Tribute to Dandriyaljee
स्वर्गीय डंडरियाल जी के बारे में कहाँ से शुरू करूं ! उनके साथ बिताये गए समये को अगर मै बाँधने का प्रयास करू तो एक महा काब्य हो सकता है लिहाजा मै उनके क्रतित्वा व ब्यक्तितवा पर ही लिखूंगा जो वो थे ! बात सन ७० की दसक की है तब मेरी उम्र २७ २८ साल की रही होगी ! मै देहली में गढ़वाली नाटको के प्रचार और प्रसार में लगा हुआ था की तभी किसी महापुरष ने मेरा इनसे परिचय करवा दिया ! मै अभी तक उनका नाम याद करते २ भी याद नहीं कर पा रहा हूँ की वो कौन थे ? लेकिन..जो भी थे मेरे लिए किसी गुरु से कम नहीं थे जिन्होंने ने मुझको मेरे साहितिक गोबिंद से मिलवा दिया !
द्वापर का सुदाम और आज के इस सदी के इस सौम्य , निशचल , साधारण माणूस में यूँ कोई भेद नहीं था ! सुदाम तन मन धन और शारीर से गरीब था लेकिन डंडरियाल जी में बाकी सब बही सब चीजे दिखाई देती थी अंतर केवल ये था की सुदामा के पास सहित्य की कमी भी थी जो डंडरियाल जी में नहीं थी ! सरस्वती का उनके ऊपर वरदहस्त था ! वे सब्दो के सुनार थे और आखरों के दर्जी ! भले वे दिखने में कुछ भी लगते थे परन्तु उनका व्यक्तित्वा इतना उंचा था की अगर लांग ( बांस की ऊँचे पोर जो कभी कभी ५० ६० फीट से भी बडी होती है ) लगाकर चड़कर भी उन्हें छूने का प्रयास करो तो ..ओ भी कम पड जाए !
उन दिनों देहली में गढ़वाली में ना तो इतनी कबिताये या कवि गोष्ठीया हुआ करती थी और नहीं कबि समेलन जिनका आनंद आम आदमी ले सके ! इसके पीछे भी तब की कारण थे जैसे १. जनता की अपनी बोली भाषा के प्रती उदासीनता २. पर्याप्त धना का न होना ३. हीन भावनो से ग्र्हसित होना ४ लेखको की कमी का होना आदि आदि ! उन दौरान ले देकर ये चार पाच ही कवी थे जो गढ़वाली में लिखते थे उनमे से जीवानंद खुग्साल ,कन्हिया लाल डंडरियाल, गणेश शात्री आदी ! बादमे गिरधर कंकाल , अबोध बंधू बहुगुणा ,प्रेमलाल भट्ट आये ! जहा तक कबिता का सवाल है कविता , अभी भी कमरों तक सीमित थी !
गढ़वाल भवन बन रहा था जो हाल अब कार्यक्रमों के लिए इस्तेमाल होता है की बात कर रहा हूँ जब उस पर प्लास्टर भी नहीं चड़ा था मै तब ! उस में तब चंदर सिंह गदवाली जी अपने बीमार पत्नी व बचौ के साथ वहा पर रहा रहे थे ! पता नहीं किसने वहा पर एक कबि समेलन का आयोजन करवा था ! मुझ को भी पहली बार किसी गढ़वाली कवी समेलन में कबिता पाट करने का मौका मिला ! इस अबसर पर तीन बाते मेरे जीवन पे घटी... या, देखने को मिली ! जिसको मै आज तक नहीं भुला सका और नहीं भुला पाउगा ! १. प्रथम बार मुझको चंदर सिंह गढ़वाली जी जैसे महान हस्ती के दर्शन हुए और उनसे मिलने का मौका मिला ! २. प्रथम बार मुझे गढ़वाली में मंच से कविता पाठ करने का अवसर मिला ! ३. कन्हया लाल डंडरियाल जी को सुनने का और उनसे परिचय का अवसर प्राप्त हुआ ! बातो के आदान प्रदान के बात उन्होंने मुझे मिलने का वादा किया !
एक सप्ताह के बाद ओ मेरे आइफ्स आये बैठे .. इधर उधर की चर्चा के बाद गढ़वाली साहित्य पर आये ! उन्होंने कहा था की आप नाटक करते है ये बहुत बडा काम है अपनी माँ बोली के उथान का ! मेरी तारीफ़ के पुल बाधते वो थक नहीं रहे थे ! मै एक बिद्यार्थी की तरह उनके वो सब बाते ध्यान से सुनता रहा ! बातो बातो में उन्होंने कबिता की बात छेडी... बोले...." आप के पास सब्दो की पकडने की कला है ! आप , हास्य और व्यंग पर अच्हा लिख सकते है " मैंने एक आज्ञाकरी बिधार्थी की तरह सर हिला कर अपनी स्वीक्रती दी !
कुछ दिनों के बाद तिमारपुर में रात की कवि गोष्टी का आयोजन किया गया था मुझे भी निमत्रण मिला ! जब पहुंचा तो वहा पर कुछ नए लोगो से भी परिचय ! रात भर कविता होती रही ..! वो मेरे लिए पहला अनुभव था ! कबिता क्या होती है कबिता किसे कहते है और उसे कैसे लिखी जानी चाहिए ! ये सारे गुण मैंने उन से सीखे ! वो मेरे साहितिक गुरु थे !
कमरों में होने वाली गोष्ठिया का दौर था ! डंड्रीयाल जी को कमरों की कबिता करने में महारथ था ! मै यह नही कह रहा हूँ कि वे मंच की पकड को नहीं जानते थे ! उनका अंदाज कुछ अलग से होता था जब गोष्ठिया होती थी ! जाने क्यों मुझे लगता था की वो जो कुछ कहना चा रहे है वो सीधे हम तक पहुँच जाती थी ! बैठको के मध्यम से उनसे घनिष्ठता बड़ती गई ! गोष्ठीयो में नए नए लोगो से और उनकी नई नई कविता सुनने का अवसर मिला ! कबिता का बोध होता रहा ! यू तो उनकी हर कविता एक मील का पथर है ! लेकिन मुझे जो सबसे प्रिया है वो है गड्वाक को भाल , कीडू की बोई , सत्यनारायण की कथा और एक बहुत ही अन्तरंग कबिता जो आम आदमी के लिए नहीं है वो है "सिन्दुकुदी " !
मन्याबर डंडरियाल जी बहुत ही सीधे सधे और सचे इंसान थे ! उनकी सादगी का जबाब नहीं था ! वे पैरो पर जूते नहीं पहिनते थे ! जब मैंने उनसे इसका कारण पूछा तो उन्होंने बिना किसी परकार की भूमिका बाधे हुए कहा ... , जूते के कारण मेरा परिहास हुआ था ! जिस दिन ये घटना घटी थी बस उस दुसरे दिन के बाद से ही मैंने निश्चय कर लिया था की मै आज के बाद जूता नही पहनुगा ! किस्सा जो उन्होंने सुनाया था वो इस प्रकार था ----------------------------------------
" शादी के बाद जब वो "दुआर बाट" ( दूसरी दफा) अपने ससुराल गए वापस आते समय उनको छोड़ने उनकी
सालिया भी कुछ दूर तक आई इस दौरान उन्होंने रबडशूल पहिन रखा था ! रास्ते में अचानक उनका जूता फिसला और वो भी फिसले ! इस क्रम को देखते हुए उनकी सालिया जोर जोर से हसने लगी ! हस्ते हुए एक साली ने एक व्यंग भी मार दिया जो उन्हें चुब गा था " ये जीजा थे जुतु पैरी हिट्णु भी नि आदु " वो दिन था और अंतिम समय तक वे नागे पौ ही रहे !
मेरा और उनका परिचय २०-२५ साल से उप्पर रहा होगा जयदा भी हो सकता था लेकिन मै उनसे २६ साल तक दूर चला गया था वरना ४० के आस पास का परिचय हुआ होता ! जहा तक मैंने उन्हें देखा वो सुरवाती दौर से लेकर अंतिम समय तक वो जिन्दगी की उस क्रूर नियती से लड़ते रहे ! बिरला मिल में थे ! एकाएक नौकरी चली गई ! नौकरी भी एसे समय गई जब उसकी उनहें बहुत जरूरत थी 1 बचे अभी छोटे थे ! समस्या ये आन पडी की घर चले तो कैसे ? स्वाभिमान उन में कूट कूट कर भरा हुआ था ! किसी से मदद या हाथ फैलाने से वो भूखे रहना पसंद करते थे ! इस समस्या का निदान उन्होंने अपने मित्रो के घर जा जा कर चाय बेचने का काम सुरु कर दिया ! घर का खर्चा चलाना कठीन था ! बचे बड़े बड़े होते जा रहे है ! इन प्रस्थितियो भी वे लिखते रहे और गडवाली साहित्य की मास्टर पीस किताब " अन्ज्वाल" को छापा !
उन दिनों देहली में गड-भारती नामक एक संथा भी बन गई थी जिसमे .. डन्ड्रीयल जी, बडोला जी, मित्रा जी
नेतारसिंह असवाल, विनोद उनियाल और मै उसके सदस्य थे .. इस संथा ने एक काम ये भी किया की गोसठीया
जो अभी तक बंध कमरों में हुया करती थी वो अब हालो में आने लगी ! इसमें मेरा भी योग दान था वो इसलिए की कन्स्टीटुयुशन कल्ब में गडवली कविता के लिए द्वार खुले हुए थे जहा मै काम करता था ! लोग जुड़े ! नए कबियो को मौका मिला !
सन १९८३- ८४ मै मैं एक काम और किया की, अपने स्वर्गीय पिता श्री पंडित टीकाराम गौड़ के नाम पर गड्वाली में, गडवली साहित्य में सबसे पहिला पुरुष्कार का श्री गणेस कर के डन्ड्रीयल जी को उनकी इस अमर क्रती पर तत्कालीन देहली के शिक्षा मंत्री कुलानद भारतीय जी के हाथो से वो पुरूस्कार दिया गया ! इसके बाद हमारे सम्बन्ध और भी गहरे होते चले गए ! उनका घर पर आना जाना था ! मेरी पत्नी के वे रिश्ते में चाचा थे !
उनके कबि खुकसाल ' बोल्या '' जी से गहरी मित्रता थी ! वे चाहते थे की ये मित्रता रिस्ते में बदल दी जाए लेकिन , उनकी एक चिंता थी की शादी कैसे होगी ! मैंने उन्हें कहा आप रिस्ता तैये करे बाकी मुझ पर छोड़ दे ! उन्होंने खुक्साल जी से अपनी लड़की बात पकी कर दी ! दिन भी तैय किया गया ! मैं अपनी और से जो कुछ बन पडा था मैंने किया ! कल्ब में बरात का स्वागत /भोजन की ब्यवस्था की / बारतियों को ठहररने की बय्वास्था बी पी हॉउस में की ! याने सब कुछ बहुत अच्ये तरीके से वो शादी हुई ! शादी के बाद दोनों जब मेरे पास आये और मुझे से कहने लगे की हम कैसे आपका ये ऋण चुकायेगे शादी मेरा जबाब था " इस बेटी को मुझे दे दो !" दोनों मेरे इस उत्टर से संतुस्ट हुए ! गुरुदेब के लिए दो काम करना मेरे लिए सैभाग्य की बात थी !
सन ८४ में , मेरे ऊपर दोस्त की कृपा से भयंकर आपदा आई .. मुझे अपनी नौकरी भी गवानी पडी ! देहली में रहकर २ साल मैंने कैसे काटे ये तो मै जानता हूँ या गुरुदेब जानते थे .. वो मेरे बारे में बड़े चिंतित थे ! जगह २ गए लेकिन , होने को कोई नही डाल सकता .! उन्होंने "कुयेडी " में मेरे बारमे और जो, दोस्तों ने मेरे साथ किया एक कबिता के रूप में ब्यान किया !
मुझे उनसे दूर बहुत दूर जाने का समय आ गया था ! सन १९८८ में मै बिदेश चला आया ! तब से और उनके जाने से एक साल पूरब याने २००६ तक मै यही रहा ! सायद यही उस ईस्वर का लेखा था ! मै यहाँ संघर्स रत था वे मेरे गैर हाजरी में मेरे घर जाते पत्नी व बचो को ठ्न्ठास बंधाते ! पत्नी मेरे से दूर का झटका बर्दास्त नहीं कर पाई जिसके कारण वो डिप्रेसन में चली गई ! उनको बड़ी चिंता थी अक्सर पत्र में लिखते थे ! इस दौरान उनकी किडनी फेल हो गई .. वो जिन्दगी और मौत से संघर्ष करने लगे ! मुझे इसकी तिनिक भी खबर ना थी ! एक रोज ललित केशवान जी से फोन पर बात चल रही थी की उन्होंने कहा की डंडरियाल जी को किडनी की बीमारी सुरु होगी है ! बड़ा आघात लगा ! संपर्क करने की पुरी कोशिश की उनके बगल में बुराडी में किसी सजान का फोन था .. बात की , उनसे तो हो नहीं पाई , लेकिन, उनकी श्रीमती जी से सारी बात का पता चला !
मै उन्ही कई साल से नहीं मिला था ! १८ १९ साल बाद सन २०० ६ मै भारत गया ! उनसे मिलनी को मन आतुर था ! मै और मेरी श्रीमती पूछते पाछते बुराडी पहुंचे ! सयाम हो चली थी ! पहुँचते देखा , दंद्रीयल जी घर के आंगन में एक चारपाई में लटे है ! कमजोरी के कारण वो बहुत ही पतले हो गए थे ! उन्होंने पत्नी को पहिचान लिया लेकिन मुझे नही ! मेरी पत्त्नी उनसे कहा " आप इनको नही पहिचान रहे हो ' तो , उन्होंने ना कहा ! .. मेरी पत्नी ने कहा " ये गौड्जी है " उन्हें एकीन ही नही आ रहा था की मै वहा पर हूँ बार बार मुझे देख रहे थे ! जब मैंने उन्हें कहा की मै ही गौड़ हूँ तो, उनके आँखों से आंसू की धरा बहने लगी और दोनों हात फैला कर वो मुझे अंग्वाल मार कर कहने लगे ..." मित्र बिंडी देर कैद्या आण पर ... " कहते कहते सिसकिया भरने लगे ! माहोल हमारे लिए बड़ा ही गम गीन हो गया था ! वो भी रो रहे थे तो मै भी !
थोड़ी देर इधर उधर कई बात करने के बाद उन्होंने मुझे अज्वाल का दुसरा संस्करण जो हाल में ही छपा था अपने हाथो से दिया ! जब हम दोनों के अलग होने का समय आ गया तो वो बोले " अपनी/ बेटी की, अर बचौ की कुसल छेम बरा बार दीद राया .... मेरी टी बस य्ख्मै तक समझा ... वो सब्द अभी मुझे याद है ! जब मै यहाँ चल आया तो पता चला की वो नही रहे ! सुनकर आघात लगा ! मै व्यक्तिगत हानि तो सह सकता था लेकिन पहाड़/पहाडी , गड्वाली -गढ़वाल की जो हानि हुई वो कैसी पूरी होगी यही सोचता रहा !
parashar gaud
canada