Author Topic: Articles by Scientist Balbir Singh Rawat on Agriculture issues-बलबीर सिंह रावत ज  (Read 25929 times)

Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1
                                     अरंडी की व्यवसायिक खेती: करोडपति बनने का एक  साधन

                                                                              डा.  बलबीर सिंह रावत

            अरंडी एक ऐसा झाड है जी विभिन्न प्रकार की जलवायु और धरती में पनप जाता है।  खेती के लिए अरंडी की वही प्रजाती सही रहती है जिसके बीज से उत्तम प्रकार का तेल निकाला जा सके. आम प्रचलित भाषा में इस तेल को कैस्ट्रोइल के नाम से जाना जाता है और इसे, सदियों से,एक हानि रहित रेचक के रूप में , बदहजमी दूर करने के लिए, उपयोग में लाया जाता है. गाढा होने के कारण यह तेल धीरे धीरे जलता है तो प्राचीन काल में इस तेल को दीया और मशालें  जलाने के लिए भी उपयोग में लाया जाता रहा है।   अरंडी के तेल से गठिया, कमर दर्द ,साइटिका शूल ,अस्थमा , कुछ स्त्री रोग भी ठीक हो जाते हैं। सौन्दर्य प्रशाधनों के बनाने में भी अरंडी के तेल का उपयोग होता है , इसके अलावा, अपने गाढ़ेपन और , पेट्रोल, डीजल में न घुलने के गुणों के कारण इस तेल के उपयोग से वाहनों और वायुयानों के लिए विशेष घर्षण रोधक,और दबाव झेलने वाले हाइद्रौलिक तेल भी बनाए गए है। कहने का तात्पर्य यह है की अरंडी के तेल की मांग हमेशा बढ़ती रहेगी , तो इसका उत्पादन एक अति लाभकारी व्यवसाय हो सकता है।

           आज के काल में दुनिया भर में अरंडी तेल उत्पाद दस लाख टन है और इसमें भारत में उत्पादित ८ लाख टन तेल  की भागीदारी है. इसका यह अर्थ हुआ की अरंडी के तेल की, दुनिया के बाजारों में, अच्छी मांग  है।  अरंडी के उत्पादन के लिए भूमध्य सागरीय जलवायु सर्वोतम होती है।  इसकी खेती के लिए पर्याप्त नमी और जल निकासी वाली ऐसी भूमि उत्तम रहती रहती है जिसमे पौधे की जड़ें गहरी जा सकें।    उत्तराखंड के दक्षिणी भागों में इसे आसानी से उगाया जा सकता है.

अरंडी की खेती के लिए बीज को एक लाइन में एक फीट की दूरे पर और हर लाइन को ४० इंच की दूरी पर रखना  चाहिये.  बोने से पाहिले बीज का फफूंदी माँर दवा से उपचार कर लेना चहिये. खेतों में खाद और उर्वरक डालना भी  जरूरी रहता है। दुनिया भर में अरंडी की आठ किस्मे बोई जाती हैं , भारत  में प्रचलित किस्म के ही बीज मिलते है।  इसके लिए अपने नजदीकी सरकारी उदद्यान विभाग और कृषि विश्व विद्द्यालय से सलाह / सहायता मिलती है /

उपजाऊ खेतों में प्रति एकड़  एक टन बीज का उत्पादन सम्भव है।  अरडी के बीजो में ४०-६०% तेल होता है , अर्थात एक एकड़ खेत से औसतन ५०० किलो तेल का उत्पादन संभव है।  अगर यह तेल ५०/- प्रति किलो के भाव से भी गाँव से ही बेचा जा सके तो किसानों को २५,००० रूपये प्रति एकड़ या लगभग १२-१३०० रुपये प्रति नाली की आय हो सकती है।
लेकिन अकेले एक एक किसान द्वारा अरन्डी के बीजों से आय लेने के व्यवसाय को चलाना संभव नहीं है.  व्यावसायिक खेती के लिए सब से पाहिले निश्चित बाजार का होना अत्यावश्यक है, यह उत्पादकों के ऊपर निर्भर करेगा की वे बीजों को ही  बेचेगे या तेल निकालने का भी  प्रबंध करेंगे।  व्यावसायिक खेती के लिए, पर्वतीय क्षेत्रो में एक ही स्वामित्व का इतना बड़ा क्षेत्रफल नहीं होता, तो एक ही क्षेत्र के कई गाँवो के कई किसानों को मिल कर इस व्यावसायिक फसल की खेती करने से ही लाभ होगा। ऐसे सारे उत्पादक अपनी अरंडी बीज उत्पादक कम्पनी का पंजीकरण करवा के संगठित रूप से धंदा शुरू कर सकते हैं , ऐसे सम्मिलित प्रयास को कई स्रोतों से प्रोत्साहन मिलने में भी सुविधा रहती है।   

उत्तराखंड के नेताओं और अधिकारियों को व्यवसायिक स्तर पर पहड़ों में अरंडी की खेती शुरू करवानी चाहिए।

dr.bsrawat28@gmail.com      ,     

Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1
                    मंडुए की सामूहिक  खेती

                                           डा.  बलबीर सिंह रावत

मंडुआ , क्वादु , रागी , कई नामो से जाने वाला यह साधारण अनाज , किसी जमाने में गरीबों का खाना माना जाता था, अपनी पौष्टिक गुणवता के मालूम होते ही, सब का चहेता अनाज बन गया है.  आज के उपभोक्ता बाजार में, गेहूं से महँगा हो गया है. एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी तो इसके बिस्कुट भी  बनाने लगी है.  विदेशों में जो भारत के उत्तराखंडी,कर्नाटकी  और विहार, महाराष्ट्र के कुछ भागों के लोग रहते हैं,  भारतीय स्टोरों में, उनके लिए मंडुये का आटा और साबुत दाना, आसानी से मिल जाता है।साबुत दाने को भिगो कर अंकुरित होने पर उसका दलिया, शिशुओं को दिया जाता है.
कहने का तात्पर्य यह है की मंडुये की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है , तो इसके उत्पादन को भी प्रोत्साहन मिल रहा है। इसी कारण उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों के किसानो के लिए यह एक सुनहरा अवसर आ गया है की व अपने खेतों में सामूहिक रूप से व्यावसायिक खेती करके मंडुए की आपूर्ति को पूरा करके लाभ उठायं।
किसी भी व्यवसाय में आपूर्ति की निरंतरता का अहम महत्व है।  चूंकि उत्तराखंड में किसी भी अनाज की फसल साल में एक ही बार होती है, तो मंडुए को इतनी मात्रा में उगाना आवश्यक है कि इसके आटे की , दाने की, बिक्री साल भर होती रहे। निरंतर उपलब्धि से, बिक्री के व्यापारिक सम्बन्ध बने रहते हैं, और आपूर्ति में व्यवधान के कारण टूट गए/ठन्डे पड़ गए संबंधों को  या नए सम्बन्ध बनाने के झंझट से बचाव भी रहता है। उदाहरण के लिए अगर किसी क्षेत्र से मंडुए की मांग , ५ क्विंटल प्रति दिन है, तो उत्पदान इसका ३६५ गुना यानी १,८२५ (२,०००) क्विन्टल मन्डुवे का उत्पादन वंचित है. मान लें की प्रति किसान उत्पादन २० क्विंटल होता है , तो इस व्यवसाय के लिए १०० किसानों को सामूहिक रूप से जुड़ने से ही यह व्यवसाय सफल होगा।
बाजार में मंडुए के आटे का भाव २०/- प्रति किलो है। अगर, लदाई, ढुलाई, पिसाई और पकेजिंग ( एक एक किलो के पॉलिथीन के थैले) की लागत ८/- प्रति किलो आती है तो मडुवा उत्पादक को, १२/-  प्रति किलो के हिसाब से २० क्विंटल का मूल्य २४,०००/- रुपया मिल सकता है, अगर सारे उत्पादक अपनी कृषि उत्पादक कम्पनी को नए कम्पनी नियम भाग IX A के अंतर्गत पंजीकृत करा लें और उत्पादन से लेकर बिक्री तक का काम स्वयम अपनी कम्पनी द्वारा संचालित कर सकें तो पूर लाभ  उनका अपना होगा।  जितने बिचौलिये उनके और उपभोक्ताओं के बीच लाये जायेंगे , वे अपना हिस्सा इसी मुनाफे से काटेंगे और किसानो के हिस्से से उतना लाभ कम हो जाएगा।  यही वोह बिचौलियों का लालच है जिसके कारण उपभोक्ता के खर्च किये हुए रूपये का केवल २० -२५ पैसे ही उपभोक्ता तक पहुन्चते हैं, और वे उत्पादन बढ़ाने में की हित नहीं पाते।  इस लिए सामूहिक खेती से ले कर भण्डारण, पिसाई  और विक्री के सारी काम  भी आसान हो जाते हैं।   
मंडुआ बरसात की फसल है, इसकी खेती की अपनी टेक्नोलॉजी है, जहां नलाई गुडाई से खर पतवार निकाला जाता है, वही दंडाला दे कर इसके जड़ों को हिला कर पुन्ह्स्थापित होने और कल्ले फोड़ने के लिए उकसाया जाता है, की एक ही पौधे के कई कल्ले फूटें और पैदावार बढे. फिर कटाई के बाद मंदाई से पहिले इसके गु
 को सिजाया जाता है एक ख़ास समय के लिए।  इस सिझाने से इसक रंग और स्वाद निर्धारित होता है. इस लिए अनुभवे खेतीहरों ( पुरुषों /स्त्रियों ) से सलाह ले कर ही सब काम करना श्रेय कर होता है.
मंडुए की कटाई के बाद बचा पौधा , एक अच्छा पशु आहार है , अगर साथ साथ दुग्ध उत्पादन का धंदा भी व्यवसायिक स्तर पर शुरू किया जा सके तो , इस सूखे चारे का मूल्य भी आय का अतिरिक्त साधन बन जाता है।
इस सलाह पर मनन कीजिये और आगे बढिए, कुछ नये तरीके से व्यवसायिक खेती करने की पहल कीजिए।
dr.bsrawat28@gmail.com             

Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1
                                बड़ियाँ : एक प्राचीन खाद्य वस्तु

                                                  डा. बलबीर सिंह रावत


                       मनुष्य  ने अपने बुद्धि कौशल से प्रकृतिदत्त पदार्थों को हर मौसम में उपयोग करने के लिए, सुरक्षित रखने के लिए कई विधियां ढूढ़ निकालीं , इसलिए की उसे अपने भोजन के लिए आसानी से बेमौसमी वस्तुएं भी भे उपलभ होती रहें .  ऊष्ण प्रदेशों में , जहाँ खाद्द्य  सामग्रियों को साल भर के लिए सुरखित रखने के लिए आज कल के शीत भण्डार और घरेलू फ्रिज नहीं थे, तब  पदार्थों को सुखा कर ही रखा जाता था.  दालों  से और उनके पीठे में साक- सब्जियों को मिला कर  बड़ियाँ बनाना भी  इसी श्रृंखला का सुखाया हुआ खाद्य पदार्थ है.जो सब्जी और फल , इस काम के लिए उपयुक्त पाए गए वे हैं, भुजेला (पेठा) और पिंडालू (अरबी ) के पत्तों के डंठल जिन्हें नाल कहते हैं और  हरी मेथी।  उड़द के साथ भुजेला और गहथ के साथ नाल  तःथा मेथी का मेल खपता है।  बड़ी बनाने के लिए साबुत दाल को भीगने के लिए रात भर रखना होता है। भीगी उड़द को छलनी में मसल कर   उसके छिलके उतारने होते हैं, छलनी को पानी भरे गहरे बर्तन में डुबो कर जब छिलके तैर कर ऊपर आते हैं तो इन्हें हटा लिया जाता है. कुछ छिलके रह जाय तो कोइ हर्ज नहीं,  गहत के छिलके नहीं उतारे जाते।  इस भिगोई, साफ़ की गयी दाल को सिल में बारीक पीसा जाता है, जब तक वह महीन, एक रस न हो जाय. ध्यान रखना होता है की यह मसेटा जितना सख्त हो सके उतना रहे। अब इसे किसी परात में लेकर उसमें मसाले , जैसे भुना साबुत जीरा, काली मिर्च, पिसा धनिया, अदरख की सोंठ ,दालचीनी , मोटी इलायची के साबुत बीज  और कोरा हुआ ( रेंदा किया हुआ ) भुजेले का गूदा। इन सब को मिला कर पूरे मसेटे को खूब फेंटा जाता है. फेटने से इसमें हवा के बुलबुले समाते हैं, और बड़ी  सूखने पर भी फूली हुई रहती है। इसे सही तरह से पूरा  फेंटने पर ही इसका  ठीक से पकने का गुण निर्भर करता है। अब इस मिक्सचर के छोटे छोटे गोले, एक दुसरे से अलग किसी साफ़ कपडे के ऊपर, या साफ़ टिन की चादर के ऊपर,या मकानों की छत केसाफ़ से धुले पठालों के ऊपर डाले जातें हैं  और तब सुखाने के लिए धूप में रखे जाते हैं। चूंकि भुजेले पहाड़ों में अक्टूबर में ही उपलब्ध होते हैं तो धुप में गर्मी कुछ कम हो जाती है, इलिए २-३ दिन में ही सूख पाते है। सूखने पर इन बड़ियों को किसी ढक्कन दार बड़े बर्तन में सुरक्षित रखा जाता है. गहथ की बड़ी में मसाले कम डाले जाते हैं और नाल के या हरी मेथी के  छोटे छोटे टुकड़े कर के डालना ठीक रहता है।

उपरोक्त विधि, परचलित विधियों में से एक है, और केवल  घर की जरूरतों को पूरा करने के लिए बनायी गयी है . चूंकि  कई मैदानी इलाकों में बड़ी बनाना और बेचना एक बहुप्रचलित कुटीर उद्द्योग है, तो उत्तराखंड में भी इस हुनर को  संवार कर, जितना हो सके उतना इसका मशीनी करण करके, जैसे दाल पीसने के लिए, फेंटने के लिए, और एक आकार की गोलिया बनाने के लिए, और विधियों के परीक्षण, सुधार और मानकी करण  करके,लिज्जत पापड स्तर का बड़ी उद्द्योग गाँव गाँव में  शुरू किया जा सकता है.
बड़ी का साग -बड़ियों का केवल बड़ियों का साग भी बनाया जा सकता है तो अन्य भोज्य पदार्थों जैसे आलू, हरी सब्जियों के साथ मिलकर भी बड़ियों का साग बनाया जाता है।
आलू बड़ियों  का साग
बड़ियाँ -आधा कप
आलू -मध्यम कटे दो आलू
टमाटर  -दो टमाटर कटे  हुए
तेल या घी - चार चमच
छौंके के लिए कुछ दाने जीरे, राय व जख्या
बारीक कटा  प्याज, लहसुन , अदरक , हरा धनिया , एक कटी हरी मिर्च
मसाले - एक चमच धनिया पौडर, एक चमच  लाल मिर्च पौडर, गर्म मसाला अपने स्वास्थ्य , अपने सहूलियत या स्वाद के हिसाब से। नमक स्वादानुसार
बड़ियों को कुछ देर भीगा दें और फिर उनका पानी निचोड़ दे
कढाई को आंच में चढ़ाएं , गर्म कडाही में तेल या घी गर्म करें फिर गर्म तेल में जख्या, राय और जीरा लाल होने तक भूने ,अब कटे प्याज , लहसुन और अदरक डालें और थोड़ा भुने , फिर बड़ियों को भूने, इसके बाद आलू डालें , कटे टमाटर व नमक सहित  मसाले भी डालें और कुछ देर तक भूने,कटी हरी मिर्च भी डालें। भूनने के बाद पानी डालें और ढक क दें और पकने तक बर्नर पर रखें . जब साग पक जाय तो कटा हरा धनिया छिडक दें। गरमा गर्म परोसें   
,dr.bsrawat28@gmaol.com

Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1
         लेमन ग्रास एक आर्थिक कृषियोग्य वनस्पति

                       डॉ. बलबीर सिंह रावत। (देहरादून )

 

 

लेमन ग्रास , सिट्रोनेला, निम्बू घास , अपनी नीम्बू जैसी सुगंध वाले तेल के लिए मशहूर  है।  इसकी लगभग ५० प्रजातिया  दुनिया भर में उगाई जाती हैं। रेगिस्तानी इलाको में इसे ऊँठ घास भी कहते हैं  क्यों की इसे ऊँठ चाव से खाते हैं। 

भारतवर्ष में इस घास का जिक्र पुराने ग्रंथों में मिलता है।  इसके तेल से ताड़ के पत्र, जिनमे श्लोक लिखे जाते थे , उन्हें सूखने पर भुरभुरा होेने से बचाने के लिए, इस घास के तेल से लचीला बनाये रक्खा जाता था।  आज के युग में इसकी , हू बहू  नीम्बू  जैसी खुशबू के कारण इसे चाय में, पीने के पानी में, सब्जियों में  और यहाँ तक की चावलों के भात में पकाया जाता है।  इसके तेल  का उपयोग साबुन बनाने में, कुछ दवाओं में,  कपडे धोने के डेटरजेंटों में, कृमिनाशक छिड़काव द्रव्यों में किया जाता है,. एक समय था जब भारत  की  इस तेल को दुनिया भर में बेचने की  मोनोपोली थी  और तब कुल १,८०० टन  तेल प्रतिवर्ष उतपादन होता थ. अब प्रतिस्पर्धा  में चीन, बंगलादेश,  इत्यादि उतर आये हैं तो भारत में उत्पादन घट गया है।

 

लेमन ग्रास एक प्रकार की घास ही है, जिसके पौधे में  ५ फ़ीट तक की लम्बी  छड़ियों  में लम्बी पतली पत्तिया उगती  है और इन्ही पत्तियों से तेल निकाला जाता है।  पत्तियों में तेल की मात्रा  ०. ५५ %से लेकर ०. ६३% तक होती है।  इस तेल में ७५-८३% सिट्राल पादप होता है जिसमे वह सुगंध होती है जिसके लिए यह पौधा मशहूर है ।  उर्बर  खेतों  में इसकी उपज  लगभग ३५ टन पति हेक्टेयर हो जाती  है जिस से ८० से १०० किलो तेल मिल सकता है।  बाजार में तेल का भाव ३५०- ४०० रुपये प्रति किलो मिल जाता है. अगर सिट्राल को तेल से अलग करके बेचा जाता है तो सिट्राल का भाव ५०० रूपये प्रति किलो है।

 

भारत में लेमन ग्रास, अंडमान निकोबार से लेकर, जम्मू काशमीर, उत्तराखंड से लेकर आसाम  पूर्वोत्तर राज्यों में आसानी से पैदा हो जाती है।  इसकी सब से अच्छी खेती, केरल, तमिल नाडु, कर्नाटक, उत्तराखंड, आसाम और पूर्वोत्तर राज्यो में होती है। जलवायु ऊष्ण और नम, मिट्टी  दोमट और पर्याप्त नमी वाली परन्तु पानी ठहराव से मुक्त होनी चाहिए , ९०० मीटर तक  की ऊंचाई वाले पर्वतीय क्षेत्रों में भी इसकी खेती से की जा सकती है। नयी खेती के लिए प्रति हेक्टेयर २.५  किलो प्रथम क्वालिटी ,  ४-५ किलो साधारण बीज बो कर  पौध तैयार करके रोपण करना होता है।  उत्तराखंड के लिए इसकी किस्मे  सुगन्धि ,  प्रगति ,  जामा रोसा , RRL 16 , CKP 25  अच्छी मानी गयी हैं। कावेरी प्रजाति नदी तटों के लिए उपयुक्त पायी गयी है।

 

 एक अनुमान के अनुसार इसकी खेती में लागत तकरीबन ३. ७५  लाख रूपये प्रति हेक्टेयर लगती है, कुछ सरकारें लागत का  कुछ भाग सब्सिडी के रूप में देती हैं, पूर्ण जानकारी के लिए निम्न पतों  में किसी एक से सम्पर्क कर सकते हैं :-

१. रीजनल रिसर्च लैब , जोरहाट , फ़ोन नं  (०३३७६ ) २३२०३५२ ,

२. हर्बल रिसर्च एंड डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट , एरोमेटिक प्लाण्ट्स सेंटर , सेलाकुई , देहरादून ,

३. डिरेक्टर डिपार्टमेंट ऑफ़ हॉर्टिकल्चर एंड फ़ूड प्रोसेसिंग , रानीखेत, अल्मोड़ा , पि  २६३ ६५१.,

४. जिला भेषज संघ, हर जिला मुख्यालय, उत्तराखंड ,

५. गोविन्द बल्लभ पंत यूनिवेर्सिटी ऑफ़ अग्रि एंड टेक्नोलॉजी, पंत नगर, जिला ऊधम सिंह नगर,  पि २६३ १४५, दूरभाष  (०५९४४ ) २२३ ३३३३ ; २२३ ३५००।

 फसल से तेल निकालने के लिए डिस्टिलेशन प्लांट लगाना होता है ,  खेत से पत्तिया काट कर २४ घंटे मुरझाने के लिए छड़ने से उनमे पानीकी मात्र घाट जाती है. . फिर इन पत्तियों को छोटे छोटे टुकड़ो में काट कर ऐसे बर्तन में उबाला जाता है जिसकी भाप को डिस्टिलेट करके तरल पदार्थ को इकट्ठा  किया  जा सके। इसी तरल पदार्थ में तेल होता  है।

 

अधिक और विस्तार पूर्ण जानकारी के लिए उपरोक्त पतों में से किसी से भी जानकारी ली जा सकती है.  चूंकि इसके तेल की मांग सीमित है तो अति उत्पादन से जो अत्यधिक मात्र बाजार में आएगी, उस से भाव घटने का अंदेशा रहता है, इस लिए पूरी जानकारी और खोज करने के बाद ही निर्णय लें की आपने इसे अपना व्यवसाय बनाना है और कितना लाभ लेना है   

                                                                                                                           ---------ooooo0ooooo---------   
--
 
 

--
 
 
  स्वच्छ भारत ! स्वच्छ भारत ! बुद्धिमान भारत !

Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1

                                Potentiality for  Saffron Farming in Garhwal, Kumaon;       
                             
                             उत्तराखंड में केसर- खेती से मोती कमाई की सम्भांवनाएं

                                                   डॉ. बलबीर सिंह रावत  (देहरादून) 

                                                                                     
केसर , लाल सोना, १ ग्राम का खरीद मूल्य लगभग ३०० रुपये, १ किलो २,००,००० रुपये में, अमीरों का शौक केसर जो अपने विशिष्ठ रंग और स्वाद के लिए अपने में ही उदाहरण है , सदियों से दुनिया के ठन्डे इलाकों में उगाया जा रहा है।  पूरे विश्व की मांग का ९५ % अकेला ईरान उगाता है और बाकी का ५ % भारत, स्पेन  मोरोक्को, इटली और अजरबेजान से आता है. अब चीन और कनाडा भी केसर उगाने लगे हैं। अमेरिका केसर का सब से बड़ा ग्राहक है। अकेला ऑस्ट्रेलिया साल में ३,००० किलो केसर खपाता है।

इधर उत्तराखंड में भी केसर की खेती को प्रोत्साहित किया जा रहा है।  केसर उगाने के लिए जलवाय शीतल, नम और धूपदार होनी चाहिए , जैसे ३२ और ४० डिग्री उत्तरी अक्षांश में होती है।  मिट्टी महीन दोमट और क्षारीय ( पीएच ६ से ८) उपयुक्त मानी जाती है इसको बोने के जमीन को मिट्टी पलट हल से ८-९ इंच ( २० -२२ सेंटीमीटर ) गहरा जोता जाता है,जुताई के समय कम्पोस्ट या गोबर की खूब तैयार खाद भी मिलाई जाती है।
चूंकि केसर के पौधे बीज नहीं बनाते तो इसकी  गँठियाँ ( बल्ब ) खेत में लगानी होती है।  ये गांठिया केसर के खेतों में लगी फसल से चार साल बाद ली जाती हैं तो इनकी उपलब्धि इतनी आम नहीं है। या तो बड़े किसानों से  बड़ी मात्रा खरीदनी होती है,  या दाम अधिक होने से, छोटी मात्रा में खरीद कर अपने हो खेतों में उगा कर धीरे धीरे क्षेत्र बढ़ाना होता है। 

बुवाई के लिए जून से सितमबर तक का समय ठीक रहता है। इसकी क्यारी जमीन से ७-८ इंच ऊंची होनी चाहिए ताकि पानी का ठहराव न हो। गँठियों को ८ सेंटीमीटर गहराई पर, एक से दूसरे को १० सेंटीमीटर दूर और कतारों  के बीच १०-१५ सेंटीमीटर का अंतर रखना होता है।  अगर नत्रजन का फर्टिलाइजर डालना हो तो लगाई के साथ साथ डालना चाहिए। अगर मिट्टी  में प्रयाप्त नमी है तो पानी देने की जरूरत नहीं होती।   अक्टूबर में फूल आते हैं जो पूरे महीने चलते हैं।  इस बीच अगर जमीन में खुश्की आ गयी हो तो सिंचाई, हफ्ते में एक बार, करनी चाहिए . नए लगाये पौधों में एक पौधे पर एक ही फूल आता है, दो साल बाद  प्रति पौधे दो दो फूल आते हैं। एक फूल पर stigma के  तीन filament,( धागे ) लगते हैं।  छोटे किसान इसे पौधे से ही हाथ से तोड़ते हैं , बड़े किसान फूल चुन कर लाते है और एक जगह पर इन फिलमेंटों को तोड़ते है। १५० फूलों से

१ ग्राम सूखी केसर मिलती है, एक एकड़ जमीन से, अच्छी पैदावार हो तो, ५०० ग्राम बिक्री योग्य केसर का उत्पादन होता है। केसर की खेती के लिये मानव श्रम की अधिक आवश्यकता होती है क्यों कि  खेत जोतने के अलावा प्रायः हर काम हाथों से ही करना होता है।     

कैसर की गंठियो को जंगली चूहे खोद कर चाव से खा जाते हैं, इन गंठियों में फंगस भी लगने का खतरा होता है। पौधों के उगने पर इनकी पत्तियों और फूलों को खरगोश  चर जाते हैं।   इन बीमारियों और जानवरों से बचाव के उपाय करना परम आवश्यक होता है।

चूंकि केसर उत्पादन उत्तखण्ड में नया व्यवसाय है तो शुरू करने से पाहिले इसके हर पहलू पर पूरा  विचार करके, लागत, प्राप्ति का हिसाब तीन प्रकार से करके, १. जब सब कुछ साधारण तरीके से हो रहा हो, २. जब हर काम में आसानी से सफलता मिल सकती हो और ३. जब कुछ भी सही नहीं हो।   और तब इनके औसत को ध्यान  कर धंदा शुरू करने का निर्णय लेना चाहिए.  अधिक जान कारी और सहायता के लिए निम्न  पते से सम्पर्क करके पण प्लान को मूर्तरूप देना चाहिए                 
Department of Horticulture & FOOD Processing, Circuit House, Dehradun (Uttarakhand) INDIA   Horticulture Mission for North East & Himalayan States, Uttarakhand   E-mail: missionhortiuk@gmail.com   Ph: 0135-2754961 For further details contact: Dr. I.A. Khan, Joint Director   E-mail: imtiaz05@rediffmail.com
अध्यापक श्री जगमोहन सिंह बिष्ट केसर की केटी विकास में संलग्न है उन्हें - 9410328161 पर संपर्क किया जा सकता है।
--
 Potentiality for  Saffron Farming in Garhwal, Kumaon; Potentiality for  Saffron Farming in Pauri Garhwal, Nainital Kumaon; Potentiality for  Saffron Farming in Chamoli Garhwal,Almora  Kumaon;Potentiality for  Saffron Farming in Rudraprayag Garhwal, Champawat Kumaon; Potentiality for  Saffron Farming in Tehri  Garhwal, Bageshwar  Kumaon;Potentiality for  Saffron Farming in Uttarkashi Garhwal, Pithoragarh Kumaon;
 
  स्वच्छ भारत ! स्वच्छ भारत ! बुद्धिमान भारत !

 


Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1
                                                                                              आँवला की खेती से सोना कमाइए।
                                                                                 लेखक : डॉ. बलबीर सिंह रावत ,  देहरादून।

आंवला, ऋषि च्यवन का प्रिय फल, जिन्हौने एक चिरायु पौष्टिक पदार्थ, च्यवनप्राश, का अन्वेषण करके मानव जाति को एक ऐसा स्वास्थ्यवर्धक टॉनिक दिया जिसका उपयोग आज के प्रदूषित वतावरण में और भी अधिक आवश्यक हो गया है।  जी हाँ , यह "तुच्छ" फल  इतने अधिक काम आता है की इस से लाखों परिवारों की रोजी रोटी चलती है। आंवले से जूस, अचार, मुरब्बा , चटनी, जैम , लड्डू, कैंडी  और चूर्ण बनाया जाता है क्यों की इन सब पदार्थों की खूब मांग है जो बढ़ती जा रही है।  परीक्षणों से पता चला है कि आंवले में 700 मिलीग्राम विटामिन सी, प्रति 100 ग्राम फल, होता है. विटामिन सी एक तगड़ा एंटी ऑक्सीडेंट है और यह शरीर की प्रतिरोधक शक्ति को बढाता है।  चव्वन ऋषि को यह बात अपने अनुभवों से मालूम थी  तो उन्हौने च्यवनप्राश जैसा  चिरस्थायी अवलेह बना डाला । 

 आज कल के बाजारों में ताजा आंवला ३० से ३५ रुपये किलो  का भाव अपने मालिक के लिए कमा सकता है। दस साल की उम्र का पेड़ ५० - ७० किलो फल देता है।  एक एकड़ में २०० पेड़ लगाए जाते हैं जो साल भर में ३ लाख स ३ लाख ५० हजार रूपये की कमाई और २ से ३ लाख रुपये का शुद्ध लाभ कमाने का मौका देता है।  आंवला प्रायः हर  उस राज्य में उगाया जा सकता है जहाँ की मिट्टी में रेत की अधिकता न हों और औसत सालाना बारिश ६३० मिमी से ८०० मिमी के लगभग हो. जहाँ न अत्यंत अधिक ठंड पड़ती हो और न ही अत्यधिक गर्मी, वैसे आंवले का पौधा पानी जमा देनी वाली ठंड और ४६ डिग्री सेल्सियस की गर्मी सह सकता है लेकिन इन से उत्पादन पर असर होता है।  इसलिए समाकूल मिट्टी और आबोहवा का ध्यान रखना आवश्यक है।  उरराखण्ड की तराई से लगे पहाड़ी इलाके और नदियों की घाटियों के दक्षिणी,पश्चिमी ढाल आवले की खेती के लिए उपयुक्त जगहे हैं।

आवले की विकसित प्रजातिया हैं बनारसी, चमइया ,कृष्णा , कंचन,  भवानीसर -१ और NA 6 , NA 7 , NA 10 । आवले की इन में से किसी भी चाहित प्रजाति की कलम लगी पौध को लगाया जाता है।  पौध तौयार करने के लिए स्टॉक के बीज बो कर  पौधे उगाये जाते हैं. इस स्टॉक के पौधों पर बांछित प्रजाति के वांछित पेड़ों से आँखें  लेकर कर शील्ड बडिंग पद्धति से सायंन लगाया जाता है।  जब आँख बढ़ कर कोंपल में विकसित हो जाय तो पौधे लगाने तो तैयार होते हैं।  पौध लगाने के लिए जमीन में मई -जून में ४.५  x  ४. ५ मीटर की दूरी पर  १ x १ x १ मीटर गड्ढे खोदे जाते हैं, जिनको  तेज धुप में १२ से १५ दिन खुला रक्खा जाता है. फिर इन गडढ़ों में प्रति एकड़ बढ़िया गोबर खाद ५ टन,  नत्रजन खाद ९० किलो, फॉस्फोरस की खाद १२० किलो और पोटाश की खाद ४८ किलो को मिट्टी में अच्छी तरह मिला कर गडढे भर देने चाहियें और इस मिश्रण को खूब दबा कर पानी देना चाहिए।  मानसून की पहिली बारिश के बाद पौध लगा देनी चाहिए। हर २५ दिनों में, जरूरत के अनुसार , सिंचाई भी कर देनी चाहिए 

आंवला  ६ वें साल से फल देने लगता है और अपने चरम  उत्पादन  में १० वे साल में ही पहुँच पाता है।   इसलिये अगर हर साल पूरे क्षेत्रफल के १/५ में पौदे लगें तो एक तो सलाना खर्चों कमी आएगी , दुसरे बाग़ की देख रेख करने का अनुभव भी मिलता रहेगा ,  चूंकि आवले के बाग़ में धूप काफी मिलती है तो इसके साथ अन्य फसले, जैसे हरे , काले,  सुफद चने , मटर , मसूर जैसी दो दली फैसले ली जा सकती हैं , इस से अतिरिक्त आय भी हो जाती है, खेतों में नत्रजन भी फिक्स होतो रहती हैं।

आंवले के तने पर सुंडियो का हमला हो सकता है और पत्तियों पर लाल फंगस का । सुंडियों केलिए ०.०५ % एण्डोसल्फोन या ०. ०३ % मोनो फोटोफोस को इंजेक्शन की श्रिन्ज से छेदों में डाल कर छेदों को गीली मिट्टी से बंद कर देना चाहिए।  फंगस के लिए इण्डोफिल M 45 के ०.३ % के घोल का छिड़काव करने से बीमारी पर काबू पाया जाता है।

फल फरवरी में तोड़े जाते हैं।  तोड़ने से पहिले अगर आवला प्रसंस्करण करने वालों से सम्पर्क करके, भाव तय कर लिया जाय तो रोजाना मंडी के चक्क्रर लगाने से बचा जा सकता है. इसके प्रसंस्करण कर्ता  वे हैं जो आंवले से आचार, , मुरब्बा, जैम , चटनी, जूस, स्क्वेश, कैंडी, लड्डू , चूरन , औषधि ,  बाल धोने का शैमम्पू , और च्यवनप्राश बनाते हैं। , अगर ताजे आंवले बेचने दिक्कत हो तो फलों को उबाल कर, गुठलियाँ हटा कर , सुखा कर और अच्छे तरह पैक करके बाद में भी बेचा जा सकता है।  सूखे आंवले का ७० -७५ रूपये प्रतिकिलो का भाव मिल सकता है।

आश्चर्य की बात है की इतने लाभदायक फल पर अब तक किसी भी अनुसंधानशाला में रिसर्च नहीं हुयी है जिस से आवले से कोई ऐसा उत्पाद बनाया जा सके जो च्यवन प्राश को टक्कर देने वाला एन्टीऔक्सिडेंट हो और अधिक स्वादिष्ट और सस्ता हो।  क्या हमारे उत्तराखंड की यूनिवर्सिटियां और विज्ञान के परास्नातक कॉलेज इस और ध्यान देंगे या किसी अमेरिकन युनीवर्सिटी से पेटेंट खरीदवायेंगे  ( एक में तो च्यवनप्राश की टेक्नॉलॉजी पर काम हो भी रहा है ).  उत्तराखंड के पंचायती बनों और बन पंचायतों की जमीनों में , और बन विभाग के नदी तटों के जंगलों में आंवले की खेती  को स्ररकारी कार्यक्रम में शामिल किया जा सकता है। )

अधिक जानकारी के लिए प्रादेशिक सम्ब्नधित विभाग के अधिकारियों से सम्पर्क करें।     

Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1
         Tulip (floriculture )  Farming in Uttarakhand

   ट्यूलिप उत्पादन से सम्पन्न, समृद्ध, साहूकार बनिए  !
                             डॉ.  बलबीर सिंह रावत , देहरादून। 

                              ट्यूलिप , जिसे हिंदी में कंद-पुष्प या नलिनी कहते हैं, मूल रूप से  भूमध्य सागर के पूर्वी इलाकों में उगने वाला पुष्प है जिसकी गिनती संसार के १० सब से अच्छे फूलों में होती है।   इसकी १५० प्रजातीय पाई जाती हैं लेकिन केवल  सफेद और उसके प्यारे अक्ष, पीले, नारंगी, गुलाबी, लाल, कासनी बैंगनी रग सब से अधिक लोक प्रिय हैं।  कई यूरोपीय देशों में ट्यूलिप उत्सव मनाये जाते हैं  और ट्यूलिप यात्रा टर्की शरू हो कर हॉलैंड तक जाती है। बसंत ऋतू सबसे पहिले टर्की में आती है तो ट्यूलिप सब से पहिले वहीं खिलता है।  तुर्की में इस फूल को लाले बोलते हैं तो उत्सव का नाम भी लाले उत्सव है।  जैसे जैसे बसंत उत्तर की ओर बढ़ता है तो  ट्यूलिप का लाले उत्सव भी उसी रफ़्तार से आगे बढ़ता हुआ हॉलैंड में पूरा होता है। 

अब  इस फूल को  कई दिवस-उत्सवों, जैसे वैलेंटाइन डे , मदर्स डे इत्यादि से जोड़ने के कारण इसको उगाने की तकनीकियों ने इसे दिसंबर से लेकर मई अंत तक उपलब्ध करा दिया है।  इन विदेशी उत्सवों और ट्यूलिप की विशिष्टाओं के  कारण  भारत में भी अब काश्मीर और हिमांचल प्रदेश में ट्यूलिप की खेती होने लगी है।  काश्मीर  में ट्यूलिप की खेती, श्री गुलाम अन्वी आजाद की पहल पर, २००८ में शुरू हुई और अब वहाँ एशिया का सबसे बड़ा ट्यूलिप बाग़ स्थापित हो चुका है. कई काश्मीरी  किसान ट्यूलिप की खेती से लाभ कमा रहे है, उनके ट्यूलिप के फूल दिल्ली , मुंबई, बंगलुरू, और हैदराबाद में खूब बिकते हैं। एक अनुमान के अनुसार एक फूल को उगने , बेचने की  लागत २० -२२ रूपये आती है और बिक्री से ३५ रूपया मिल जाता  है तो प्रति  फूल १० -१५ का शुद्ध लाभ मिल सकता है।  इसी कारण फूल उगाने के लिए जो गंठियां ( बल्ब ) चाहिए होती हैं उनका व्यवसाय  फिलहाल फूल उगने से अधिक लाभदायक है। नया नया ट्यूलिप बाग़ लगाने के लिए ये गंठियां खरीदनी होती है, जिनका प्रबंध , सरकारी पुष्प उद्यान विभाग को करना चाहिए।  चूंकि ये गंठियां महँगी बिकती हैं  ( यूरोप में  १. ७५ डॉलर -  ११५/- रु  प्रति दर्जन , यानी १२ रुपये की एक ), तो  नए नए उत्पाादकों को  थोड़ी सी गंठियां खरीद कर अपनी ही गंठियां उगानी चाहियें।   

ट्यूलिप ठंडी जलवायु का पौधा है इसलिए  इसकी खेती उत्तरी उत्तराखंड में ही हो सकती है  जहाँ बसंत ऋतू  फ़रवरी अंत में शुरू हो जाती है जिसका आभाष प्यूंली के फूल  दे देते हैं, जो दक्षिण से उत्तर को, ऊषणता के साथ साथ, खिलते जाते हैं।  ट्यूलिप को खेती के लिए समतल/हल्के ढलान वाले खेत,  हल्की अम्लीय मिट्टी ( पी एच  ६ - ७ ),  और अच्छी जल निकासी जरूरी है।  खेतो में बढ़िया गोबर की खाद , प्रति  १०० वर्ग मीटर ५०० किलो, अच्छी तरह जोत कर मिळा लेना होता है। फूलों के लिए  परिपक्व गंठियों का साइज १०-१२ सेंटी मीटर परिधि का होना चाहियें।  गंठियों को १५ सेंटीमीटर की दूरी पर ३० सेंटीमीटर दूर की  कतारों में लगाना चाहिए। लगाने का उपयुक्त समय नवंबर दिसम्बर है।  फूलों वाले बगीचे की गांठिया ४.-५ पत्तिया देती है और इन पर फूल मार्च अंत से आने शुरू हो जाते हैं।  जो गंठियां  कच्ची, कम उम्र की , होती हैं इन पर  एक ही पत्ती आती है और उन पर कोई फूल नहीं आते।  वे परिपक्व होने की अवस्था में होती हैं।

जब केवल गांठिया ही लेनी हों तो परिपक्व गंठियों में जब फूल वाली कोंपल आने लगती है तो उन्हें तोड़ दिया जाता है ताकि अतिरिक्त गांठिया पैदा होने लगें।  गंठियों के ग्राहक उगाने वालो से सम्पर्क करते है जब की फूलों को बेचने के लिए उगाने वालों को बेचने वाले फ्लोरिस्ट ढूंढने पड़ते हैं।

नए पुष्प उत्पादकों को पांच किस्म के रंगों के कम से कम १०० , १०० गंठियां फूलों के लिए एयर ५० , ५० गंठियां ,  अतिरिक्त गंठी उत्पादन के लिए लगानी चाहिए, ताकि साल  दर  साल बाग़ का क्षेत्र  बढ़ाने में आसानी हो।

दुनिया भर में ट्यूलिप के रंगीन बागों को प्रयट्टन से जोड़ा गया है तो उत्तरखंड में इसकी खेती को प्रोत्साहंन देने के लिए राज्य सरकारों, शहरों की म्युनिसिपालटियों, रेस्ट , गेस्ट हाउसों के प्राधिकरणों और मालिकों , झीलों , चरागाहों  के स्वामी बन विभाग को, कृषि विश्व विद्यालय के शीत जलवायु कृषि परिसर को ( जिसका उत्तराखंड में होना अनिवार्य होना चाहिए )  देश विदेश से  इसकी गंठियों को भारी मात्रा में ला कर  इसकी खेती को प्रारम्भ करना चाहिए।

अधिक जानकारी और ट्यूलिप की खेती की तकनीकियों का प्रशिक्षण लेने का प्रबंध करने के लिए जिला राज्य बागवानी विभाग ( फ्लोरीकल्चर), कृषि विश्वविद्यालय से सम्पर्क कीजिये।
                                                                                                                                                 --०००o०००--       

--
 
 
  स्वच्छ भारत ! स्वच्छ भारत ! बुद्धिमान भारत ! 
 Tulip (floriculture) Farming in Uttarakhand; Tulip (floriculture) Farming in Uttarkashi Garhwal, Pithoragarh Kumaon Uttarakhand; Tulip (floriculture) Farming in Chamoli Garhwal, Dehradun Garhwal, Nainital Kumaon Uttarakhand; Tulip (floriculture) Farming in Pauri Garhwal, Almora Kumaon Uttarakhand;  Tulip (floriculture) Farming in Rudraprayag Garhwal, Champawat Kumaon Uttarakhand; Tulip (floriculture) Farming in Tehri Garhwal, Bageshwar Kumaon Uttarakhand; 
 

 
 



Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1
                 बटन  मशरुम उगाओ -  बैंक बैलेंस बढ़ाओ
                  -- डॉ. बलबीर सिंह रावत , देहरादून।

मशरुम , गढ़वाली में च्यों , एक प्रकार की फफूंदी है जिसकी पौष्टिक गुण , दूध दही, मीट मुर्गा  व फल सब्जी को ललकारते हैं।  इस में न तो स्टार्च होता है न ही किसी प्रकार की चीनी और वसा ।  इमे पाये जाने वाले खनिजों में फॉस्फोरस और मैग्नीशियम  महतव रखते हैं। इस में जो प्रोटीन होती है उसमे सभी अमाइनो अम्ल होते हैं, जो दूध की प्रोटीन के अलावा और किसी  एकल स्रोत में एक साथ नहीं होते।  मुशरूम  सुपाच्य है तो इसे बच्चे, युवा, बृद्ध , शुगर की बीमारी वाले , मोटापा घटाने वाले  और अन्य सभी खा सकते हैं।   इसको उगाने के लिए  शुरू शुरू में थोड़ा सा  ही स्थान चाहिए  ,केवल १० x १२ फ़ीट का , १० फ़ीट ऊंचा एक  कमरा ही काफी होता है। नए नए  स्वरोजगारी मशरुम उत्पादकों को छोटे स्तर से शुरू करना चाहिए।  बड़े व्यवसायी तो विशेषज्ञों और प्रशिक्षित कार्मिकों को  रख कर बड़े स्तर के उत्पादन फ़ार्म बना लेते हैं ।

मशरुम उगाने के लिए  आद्रता ९०- ९५ % और तापमान २४ से २८ डिग्री सेल .  के बीच ठीक रहता है।  इसलिए मैदानी इलाकों में केवल १ या २ और पर्वतीय इलाकों में ४-५ फसलें ली  जा सकती हैं। सामान्य आकार की ट्रे में कुल ८किलो तक मुशरर्ों उगाये जा सकते हैं। इनको साफ़ करके पैकेटों  का मंडी भाव ४० रु प्रति किलो भी अगर मिल सकता है तो एक फसल में , एक कमरे से  ६,००० रुपये  मुशरूम बिक्री से कमाए जा सकते  हैं, जिसमे शुद्ध लाभ ३००० रपये का हो सकता है।   
आवश्यक साजो सामान  :  . कक्ष में दीवारो के सहारे ट्रे रखने के रैक , वांछित संख्या में उचित लम्बाई, चौड़ाई और गहराई के ट्रे ,  सबस्ट्रैट  ( उप आधार )   बनाने के लिए पर्याप्त मात्रा  में गेहू का भूसा, या  धान की पयाली, या मुलायम सूखी घास, या मक्की के भुट्टों का चूरा , अमोनियम नाइट्रेट या यूरिया , अन्य खनिज तत्व , फावड़ा, बेलचा,  बालटियां , साफ़  मुलायम कपड़ा, मशरुम धोने, रंग साफ़ करने और पैकिंग तथा पैकेजिंग का सामान , चाक़ू, दस्ताने, ताजे  शुद्ध पानी की व्यवस्था।  और अंत में   विश्वास योग्य स्रोत से स्पॉन  ( बीज) की सप्लाई।

 तैयारी के चरण :-   पहिले चरण  में  मशरुम उगने के लिए  कम्पोस्ट तैयार की जाती है। उसे बनाना अपने में एक महत्वपूर्ण काम है।  भूसे को , या जो भी वस्तु ल गयी हो  लिया हो, अच्छे तरह से भिगो कर उसमे नमी ७५ % के लगभग होनी चाहिए, फिर इस सामग्री को सड़ने के लिए छोड़ दिता जाता है।  सड़ने की प्रक्रिया के दौरान  गर्मी पैदा होती है और अमोनिया तथा  कार्बन डाई ऑक्साइड गैस पैदा होती है, इस लिए कक्ष में हवा का आना जाना सुबिश्चित करना होता है।
दुसरे चरण में    इस कम्पोस्ट को कुछ दिनों बाद खूब  सान कर अंदर का बाहर और बाहर का अंदर करके मिल्या जाता है और  इसे फिरसे सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है।  जो गर्मी पैदा होती हैउससे इसका पास्चरीकरण हो जाता है, यानी उसके अंदर के सारे नुक्सान दायक कीटाणु, जीवाणु  नष्ट हो जाते हैं। यह तापमान ७० डिग्री सेल. तक पहुँचता है।  जब इसमें गर्मी  का निकलना कम होना शुरू हो जाता है तो समझो कम्पोस्ट तैयार है. इन दो चरणो में लगभग २७-२८ दिन  लगते हैं
तीसरे चरण में  इसे ठण्डा    कर के  २५ -२६ डिग्री सेल. तक लाया जाता है और तब इसमें स्पॉन  को अच्छीे तरह से मिलाया जाता है। कुछ आपूर्ति कर्ता मशरुम के स्पोरों से बना स्पॉन बेचते हैं , इस काले रंग के तरल स्पान से पैदावार उतनी नही होती जितनी किसी अनाज के छोटे बीजों में उगाये गये स्पोरों के माइसीलियमों को बोने से होती है।  अगर यह उपलब्ध हो तो   इसे ही  लेना चाहिए ।
चौथे चरण में  इस स्पॉन मिले कम्पोस्ट को ट्रेयों में डाल कर  कमरे में बने रैकों में रखा जाता है , ध्यान रहे कि रैक इतन ही ऊंचे हों की उन तक आसानी से पहुंचा जा सके और अन्य क्रियाएँ की जा सकें। एक नया सस्ता तरीका भी है, बजासस्य टीन की ट्रे के   तैयार कम्पोस्ट को डेढ़ फ़ीट व्यास क मजबूर प्लास्टक के थैलों में भर कर जमीन में रक्खा जाता है जिसका फर्श साफ़ और कीटाणु , जीवाणु रहित कर दिया गया है।   
पांचवें चरण में    इन ट्रेयों के ऊपर  कम्पोस्ट की महीन परत रक्खी  जाती है और  उन पिनो के उगने की  प्रतीक्षा की जाती है जिनके सिरे पर मशरुम खिलते हैं।  इस में १८ से २१ दिन  लगते हैं।
छठे  चरण में    बटनों की बिनाई होती है।  परिपक्वता आने पर मुशरूममें स्पोर बनने लगते हैं, इसलिए इन्हे कच्चे ही तोड़ देना  चाहिए , करीब डे ढ़ इंच के व्यास के आकार के हो  जाने पर। साधारणतः एक ट्रे से १० दिनों तक मुशररूम मिलते रहते  हैं अनुभव हो जाने के उपरान्त इन्हे ४० दिनों तक मिलते रहने का पबंध किया जा  सकता है। मशरुम की तुड़ाई के लिए बटन के सिरे को दस्ताने पहिंने हाथ के अंगूठे और पहिली उंगली से हलके पकड़  कर घुमा देने के साथ साथ उठा देना चाहिए।  इसके नीचे  जड़  भी आएगी जिसे किसी तेज चाक़ू से काट कर  अलग कर देना चाहिए. ध्यानं   रहे की जड़ और कम्पोस्ट की मिट्टी  ट्रे के मशरूमों में न पड़े और नहीं फर्श पर।  इसके लिए एक बाल्टी साथ में रखनी चाहिए और मशरुम को अलग  ट्रे में। जब दिन के सारे मशरुम ले लिए जायँ तो इनको पोटाशियममेटाबायसल्फाइट के ५ ग्राम को १० लीटर पानी के घोल में डूबा कर धोने से एक तो इनमे सफेदी आ  जायेगी दुसरे जो भी कम्पोस्ट या अन्य बाहरी कण रह गए हों वे धूल जाएँहेगे।  फिर इनको साफ़ स्वच्छ पानी से धो कर अगर ८ घंटे के लिए ४-५ डिग्री से पर ठंडा  कर दिआ जाय तो बाजार में ये अधिक समय तक टिके रह सकते हैं। ( अंनधोये मशरुम भले ही चिट्ट सफेद न हों वे अधिक समय तक ताजे रहते हैं )
सातवें चरण में   बाजार के लिए तयारी।   प्रायः ग्राहक २०० ता ४०० ग्राम ही एक समय में खरीदते हैं तो २०० ग्राम के पैकेट , साफ़ विशेष प्रकार की प्लास्टिक की  थैली में  पाक किये जाते हैं और इन पैकेटों को एक मजबूत ट्रे में बाजार भेजा जाता है. थोक के भाव अलग अलग शहरों में  अलग अलग भाव मिलते हैं  जो ४० से ८० रुपये प्रति किलो होते हैं. मंडी की नीलामिमे और भी काम भाव मिलेंगे। इसलिए अगर हो सके तो अपने ही खुदरा व्यापारी तय कर लेने चाहियें।  अगर आप मकिसी घने बस्ती  के नजदीक हैं तो अपने घर से ही रिटेल भाव में बेच सकतेहैं ,लोग आ कर स्वयं ही ले  जाएंगे..
अंत में एक सलाह.  अगर आपने यह धंदा शुरू करना  है तो किसी अच्छे प्रशिक्षण केन्द्र से प्रशिक्षण ले कर पूरा आत्मविश्वास हासिल कर लेना चाहिए।  इसके लिए जिला हॉर्टिकल्चर अधिकारी. प्रादेशिक मशरुम उत्पादक संस्था  से या फिर
राष्ट्रीय मशरुम केंद्र , चम्पाघाट, सोलन , हिमांचलप्रदेश १७३ २१३ से डाकद्वारा या ( ०१७९२) ३०४५१और ३०७६७ पर सम्पर्क कर के सलाह ले  सकते हैं।                   
Copyright @ डा बलबीर सिंह 2015 , भारत
--
 
 
  स्वच्छ भारत ! स्वच्छ भारत ! बुद्धिमान भारत !

 

Regards
Bhishma  Kukreti

 

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22