लेमन ग्रास एक आर्थिक कृषियोग्य वनस्पति
डॉ. बलबीर सिंह रावत। (देहरादून )
लेमन ग्रास , सिट्रोनेला, निम्बू घास , अपनी नीम्बू जैसी सुगंध वाले तेल के लिए मशहूर है। इसकी लगभग ५० प्रजातिया दुनिया भर में उगाई जाती हैं। रेगिस्तानी इलाको में इसे ऊँठ घास भी कहते हैं क्यों की इसे ऊँठ चाव से खाते हैं।
भारतवर्ष में इस घास का जिक्र पुराने ग्रंथों में मिलता है। इसके तेल से ताड़ के पत्र, जिनमे श्लोक लिखे जाते थे , उन्हें सूखने पर भुरभुरा होेने से बचाने के लिए, इस घास के तेल से लचीला बनाये रक्खा जाता था। आज के युग में इसकी , हू बहू नीम्बू जैसी खुशबू के कारण इसे चाय में, पीने के पानी में, सब्जियों में और यहाँ तक की चावलों के भात में पकाया जाता है। इसके तेल का उपयोग साबुन बनाने में, कुछ दवाओं में, कपडे धोने के डेटरजेंटों में, कृमिनाशक छिड़काव द्रव्यों में किया जाता है,. एक समय था जब भारत की इस तेल को दुनिया भर में बेचने की मोनोपोली थी और तब कुल १,८०० टन तेल प्रतिवर्ष उतपादन होता थ. अब प्रतिस्पर्धा में चीन, बंगलादेश, इत्यादि उतर आये हैं तो भारत में उत्पादन घट गया है।
लेमन ग्रास एक प्रकार की घास ही है, जिसके पौधे में ५ फ़ीट तक की लम्बी छड़ियों में लम्बी पतली पत्तिया उगती है और इन्ही पत्तियों से तेल निकाला जाता है। पत्तियों में तेल की मात्रा ०. ५५ %से लेकर ०. ६३% तक होती है। इस तेल में ७५-८३% सिट्राल पादप होता है जिसमे वह सुगंध होती है जिसके लिए यह पौधा मशहूर है । उर्बर खेतों में इसकी उपज लगभग ३५ टन पति हेक्टेयर हो जाती है जिस से ८० से १०० किलो तेल मिल सकता है। बाजार में तेल का भाव ३५०- ४०० रुपये प्रति किलो मिल जाता है. अगर सिट्राल को तेल से अलग करके बेचा जाता है तो सिट्राल का भाव ५०० रूपये प्रति किलो है।
भारत में लेमन ग्रास, अंडमान निकोबार से लेकर, जम्मू काशमीर, उत्तराखंड से लेकर आसाम पूर्वोत्तर राज्यों में आसानी से पैदा हो जाती है। इसकी सब से अच्छी खेती, केरल, तमिल नाडु, कर्नाटक, उत्तराखंड, आसाम और पूर्वोत्तर राज्यो में होती है। जलवायु ऊष्ण और नम, मिट्टी दोमट और पर्याप्त नमी वाली परन्तु पानी ठहराव से मुक्त होनी चाहिए , ९०० मीटर तक की ऊंचाई वाले पर्वतीय क्षेत्रों में भी इसकी खेती से की जा सकती है। नयी खेती के लिए प्रति हेक्टेयर २.५ किलो प्रथम क्वालिटी , ४-५ किलो साधारण बीज बो कर पौध तैयार करके रोपण करना होता है। उत्तराखंड के लिए इसकी किस्मे सुगन्धि , प्रगति , जामा रोसा , RRL 16 , CKP 25 अच्छी मानी गयी हैं। कावेरी प्रजाति नदी तटों के लिए उपयुक्त पायी गयी है।
एक अनुमान के अनुसार इसकी खेती में लागत तकरीबन ३. ७५ लाख रूपये प्रति हेक्टेयर लगती है, कुछ सरकारें लागत का कुछ भाग सब्सिडी के रूप में देती हैं, पूर्ण जानकारी के लिए निम्न पतों में किसी एक से सम्पर्क कर सकते हैं :-
१. रीजनल रिसर्च लैब , जोरहाट , फ़ोन नं (०३३७६ ) २३२०३५२ ,
२. हर्बल रिसर्च एंड डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट , एरोमेटिक प्लाण्ट्स सेंटर , सेलाकुई , देहरादून ,
३. डिरेक्टर डिपार्टमेंट ऑफ़ हॉर्टिकल्चर एंड फ़ूड प्रोसेसिंग , रानीखेत, अल्मोड़ा , पि २६३ ६५१.,
४. जिला भेषज संघ, हर जिला मुख्यालय, उत्तराखंड ,
५. गोविन्द बल्लभ पंत यूनिवेर्सिटी ऑफ़ अग्रि एंड टेक्नोलॉजी, पंत नगर, जिला ऊधम सिंह नगर, पि २६३ १४५, दूरभाष (०५९४४ ) २२३ ३३३३ ; २२३ ३५००।
फसल से तेल निकालने के लिए डिस्टिलेशन प्लांट लगाना होता है , खेत से पत्तिया काट कर २४ घंटे मुरझाने के लिए छड़ने से उनमे पानीकी मात्र घाट जाती है. . फिर इन पत्तियों को छोटे छोटे टुकड़ो में काट कर ऐसे बर्तन में उबाला जाता है जिसकी भाप को डिस्टिलेट करके तरल पदार्थ को इकट्ठा किया जा सके। इसी तरल पदार्थ में तेल होता है।
अधिक और विस्तार पूर्ण जानकारी के लिए उपरोक्त पतों में से किसी से भी जानकारी ली जा सकती है. चूंकि इसके तेल की मांग सीमित है तो अति उत्पादन से जो अत्यधिक मात्र बाजार में आएगी, उस से भाव घटने का अंदेशा रहता है, इस लिए पूरी जानकारी और खोज करने के बाद ही निर्णय लें की आपने इसे अपना व्यवसाय बनाना है और कितना लाभ लेना है
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स्वच्छ भारत ! स्वच्छ भारत ! बुद्धिमान भारत !