Author Topic: Articles By Rajendra Joshi - वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र जोशी जी के लेख  (Read 10937 times)

हेम पन्त

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जोशी जी आपके लेख पढकर बहुत अच्छा लगा. आपने अपने लेखों में आम जन-मानस के समर्थन में निर्भीकता से विचार रखे हैं. आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आप ऐसे सार्थक लेख हमारे बीच ’शेयर’ करते रहेंगे... धन्यवाद

Rajendra Joshi

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[move]नैनों को लेकर आमंत्रण तथा प्रस्ताव पर कशमकश
प्रदेश सरकार उद्योगों के पति चेतना शून्य
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राजेन्द्र जोशी

देहरादून > जहां एक ओर देश के सभी प्रांत टाटा को अपने राज्य से नैनो के उत्पादन के लिए आमंत्रित कर रहे हैं ऐसे में उत्तराखण्ड राज्य द्वारा नैनो के उत्पादन को लेकर टाटा के प्रस्ताव की इंतजारी अपने आप में यह बताने के लिए काफी है कि प्रदेश नेतृत्व में राज्य में उद्योगों को आमंत्रित करने के लिए कितनी संजीदगी है।
  उल्लेखनीय है कि पश्चिमी बंगाल के सिंगूर में नैनो के उत्पादन के लिए टाटा तथा वहां के प्रदेश नेतृत्व में बीते कुछ महीनों से खींचातानी चल रही है। जहां राज्य सरकार किसानों की भूमि पर नैनो के उत्पादन के लिए भूमि दे चुकी है वहीं इसी भूमि के लिए त्रिणमूल कांगे्रस तथा किसान सरकार के खिलाफ मुखर हैं वहीं इस संघर्ष में कई किसान अपनी जान से हाथ तक धो बैठे हैं। ईधर टाटा समूह के रतन टाटा भी एक बार अब यह सोचने के लिए विवश हैं कि वे इस संयत्र को ऐसे हालातों में ंिसंगूर में ही रहने दें अथवा अपनी इस महत्वाकांक्षी योजना शुरू करने के लिए किसी और जगह की तलाश करें। वैसे तो अब तक मिल रही जानकारियों के अनुसार टाटा के पंतनगर संयत्र चुपचाप से नैनों का उत्पादन शुरू कर भी दिया जा चुका है। एक जानकारी के अनुसार यहां रोज 50 से ज्यादा नैनों की एसेम्बलिंग का कार्य चल रहा है। इसके पीछे टाटा के अधिकारियों का तर्क है कि उनके मातहत रतन टाटा की महत्वाकांक्षी योजना है और वे इसे समय पर देश को देना चाहते हैं। चाहे इसमें कितनी परेशानी ही क्यों न आयें। पंतनगर के इस प्लांट में टाटा की छोटे व्यवसायिक वाहनों का उत्पादन होता है। यहां पर टाटा को राज्य सरकार ने लगभग 100 एकड़ भूमि दी हुई है जबकि अभी सरकार ने इन्हे यहां पर 50 एकड़ भूमि और आवासीय भवनों के लिए देने में सहमति जता दी है।
   गौरतलब हो कि टाटा की इस महत्वाकांक्षी लखटकिया कार को लेकर सिंगूर के विवाद के बाद देश के लगभग सभी राज्यों के नेताओं ने उन्हे अपने -अपने राज्यों में इसका संयंत्र लगाने को आमंत्रण भेजा है। लेकिन प्रदेश सरकार अभी भी टाटा के प्रस्ताव का इंतजार कर रही है। इस सम्बध में प्रदेश नेतृत्व द्वारा अभी तक कोई ठोस घोषणा नहीं की जा सकी है कि वह टाटा की इस योजना के प्रति कितनी उत्साहित अथवा संजीदा है। प्रदेश सरकार की इस तरह की चुप्पी को लेकर उद्योग जगत में इसके कई मायने लगाए जा रहे हैं। राज्य के उद्योगपतियों का कहना है कि जहां एक ओर पूर्व मुख्यमंत्री पण्डित नारायण दत्त तिवारी देश तथा विदेशों  में जा-जा कर प्रदेश में उद्योग लगाने के लिए उद्योगपतियों को आमंत्रित कर ते थे जिसका परिणाम है कि आज राज्य के पंतनगर, हरिद्वार तथा सेलाकुई, बाहदराबाद तथा भगवानपुर जैसे स्थानों में उद्योगों की भरमार हो गयी और इनके यहां स्थापित होने से राज्य के सैकड़ों बेराजगारों को रोजगार  भी मिला है जो किसी से छिपा नहीं है। लेकिन प्रदेश की वर्तमान सरकार उद्योगपतियों के प्रस्ताव का इंतजार कर रही है ऐसे में यह साफ है कि वर्तमान सरकार उद्योगों के प्रति कितनी सक्रिय है। इनका कहना है कि सरकार को टाटा जैसे उद्योग समूह के प्रस्ताव का इंतजार न कर प्रदेश सरकार की ओर से सीधे अपना प्रस्ताव रखना चाहिए ताकि राज्य का औद्यौगिक वातावरण और स्वस्थ हो सके और किसी स्वस्थ परम्परा भी बने।     
देहरादून(राजेन्द्र जोशी): नेनों को जमीन दिये जाने के मामले में सिंगूर के बाद यहां भी कृषि भूमि का मसला एक बार फिर सुर्खियों में है। प्रदेश के कृषि मंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत का कहना है कि उद्योगों का प्रदेश में स्वागत है लेकिन उद्योग कृषि भूमि के बजाय खाली पड़ी कृषि के अयोग्य भूमि पर लगाए जाने चाहिए। उनका साफ कहना है कि प्रदेश में कुल 11 फीसदी ही कृषि योग्य भूमि शेष बची है ऐसे में हमें पूरे प्रदेश के लिए खाद्यान्न की व्यवस्था भी करनी है। यदि कृषि भूमि पर उद्योग ही लगाए जांएगे तो आखिर खेती कहां होगी। [/size] [/color]
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Rajendra Joshi

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संजीवनी पर विवाद
ये सामान्य पादप हैं - वनस्पति वैज्ञानिक प्रोफेसर भट्टï
लोकव्यवहार में भी नहीं ऐसी बूटी- मनोहरकान्त ध्यानी
राजेन्द्र जोशी
देहरादून : पतंजलि योग पीठ के स्वामी बालकृष्ण तो हनुमान जी से भी तेज निकले जो सीधे द्रोणगिरी पर्वत पर जा पहुंचे और उस संजीवनी को उठा लाये, जिसकी  पहचान हनुमान जी तक को नहीं थी।  जबकि  हनुमान जी पूरा का पूरा द्रोणागिरी पर्वत उठाकर श्री लंका रख आये और जहां सुषेन वैद्य ने इस पर्वत से  ढंूढने के बाद लक्ष्मण की मूच्र्छा ठीक किया था। योग पीठ के स्वामी के इस दावे पर कि वे द्रोणागिरी पर्वत से संजीवनी ले आये हैं, पर अंगुलियां उठनी शुरू हो गयी हैं। कि जब हनुमान जी द्रोणगिरी पर्वत उठाकर श्री लंका रख आए हैं तो बालकृष्ण जी ने संजीवनी आखिर कौन से पर्वत से व कहां से ढंूढ़ी और यदि संजीवनी अभी तक बची है तो हनुमान जी क्या ले गए थे और क्या वह परम्परा भी झूठी है जो यहां के लोग हनुमान की की पूजा इस लिए नहीं करते कि वे इस क्षेत्र से पूरा का पूरा पहाड़ ही श्री लंका रख आए थे। इससे तो यह लगता है कि या तो हनुमान जी यहां से द्रोणागिरी पर्वत नहीं ले गये और या फिर यहां की लोकमान्यता ही गलत है।
 उल्लेखनीय है कि बीते दिनों पतंजलि योगपीठ के स्वामी बालकृष्ण द्वारा द्रोणागिरी पर्वत पर जाकर तीन दिन के भीतर ही वहां से संजीवनी बूटी लाने का दावा किया गया था। वहां से लौटने के बाद उन्होने बताया था कि संजीवनी बूटी चार औषधि पादपों से मिलकर बनी है जिसमें मृत संजीवनी, विषालया कर्णी,सुवर्ण कर्णी तथा संधानी शामिल हैं। लेकिन आचार्य के इस दावे सेे प्रदेश के पादप विज्ञानी प्रोफेसर राजेन्द्र भट्टï  सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि बालकृष्ण जी जिन पौधों की बात कर रहे हैं वनस्पति विज्ञान में वे असमान्य पादप नहीं हैं। वनस्पति शास्त्र में इन्हे सोसोरिया गोसिपी फोरा तथा सिलेनियम कहा जाता है। उन्होने वताया कि बालकृष्ण के हिसाब से वे अदभुत हो सकते हैं अथवा उन्हें उन्होने पहली बार देखा हो लेकिन वनस्पति विज्ञान की सैकड़ों पुस्तकों में इनका उद्हरण मिलता है, और वनस्पति विज्ञानियों को इसकी खूब जानकारी है। उन्हेाने बताया कि मध्य हिमालय के इस क्षेत्र के ऊंचे स्थानों जिन्हे बुग्याल कहा जाता है, में यह पौधे सामान्यतया मिलते हैं। उनका यह भी कहना है कि संजीवनी के बारे में अभी तक यह पता भी नहीं है कि वह केवल एक ही पादप था अथवा कई पाइपों के रस से बनी औषधि। उन्होने कहा बालकृष्ण को इसे संजीवनी  बताने से पहले इसका रसायनिक परीक्षण जरूर कराना चाहिए था। उन्होने भी इसे सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का गैर वैज्ञानिक तरीका बताया।
 वहीं श्री बदरीनाथ केदारनाथ मंदिर समिति के पूर्व अध्यक्ष तथा वर्तमान में योजना आयोग के उपाध्यक्ष मनोहर कांत ध्यानी जिन्हेाने अपने जीवन का अधिकंाश समय जोशीमठ, बदरीनाथ सहित इस मध्य हिमालय में गुजारा है बताते हैं कि यह केवल वाह-वाही लूटने का सस्ता तरीका है। उन्होने कहा कि वैज्ञानिकों के अनुसार हिमालय क्षेत्र को अभी पांच करोड़ साल पूरे हुए हैं जबकि त्रेतायुग में रामचन्द्र जी के समय को बीते अभी लगभग एक करोड़ 40 लाख साल ही हुए हैं। तब से लेकर अब तक प्रकृति में न जाने कितने बदलाव हुए हैं। वहीं उनके अनुसार राम काल के बाद महाभारत काल आया इसी समय से इन तीर्थ यात्राओं की शुरूआत हुई जब धौम्य मुनि पांडवों को इस मार्ग से ले कर गये थे। इस दौरान कहीं भी इस संजीवनी बूटी का जिक्र नहीं मिलता है। उनके अनुसार उत्तराखण्ड क्षेत्र प्राचीन काल से वैद्यों तथा रस शास्त्रियों की भूमि रही है तथा आयुर्वेद में यहां कई प्रयोग तथा अनुसंधान हुए हैं इतना ही नहीं स्थानीय लोगों के लोक व्यवहार में भी इस बूटी का कहीं कोई जिक्र नहीं है। ऐसे में यदि उन्होने वाकई यदि संजीवनी को खोजा है तो प्रशंसनीय है। 
  वहीं इस मामले पर राज्य के आयुर्वेद विज्ञान के जाने माने आयुर्वेद शास्त्री पंण्डित मायाराम उनियाल का कहना है कि लोकपरम्परा अथवा लोकव्यवहार में भी इसका अभी तक कहीं प्रयोग नहीं मिला है लिहाजा अभी इस पर शोध किया जान जरूरी है तभी किसी निर्णय पर पहुंचा जा सकता है। 
 
 


Rajendra Joshi

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पहाड़ी राज्य की राजधानी पहाड़ में ही हो- ध्यानी
[size=12pt]तीस साल में 12 लाख से ज्यादा लोगों ने किया पलायन
पलायन का असर विधानसभा सीटों पर भी
राजधानी को लेकर राज्यव्यापी बंद (कल)आज
राजेन्द्र जोशी
देहरादून : राज्य आन्दोलन के बाद अब एक बार फिर राजधानी के लिए आन्दोलन की सुगबुगाहट शुरू हो गयी है। राज्य आन्दोलनकारियों में शामिल रहे भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष तथा वर्तमान में राज्य योजना आयोग के उपाध्यक्ष मनोहर कान्त ध्यानी भी अब खुलकर बोलने लगे हैं कि पहाड़ी राज्य की राजधानी पहाड़ में ही होनी चाहिए, अन्यथा पहाड़ों से पलायन को रोकना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन भी हो सकता है।
  दो अक्टूवर को राज्य आन्दोनकारी संगठन संयुक्त संघर्ष समिति का राजधानी को लेकर राज्य व्यापी बन्द का आव्हान किया हुआ है। राज्य आन्दोलनकारियों का मानना है कि पहाड़ी राज्य की राजधानी पहाड़ में ही होनी चाहिए तभी इस पृथक पर्वतीय राज्य की परिकल्पना को पूरा किया जा सकता है अन्यथा पूर्ववर्ती उत्तरप्रदेश तथा उसकी राजधानी लखनऊ ही क्या बुरी थी। इस ताजे मामले पर प्रदेश भाजपा के स्तम्भ तथा वर्तमान में राज्य योजना आयोग के उपाध्यक्ष मनोहकांत ध्यानी का भी यही मानना है। बल्कि वे तो राज्य गठन से लेकर  राजधानी चयन आयोग क ी रिपोर्ट को मुख्यमंत्री तक को पेश किए जाने तक के समय को समय की बर्बादी कहने से नहीं झिझकते। उनका कहना है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के उपर  राजधानी चयन का जिम्मा डालना राजनीतिक भूल ही कही जा सकती है या इस मामले को इनके सुपुर्द करना इस मसले को ठंडे बस्ते में डालने की योजना ही मानी जा सकती है।
 उनका कहना है कि पलायन की विकरालता को इस मायने में समझा जा सकता है कि वर्ष 1971 में की तुलना में वर्ष 2001 के आते-आते इस राज्य के पर्वतीय इलाकों से 12 लाख की जनसंख्या का पलायन हुआ है। जिसका परिणाम राज्य में हुए परिसीमन मे देखने को मिला जब सूबे की आठ विधान सभा सीटें पर्वतीय क्षेत्र से कम हो गयी। विकास तथा असंतोष को देखते हुए पुर्नगठन आयोग ने बीच का रास्ता निकाला और दस फीसदी कम या अधिक के मानक को स्वीकार कर घटती हुई आठ विधानसभा सीटों  को छह सीटों में सीमित किया। घटती जनसंख्या का विकास पर असर को लेकर सीधे-सीधे केवल सांसद तथा विधायक निधि पर यदि विशेषण किया जाय तो इससे पर्वतीय क्षेत्र को लगभग 16 करोड़ रूपए साल नुकसान होगा। इसी औसत से प्रदेश की 4 हजार करोड़ की मानक विकास योजना पर नजर दौड़ाई जाय तो पर्वतीय क्षेत्र को साल भर में 30 करोड़ रूपयों की हानि होगी। इन सब बातों में ध्यान रखकर पहाड़ी राज्य की परिकल्पना की दृष्टि से 90 फीसदी पर्वतीय भाग को अधिमान देना जरूरी है।   
 उनका तो साफ कहना है कि पर्वतीय राज्य की राजधानी पर्वतीय क्षेत्र में होनी चाहिए ताकि वहां रहने वाले लोगों के उत्थान के लिए कुछ किया जा सके। उनके अनुसार जब पर्वतीय राज्य की राजधानी पर्वतीय क्षेत्र में होगी तो इससे समूचे क्षेत्र का विकास स्वत: ही होने लगेगा। उन्होने कहा कि इस पहाड़ी क्षेत्र से रोजगार की तलाश में पलायन का होना ही प्रमुख समस्या है जिसे रोकने के लिए पर्वतीय क्षेत्र में आकर्षण पैदा करना होगा तभी तो लोग वहां रूक पाएंगे।
   योजना आयोग के उपाध्यक्ष श्री ध्यानी का कहना है कि यदि राजधानी को देहरादून में ही रखने पर सरकार पर भारी दबाव पड़ता है तो इसके लिए हिमाचल, महाराष्ट्र तथा जम्मू कश्मीर की तर्ज पर भी व्यवस्था की जा सकती है कि राजधानी छह माह गैरसैंण में रहे और छह माह देहरादून में। उन्होने कहा इससे पहाड़ी क्षेत्र की उपेक्षा नहीं होगी तभी पहाड़ी राज्य की सार्थकता भी साकार हो पाएगी। 
 उनका कहना है कि हिमालयी क्षेत्रों में उत्पन्न हो रहे अशांति और अव्यवस्था को भी दृष्टि में रखना जरूरी है। सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र पूर्व से पश्चिम तक वर्तमान में अशांत होता जा रहा है। इसमें मात्र उत्तराखण्ड और हिमाचल ही दो राज्य ऐसे हैं जहां ऐसी काली छाया नहीं पड़ी है। लोगों के मनों को शांत रखने क ी दृष्टि से भी पर्वतीय क्षेत्र की राजधानी स्थायी रूप से आन्दोलन के प्रतीक रहे तथा प्रदेश की जनता में सर्वमान्य भाव से स्वीकृत गैरसैंण को ही बनाया जाना उपयुक्त होगा। आर्थिक अभाव क ी बात कहने वाले लोगों को इस बात को महत्व देना चाहिए। आर्थिक अभाव से निकलने के लिए प्रदेश व केन्द्र तथा उत्तरप्रदेश से राजधानी के लिए मिलने वाले धन को बराबर-बराबर नियत कर हर वर्ष पांच सौ करोड़ रूपयों के व्यय का प्रावधान रखा जाए। इससे बीस सालों में स्थाई राजधानी बनकर तैयार भी हो जाएगी और राज्य पर एक साथ अर्थिक बोझ भी नहीं पड़ेगा।
   
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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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I fully endorse the views of Joshi Ji on Capital issue of Uttarakhand. It seems that we may requirement one more movement for Capital. This has almost starated.

पहाड़ी राज्य की राजधानी पहाड़ में ही हो- ध्यानी
[size=12pt]तीस साल में 12 लाख से ज्यादा लोगों ने किया पलायन
पलायन का असर विधानसभा सीटों पर भी
राजधानी को लेकर राज्यव्यापी बंद (कल)आज
राजेन्द्र जोशी
देहरादून : राज्य आन्दोलन के बाद अब एक बार फिर राजधानी के लिए आन्दोलन की सुगबुगाहट शुरू हो गयी है। राज्य आन्दोलनकारियों में शामिल रहे भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष तथा वर्तमान में राज्य योजना आयोग के उपाध्यक्ष मनोहर कान्त ध्यानी भी अब खुलकर बोलने लगे हैं कि पहाड़ी राज्य की राजधानी पहाड़ में ही होनी चाहिए, अन्यथा पहाड़ों से पलायन को रोकना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन भी हो सकता है।
  दो अक्टूवर को राज्य आन्दोनकारी संगठन संयुक्त संघर्ष समिति का राजधानी को लेकर राज्य व्यापी बन्द का आव्हान किया हुआ है। राज्य आन्दोलनकारियों का मानना है कि पहाड़ी राज्य की राजधानी पहाड़ में ही होनी चाहिए तभी इस पृथक पर्वतीय राज्य की परिकल्पना को पूरा किया जा सकता है अन्यथा पूर्ववर्ती उत्तरप्रदेश तथा उसकी राजधानी लखनऊ ही क्या बुरी थी। इस ताजे मामले पर प्रदेश भाजपा के स्तम्भ तथा वर्तमान में राज्य योजना आयोग के उपाध्यक्ष मनोहकांत ध्यानी का भी यही मानना है। बल्कि वे तो राज्य गठन से लेकर  राजधानी चयन आयोग क ी रिपोर्ट को मुख्यमंत्री तक को पेश किए जाने तक के समय को समय की बर्बादी कहने से नहीं झिझकते। उनका कहना है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के उपर  राजधानी चयन का जिम्मा डालना राजनीतिक भूल ही कही जा सकती है या इस मामले को इनके सुपुर्द करना इस मसले को ठंडे बस्ते में डालने की योजना ही मानी जा सकती है।
 उनका कहना है कि पलायन की विकरालता को इस मायने में समझा जा सकता है कि वर्ष 1971 में की तुलना में वर्ष 2001 के आते-आते इस राज्य के पर्वतीय इलाकों से 12 लाख की जनसंख्या का पलायन हुआ है। जिसका परिणाम राज्य में हुए परिसीमन मे देखने को मिला जब सूबे की आठ विधान सभा सीटें पर्वतीय क्षेत्र से कम हो गयी। विकास तथा असंतोष को देखते हुए पुर्नगठन आयोग ने बीच का रास्ता निकाला और दस फीसदी कम या अधिक के मानक को स्वीकार कर घटती हुई आठ विधानसभा सीटों  को छह सीटों में सीमित किया। घटती जनसंख्या का विकास पर असर को लेकर सीधे-सीधे केवल सांसद तथा विधायक निधि पर यदि विशेषण किया जाय तो इससे पर्वतीय क्षेत्र को लगभग 16 करोड़ रूपए साल नुकसान होगा। इसी औसत से प्रदेश की 4 हजार करोड़ की मानक विकास योजना पर नजर दौड़ाई जाय तो पर्वतीय क्षेत्र को साल भर में 30 करोड़ रूपयों की हानि होगी। इन सब बातों में ध्यान रखकर पहाड़ी राज्य की परिकल्पना की दृष्टि से 90 फीसदी पर्वतीय भाग को अधिमान देना जरूरी है।  
 उनका तो साफ कहना है कि पर्वतीय राज्य की राजधानी पर्वतीय क्षेत्र में होनी चाहिए ताकि वहां रहने वाले लोगों के उत्थान के लिए कुछ किया जा सके। उनके अनुसार जब पर्वतीय राज्य की राजधानी पर्वतीय क्षेत्र में होगी तो इससे समूचे क्षेत्र का विकास स्वत: ही होने लगेगा। उन्होने कहा कि इस पहाड़ी क्षेत्र से रोजगार की तलाश में पलायन का होना ही प्रमुख समस्या है जिसे रोकने के लिए पर्वतीय क्षेत्र में आकर्षण पैदा करना होगा तभी तो लोग वहां रूक पाएंगे।
   योजना आयोग के उपाध्यक्ष श्री ध्यानी का कहना है कि यदि राजधानी को देहरादून में ही रखने पर सरकार पर भारी दबाव पड़ता है तो इसके लिए हिमाचल, महाराष्ट्र तथा जम्मू कश्मीर की तर्ज पर भी व्यवस्था की जा सकती है कि राजधानी छह माह गैरसैंण में रहे और छह माह देहरादून में। उन्होने कहा इससे पहाड़ी क्षेत्र की उपेक्षा नहीं होगी तभी पहाड़ी राज्य की सार्थकता भी साकार हो पाएगी। 
 उनका कहना है कि हिमालयी क्षेत्रों में उत्पन्न हो रहे अशांति और अव्यवस्था को भी दृष्टि में रखना जरूरी है। सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र पूर्व से पश्चिम तक वर्तमान में अशांत होता जा रहा है। इसमें मात्र उत्तराखण्ड और हिमाचल ही दो राज्य ऐसे हैं जहां ऐसी काली छाया नहीं पड़ी है। लोगों के मनों को शांत रखने क ी दृष्टि से भी पर्वतीय क्षेत्र की राजधानी स्थायी रूप से आन्दोलन के प्रतीक रहे तथा प्रदेश की जनता में सर्वमान्य भाव से स्वीकृत गैरसैंण को ही बनाया जाना उपयुक्त होगा। आर्थिक अभाव क ी बात कहने वाले लोगों को इस बात को महत्व देना चाहिए। आर्थिक अभाव से निकलने के लिए प्रदेश व केन्द्र तथा उत्तरप्रदेश से राजधानी के लिए मिलने वाले धन को बराबर-बराबर नियत कर हर वर्ष पांच सौ करोड़ रूपयों के व्यय का प्रावधान रखा जाए। इससे बीस सालों में स्थाई राजधानी बनकर तैयार भी हो जाएगी और राज्य पर एक साथ अर्थिक बोझ भी नहीं पड़ेगा।
  
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हेम पन्त

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जोशी जी हम लोग भी अपने फोरम के माध्यम से कोशिश कर रहे हैं कि विश्व भर में फैले प्रवासी उत्तराखण्डी लोगों, विशेषकर युवावर्ग को गैरसैंण राजधानी के विषय में जागरूक कर सकें.

आज घोषणा करने के बाद 20 साल बाद राजधानी तैयार होने का विचार तर्कसंगत नहीं लगता. इस तरह से तो यह मामला लम्बे समय के लिये लटक जायेगा और सम्भवत: हमेशा के लिये भी. सरकार को अधिकतम 3-4 साल के अन्तराल में गैरसैंण से अपना काम शुरु करने का लक्ष्य रखकर इस मुद्दे पर आगे बढना चाहिये..

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Joshi ji aapke Gyanvardhak aur tathyapurak lekh padh ke Uttarakhand se bahar rahte hue bhi Uttarakhand ke samacharon ki baangi mil jaati hai.

Regards,
Anubhav

Rajendra Joshi

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क्या इसी उत्तराखण्ड की मांग की थी?राजेन्द्र जोशी
देहरादून-:  राज्य आन्दोलन में कई आन्दोलनकारियों की शहादत के बाद हमें उत्तराखण्ड राज्य मिला। लेकिन क्या वह यही राज्य है जिसकी हमने कल्पना की थीï? नहीं यह राज्य तो वह नहीं हो सकता। राज्य के लिए अपने अमूल्य प्राणों को न्यौछावर करने वाले शहीदों तथा राज्य आन्दोनकारियों ने कल्पना की थी भ्रष्टïाचार मुक्त, शोषण मुक्त, भयमुक्त, तथा पलायन मुक्त राज्य की लेकिन आज जो राज्य दिखाई दे रहा है उसका चेहरा तो और भी भयावह नजर आता है। चारों ओर  लूट खसोट जारी है, अपराध दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है, राज्य आन्दोलनकारियों तथा उनके आश्रितों तक को नौकरी नहीं है, रोजगार की तलाश में युवा राज्य से पलायन करने को मजबूर हैं, राज्य से जल,जंगल तथा जमीन से जुड़े संसाधनों को बेचने की तैयारी चल रही है।  कहने को तो ईमानदार मुख्यमंत्री राज्य की सत्ता चला रहा है लेकिन दीपक तले अंधेरा की कहावत तो आपने सुनी ही होगी। आज आम पर्वतीय जनमानस आज अपने को ठगा सा महसूस कर रहा है। रोजगार की तलाश में फिर वही दिल्ली, मुम्बई तथा पंजाब की ओर यहां के लोगों का रूख तो कम से कम यही साबित करता है कि यहां बाहरी प्रदेशों के बेरोजगारों को तो रोजगार है लेकिन यहां पैदा होने वाले बच्चों के लिए रोजगार नहीं। जहां तक आन्दोलनकारियों का मामला है राज्य को कई जातियों तथा उप जातियों , क्षेत्रों तथा भाषा तक में सत्ता के दलालों ने बांट दिया है। क्या वे व्यवसायी राज्य आन्दोलनकारी नहीं है जिन्होने तीन-तीन चार-चार महीनों तक अपनी दुकानें तथा व्यवसायिक प्रतिष्ठïानों को राज्य आन्दोलन के चलते बन्द रखा। क्या वे छोटे दुकानदार राज्य आन्दोलनकारी नहीं है जिन्होने तीन-तीन महीने से लेकर छह-छह महीने तक वेतन न मिलने पर राज्य में कार्यरत कर्मचारियों को उधार में राशन आदि की भरपाई की। लेकिन आज वे व्यवसायी भी राज्य में दरकिनार कर दिये गये हैं। उनके स्थान पर दिल्ली,मुम्बई ,गुडग़ांव तथा आसपास के क्षेत्रों के बड़े-बड़े व्यवसाईयों ने इनके व्यवसाय पर कुठाराघात किया है। राज्य के निवासियों की तरह ही इनके भी हालात है। अस्थाई राजधानी भले ही देहरादून में बनी है लेकिन इसका लाभ बाहरी राज्यों के व्यवसाईयों को मिल रहा है। राज्य में भ्रष्टïाचार की पराकाष्ठïा भी पार हो चुकी है। जिन कार्यों को राज्य बनने से पूर्व लोग यूं ही करा दिया करते थे आज उन कार्योंं के मुहं मांगे पैसे कर्मचारी वसूल रहे हैं। सभी पैसे के पीछे भाग रहे हैं। राज्य बनने के दौरान से अब तक यहां कई ऐसे-ऐसे प्रशासनिक अधिकारी आए जिनकी गिनती कभी उत्तरप्रदेश के भ्रष्टïतम अधिकारियों में होती थी। जो यहां के लोगों का शोषण कर अपनी जेबें ही नहीं बल्कि संदूक तक काली कमाई से भरकर राज्य से निकल चुके हैं। इनकी कमाई करोड़ों नहीं बल्कि अरबों तक में जा पहुंची है। प्रदेश की अस्थाई राजधानी देहरादून तथा आस पास के क्षेत्रों में इन्होने करोड़ों की जमीनों पर निवेश तक किया हुआ है। अस्थाई राजधानी में नैतिकता तथा मानवता को सभी ने गिरवी रख दिया है। यह सब क्यों हो रहा है।  इसका जवाब तलाशने की कोशिश कर रहा हूंं। लेकिन मोटे-मोटे तौर पर यह कह सकता हूं कि इस राज्य तथा यहां के निवासियों का तब तक शोषण होता रहेगा जब तक यहां के लोगों की अपनी सरकारें नहीं बन जाती। उत्तराखण्ड क्रांति दल जिसे यहां के लोगों ने अपना समझा था वह भी सत्ता सुख पाने के कारण कभी कांग्रेस की गोद में तो अब भाजपा की सहयोगी बनकर सो रही है। ऐसे में राज्य में एक और नये राजनीतिक दल की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है। जिसका सरोकार राज्य से हो राज्यवासियों से हो। देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों में भी ठीक इसी तरह की घटनाएं हुई थी तभी तो वहां आज अशांति है लेकिन यह क्षेत्र देशरक्षक,देशभक्त लोगों का है। सरकारों को यहां के लोगों के धैर्य की परीक्षा नहीं लेनी चाहिए अन्यथा यहां एक और आन्दोलन जन्म ले सकता है। राज्य में काबिज राष्टï्रीय दल अपनी-अपनी सरकारों को बचाने के लिए प्रति माह करोड़ों रूपया अपने दिल्ली में बैठे आकाओं तक पहुंचा रहे हैं और ये यहां जनता का खून चूस रहे हैं लेकिन अभी तक इनका पेट नहीं भरा है और यह न जाने कब भरेगा। 
  राज्य वासियों को भी चाहिए कि वे जो लोग अपने गांवों को छेाड़ बाहर निकल गये हैं उन्हे वापस आकर राज्य के विकास में शामिल होना चाहिए। यही कारण है कि आज रोजगार की तलाश में प्रदेश की 12 लाख से भी ज्यादा की जनसंख्या ने बीते 20 सालों में इस राज्य से पलायन किया है। जिसका परिणाम हमें अपनी विधानसभा में आठ विधानसभा सीटों को गंवाने के रूप में मिला। मेरा तो अप्रवासी उत्तराखण्डियों से विनम्र अनुरोध होगा कि वे 2011 में होने वाले जनसंख्या आकलन के दौरान अपने-अपने गांवों में आकर रहे ताकि राज्य का समुचित विकास हो सके और इस पर्वतीय राज्य की परिकल्पना को पूरा किया जा सके।

हेम पन्त

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जोशी जी आपके लेख से उत्तराखण्ड की वर्तमान वास्तविक स्थिति का बङा निराशाजनक खाका सामने दिखता है. यह राज्य उत्तराखण्ड राज्य के लिये आन्दोलन करने वाले और शहीद होने वाले लोगों के सपनों का राज्य बन पाने में निश्चय ही बुरी तरह विफल रहा है. पहले परिसीमन के मुद्दे पर विफलता और अब गैरसैण के मुद्दे पर सरकार की चुप्पी देखकर हर सच्चे उत्तराखण्डी का मन आक्रोश से भरा हुआ है.

Rajendra Joshi

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क्या इसी उत्तराखण्ड की मांग की थी? राजेन्द्र जोशी

देहरादून-: राज्य आन्दोलन में कई आन्दोलनकारियों की शहादत के बाद हमें उत्तराखण्ड राज्य मिला। लेकिन क्या वह यही राज्य है जिसकी हमने कल्पना की थीï? नहीं यह राज्य तो वह नहीं हो सकता। राज्य के लिए अपने अमूल्य प्राणों को न्यौछावर करने वाले शहीदों तथा राज्य आन्दोनकारियों ने कल्पना की थी भ्रष्टïाचार मुक्त, शोषण मुक्त, भयमुक्त, तथा पलायन मुक्त राज्य की लेकिन आज जो राज्य दिखाई दे रहा है उसका चेहरा तो और भी भयावह नजर आता है। चारों ओर लूट खसोट जारी है, अपराध दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है, राज्य आन्दोलनकारियों तथा उनके आश्रितों तक को नौकरी नहीं है, रोजगार की तलाश में युवा राज्य से पलायन करने को मजबूर हैं, राज्य से जल,जंगल तथा जमीन से जुड़े संसाधनों को बेचने की तैयारी चल रही है। कहने को तो ईमानदार मुख्यमंत्री राज्य की सत्ता चला रहा है लेकिन दीपक तले अंधेरा की कहावत तो आपने सुनी ही होगी। आज आम पर्वतीय जनमानस आज अपने को ठगा सा महसूस कर रहा है। रोजगार की तलाश में फिर वही दिल्ली, मुम्बई तथा पंजाब की ओर यहां के लोगों का रूख तो कम से कम यही साबित करता है कि यहां बाहरी प्रदेशों के बेरोजगारों को तो रोजगार है लेकिन यहां पैदा होने वाले बच्चों के लिए रोजगार नहीं। जहां तक आन्दोलनकारियों का मामला है राज्य को कई जातियों तथा उप जातियों , क्षेत्रों तथा भाषा तक में सत्ता के दलालों ने बांट दिया है। क्या वे व्यवसायी राज्य आन्दोलनकारी नहीं है जिन्होने तीन-तीन चार-चार महीनों तक अपनी दुकानें तथा व्यवसायिक प्रतिष्ठïानों को राज्य आन्दोलन के चलते बन्द रखा। क्या वे छोटे दुकानदार राज्य आन्दोलनकारी नहीं है जिन्होने तीन-तीन महीने से लेकर छह-छह महीने तक वेतन न मिलने पर राज्य में कार्यरत कर्मचारियों को उधार में राशन आदि की भरपाई की। लेकिन आज वे व्यवसायी भी राज्य में दरकिनार कर दिये गये हैं। उनके स्थान पर दिल्ली,मुम्बई ,गुडग़ांव तथा आसपास के क्षेत्रों के बड़े-बड़े व्यवसाईयों ने इनके व्यवसाय पर कुठाराघात किया है। राज्य के निवासियों की तरह ही इनके भी हालात है। अस्थाई राजधानी भले ही देहरादून में बनी है लेकिन इसका लाभ बाहरी राज्यों के व्यवसाईयों को मिल रहा है। राज्य में भ्रष्टïाचार की पराकाष्ठïा भी पार हो चुकी है। जिन कार्यों को राज्य बनने से पूर्व लोग यूं ही करा दिया करते थे आज उन कार्योंं के मुहं मांगे पैसे कर्मचारी वसूल रहे हैं। सभी पैसे के पीछे भाग रहे हैं। राज्य बनने के दौरान से अब तक यहां कई ऐसे-ऐसे प्रशासनिक अधिकारी आए जिनकी गिनती कभी उत्तरप्रदेश के भ्रष्टïतम अधिकारियों में होती थी। जो यहां के लोगों का शोषण कर अपनी जेबें ही नहीं बल्कि संदूक तक काली कमाई से भरकर राज्य से निकल चुके हैं। इनकी कमाई करोड़ों नहीं बल्कि अरबों तक में जा पहुंची है। प्रदेश की अस्थाई राजधानी देहरादून तथा आस पास के क्षेत्रों में इन्होने करोड़ों की जमीनों पर निवेश तक किया हुआ है। अस्थाई राजधानी में नैतिकता तथा मानवता को सभी ने गिरवी रख दिया है। यह सब क्यों हो रहा है। इसका जवाब तलाशने की कोशिश कर रहा हूंं। लेकिन मोटे-मोटे तौर पर यह कह सकता हूं कि इस राज्य तथा यहां के निवासियों का तब तक शोषण होता रहेगा जब तक यहां के लोगों की अपनी सरकारें नहीं बन जाती। उत्तराखण्ड क्रांति दल जिसे यहां के लोगों ने अपना समझा था वह भी सत्ता सुख पाने के कारण कभी कांग्रेस की गोद में तो अब भाजपा की सहयोगी बनकर सो रही है। ऐसे में राज्य में एक और नये राजनीतिक दल की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है। जिसका सरोकार राज्य से हो राज्यवासियों से हो। देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों में भी ठीक इसी तरह की घटनाएं हुई थी तभी तो वहां आज अशांति है लेकिन यह क्षेत्र देशरक्षक,देशभक्त लोगों का है। सरकारों को यहां के लोगों के धैर्य की परीक्षा नहीं लेनी चाहिए अन्यथा यहां एक और आन्दोलन जन्म ले सकता है। राज्य में काबिज राष्टï्रीय दल अपनी-अपनी सरकारों को बचाने के लिए प्रति माह करोड़ों रूपया अपने दिल्ली में बैठे आकाओं तक पहुंचा रहे हैं और ये यहां जनता का खून चूस रहे हैं लेकिन अभी तक इनका पेट नहीं भरा है और यह न जाने कब भरेगा। राज्य वासियों को भी चाहिए कि वे जो लोग अपने गांवों को छेाड़ बाहर निकल गये हैं उन्हे वापस आकर राज्य के विकास में शामिल होना चाहिए। यही कारण है कि आज रोजगार की तलाश में प्रदेश की 12 लाख से भी ज्यादा की जनसंख्या ने बीते 20 सालों में इस राज्य से पलायन किया है। जिसका परिणाम हमें अपनी विधानसभा में आठ विधानसभा सीटों को गंवाने के रूप में मिला। मेरा तो अप्रवासी उत्तराखण्डियों से विनम्र अनुरोध होगा कि वे 2011 में होने वाले जनसंख्या आकलन के दौरान अपने-अपने गांवों में आकर रहे ताकि राज्य का समुचित विकास हो सके और इस पर्वतीय राज्य की परिकल्पना को पूरा किया जा सके

 

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