Author Topic: Articles by Scientist Balbir Singh Rawat on Agriculture issues-बलबीर सिंह रावत ज  (Read 25906 times)

Dr. Balbir Singh Rawat

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Marketing of agril produce
« Reply #10 on: September 29, 2012, 07:12:35 AM »
कृषि उपजों की बिक्री पहाड़ों में समस्या इसलिए है की एक क्षेत्र में उपज की उपलब्धि का बहुत कम होना. लोकल बाज़ार में जितनी खपत होती है उतना तो बिक जायेगा, परन्तु लोकल मांग भी तो बहुत  कम है. इस कारण उपज को दूर के बाज़ार में भेजना पड़ता है . इस कारन अगर मात्रा कम है तो लदान  धुलान और परिवहन के खर्चे अधिक होने से मुनाफ़ा बहुत कम रह जाता है.
इस के लिए खेती को व्यापारिक str पर करना आवश्यक है . यह है तो मुश्किल काम की एक इलाके के सारे कृषक एक ही तरह की उपज पैदा करें और उसे नजदीक के लाभ कारी बाज़ार में बेचें  जब कहीं आकर्षक मात्रा में कोई उपज मिलती है तो बड़े व्यापारियों के प्रतनिधि पुरी उपज को खेतों में ही खरीद लेते हैं. न होने पर किस्सनों की अपनी सहकारी संस्था या फिर कोई स्थानीय व्यापारी ही उपज खरीदने को आगे आ सकता है. मूल में है की उपज की मात्रा व्यापारिक स्तर की हो, अछि किस्म की हो और लगातार मिलती रहे.
अब विशेष प्रश्न उठता है की सारे किस्सनो को कैसे राजी किया जाय.  इसके लिए उड्डयन, कृषि, पशुपालन इत्यादि बिभागों के प्रसार अधिकाररी हैं, कृषि विज्ञान केन्द्रों के और पंतनगर वि वि के प्रसार विभाग  के लोग हैं. इनका फायदा उठाना जरूरी है. ये लोग बटन काम न करके भी पा लेले हैं तो इनके पैरों के नीचे के ताव्वे थोडा गरम करना जरूरी है. अगर हीला हवाली करते हिएँ तो पंचायत, विधायक, अख़बार में टी वी चानेल में बताईये. आप सक्रिय और  जुझारू होंगे तभी बात बनेगी. कुछ prgatisheel किसान भी ऐसे बदलाव के वाहक बन सकते हैं. जो विकल्प अप की परिस्तिथियों में सही बैठता है उसे अपनाईये और आगे बढ़ने की जिद पर कायम रहिये.   

Dr. Balbir Singh Rawat

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Re: Marketing of agril produce
« Reply #11 on: September 29, 2012, 07:36:23 AM »
marketing of produce to earn a profit is the aim of commercial farming. For this a large number of growers in an area have to produce the same produce, the quality should be good and the quantity as much as is demanded by the chosen market. Local markets are so small that they  are not attractive, distant markets need grading, packing,loading unloading and transport to the Mandi and pay the dues they charge They fix a buying price depending upon the quantities of supplies coming in and the demand of buyer traders.
Since no single farmer can do this alone, so all of them have to join in, may be their cooperative society, or an agent of the wholesalers of big markets, or a local trader collecting from all growers, The best suiting agency can be opted for.
It is not that easy for new growers to understand the mechanisms of marketing their produce. They need guaidance. It should be available with the BDO, the local officers of the concerned govt departments, the Krish Vigyan kendras, then Extension Division of the Pant Agril University.
 Be agressive, persistent, in case of resistance, contact local party office of the ruling party, your MLA, or the press and TV if needed. All these departments are there to help, so pester them till they get activated.     

Dr. Balbir Singh Rawat

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Re: Marketing of agril produce
« Reply #12 on: September 29, 2012, 11:34:47 PM »
व्वाव्सायिक खेती के लिए एक अकेले या कई कृषकों के समूह के पास इतनी उपज होनी चाहिए की उसे मंदी तक लेजाने के कुल खर्चे न्यूनतम हों. इसलिए ये जरूरी है की खेत किसी सरल मार्ग के आस पास हों, चाहे वोह motor सड़क हो या सुगम पैदल, घोड़े खाछार या रज्जू मार्ग हों. उपज की कुल मात्रा इतनी हो की मोटर मार्ग पर एक ट्रक पूरा भर जाय. तभी प्रति क़ुइन्तल ट्रासपोर्ट की लागत कम होगी और शुद्ध मुनाफ़ा अधिक.
 
मात्रा के साथ साथ उपज की गुणवत्ता भी अछि होना जरूरी है. गुणवत्ता में उपज का आकर, रंग, पक्क्वाता, उसमे अन्य पदाढ़तों की न होना, कीटनाशक या अन्य दवाइयों के अवशेष न हों, और उसकी भंडारण आयु भी सामान्यतः स्वीकार्य हो.

इन साड़ी तकनीकियों की जानकारी , साजो सामान और प्रयोग विधि का समुचित उपयोग करना भी आवश्यक है.

साथ ही साथ baazaar र्की जानकारी भी होनी चाहिए की थोक मूल्यों में कब kaise उतार चढ़ाव होते हैं और उपज तभी बेचनी चाहिए जब शुद्ध लाव अधिकतम स्वीकार्य हो. कुछ उपजें शीघ्र ही खराब हो जाती हैं, उन्हें बेचना ही पड़ता है, कुछ के न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित होते हैं अगर वे समय के साथ बाज़ार के खरीद मूल्यों से मेल नहीं खाते तो उनमे सुधार के लिए कदम उठाने चाहिए.
यानी आज के जमाने के किसानो को हर सम्बंधित सूचनाओं से अवगत रहना जरूरी है, परस्पर बिचार विमर्श,अखबारों और अन्य स्रोतों से सूचनाये लेना, और अपने लाव के लिए संघर्श्गत रहना इस व्यावसायिक युग में बहुत जरूरी है. ,

Dr. Balbir Singh Rawat

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Re: Marketing of agril produce
« Reply #13 on: October 03, 2012, 04:13:28 AM »
क्या व्यावसायिक कृषि से पलायन रुक सकता है? हाँ अगर बार्षिक आय १००,००० रु सालाना के लगवाग हो जाय तो.  यह तभी संभव होगा जब एक साथ लगे हुए खेतों में एक ही प्रका र का फसल चक्र अपनाया जाय. उदाहरण के लिए सेब की फसल को लें. अगर manddi में किसानो से सेब ३० रु प्रति किलो के भाव से थोक में खरीदे जाते हैं तो एक बगीचे के पांच मालिकों के लिए ५००,००० रु की आमदनी के लिए १७ ००० किलो यानी १७ टन अछे प्रकार के चांटे हुए सेबों की पैदावार होनी ही चहिये. क्षेत्र के अनुसार पति पेड़ या प्रति नाली, या प्रति हेक्टेर के हिसाब से  प्रयाप्त खेत्र में एक साथ बगीचा लगाने की व्यवस्ता आवश्यक है. अगर सेब के बगीचे में कुछ अनन्य फसल, जैसे मटर, जो सेब से पाहिले बाज़ार में बेचीं जा सकती है, उगा ना संभव है तो उस से जो आय होगी उसको भी सम्मिलित करके कुल क्षेत्र का, कुल आय का, कुल खर्चों का और शुद्ध आय का अनुमान लगा कर ही आगे बढ़ना ठीक रहता है.
 फिर इस व्यवसाय में जो खतरे होते हैं, जैसे ओले, आंधी, सुखा,बीमारी इत्यादि, उनका भी अनुमान लगाना ठीक रहता है.

इस प्रकार की जानकारी कहाँ से मिलेगी, ये स्थानीय बागवानी विभाग के कार्यालय का काम है की वोह किसानो को या तो स्वयं ऐसी जानकारी इकठ्ठा करके दे, या फिर सम्बंधित विभागों, संस्थानों, पयोग्शालाओं  के पते उपलब्ध कराये.

संभावित उद्द्यामियों को जुझारू  होना आवश्यक है, किसी विभा के ना कहने पर हताश नहीं होना चाहिए, बल्कि और जोर से ऊपर के अधिकारियों से, जरूरत हो तो अपनी पंचायत से, विधायक से भी कहें.
पैसे खर्च करके प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनवाना बहुत ही जरूरी हो तो किसी विशेषज्ञ, जो मन्यता प्राप्त हो, उस से ही बनवानी चाहिए. 

Dr. Balbir Singh Rawat

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Who are the cultivators (farmers) in UK ?
« Reply #14 on: October 04, 2012, 07:27:33 AM »
एक सवाल हर प्रवासिय जन के मन में उठता है की पहाड़ों में खेती कौन करते हैं? वहाँ तो अधिकाँश में बूढ़े, और का के बोझ टेल डूबी कुछेक छोटे बच्चों वाली स्त्रियाँ ही रहगयी हैं. अधिकाँश में यह सही भी है. यह स्थिति भी सीढ़ी नुमान खेतो की देख रेख na हो पाने का एक कारण है. बहरहाल, अगर कृषि को बढ़ावा देना है तो येही श्रम शक्ति है जिसने विकास के काम ओं का बोझ अपने कंधो में उठाना है.  इसके लिए खेती का हर सम्भव काम के लिए श्रम बचाने वाले औजारों का आविष्कार जरूरी है. अगर एक छोटे से १०-१२ किलो वजन का याब्त्रिक हल, दंडाला, चलाने का engine कोई बना दे, ( पन्त  वि वि वालो पढ़ रहे हो ?) तो यह कृषि की काया पलट के युग का प्रारम्भ कर सकता है. इसी प्रकार, खेतों में दूर दूर तक के  खेतों तक जाने के लिए रास्ते इतने समतल और हलक ढलान वाले हों की उन पर कटी फसल के बोरे, पेटियां एक त्रोल्ली में रख कर इसी मशीन से खींचे जा सकें.
शायद यह आपको कुछ अव्यवहारिक लग रहा हो, लेकिन हमें अगर पर्वतीय खेती की काया पलट करके उसे रोजगार परक और पलायन रोकू बनाना है तो कुछ क्रांतिकारी कदम तो उठाने ही पड़ेंगे. सोच में विज्ञान के बारदानों का पूरा संभव उपयोग करने की बात फिट बैठ जानी छाहिये, तबी श्रम समय घाटगे और उत्पादकता बढ़ेगी. जब समय की बचत होगी तभी तो कुछ अन्य धन अर्जन और परिवार पालन  समुचित तरीके से हो पायेगा. सोचिये और प्रगतिशील बनिए और बनाइये.

Dr. Balbir Singh Rawat

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Skill for commercial farming in Uttarakhand
« Reply #15 on: October 06, 2012, 04:20:03 AM »
पर्वतीय कृषि मैदानी क्षेत्रों की खेती से भिन्न है, क्योंकि जलवायु में भिन्नता है और स्वयं पर्वतीय खेत्रोंमे भी ढलानों की ऊंचाये और दिशा से प्रवाव पड़ता है. नदी की घाटियों के खेतों और जंगलों में उगने वाले पेड़ पौधे उसी पर्वत के ऊंचे स्थानों में नहीं पाए जाते. इसलिए यह आवश्यक है की जहां आप वाव्सायिक खेत करना चाहते हैं वहाँ पर सब से अच्छा लाभ देने वाली कौन सी उपजें हैं. चाहे अनाज हो, फल हों , जड़ी बूटी हों या रेशे  और काठ के पेड़ पौधे, चुनाव पूरी जानकारी के बाद करना  उचित होता है.
छुनव के बद्द खेतों की मिटटी की गुणवत्ता भी जाना जरूरी है. इसके लिए कृषि बिभाग आप केइ मदद करेगा. पौध या बीज  किस प्रजाति के हों, कहा मिलेंगे, और कब कैसे लगाए बोये जायेगे, यह ज्ञान भी आवश्यक है.  खाद, पानी, सदन, गलन, कीड़े मकोड़ों से सुरक्षा करने के उपाय भी और साजो सामन भी जरूरी हैं.
बीच बीच में गुडाई, नलाई, छंटाई, भी जरूरी होती है. अगर आपने मजदूर रखे हैं तो लगातार निगरानी अत्यंत आवश्यक है की वए ठीक से सब काम कर रहे है.
फसल तैयार होने पर कटाई, तुडाई, मंदाई, सुखाई इत्यादि के बाद बज्ज़र ले जाने के लिए पैकिंग,लदान धुला भी ऐसा होना चाहिए की उपज बर्बाद न होने पाय.
यह सब से जरूरी है की bazar में जो भाव है थोक में बेचने के, वए किस मंदी मनीं कैसे हैं, या किस बाजार में कैसे, हैं, शुद्ध लाभ कहाँ , किसे बेचने पर सर्वाधिक होगा, यह जानकारी ही आपकी लागत और मुनाफे को निर्धारित करती है.
यह सब जानकारियों से संतुष्ट होने पर ही काम शुरू कीजिये.,

Dr. Balbir Singh Rawat

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Chakbandi ke kayee tareeke
« Reply #16 on: October 07, 2012, 07:19:47 AM »
व्यावसायिक खेती के लिए जोत में लाई गयी भूमि का क्षेत्र इतना बड़ा और एक साथ लगा होना जरूरी है जिसमे निर्धारित मात्रा में उपज पैदा की जा सके. चूंकि पहाड़ों में पारिवारिक जोतें इतनी छोटी और संकरी, तथा बिखरी होती हैं की उनमे उपज पैदा करना महंगा होता है और एक अकेले व्यक्ति को उपज को बेचने में बड़ी मुश्किलें आती हैं. इसके लिए सरकार ने कोंसौलिदेशें ऑफ होल्डिंग्स अवियाँ चलाया है और इसके लिए स्वेच्छिक अदला बदली का प्रावधान भी रक्खा है. इसके अलावा और भी तरीके हो सकते हैं, जैसे: १. कोई व्यक्ति या समूह प्रवासी जानो के खेत किराए या लम्बे समाया की लीज पर लेकर व्यावसायिक खेती कर सके, २. कोई व्यक्ति, समूह या औद्योगिक संस्थान एक निर्धारित अवधि के लिए , भू स्वामियों से ठेके पर या तो किसी उपज की खेती करवा सके, या स्वयं ही उपज पैदा करे और बेचे, और यह ठेके बाद में उस समय के हालातों के अनुरूप नवीनिक्रिक कराये जा सकें. ३. कोई ऐसा व्यवसायी, जो उत्तराखंड में कृषि भूमि क्रय कानूनी रूप से कर सकता हो, वोह अपना प्रोजेक्ट स्वीकार करा के नियमानुसार सीधे किस्सनो से भूमि खरीद कर सके. ४. एक कारगर विकल्प और है की १ नाली को एक शेएर मान कर  एक बड़े क्षेत्र के किसान अपनी सोसिएटी या लिमिटेड कंपनी बना कर बड़े आकर का कृषि उद्द्योग स्थापित कर सकते हैं.लाभ को प्रति शेयर के हिस्स्ब इ बाँट सकते हैं. जो ऐसे फार्मो में कम कर सकते हैं वे मेहनताना भी कमा सकते हैं साथ में.
ऐसे विकल्पों को सार्थक बनाने के लिए कुछ वैधानिक प्रावधान करने पड़ेंगे जो सरकार को तुरंत कर लेले चाहिए ताकि आने वाले समय में कृषि को व्यावसायिक रूपों देना आसान रहे. कृषि विकास के भविष्य की योजनाओं में ऐसे वैधानिक बदलाव अत्यंत जरूरी हैं , इसलिए समय से तैयार रहने में ही समझदारी है.

Dr. Balbir Singh Rawat

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Role of women in hill agriculture
« Reply #17 on: October 10, 2012, 08:37:47 AM »
पर्वतीय कृषि में महिलाओं का बहुत बड़ा योगदान तो है, लेकिन वे निर्णय लेने की स्थिति में नहीं हैं, इसलिए केवल पारंपरिक तरींकों से ही खेती करती हैं. खेतों की जुताई के अलावा सरे काम, गुडाई, नाली, कटाई, मंदाई और उपज के हिस्से बितरण तथा भंडारण और बाद में खपत के सारे काम उन्हें करना पड़ता है क्योंकि, पुरुष वर्ग kamaayee करने देश गया रहता है.इ अगर कोई नईं उपज का प्रस्सर उनके गाँव में होता है तो उन्हें अपने मर्दों से अनुमति लेनी पड़ती है. अनुमति मिलने पर भी, उन्हें अनुभव न होने के कारण तुरंत सही निर्णय लेने में हिचकिचाहट होती है और वे गाँव में रह रहे बूढ़े मर्दों से भी
राय ले लेटी हैं. तब होती है जितने सलाहकार, उतनी सलाहें वाली स्थिति. ऐसे में वे मदों के छुट्टी पर आने की प्रतीक्षा करती हैं और तब तक मौक्स निकल गया होता है.
यह तथ्य उन सरकारी विवागों को भी महत्वापूर्ण नहीं लगता जो कृषि में नया, लाभकारी और श्रेष्ट परिवर्तन लाने के जिम्मेदार हैं. यह एक तथ्य है की नए प्रकार की, रोजगार परक व्यावसायिक खेती भी इन्ही महिलाओं ने करनी है जो घरो में रुकी हुयी हैं. इन कृषक महिलायों को कृषि के व्यावसायीकरण की मुख्या धारा से जोड़ने के लिए कुछ सुझाव हैं:
जो भी पशिक्षण और अन्य सरकारी आयोजन होते हैं उनमें सारे गाँव, क्षेत्र के उन्ही किसानो को लिया जाय जो वास्तव में खेती कर रहे हैं, चाहे वे पुरुष हों या महिलायें.
खेतों के रखरखाव और उपयोग सम्बन्धी जो भी कानूनी कार्य करने आवशक हैं उन कार्यों को, पति की अनुपस्थिति में, पति के सहमित पत्र को कानूनी मान्या हो औत तब पत्नियां ही साड़ी कानूनी कार्याही करने की हकदार हों. ऐसा कानूनी प्रावधान आवश्यक है.
पलायन रोकने के लिए  आज के दिन जो भी परिवार घरों में हैं उन्हें सारे प्रशिक्षण, सुविध्हयें, सहायताए दे कर इतना सक्क्षम बनाना आवश्यक है के आज के बच्चे जो वहाँ स्कूल पढ़ रहे हैं, उनके लिए उनकी मताए एक ऐसा पारिवारिक व्यवसाय स्थापित कर लें की बड़े होने पर बच्चे गाँव में ही रुकना pasand करने लगें.
 क्या हमारे राजनीतिक दलों में इतना दम है की वे कुछ अनूठा, अनोखा, अति श्रेष्ट और अति कारगर बदलाव ला सकने की क्षमता हासिल कर सकें. हाँ, हो सकता है, अगर वे सब को मिल कर साथ ले कर चलने की इच्छा रखते हैं तो.     

Dr. Balbir Singh Rawat

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आज के अखबार में एक समाचार है की भारत सरकार के सूक्ष्म और लघु उद्द्योग के इंडियन इन्स्तितुत ऑफ़ एंट्रेप्रेनुर्शिप  ने एक ३५ दिवसीय पशिक्षण कार्यक्रम चला कर बिविन्ना प्रकार की सब्जियों तथा जिम, जूस, जेली,चटनी, अचार, मुरब्बा आदि के बनाने, भंडारण और उपयोग का प्रशिक्षण rudrapryaag में दिया..
यह बहुत अछा प्रयास है. लेकिन, जी हाँ लेकिन, क्या इन सब्जियों, फलों को उगाने की व्यवस्था भी की? क्या प्रसंस्कृत पदार्थों की बिक्री का लाभकारी प्रबंध भे किया? अवश्य हे नहीं, क्यों की यह उस संथा का काम नहीं है जिसने प्रसिक्षण दिया. तभी तो कहते हैं की गयी भैंस पानी में.
नितांत आवश्यकता है एक पूर्ण रूप से समन्न्वायित कार्यक्रम के  बनाने और संचालित करने की. जब सारे अंग एक साथ मिलजुल कर काम करेंगे तभी तो आगे badhaa जाएगा? कोई तो  इनको बताय की संसाधनों का सदुपयोग करें.

Dr. Balbir Singh Rawat

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कृषि उद्द्यानी के लिए कुछ नईं उपजें हैं जो उत्तराखंड के बिभिन्न इलाकों के लिए उपयुक्त हैं और जिन्हें प्रयोग के तौर पर सफलता के साथ उगाया भी जा चुका है. जैसे जैन्तून (olive), हैज़ल नत, बीज रहित अंगूर, इत्त्यादी. प्रतीतात्मक तौर पर जैतून का तेल कभी बागवानी बिभाग के कार्यालय से मिलता था. इन में अगर कुछ महंगे फूलों, जदिबूत्यों, इत्रदार पौधों को शामिल करें तो संख्या दसियों में पहुँचती है. किस क्षेत्र की मिटटी, तापमान और नमी में कौन सी उपज उपयुक्त है, इसकी सम्पूर्ण जानकारी सम्बंधित बिभाग को होनी जरूरी है ताकि इन भिभागों के अधिकारी, कर्मचारी, इच्छुक कृषि उद्द्यामियों को सम्पूर्ण जानकारी का पाकेट उपलब्ध करा सकें. उदाहरण के लिए, अगर किसी क्षेत्र के ढलानों में जैतून की खेती हो सकती है तो uddyan बिभाग के पास ऐसे नए बागों की स्थापना के लिए क्या चाहिए, कहाँ से क्या मिलेगा, किस मूल्य में मिलेगा, एक व्यावसायिक स्तर के तेल निकालने, उचित मात्रा की बोतलों में भरने की मशीने लगाने के लिए कितने तन उपज का होना जरूरी है और प्रति नाली कटनी उपज उस स्थान पर हो सकेगी. इसके लिए पर्याप्त भूमि के सभी मालिकों को किसे राजी किया जा सकेगा और भूमि की तय्यारी की,बीज बोने और उगे हुए पौधों की खाद पानी की आवाश्यतायों की जानकारी व प्रबंध के तरीकों का ज्ञान उपलब्ध कररना इसी बिभाग की जिम्मेदारी है.
सरकारी बिभाग ऐसी जनहित के जानकारियाँ तभी जुटाएंगे जब ऐसे ज्ञान की मांग होगी. इसलिए प्रतेक इच्छुक कृषि व्यवसायी को तीन छार उपजों की जानकारी ले कर ही अपनी पसंद के उद्योग को शुरू नकारना चाहिए.   

 

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