बिरखांत-७९ : ‘जागर’ उपन्यास का नाट्यमंचन
वर्ष १९९५ में हिंदी अकादमी दिल्ली के सौजन्य से प्रकाशित मेरा उपन्यास ‘जागर’ का १० अप्रैल २०१६ को प्यारे लाल भवन आई टी ओ नई दिल्ली के सभागार में ‘ कलश कलाश्री’ के करीब दो दर्जन रंगकर्मियों द्वारा खिमदा (के एन पाण्डेय) और अखिलेश भट्ट के निर्देशन में मंचन हुआ | डेड़ घंटे के इस मंचन का साक्षी था वह सभागार जो कला-प्रेमियों और साहित्य -प्रेमियों से खचाखच भरा था | छै सौ पच्चीस सीटों वाले इस सभागार में साहित्यकार, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता, कवि, पत्रकार, कलाकार, रंगकर्मी, राजनीतिज्ञ सहित अनेक गणमान्य व्यक्ति मौजूद थे | सुप्रसिद्ध साहित्यकार बल्लभ डोभाल, डा. हरिसुमन बिष्ट, राजनेता हरीश अवस्थी, पत्रकार देव सिंह रावत, चारु तिवारी, डा. पवन मैठानी सहित कई नामचीन व्यक्ति वहाँ मौजूद थे | कई गणमान्य व्यक्तियों का नाम नहीं जोड़ पाने के लिए क्षमनीय हूँ | मैं सभी विभूतियों एवं सभागार में मौजूद सभी दर्शकों का आभार व्यक्त करता हूँ जो इस जिज्ञासा के साथ वहाँ आये थे कि आखिर लेखक ने ‘जागर’ उपन्यास में क्या कहना चाहा है ?
‘जागर’ उपन्यास की रचना के अंकुर १९७१ के भारत-पाक युद्ध के दौरान जमीन के अन्दर बंकर में फूटे जब यह लेखक मात्र तेईस वर्ष का था | उपन्यास की कुछ कड़ियाँ १६ दिसंबर १९७१ को युद्ध समाप्ति के बाद, बंकर में जब भी समय मिलता कागज़ की कुछ कतरनों में लिख लेता था | यात्रा जारी रही और लगभग चार वर्ष में यह उपन्यास पूरा हुआ | १९७५ से १९७५ तक बीस वर्ष यह हस्तिलिपि मेरे बक्से में बंद रही | कई प्रकाशकों के पास गया, सबने छापने के लिए धन मांगा जो मेरे पास नहीं था | १९९४ में समाचार पत्र के एक विज्ञापन को देखकर मैंने इसे टाइप करवाया और हिंदी अकादमी में जमा करवा दिया | यह वह समय था जब मैंने पहली बार हिंदी अकादमी देखी | कुछ महीनों बाद मुझे एक रजिस्टर्ड पत्र मिला जिसमें लिखा था कि अकादमी स्वयं इस उपन्यास को छापना चाहती है | इस तरह १९९५ में हिंदी अकादमी के सौजन्य से यह उपन्यास छप गया |
उपन्यास छपते ही वही हुआ जिसकी आशंका थी | मसाण उद्योग वाले एवं सभी अन्धविश्वास के पोषक मेरे विरोधी बन गए और जंहाँ- तहां मुझे प्रताड़ित करने लगे | मुझे और मेरे परिवार को इससे बहुत पीड़ा हुयी | ऐसी बात नहीं, बहुत लोग मेरे साथ भी थे जिनमें मेरी पत्नी भी थी | एक संस्था ने इस पूरे विवरण को ‘राष्ट्रीय सहारा’ दैनिक समाचार पत्र में छपवा दिया | ३० अगस्त २००४ को इस अखबार द्वारा मुझे मंदिरों में पशुबलि एवं समाज में अन्धविश्वास का खुलकर कर विरोध करने पर ‘आज का प्रेरक व्यक्तित्व’ सम्मान से सम्मानित किया गया |
अंधविश्वास एक कैंसर की तरह का रोग है जिसकी समाज में गहरी जड़ है| आज मेरे जैसे हजारों-लाखों लोग इस कैंसर के विरोध में आवाज उठाते रहते हैं | शिक्षा के दीप से अब लोग इस मकड़जाल को समझने भी लगे हैं | यह उपन्यास ‘प्यारा उत्तराखंड’ (संपादक देव सिंह रावत) अखबार में कुछ वर्ष पहले किस्तवार छप भी चुका है | १० अप्रैल २०१६ को इस नाटक को देखने के बाद देव सिंह रावत की टिप्पणी, “यह नाटक एक श्रेष्ठ और प्रेरणादायक पहल है|” डा. पवन मैठानी के अनुसार, “खिमदा की टीम ने नाटक की आत्मा अर्थात उद्देश्य को सार्थक कर दिया |” सोसल मीडिया में इस पर बहुत सार्थक प्रतिक्रिया हुयी है |
‘जागर’ के नाट्यमंचन के दो दर्जन कलाकारों के श्रम और कला का मैं हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ | इन कलाकारों ने गीता, रानी, शंकर की मां, चनिका की घरवाली, सेरी पुछारिन, बंसीधर की घरवाली, डाक्टर, शंकर, रवि, गोपीचंद, चनिका, शास्त्री जी, कलुवा, भगुवा, दौलतिया, बंसीधर, जोरावर, गावं की औरतें, बच्चे और बड़े सहित सभी किरदारों को जीवंत कर दिया और सभागार में खूब तालियाँ बटोरी | सभागार में बैठी उस दौर की ‘गीता’ यह सब देख कर नाटक की गीता, रानी और गीता की सास के अभिनय से भावविभोर हो गई | कुल मिलाकर इन सभी कलाकारों ने खिमदा और अखिलेश भट्ट के निर्देशन में ‘जागर’ उपन्यास उन लोगों तक भी पहुंचा दिया जिन्होंने अब तक उपन्यास नहीं पढ़ा था | नाटक के पीछे सभी अदृश्य हाथों एवं संगीत निर्देशक वीरेन्द्र नेगी, प्रकाश प्रबन्धन तथा गायक कलाकारों ने भी उम्दा कार्य करके इस मंचन में चार चाँद लगाये | आप सभी को दिल की गहराइयों से साधुवाद | अगली बिरखांत में कुछ और...
पूरन चन्द्र काण्डपाल, ‘जागर’ उपन्यास का लेखक
११.०४.2016