगी संग मेरे
आज तुम ये सौगात बार दो ...

जीबित राहा तो मिलेंगे
छितिज और अम्बर की तरह
अगर बीरगति प्राप्त हुई तो 
मरुंगा एक शैनिक की तरह
प्रिय इस अवसर को तुम
मत अपने हातो से जाने दो .....

प्रिय रोना नही सौगंध अहि तुम्हे
मुस्कुराते रहना सदा
पार्थिव सरीर को मेरे
करना तुम हंसते  हंसते बिदा
बोलो-- बोलो करोगी ना ????
 चलते  चलते एक एहसान
तुम मुझ पे कर दो   ..... !

परासर  गौड़
५ मई ०२  को १४.०० बजे !

Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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बहुत अच्छी कविता लिखी है आपने पराशर जी जवान पर. अच्छी रचना की है, मुझे भा गई यह कविता.

पर कवि कवि होता है।

Parashar Gaur

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negije
dhnyabad aapk sabdo ke lye saath me hausalaa afzaai ke liye

parashar

Parashar Gaur

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यह कविता पलायन पर है ..
पहाड़ छोड़कर चाहिये  आप कही भी रह रहे हो ..देश में या विदेश में  अपने घरो को छोड़ ने की बाद क्या स्तिथी होती है इस में उसका बर्णन है ..
 
त्रास्ती
 
अपने बतन/घर से दूर -- बहुत दूर
दूर आके मुझको क्या मिल्ला ...
सपने होगये है चूर चूर
जिन्दगी को जिन्दगी से हो रहा गिला  !
 
चाह की चाह ने पंख थे लगाए
हर तमना की तमना ने खाब थे सजाये
रिस्तो को तोडके , समझोतो को ओडके
यहाँ आके, अकेलेपन के सिवा क्या मिला  !
 
माँ का अंचल, बतन की खुसबू
अब कहा मिले .............
बहना का प्यार ,पापा की डांट
अब कहा मिले .........
छला है मुझको  मेरी चाहो ने
लाके यहाँ येसा...
होते हुए सब कुछ  लगता हूँ
अजीब सा .......
इन आँखों में पहले थे सपने
अब है झिलमिलाती यादे
बंद कमरे में कैद हूँ , कैद खाना मिला  !
 
 ढूढता हूँ उसे- जिसे अपना कह सकू
और मिला न कोई कान्धा ऐसा
जिसपे सर रखके रो सकू ....
आपा धापा की जिन्दगी में बस
दौडता ही चला गया 
न मंजिल ही मिली , न सपने
बस , है इसी बात का गिला   !
 
आती है पाती जब
सात समंदर से कभी
करता है मन की उड़ जाऊ
लगाके पंख अभी
छु के औ उन दरो दीवारों को
जिनके लिए तरसा हूँ
और समेट के ले आऊ उन यादो को
जिन्हे छोड़ आया हूँ 
मानता हूँ की लौटना मुश्किल नहीं पर
बस यही तो रोना है
या ही तो है गिला !
 
by parashar gaur
 
६ जनबरी २००५ .. ६.३० स्याम

 

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