Author Topic: Articles By Rajendra Joshi - वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र जोशी जी के लेख  (Read 10891 times)

हेम पन्त

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जोशी जी "निशंक" साब को आपका यह लेख जरूर पढना और समझना चाहिये.. वो तो आंकड़ों की जादूगरी दिखा कर अलग ही नजारा पेश कर रहे हैं... जिन शहीदों की शहादत के फलस्वरूप उत्तराखण्ड राज्य बना वो जरूर स्वर्ग से इसकी दुर्गति देखकर दुख जता रहे होंगे...

Rajendra Joshi

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पांच हजार की मशीन पचास हजार में खरीदी

राजेन्द्र जोशी

देहरादून : प्रदेश के जलागम परियोजना के अधिकारियों ने अपनी जेब भरने के लिए पांच हजार रूपए की एक मिक्सर मशीन को पचास हजार में खरीद डाला। उपर से अधिकारियों की यह धमकी कि यदि किसी ने शिकायत की तो वे इस परियोजना को ही बंद करवा देंगे। यह हुई न चोरी भी और सीना जोरी भी। उधार की रकम से घी पीने की उत्तराखण्ड के अधिकारियों की पुरानी आदत है। तभी तो जलागम प्रबंध निदेशालय के मातहत अधिकारियों ने विश्व बैंक से राज्य को उधार में मिले रूपयों को इस कदर पानी की तरह बहाया कि शायद ही कोई अधिकारी होगा जिसने रूपयों की बहती इस गंगा में हाथ साफ न किये हों।

उल्लेखनीय है कि राज्य के जलागम प्रबंध निदेशालय के अधिकारियों नें यू डी डब्ल्यू डी पी योजना के अंतर्गत् गढ़वाल तथा कुमांयूं क्षेत्रों के ग्रामीणों को चीड़ के पेड़ की पत्तियों से कोयला बनाने की योजना शुरू की है। इसके पीछे मंतव्य तो साफ था कि ग्रामीण उनके आस -पास के जंगलों से चीड़ की पत्तियों जिसे निष्प्रयोज्य माना जाता है ,को एकत्र करें और इसे ईंधन के रूप में प्रयोग करें। लेकिन नीचे आते इस योजना को ही ग्रहण लग गया और अधिकारियों ने इस योजना जिसमें राज्य सरकार को विश्व बैंक से कर्जे में एक बहुत बड़ी रकम मिली है को ही ठिकाने लगाने के प्रयास शुरू हो गए। विश्व बैंक से मिले कर्ज की रकम इन भ्रष्ट अधिकारियों को तो वापस नहीं करनी है तो रूपयों की बेदर्दी से खर्च करने में भी इन्हे दर्द का अहसास आखिर क्यों होता। सो इन्होने कर्ज के रूप में राज्य को मिले रूपयों को अपनी जेबें भरने क ी नीयत से एक सप्लायर के साथ मिलकर ठिकाने लगाने की योजना बना डाली।

सूत्रों के अनुसार निविदा प्रक्रिया पूरी किए बिना इन अधिकारियों ने सीधे ही पांच हजार में बाजारों में आमतौर से बिकने वाली मशीन को पचास हजार में यह कहकर खरीद डाला कि यह मशीन चीड़ के पेड़ की पत्तियों से कोयले को आकार देने के लिए विशेष तौर पर बनायी गयी है। जबकि इस मशीन में पत्तियों को डालने से पहले उन्हे एक तंन्दूर जैसे उपकरण में जलाया जाता है जिसके अवशेष को बाद में गोबर तथा मिट्टी में हाथ से मिलाया जाता है । यह मशीन मात्र गोबर मिट्टी तथा पत्तियों को मिलाकर बनाए गए पेस्ट को शक्ल ही देता है जबकि हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में परम्परागत तरीके से गोबर से उपले बनाने की तकनीक पहले से ही है जिन्हे हाथ से शक्ल दी जाती रही है। इससे तो यह साफ है कि मात्र अपनी जेबें भरने के लिए ही यह मशीनें खरीदी गयीं हैं।

इतना ही नहीं इन मशीनों को खरीदने से पहने जलागम परियोजना के अधिकारियों ने इससे बनने वाले कोयले का रसायनिक परीक्षण भी नहीं करवाया। जबकि वैज्ञानिकों का मानना है कि चीड़ की पत्तियों को हवा में जलाने से भीषण रसायनिक प्रक्रिया होती है जो जहरीली गैसों (मिथेन) को उत्सर्जित भी करती है। जिससे प्राणियों को जान तक का खतरा हो सकता है। इतना ही नहीं इस मशीन पर जो दो हार्स पावर की विद्युत मोटर लगाई गई है उस पर कितनी बिजली खर्च होगी इसकी भी गणना अधिकारियों ने नहीं की है। वहीं इसको चलाने पर आने वाले खर्च तथा मोटर की मरम्मत पर आने वाले खर्च को कौन वहन करेगा यह भी साफ नहीं है। जबकि जंगल से चीड़ की पत्तियों को ढो कर लाने तथा गांव में गोबर एकत्र करने सहित इससे कोयले को बनाने के लिए क्या ग्रामीण तैयार हैं इसकी भी रिपोर्ट विभाग के पास नहीं है। यहां यह भी पता चला है कि वन विभाग द्वारा हिमाचल प्रदेश तथा उत्तराखण्ड में पूर्व में ही इस तरह की योजना चलाई गयी थी जोकि फ्लप शो साबित हुई। इसके बाद विभाग को यह योजना बंद करनी पड़ी थी।

सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार जलगम विभाग ने इससे पहले भी इसी तरह से सरकार के पैसे को चूना लगाने की नियत से कई तरह के करोड़ों रूपयों के निष्प्रयोज्य उपकरण खरीदे है जिनका प्रयोग आज तक नहीं किया जा सका है और ये विभाग के गोदामों में धूल फांक रहे हैं। इनमें अभी-अभी करोड़ों में खरीदे गए टर्बेक्यूमीटर तथा मौसम यंत्र शामिल हैं।

वहीं सरकार ने इस मामले के संज्ञान में आने के बाद इसकी जांच के आदेश दे दिये हैं। मंख्यमंत्री ने मामले की जांच मुख्य सचिव को सौंप दी है।


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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जोशी जी.. आपके विचारो से बिलकुल सहमत हूँ.

वास्तव यह पहला दशक उत्तराखंड के लिए बेहफ निराशापूर्ण रहा है!

    हताशा  व निराशा के दस साल  राजेन्द्र जोशी 
नौ नवम्बर को उत्तराखण्ड 10 वर्ष का हो गया। यूं तो दस साल का सफर कोई बहुत ज्यादा  नहीं होता लेकिन खुदा कसम बहुत कम भी तो नहीं होता। दस वर्षों में किसी भी नवजात शिशु  के आकार मजबूत तथा उसकी बुनियाद ठोस पड़ती है। लेकिन अफसोस कि शिशु रूपी यह उत्तराखण्ड  कुपोषण का शिकर हो गया जिस राज्य ने इन दस सालों में पांच मुख्यमंत्री तथा आठ मुख्य सचिव बदलते हुए देखे हों  उस राज्य में तरक्की की कल्पना करना भी बेइमानी जैसी लगती है। राज्य के मुख्यमंत्री  खजाना लुटाने में मस्त रहे तो नौकरशाही दुम हिलाकर इस खजाने को ठिकाने लगाने में मशगूल  रही। राजनीतिक तौर पर भलेही कंगाली आज भी जारी है लेकिन राजनेताओं व ब्यूरोक्रेट के  गठजोड़ ने इस राज्य को लूटने का पूरा इंतजाम कर रखा है। जहां उत्तरप्रदेश के जमाने में  इस राज्य को दो मण्डलायुक्त चलाते थे वहीं इस राज्य को अब एक मुख्यमंत्री सहित दो –दो  मुख्य सचिव चला रहे हैं। कर्मचारियों के वेतन के लिए तो हर दस साल में आयोग समीक्षा  करता है लेकिन प्रदेश के नेताओं तथा दायित्वधारियों को प्रमुख सचिवांे के बराबर वेतन  की मंजूरी जरूर मिल गयी है। जो लगभग हर साल बढ़ रही है। इतना ही नहीं यह प्रदेश ब्यूरोक्रेटों  के सेवा काल के बाद रोजगार का आशियाना भी बन गया है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि शायद  उत्तराखण्ड देश का एकमात्र ऐसा राज्य होगा जहां बेरोजगारों को तो रोजगार के अवसर अभी  तक नहीं ढूंढे जा सके है लेकिन सेवानिवृति के बाद बड़े अधिकारियों के रोजगार के अवसर  सुरक्षित हैं। इस राज्य की इससे बड़ी बदकिस्मती क्या हो सकती है कि दस वर्षो के बाद  भी इसकी अपनी कोई स्थायी राजधानी नहीं है। सरकारें दीक्षित आयोग की आड़ में जनता भी  भावनाओं और पहाड़ी राज्य की अवधारणा से खुले आम खिलवाड़ कर रही है। जबकि वहीं दूसरी ओर  देहरादून में स्थायी राजधानी के पूरे इंतजामात सरकारों ने कर दियाहै। देहरादून में  अब तक कई विभागों ने अपने स्थायी निदेशालयों तक के भवन तैयार ही नहीं कर दिये बल्कि  वहां से काम भी शुरू हो चुकाहै।
 
  राजनीतिक स्वार्थ की चर्बी राजनेताओं में इस हद तक चढ़ चुकी है कि परिसीमन जैसा गंभीर  मुद्दा नेताओं ने स्वीकार कर अंगीकृत तक कर लिया है। नये परिसीमन का आलम यह है कि वर्ष  2032 के बाद उत्तराखण्ड के पहाड़ी हिस्सों में कुल 19 सीटें ही बच पायेंगी। जबकि 51  सीटों के साथ मैदान मालामाल होंगे। साफ है कि आने वाले दो दशक बाद हम एक बार फिर उत्तरप्रदेश  के दूसरे संस्करण का हिस्सा होंगे। वहीं दूसरी ओर देश में उत्तराखण्ड जैसी परिस्थिति  वाले उत्तर-पूर्वी राज्यों में आवादी के हिसाब से नहीं बल्कि भौगोलिक क्षेत्रफल के  आधार पर विधानसभा क्षेत्रों का परिसीमन किया गया है। उत्तराखण्ड के साथ यह बड़ी विडम्बना  ही कही जा सकती है कि यहां अब भी उत्तरप्रदेश की मानसिकता वाले राजनीतिज्ञ व ब्यूरोक्रेट  राजनीति व नीति निर्धारण में पूरी तरह से सक्रिय है जिसके चलते राज्य गठन की मूल अवधारणा  पूरी नहीं हो पा रही है बल्कि नये परिसीमन तो कुछ पहाड़ विरोधी नेताओं को ऐसे हथियार  के रूप में मिला है जो उत्तराखण्ड के स्वरूप को ही बिगाड़ देगा। आगे चल कर यह राज्य  उत्तराखण्ड की जगह दो खण्डों में विभक्त न हो जाये इस से इंन्कार नहीं किया जा सकता।  विकास का सारा आधारभूत ढांचा जिस तरह से राज्य के तराई के क्षेत्र में ही विकसित किया  जा रहा है यह इस बात का रोलमाडल है कि तराई मिनी उत्तरप्रदेश के रूप में तब्दील होता  जा रहा है।
   पलायन पहाड़ की सबसे बड़ी समस्या रही है। लेकिन राज्य बनने के बाद यह मर्ज कम होने  के बजाय और बढ़ गया है। पहाड़ों के जो लोग पहले लखनऊ, दिल्ली व मुम्बई जैसे स्थानों पर  रोजगार की तलाश करते-करते बर्तन मांजते थे। नीति निर्धारकों ने उनके  लिए रोजगार  के नये दरवाजे खोलने के बजाय बर्तन मलने की देहरादून, हरिद्वार तथा हलद्वानी जैसे स्थानों  पर व्यवस्था कर दी है। उत्तराखण्ड से बाहर के लोगों से रिश्वत लेकर इन्हे माईबाप बनाने  में हमारे नेता एक सूत्रीय कार्यक्रम में जुटे हुए हैं। खेती बाड़ी पहले ही बिक चुकी  थी सो रहे सहे गाड़ गधेरे इन सरकारों ने बेच डाले हैं। दस सालों में पंचायती राज एक्ट,  कृषि नीति, शिक्षा नीति और न जाने कितनी ही और नीतियां न हीं बन पायी हैं। विकास की  चकाचौंध हलद्वानी, हरिद्वार और देहरादून में ही दिखायी देती है। इसकी एक नन्ही सी किरण  भी पहाड़ी गांवों व कस्बों तक नहीं पहुंची है अपराधी और माफियाओं के लिए सत्ता प्रतिष्ठान  आश्रय के केन्द्र बने हुए हैं तो सत्ताधीश उनके कवच का काम कर रहे हैं। राजनीतिक कंगाली  इस हद तक गहरा गयी है कि विकास की उम्मीदों के अब सिर्फ निशां ही बाकी हैं। राज्य का  असल नागरिक लाचार और हताश है।

 

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