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Articles by Shri Uday Tamta Ji श्री उदय टम्टा जी के लेख

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विनोद सिंह गढ़िया:
कुमायूं में मध्यकालीन स्यौक और सेवाएं



लेख - श्री उदय टम्टा जी

[justify]मित्रो, कुमायूं प्रांतर में पूरा ही मध्यकालीन इतिहास पारस्परिक युद्धों व कटकों से भरा पड़ा है. एक छत्रीय कत्यूरी शासन के अवसान के बाद मध्यकाल में यहाँ पर छोटे छोटे मांडलिक राजाओं के बीच इतने अधिक युद्ध हुए हैं कि उन्हें इतिहास भी ठीक से  समेट व सहेज नहीं पाया. यह युद्ध या तो वर्चस्व के लिए लडे गए या क्षेत्र पर अधिकार के लिए. फिर भी मध्यपूर्व या मध्य एशिया की परंपरा की तरह ये युद्ध कभी भी सम्पदा की लूटपाट के लिए नहीं लडे गए. इसपर भी गंगोली का मनकोटी राज्य व सीरा का मल्ल राज्य कुछ हद तक इन कटकों से उतने अधिक प्रभावित नहीं रहे, क्योंकि ये प्रायः स्वतंत्र थे और केवल डोटी (नेपाल) के राज्य के प्रति स्वामिभक्ति का भाव रखते थे. शेष कुमायूं में रोहिल्लो के द्वारा राज्य सञ्चालन से संवंधित तमाम प्राचीन व तत्कालीन दस्तावेज या तो जला दिए गए या लूट लिए गए, पर सुदूर सीरा तक वह नहीं पहुँच पाए, जिस कारण सीरा के किले के अन्दर अथवा वहां के लोगों के घरो के व्यक्तिगत संग्रह में से कुछ दस्तावेज व राज्य की बहियाँ सुरक्षित मिल गईं थीं, जिनसे उस समय की शासन व्यवस्था, स्यौकों (सेवाओं) के काफी विवरण अभी भी उपलव्ध हैं. 1560 के दशक के दौरान यह राज्य भी चंदों के अधीन अगया था, पर उससे पहिले की बहियों से ज्ञात होता है कि इस किले के अंतर्गत नियमित सेवा के कर्मचारी नहीं होते थे, हालाँकि यह राज्य अपेक्षाकृत शक्तिशाली होने के कारण यहाँ के लिए अस्कोट व जोहार-मुनस्यार से सेवाएं मुक़र्रर थीं. सीरा की एक बही से ज्ञात होता है कि उस समय आसपास के गांवों के लोगों की सेवाएं नियमित रूप से मुफ्त में ली जातीं थीं. एक मध्यकालीन बही के विवरण के अनुसार सीरा के कोट के अन्दर दैनिक रूप से मुफ्त सेवा देने वाले लोगों का विवरण इस प्रकार अंकित है--13 लोहार--तीन तीन की पाली में, 18 ओड़ (मिस्त्री) तीन तीन की पारी में, 11 भूल, और 9 गरिया वहां रोज काम करते थे. बुनकरों में से 4 धुन्गेरिया बोरा भी वहां कार्य करते थे. बुत्करों (काम करनेवाले लोग) में से 7 चमाल, 4 चनाकोटी, और एक लधाड़ी भी वहां बूती (कार्य ) में लगा रहता था. ये सब कोट कें अन्दर राअ पद वाले अधिकारी की अनुमति से ही प्रवेश करते थे. अन्य सेवादारों में एक चौकी रिव्ररवाओं में से, एक वारामंडल वासियों में से, एक व्यक्ति रौतेला सेवाकारियों में से, एक डोटयालों में से, एक बजेठाओं से, एक दनपुरियों से, एक मवाला बयाल जोशियों में से, एक उपाध्याय, एक पंत, एक मसमोलिया जोशी, ननपापों का पाणौ, एक पनेरू, एक दारमियां शौका और एक क्वारी शौका की सेवा भी मुक़र्रर थी. इनके अलावा भी जिन अन्य लोगों की सेवा यहाँ मुक़र्रर थी, उनमें एब सम्मिलित थे--वसुपंत, आनीपंत, दासुपंत, गंगोलिया पंत, कालू दिगारी, कोटालडा दिगारी, हरी दिगारी, भाट दिगारियों की संयुक्त सेवा यहाँ मुक़र्रर थी. इस सेवा में पोखरिया कुलेठा, गुदौला और साली के पांडे और पाटनियों की भी नियमित रूप से सेवा ली जाती थी. मित्रो, कुमायूं में कुली प्रथा का विरोध तो बहुत बाद में अंग्रेजों कें जमाने में आकर हुआ, क्योंकि तब तक लोगों में जाग्रति आ चुकी थी, अन्यथा तो यह प्रथा कत्यूरी शासन के समय से ही चली आरही थी. पूर्व काल में इसका विरोध करने की न तो परंपरा थी और न ही किसी को साहस. बस, राजसेवा को एक नैसर्गिक कर्तव्य मानकर ही लोग इसे अंजाम देते थे.

विनोद सिंह गढ़िया:
बहुत बोलने लगे हो !



लेख - श्री उदय तामता जी

[justify]मित्रो, कुमायूं संभाग के पूरे क्षेत्र में तथा गढ़वाल के कुछ हिस्सों में 'लाटा' या 'लाटी' शब्द बहुत अधिक प्रचलित है. इसका शाब्दिक अर्थ तो है मूक, अर्थात् जो बोलने में असमर्थ है, परन्तु इसके कई श्लेषयुक्त अर्थ भी हैं, जैसे अपने निकट परिजन या पारिवारिक सदस्यों के लोग इसका प्रयोग सीधे-सादे व्यक्ति के रूप में तथा अन्य व्यक्तियों के लिए बेवकूफ के तौर पर करते हैं. ठीक इसी तरह लोग अक्सर अपने साहबजादों को झिड़क देते हैं--बहुत बोलने लगे हो. पर हमारे इस बोलने का इतिहास उतना पुराना नहीं है, जितना हम समझ्ते हैं. सच तो यह है कि मनुष्य ने लिखना पहिले सीखा, बोलना बाद में. लिखने से तात्पर्य साहित्य रचना अथवा अन्य लेखन से नहीं, बल्कि इशारों की शक्ल में हवा में संकेतो के लिखने अथवा चट्टानों में सांकेतिक चिन्हों को अंकित करने से है. प्रारंभिक अवस्था में बोलना इसलिए संभव नहीं था क्योंकि उसका कंठ, तालू, दांतों, जबड़े व जीभ का विकास व आपसी तालमेल पूर्ण रूप से नहीं होपाया था, जिस कारण वह 'बोलों' का निर्माण नहीं कर पाया. एक छोटा सा शब्द बोलने के लिए भी एक ही समय में सैकड़ों मांसपेशियों को कार्य करने की आवश्यकता पड़ती है. बाद में अंगों व मांसपेशियों का सही विकास व इनका आपसी तालमेल ही शब्दों की जननी बना. बोलले की कला विकसित करने में यद्यपि कई अंगों का योगदान है, परन्तु इसमें भी मुख्य रूप से हाथों का योगदान महत्वपूर्ण है, क्योंकि इशारों से संदेशों के परेषण में हाथों का प्रमुख स्थान है. ज्यों ज्यों हाथों को को नए कार्य की आवश्यकता पड़ी, मस्तिष्क में उसके लिए तंत्र विकसित होते गए. मस्तिष्क व हाथों के परस्पर संवंधों की तुलना हम जनता व नेता से कर सकते हैं. जनता अपनी जरुरत के लिए नेता का चुनाव करती है, और नेता पीठाशीन होकर हमें निर्देहित ही नहीं करता, बल्कि हमारा भाग्य विधाता भी बन जाता है. उत्तराखंड में यद्यपि जुओं (छोटी बल्लियों) को अकेला आदमी भी उठा लेता है, परन्तु फर्श के सहारे के लिए लगाये जाने वाले लकड़ी के बड़े बीम यानि कि 'भराणी' अथवा छत के सहारे के लिए लगने वाली 'धूर' या 'धूरी' के लिए कई लोगों के सहयोग की आवश्यकता पड़ती है, ठीक इसी प्रकार से मनुष्य के विभिन्न अंगों व मस्तिष्क के सहयोगपूर्ण तालमेल से ही हमारे वाक्तंत्र का विकास होता चला गया. आज यह वाक्तंत्र बहुत ही समृद्ध अवस्था में पहुँच गया है. परन्तु मित्रो, यह अत्यंत सूखद पहलू ही है कि हमारे पूर्वज वाकशून्य अवस्था में करोड़ों वर्षों तक रहते हुए भी हमारे लिए कई ऐसी विरासतें छोड़ गए, जिनकी वजह से ही हम आज इस धरती की अत्यंत विसम परिस्थितियों में भी सुरक्षित रूप से विचरण कर रहे हैं.
बोली एक अमोल है, जो कोई बोले जान !

विनोद सिंह गढ़िया:
[justify]आधुनिक कल्प वृक्ष--च्यूर



लेख - श्री उदय टम्टा

मित्रो, संसार की विभिन्न संस्कृतियों में गीत-संगीत, पहनावे व दिखावे के अलावा खान-पान व रहन-सहन के तौर-तरीकों का भी बड़ा महत्व है। प्राचीन भारतीय धार्मिक ग्रंथों व पौराणिक सहित्य में अन्य कई मानवोपयोगी वस्तुओं के साथ ही एक चमत्कारिक गुणों वाले 'कल्प वृक्ष' की कल्पना भी की गयी है। जितने गुणों की कल्पना इस वृक्ष के संवंध में की गयी है, वह भले ही वैज्ञानिक रूप से असंभव है, परन्तु जनविश्वास सबसे बड़ी चीज होती है और इस पर अधिकांश लोग विश्वास करते ही हैं, कुछ अन्जाने में और कुछ जानकर भी। परन्तु उत्तराखंड के पर्वतीय भाग में उगने वाले एक पेड़, जिसे 'च्यूर' कहा जाता है, में भी कई चमत्कारिक गुण विद्यमान हैं। यह पेड़ लगभग एक हज़ार मीटर की ऊंचाई तक पैदा होता है तथा नदी घाटियों में यह अपेक्षाकृत रूप में अधिक पनपता है। इसका तना, टहनियां, पत्तियां, फूल, शहद (मौ) फल व बीज सभी उपयोगी ही नहीं, कुछ समय पूर्व तक मनुष्य सहित कई अन्य जीवों के लिए जीवन का आधार भी थे। यह महुआ प्रजाति के पेड़ों से मिलता जुलता है। जिन घाटियों में यह पेड़ अधिक संख्या में थे, वह जीवनोपयोगी वस्तुओं के मामलों में आम तौर आत्मनिर्भर से थे. इस पेड़ से प्राप्त हरा चारा पशुओं के लिए जीवनदायी, फूल मधुमखियों के लिए, फल मनुष्य सहित कई जंगली जीवों केलिए पौष्टिक व स्वास्थवर्धक माने जाते हैं। इसके बीजों से निकलने वाली वसा में देशी घी की तरह जमने का गुण भी है। इसके बीजों, जिन्हें 'दिरौल' कहा जाता है, से तेल निकलने के बाद बच जाने वाली खल से भी कपडे धोने का कार्य किया जाता है। इसकी कई प्रजातियाँ अब भी विद्यमान हैं, जो आषाढ़ के माह से पकने प्रारंभ हो जाते हैं और 'सूखे सावन' व 'भूखे भादों' तक निरंतर फल देते रहते हैं। पर मित्रो, जिन पेड़ों पर 'वनराक्षसों' की बुरी नज़र पड़ी, उनमें च्यूर भी प्रमुख रूप से सम्मिलित है। अब लगभग पूरे पहाड़ को ही च्यूड़ विहीन कर दिया गया है। कुछ लोग इसकी सुरक्षा में भी लगे हैं, पर वह इस देवासुर संग्राम जैसे अभियान में शक्तिशाली राक्षसों के समक्ष देवताओं के समान कमजोर पड़ गए हैं, क्योंकि, सब तो नहीं, पर कुछ वनकर्मी व राजनेता राक्षसों के गुरु 'बलि' की भूमिका में सक्रिय रूप से कार्यरत हैं, जो प्रत्यक्ष में व परोक्ष दोनों रूपों में वनों के विनाश करने वालों के साथ कदम ताल मिलाते हुए ही नज़र आते हैं।

विनोद सिंह गढ़िया:
[justify]हेनरी रैमसे उर्फ़ रामजी


लेख : श्री उदय टम्टा (से.नि. वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी)

मित्रो, कुमायूं में न जाने यह परंपरा कहाँ से आई कि एक ओर तो वह 'भूत' के खौफ से ठीक से सो भी न सकते, और वहीँ दूसरी ओर उसे कुलदेवता के तौर पर अपना भाग्यविधाता बना कर उसके थान (देवस्थान) की स्थापना अपने घर के अन्दर कर लेते हैं ! यह तो मामला है पारलौकिक भूतों का, पर यहाँ जिस भूत की बात मैं करने जारहा हूँ, वह लौकिक भूत की है, जिसे लोगों ने खौफ के कारण नहीं, बल्कि आत्मीय लगाव के कारण बड़े प्रेम से गले भी लगाया. यह नाम है हेनरी रैमसे का, जो जनमानस में 'रामजी' बन गए थे ! रैमसे २५ अगस्त १८१६ को ले.जन. (ओनरेरी) रैमसे व श्रीमती डेसिले के घर स्काटलैंड में पैदा हुए तथा तब की भारतीय नेवी में अधिकारी बन गए. १८४० में उन्हें असिस्टेंट कमिश्नर बना कर कुमायूं में भेजा गया. तब कुछ समय के लिए कुमायूं व गढ़वाल कमिश्नरी का मुख्यालय अल्मोड़ा में था. १८५० में उनका विवाह उनसे पहिले के कुमायूं कमिश्नर लशिंगटन की पुत्री लौरा लशिंगटन के साथ हुआ. कुमायूं में सर्वप्रथम कमिश्नर ई.गार्डनर थे, तथा बाद में गोयन, ट्रेलर, लशिंगटन तथा बैटन इत्यादि कमिश्नर रहे, जो सभी योग्य थे. उन्हें यह् सुविधा प्राप्त थी कि लोग गोरखा शासन के अत्याचारों से पीड़ित थे, इसलिए अंग्रेजों को उन्होंने अपना हितैषी ही मान लिया था. बैटन के कमिश्नर बनने तक परिस्थितियां कुछ बदल चुकीं थीं. १८४८ में बैटन की अचानक मृत्यु होने पर रैमसे ही कमिश्नर का कार्य चलाते रहे और १८५६ में उन्हें बैटन के स्थान पर कुमायूं का कमिश्नर बना दिया गया, और इस पद पर वह पूरे २८ साल तक, यानिकि १८८४ तक बने रहे. वह सरकारी पद पर पूरे ४४ साल तक कुमायूं में सेवा देते रहे और १८८४ में रिटायरमेंट के बाद १८९२ तक अल्मोड़ा में ही रहे, जब उनके लड़के उन्हें जबरदस्ती उठाकर इंग्लैण्ड ले गए और वहीँ पर १६ दिसम्बर १८९३ को वह स्वर्ग सिधारे. उन्हें नैनीताल के बजाय अल्मोड़ा अधिक पसंद था, और अल्मोड़ा से भी अधिक शांत व शीतल स्थान बिनसर उन्हें भा गया. उन्होंने वहीँ पर अपना बंगला बनाया. अल्मोड़ा व नैनीताल के अलावा बहुत से निर्णयों पर उनके हस्ताक्षर बिनसर में ही हुए. उन्होंने इसी के समीपवर्ती रमणीक स्थान 'खाली' में भी बंगला बनवाया, पर १८५७ की उथलपुथल के कारण वह उस बंगले में कभी रह ही नहीं पाए. इस बंगले में रहने का लुत्फ़ बहुत बाद में, बीसवीं सदी में, पंडित जवाहर लाल नेहरू की बहन श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित ने उठाया. रैमसे को कुमायूं का राजा भी कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने यहाँ पर शासन तत्कालीन संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध या दिल्ली के कानूनों के आधार पर नहीं चलाया, बल्कि स्वयं ही इसके लिए ब्रिटिश संविधान की तर्ज पर अलिखित कानून बनाये और उनके अनुसार ही कार्य सञ्चालन करवाया, खासतौर पर उन्होंने दमनकारी कानूनों को बड़ी ही निडरता से एक तरफ रख दिया. उस काल में कुमायूं व गढ़वाल में अलग से सिविल व न्यायिक अदालतें नहीं थीं, अतः सारे ही दीवानी व फौजदारी मामले कमिश्नर की अदालत में चलते थे. १८५७ के ग़दर के बाद नैनीताल के फांसी गधेरे में जिन सैकड़ों लोगों को पेड़ों से लटका कर फांसी दी गई, वह रैमसे के समरी ट्रायल के अधीन ही दी गई. इन सजाओं का स्वरूप न्यायिक न होकर दिटेरेंट के तौर पर हुआ था ताकि लोग आन्दोलन से बाज़ आयें. इसका परिणाम भी सामने आया और केवल रानीखेत के सल्ट क्षेत्र को छोड़कर पूरा कुमायूं लगभग शांत ही बना रहा. कुमायूं में लम्बे समय से रहने के कारण हेनरी रैमसे बड़ी ही अच्छी तरह पहाड़ी बोली समझते ही नहीं थे, बल्कि बोलते भी थे. कहा जाता है कि तब अदालतों में वकील भी या तो थे ही नहीं, अगर थे भी तो बहुत ही कम. आम तौर पर बाद्कार अपनी बात केवल पहाड़ी बोली में ही रख पाते थे. अन्य लोगों की अदालत में वकील इसे सुधार कर अंग्रेजी में अदालत में प्रस्तुत प्रस्तुत कर देते थे, परन्तु रैमसे की अदालत में ऐसा नहीं होता था, वह बादकार की बात समझ कर फैसला देते थे, जो न्याय के बहुत करीब होते थे, जिस कारण लोगों को उनपर बहुत अधिक भरोसा होता था और उन्हें लोग न्याय का देवता तक मानते थे. उनकी लोकप्रियता का एक कारण और भी था. वह अत्यधिक दुर्गम स्थानों की भी यात्रा करके लोगों का दुःख दर्द समझते थे. वह उन्नीसवीं सदी में भी उच्च हिमालय स्थित मिलम गांव तक भी पैदल यात्रा कर आये थे. तब रास्ते बहुत ही संकरे होते थे, जिसमें घोडा या डांडी से जाना भी असम्भव था. उनकी यह विशेषता थी कि वह जहाँ एक शासक थे, वहीँ एक मिशनरी भी थे. उन्होंने जहाँ एक ओर ईशाई धर्म के प्रचार प्रसार में भी योगदान दिय, वहीँ पिथौरागढ़ जनपद में स्थित दुर्गम स्थान चन्डाक में मिशन की स्थापना कर लोगों की भरपूर सेवा भी की. यही नहीं, उन्होंने हल्द्वानी के सूखे भावर में नहरों का जाल बिछा डाला. हल्द्वानी की मुख्य नहर को उन्होंने महज ६ साल के अन्दर पूरा कर दिया था. विडम्बना देखिये कि इसी नहर को कवर करने में लगभग ६० करोड़ रूपया छिर चुका है और इसमें कहीं छिपला केदार जैसे माउन्ट हैं तो कहीं दारमा जैसी गहरी घाटियाँ, और काम पिछले तीन साल से चल रहा है और पूरा होने का नाम ही नहीं लेरहा.  रैमसे ने लोगों को प्यार भी दिया, एक कठोर शासक की भूमिका भी निभाई. उन्होंने निरीह पर्वतीय जनमानस की भी खूब सेवा की. उन्हें कोई वोट भी नहीं लेना था, फिर भी वह गरीबों के घरों में गए, महात्मा बुद्ध की तरह उनके घर का रूखा सूखा खाना भी खाया. यही कारण है कि वह आज भी एक देवता के सदृश देखे जाते हैं.

विनोद सिंह गढ़िया:
[justify]


आलेख़ - श्री उदय टम्टा
(से.नि. वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी कुमाऊं के अख़बार
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मित्रो, आज मीडिया के कई रूप हमारे सामने हैं, जिनमें पत्र-पत्रिकाएँ, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोसियल नेटवर्किंग इत्यादि. इन पर प्रभावी नियंत्रण के लिए प्रेस एक्ट ऑफ़ १९१०, यथा संसोधित प्रेस एक्ट १९३१ व १९३२ हैं, साथ ही हाल का ही साइबर कानून है. १९१० का यह एक्ट मुख्यतः गोरक्षा आन्दोलन के माध्यम से फूट रही स्वतंत्रता की कोपलों को रोकने के लिए लाया गया था. हालाँकि इसमें सामाजिक विद्वेष की भावना भड़काने के निषेध की व्यवस्था भी थी, पर मुख्य उद्देश्य देश प्रेम की भावना को कुचल डालना ही था. सामाजिक विद्वेष फ़ैलाने के विरुद्ध तत्कालीन सरकार के द्वारा किसी भी कार्यवाही के कोई संकेत नहीं मिलते. इस एक्ट के आने से बहुत पहिले १८७० के दशक में भी कुमाऊं में अख़बार का प्रकाशन प्रारंभ हो चुका था. उस समय भी कुछ अंग्रेज अधिकारी ऐसे थे, जो सामाजिक जागरूकता के पक्षधर तो थे ही. उस समय तत्कालीन संयुक्त प्रान्त के गवर्नर विलियम मूर थे. विलियम मूर १८७० में एक बार अपने ग्रीष्मकालीन भ्रमण पर अल्मोड़ा पधारे. सर हेनरी रामसे, जो उस समय कुमाऊं के कमिश्नर थे. की मदद से अल्मोड़ा के एक जागरूक नागरिक श्री बुद्धि बल्लभ पंत गवर्नर से मिलने गए थे. इसी मुलाकात के दौरान विलियम मूर ने श्री पंत को सुझाव दिया कि वह समाज में जागृति फ़ैलाने के लिए क्यों नहीं एक अख़बार का प्रकाशन प्रारंभ कर देते ? वह भली भांति जानते ही थे कि पश्चिम में आई जागृति के मूल में प्रेस का बड़ा हाथ है. उनकी सलाह पर श्री पंत ने अल्मोड़ा में प्रेस क्लब की स्थापना की. तब पर्वतीय प्रांतर में कोई प्रिंटिंग प्रेस नहीं थी, अतः उन्होंने सर्व प्रथम एक प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की और १८७१ में 'अल्मोड़ा अखबार' का प्रकाशन प्रारंभ कर दिया. इसके पाठक केवल भारतीय सरकारी अधिकारी व प्रबुद्ध लोग ही थे. व्यावसायिक रूप से तो यह प्रयास सफल नहीं हुआ, परन्तु इसके माध्यम से कुछ सामाजिक कुरीतियों का उन्मूलन करने में सहायता मिली. इस अख़बार के देशभक्ति की ओर झुकाव के कारण इसे पाबंदियों का शिकार होना पड़ा और यह बंद हो गया. इसी कारण से 'शक्ति' के नाम से इसका प्रकाशन पुनः प्रारंभ हुआ. बाद में श्री बद्री दत्त पाण्डेय के हाथ में इस पत्र का संपादन आया. वह प्रखर देशभक्त व स्वतंत्रता सेनानी थे, परन्तु दबे कुचले लोगों के प्रति उनकी धारणा कुछ हद तक सद्भावनापूर्ण नहीं मानी जाती थी. इसका आभास उनके द्वारा रचित 'कुमाऊ का इतिहास' के अवलोकन से भली भांति मिल जाता है. इसी कारण से राय बहादुर स्व. मुंशी हरि प्रसाद टम्टा, जो कुमायूं के सबसे पहिले उद्योगपति भी थे, की अगवाई में १९३४ में 'समता' साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ, जो संभवतः आज भी प्रकाशित होता है. अन्य पत्र पत्रिकाओं के विपरीत इसके माध्यम से समाज के दूसरे वर्गों के लिए किसी अपमानजनक शब्दों या दुराग्रहों से दूर रहने की नीति का भली भांति पालन किया गया. इसके माध्यम से दबे कुचले लोगों में जागृति लाने का भरसक प्रयास किया गया तथा इसका वितरण बागेश्वर के उत्तरायणी मेले के अवसर पर नि:शुल्क भी किया गया. तब बिना किसी बाहरी आर्थिक मदद से अख़बार चलाना बहुत कठिन था, क्योंकि उस समय समाज के जिस वर्ग के हितों को प्रमुखता देने का उद्देश्य सामने था, वह बिल्कुल ही पस्त था. अतः नियमित रूप से अख़बार का प्रकाशन चलता रहे, कुछ समय तक सरकार की ओर से दो सौ रुपया प्रतिमाह की आर्थिक मदद भी मिलती रही. इसी जागरूकता के बल पर इस तबके के लोग सरकारी सेवा में आने लगे.

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