Author Topic: Articles by Shri Uday Tamta Ji श्री उदय टम्टा जी के लेख  (Read 66674 times)

विनोद सिंह गढ़िया

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आलेख - श्री उदय टम्टा


[justify]गमरा-मैशर--गौरा-महेश्वर का लोक रूप

मित्रो, केवल शिवपुराण में ही नहीं, बल्कि समूचे उत्तर वैदिक कालीन व पौराणिक वांग्मय में सर्वत्र भगवान शिव के दिव्य रूप की महिमा का वर्णन मिलता है और उनके साथ हैं जन्म जन्मान्तर में उनकी अर्द्धांगिनी नहीं, बल्कि पूर्णान्गिनी सती और पार्वती. जहाँ शिव अनादि व अनंत स्वरूप के स्वामी हैं, और उनका रूप एक महायोगी का है, वहीँ माता पार्वती की उपस्थिति सदैव ही राजकुल में जन्मी कन्या के रूप में मानी जाती है--चाहे वह राजा दक्ष की कन्या सती हो या राजा हिमालय की पुत्री गौरा अथवा पार्वती. परन्तु इसके विपरीत उत्तर भारत के कुमाऊं प्रांतर में इन दोनों का एक लोक रूप भी मिलता है--गमरा और मैशर का. यह दोनों हिमालय पर्वत पर जन्म पाते हैं, साधारण पशुपालक हैं--गमरा गौपालक और मैशर बकरी अथवा भेडपालक परिवार के सदस्य के रूप में. कुमाऊं की मशहूर गाथा गमरा मैशर में गमरा भी उस परिवार की सदस्य हैं, जो अभावग्रस्त श्रेणी में आता है. आम लोगों की भांति ही उसके परिवार की खाद्य सामग्री--अन्नादि भादो माह के आते आते समाप्त हो जाती है. उसके बाद के दिन ठीक उसी तरह से बीतते हैं, जैसे कि कुपोषित पर्वतीय परिवारों के. कुमाऊं में एक सप्ताह तक मनाये जाने वाले पर्व सातों-आठों में लोकजीवन में छाये हुए इस गाथा की एक झलक आपकी सेवा में प्रस्तुत है--

शिखर धुरा ठंडो पाणी मैशर उपज्यो
गंगा टाटू बल बोट लौलि उपजी.
नंदी का किनार लौलि गोवा चरालि
नंदी पार मैशर गुसैं बाकारा चराला
जाना जाना मैशर गुसै नंदि का किनार
'कैकि छै तु छेलि-बटि, कै गौंवाँ चरूंछे ?'
'बाबु हमारा मेघमंडल, मैय्या मैना छना.
इस प्रारंभिक परिचय के बाद मैशर जटाधारी जोगी के रूप में उनकी मंगनी के लिए नके घर पहुँचते हैं. काफी ना-नुकुर के बाद किसी तरह मैशर और गमरा का विवाह होजाता है और गमरा अपने पति के साथ त्रिशूल पर्वत चली जाती है. कुछ दिनों बाद उसे अपनी जन्मभूमि की याद आजाती है. वह एक दिन अपने पति को सूचित किये बगैर अपनी माँ से मिलने अकेले चल देती है. मार्ग बड़ा कठिन और हिंसक जन्तुओ से भरा पड़ा है. वह रास्ता भटक जाती है. मार्ग में आज के नंदादेवी अभयारन्य में फ्लोरा और फौना उन्हें कोई नुकसान पहुचने के बजाय, रास्ता बताते हैं. वह भादौ के महीने अपने मायके पहुँचती है. उनकी माँ उनके आने पर बहुत ही प्रसन्न होती है, परन्तु वह इस बात पर बहुत दुखी होजाती है कि वह उस भूखे भादौ में क्या खाएगी--
ये भूक भतु भादौ गंवरा मैत ऐछ,
ये भुक भदौ/जेठ ऊनी उमियाँ बुकूनी,
कातिक ऊनी सिरौल बुकुनी
कि खंछी तु कि लिबेर जान्छी
ये भूक भदौ, तु गंवरा मैत ऐछे. भूखा भादौ

कुमाऊं में तब, यहाँ तक कि आज भी एक अभिशाप के तुल्य ही माना जाता है. वर्षा पर निर्भर छोटी छोटी खेतियाँ हैं. रवि की फसल का छोटा सा भंडार भादौ आते आते समाप्त हो जाता है. क्वार के महीने में अगेती मक्का की फसल तैयार हो जाती है. दुर्भिक्ष की स्थिति केवल भादौ में ही रहती है.

विनोद सिंह गढ़िया

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[justify]हमारी कटक संस्कृति !

मित्रो, आज भारत में शासन करने की प्रजातांत्रिक व्यवस्था है. इस व्यवस्था में लाख बुराइयाँ हों, पर यह खून से सनी हुई तो नहीं ही होती. योरोप, अफ्रीका, मध्यपूर्व अथवा मध्य एशिया में केवल वृहदाकार युद्ध ही नहीं होते थे, बल्कि कबाइली लड़ाइयां तथा छोटे छोटे मांडलिक राजाओं के बीच मामूली सी बात पर भी भीषण संघर्ष छिड़ जाते थे. भारत में मध्यपूर्व अथवा मध्य एशिया की तरह लूटपाट के लिए होने वाले संघर्ष अपेक्षाकृत कम ही होते थे, क्योंकि भारतीय संस्कृति में लूटपाट की प्रवृति उतनी अधिक प्रवल नही थी. पर फिर भी ऐसा नहीं था कि यहाँ पर लड़ाइयां सर्वथा लूटपाट विहीन ही थीं. अकेले कुमायूं अथवा गढ़वाल में एक दूसरे के विरुद्ध हुए अनगिनत संघर्षों पर न भी जाएं तो भी केवल कुमायूं अथवा गढ़वाल के भीतर भी छोटे छोटे राजाओं के बीच थोड़े थोड़े अंतराल में बहुत अधिक लड़ाइयाँ होती रहतीं थीं. ये छोटे राजा निरंतर कटकों में ही रहते थे. इन कटकों में उनके परिवार भी हमेशा ही साथ चलते थे. लड़ाकू सैनिकों व रणनीतिकारों के अलावा इनके साथ छोटे स्तर के कर्मचारी भी साथ चलते थे. इनमें प्रमुख रूप से ये लोग सम्मिलित रहते थे-

(1) वंठ--यह हृष्ठ्पुष्ट युवा पट्ठे होते थे, जो हाथों में डंडा या तलवार लिए हुए कटक के साथ पैदल ही चलते थे तथा खूंखार जंगली हाथियों से भी भिड जाते थे !

(2) वठर--जिन्हें अहमक या उजड्ड के रूप में लिया जाता था. जो काम कोई न करे, उसे वठर बिना हिचकिचाहट के तुरंत् ही सम्पन्न कर डालते थे.

(3) लम्वन--इन्हें गर्दभदास या पिट्ठू भी कहा जाता था. इनसे भी गधे के समान ही काम लिया जाता था.

(4) लेशिक--घसियारे या घोड़ों के टहलुवे.

(5) लुंठक--लूटपाट करने वाले. ये बड़ी ही निर्दयता से निजी या सार्वजानिक संपत्ति को लूटने में माहिर होते थे. ये कटक मार्ग में पडनेवाले किसी गांव के गरीब परिवार में बच्चों के हाथ से भी बड़ी बेदर्दी से उनका निवाला छीन लेने में तनिक भी नहीं हिचकते थे.

(6) चेट-साथ चल रहे परिवारों की सेवा करने वाले छोटे नौकर चाकर.


मित्रो, आज समय तो बदल गया है और समय के साथ ही समाज का ढांचा व परिस्थितियां भी बदल गईं हैं. आज अंतर्राष्ट्रीय स्तर के युद्धों को छोड़ दें तो स्थानीय कटक नहीं होते. इस तरह की लूटपाट के लिए लडाइयाँ नहीं होतीं. परन्तु लडाई की मूल प्रवृति तो मनुष्य के अन्दर विद्यमान है ही, क्योंकि मूल प्रवृतियों के बदलने अथवा एक संत स्वभाव का व्यक्ति बनने में लाखों यहाँ तक कि करोड़ों वर्षों का समय लगता है. हाँ, कुछ प्रवृतियाँ अल्पावधि में भी अपना स्वरूप थोडा बहुत अवश्य बदल लेती हैं. अब लोग स्थानीय कटक में नहीं जाते, परन्तु इसके स्थान पर चुनाव-कटक तो निरंतर चलते रहते हैं. हिंसक मारकाट की जगह चुनावी हिंसा व गालीगलौच ने ले ली है. अब लूटपाट का स्वरूप भी बदल गया. इसके लिए कुछ 'शिष्ट' व विशिष्ट तरीके ईजाद होगये हैं--जैसे ठेके, कमीशन, सरकारी दौलत या उसकी बदौलत लूट तथा अन्य कई लाभ प्राप्त कर लेना. तो मित्रो, हम मूलतः अभी भी वैसे ही हैं, जैसे सतयुग, त्रेता, द्वापर, अथवा मध्यकाल में थे.

लेख : श्री उदय टम्टा जी

विनोद सिंह गढ़िया

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[justify]कुमाऊं की प्राचीन रॉकेट कला-बान !

आलेख : श्री उदय टम्टा जी

मित्रो, मैं कभी भी समय के दौर में लम्बे समय से चल रहे विश्वासों पर कम ही यकीन कर पाता हूँ, फिर भी मैं कभी भी उनका खंडन नहीं करता. इसके मूल में कारण सिर्फ इतना सा होता है कि कभी कभी इन मिथकों का कोई वैज्ञानिक आधार न होते हुए भी किसी अन्य दूसरी विधा या विद्या के बल पर यह कल्पनाएँ मूर्तरूप होकर साक्षात् सामने भी आ ही जातीं हैं. दूसरा कारण यह कि कुछ जनविश्वास बहुत लम्बे समय से समाज में चलते रहते हैं, जिन पर विश्वास करते हुए पीढियां ही नहीं, सह्स्त्राव्दियाँ तक गुजर गईं और जनविश्वास जस का तस ही चला आ रहा है, इस आधुनिक वैज्ञानिक युग में भी. इन विश्वासों के केवल सतही खंडन से लोगों की भावना भी आहत होती हैं क्योंकि इसमें से कुछ विश्वास धर्म (जैसा कि भारतीय जनमानस में इसका अर्थ अंगीकार किया हुआ है) के नाजुक तंतुओं में भी चले गए हैं. फिर, किसी पारंपरिक विश्वास के खंडन करने के लिए परम ज्ञान अथवा उच्च स्तर के वैज्ञानिक आधार पास में होने ही चाहिए, जो सामान्यतः बहुतों के पास होते ही नहीं. उदाहरण के लिए ब्रह्मा के विभिन्न अंगों से मानव की उत्पत्ति का ही है. तब इसका कोई वैज्ञानिक आधार सामने नहीं था, परन्तु वर्तमान क्लोनिंग पद्दति में तो यह आंशिक रूप से ही सही, संभव तो हो ही गया है. आजकल वैमानिकी पर चर्चा हो रही है. कुबेर/रावण का वायुयान तो सर्व विदित ही है. अंततः ओर्बिल और बिर्ल्वर राईट ने इस कल्पना को साकार कर ही दिया था. भारत में सर्व प्रथम आग्नेय अस्त्रों की श्रंखला में बाबर ने पानीपत की प्रथम लड़ाई में तोपों के प्रहार से जीत दर्ज कर ही ली थी. रूस ने स्पुतनिक रॉकेट के अविष्कार से दुनियां को चौंका दिया था.
परन्तु मित्रो, आपको यह जानकार थोडा सा आश्चर्य अवश्य होगा कि कुमाऊँ में रॉकेट विद्या बाबर के आक्रमण से भी बहुत पहिले से ही विद्यमान थी. मैं यह बात किसी मिथक के बल पर नहीं कह रहा हूँ, बल्कि यह एक ऐतिहासिक सच्चाई ही नहीं, बल्कि वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित है. यह बात दीगर है कि इस रॉकेट विद्या का आगे न तो कोई विकास हो पाया और न ही व्यापक प्रचार-प्रसार. अन्ततः यह विद्या लुप्त हो गई. इतिहास में यह तथ्य भली भांति अंकित है कि पानीपत का तीसर युद्ध मुगलों और मरहटों के बीच १७६३ में हुआ था. मरहटों की सेना तब बहुत शक्तिशाली थी. जबकि १७०७ में औरंगजेब की मृत्यु के साथ ही मुग़ल साम्राज्य का लगभग पतन सा ही हो गया था, भले ही मरते-तरते यह १८५७ तक भी खिंचते ही चला. तब के (१७६३ के) दिल्ली के मुग़ल बादशाह ने इस युद्ध में कुमाऊँ को भी सम्मिलित कर लिया गया था. इसे दुर्योग कहें या दुर्भाग्य, कुमाऊँनी सैनिकों की ४००० की टुकड़ी की कमान भी रोहिल्ला सरदार हाफिज रहमत खां को ही सौप दी गई थी. आप को स्मरण होगा कि यह रहमत खां वही आक्रमणकारी था, जिसने इससे पूर्व १७४३ में कूमाऊँ पर भीषण आक्रमण किया था और अल्मोड़ा शहर के कई धार्मिक स्थलों व आवासों को बड़ी बेदर्दी से नष्ट किया था. फिर भी, 'पराधीन सपनेहु सुख नाहीं' की विवशता के चलते उसके नेतृत्व में कुमाऊँ के सैनिक बड़ी बहदुरी से लड़े और मरहटों की सेना को हरा दिया. यह कमाल था--'बान' नामक अस्त्र का, जो एक प्रकार से उच्च तकनीकी का रॉकेट ही था. इसके विषय में कहा जाता है कि इसके बल पर पानीपत की तीसरी लड़ाई केवल इसकी मारक क्षमता से नहीं, बल्कि इसकी भीषण व रहस्यमय गूँज वाली ध्वनि के बल पर जीती गई थी. कहते हैं कि इसको चलाने पर बाघ की दहाड़ के समान भीषण ध्वनि होती थी, जिस कारण वीर मरहटा फ़ौज में आतंग छा गया था. 'बान' नाम का यह यंत्र प्राकृतिक रूप में प्राप्त सोरा, फासफोरस तथा कुछ अन्य रसायनों के मेल से बनाया जाता था. आप में से बहुत से मित्र गोपालक/पशुपालक भी होंगे ही. पशुशालाओं (गोठ) में दीवारों में सफ़ेद रंग की एक परत जम जाती है. यह वस्तुतः सोरा ही होता है. इसके अलावा वन प्रांतरों में अँधेरी रातों में दीयों के समान चमकने वाले 'टोलो' के बारे में तो आपने सुना ही होगा. इन्हें भ्रमवश भूत मान लिया जाता है, पर वस्तुतः यह फास्फोरस ही होता है. प्राचीन समय से ही इन कई रसायनों के मेल से कुमाऊँ में स्थानीय नाम 'दारा' से बारूद बनाया जाता था. कालांतर में यह कला इस कारण से बिलुप्त होगई क्योंकि बाबर के साथ ही बारूद बनाने की विकसित वैज्ञानिक विधि का प्रचलन होगया और प्राचीन पद्धति पर आधारित युद्ध भी लगभग समाप्त ही होगये थे.

विनोद सिंह गढ़िया

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[justify]सर्ग तारा, यो जुन्याली रात !

आलेख : श्री उदय टम्टा जी

मित्रो, आज तो कुमाऊँ व गढ़वाल दोनों ही क्षेत्र उत्तराखंड राज्य की दो कमिश्नरियां हैं, पर किसी ज़माने में ये दोनों ही दो अलग अलग ‘देस' माने जाते थे और दोनों के बीच कई लड़ाइयाँ भी होतीं थी. दोनों ही प्रांतरों में शासन व्यवस्था भी अलग अलग थी. परन्तु यह सब होते हुए भी दोनों की लोकभाषा के तत्व तो समान थे ही, साथ दोनों एक ही धार्मिक व सांस्कृतिक डोर से बंधे हुए थे. जागर गायन हो या अन्य कई लोक गीत थोड़े से अंतर के साथ दोनों ही इलाकों में समान ही थे. कुछ कलाकार कुमांऊनी और गढ़वाली दोनों ही भाषाओँ में समान रूप से अपनी पस्तुतियाँ देते थे. ऐसे कलाकारों में जो नाम सर्वोपरि था, वह था श्री चन्द्र सिंह ‘राही’ जी का. श्री राही मूल रूप से गढ़वाल मंडल के निवासी थे, परन्तु उन्होंने कई कुमांऊनी लोकगीतों को उसी रूप में या उसका थोडा बहुत लहजा गढ़वाली बना कर गाया और उन्हें अत्यंत लोकप्रिय बना दिया. इन्हीं में से एक कुमांऊनी लोकगीत है--सर्ग तारा.. यह लोकगीत लोक जीवन में संभवतः प्रथम विश्वयुद्ध के समय से प्रचलित था जब इसे लोग झोडे के रूप में सातों-आठों में गाते थे. कुमाऊँ रेजिमेंट के सैनिक भी रानीखेत या जब इनकी टुकड़ी देश या देश के बाहर कहीं भी हो, इस लोकप्रिय झोडा गीत को बड़ी ही तन्मयता से गाते थे. यही गीत जब साठ के दशक में श्री राही ने अपने सुमधुर कंठ से गाया तो यह लोकजीवन में एक स्थाई गीत के रूप में प्रसिद्ध होगया. इसी का कालांतर में गढ़वाली प्रतिरूप भी आया. आइये इस गीत के बोलों का आनंद लें और इसके माध्यम से ही श्री राही जी को श्रद्धांजलि भी अर्पित करें--(कृपया इसे गढ़वाली में ‘ल’ के विशेष उच्चारण ‘ळ’ में पढ़ें जैसे ‘बल्द’ में )

हो सर्ग तारा, यो जुन्याली रात, को सुणलो यो मेरी बात.
                                                        सर्ग तारा....

पाणी को मसिक सुवा पाणी को मसिक, तू  न्हेगये परदेस, मैं रूलो कसीक,
                                                        सर्ग तारा...

विरहा कि रात भागी विरहा की रात, आंखन में आंसू झड़ी, लागि बरसात,
                                                        सर्ग तारा......

तेल तौ निमड़ी गोछ, बुझी रोंछी बाती, मेरी लै मकणी दियो सरपै की भाँती,
                                                        सर्ग तारा....

अंस्याली को रेट सुवा, अंस्याली को रेट,  आज का जाईयां बटी, कब होल भेट,

हो सर्ग तारा, यो जुन्याली रात, को सुणलो यो मेरी बात,
  हो सर्ग तारा...!

Let’s have a look into it with this crude rendering I have tried--

Oh, heavenly stars,
I say it very much in your benign presence,
In this moonlit night;
I have a question in mind,
As to who is there to listen to my tale ?
Talk of the water bag,  O my beloved,
Bag full of water;
The black night of separation, O blessed one,
You have gone to a foreign land;
Tell me how will I live here alone ?
My eyes are in tears as if it were,
The heavy showers of rain,
The oil in the lamp has exhausted now,
And the light has gone off,
And my love has thereby rolled away--
Like a serpent.
The sweetening herb Ansyali be the witness,
Be it to testify;
And tell clearly--
As to when will we meet again ?
Tell me O heavenly stars,
Tell me !
On this blessed moonlit night !

विनोद सिंह गढ़िया

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[justify]पर्वतीय 'इजा' केवल माँ ही नहीं होती !

आलेख़ : श्री उदय टम्टा



मित्रो, अब तो माँ के लिए इजा या ईजा शब्द का प्रयोग करना बहुत ही अलभ या दुर्लभ या कहें रेयर एंड डियर सा ही होगया है, क्योंकि पहिले हमने इस शब्द का 'देसी' रूप माँ, माताजी अपना लिया था, और बजरिये इस 'देसी' माँ हम मदर, मम्मी और अब हाल फिलहाल मॉम तक तो पहुँच ही चुके हैं. यह इजा शब्द केवल माँ या जननी का आभास ही नहीं देता था, बल्कि इसके अन्दर कारखानों में काम करने वाली मैक्सिम गोर्की की 'मदर' भी विद्यमान थी और १८५३-५६ के बीच रूस और इसके विरोधियों--फ्रांस, यू.के इत्यादि के बीच क्रिमियां में छिड़े भीषण युद्ध के समय घायल सैनिकों की सेवा में जीजान से रत फ्लोरेंस नाइटिंगेल का भी. उसका एक रूप सीता माता का भी था, जिसने भीषण कष्ट भी सहे, परन्तु वह अपने कर्तव्यों से कभी विरत नहीं रही. बहुत समय नहीं बीता है जब इस इजा शब्द का एक अलग व्यावहारिक अर्थ भी था, जब इजा का अर्थ बेटा, या बेटी के रूप में लगाया जाता था. इजा शब्द का यह प्रयोग बड़े लोग छोटों या बच्चों के लिए करते थे. इसमें प्रेम व वात्सल्य का वह मिश्रण होता था जो बेटा या बेटी के संवोधन में कतई नहीं होता. मित्रो, मुझे १९५० से पूर्व की इस गरिमापूर्ण इजा के संवंध में व्यावहारिक ज्ञान तो नहीं है, परन्तु पचास के दशक के आस पास भी सुदूर पर्वतीय अंचल में इजा उस नारी को कहा जाता था, जिसके जिम्मे न केवल मातृत्व व स्त्रीत्व था, बल्कि वह अनाज पीसने के लिए ग्राइंडिंग मिल यानिकि चक्की भी थी, धान या मादिरा कूटने के लिए ओखली भी. वह घसियारी भी थी, लकडहारा भी. यही क्यों, वह रसोइया भी थी और कूक भी. उसकी जिम्मेदारी केवल इन्हीं कामों तक सीमित नहीं थी, बल्कि वह पशुशालाओं की सफाई, खेतों में खाद डालने कार्य तो करती ही थी, साथ ही खेतो की गुड़ाई निराई में भी अपने परिवार के दूसरे सदस्यों के साथ दिवस पर्यंत ही नहीं, रात्रि पर्यंत भी निभाती थी. मैंने इन इजाओं को प्रातः चार बजे ही जग जाना और अँधेरे में ही परिवार और निरंतर आने वाले मेहमानों के लिए अनाज पीस कर आटा तैयार करते हुए देखा था. मैंने देखा है कि वह अँधेरी रातों में भी चक्की में अनाज पीसने के लिए किसी रोशनी का सहारा नहीं लेतीं थी, क्योंकि उनके द्वारा परंपरागत तौर पर अँधेरे में ही अनाज पीसने के लिए अपना रिफ्लेक्स सिस्टम विकसित कर लिया जाता था. वह फिर उसके बाद सोती ही नहीं थीं. चक्की से निपटने के बाद घर के तमाम दूसरे कामों में जुट जातीं थीं. उनका यह वात्सल्य से परिपूर्ण मातृरूप रूप अब देखने को नहीं मिलता. अब तो यह भी होता है कि अगर कोई पडौसी बच्चा खेलते खेलते घर में आजाता है तो माँ-बाप अपने बच्चों को नाश्ता तभी देते हैं जब तक बच्चा चला नहीं जाता, परन्तु तब मैंने देखा था कि इजायें अपने पडौसियों के बच्चों को भी उतना ही प्यार देतीं थीं, जितना कि अपनों को. सच कहें तो आज इजा विलुप्त हो चुकी है और उसका स्थान ग्रहण कर लिया है लियो टॉलस्टॉय की अभिजात नारी--अन्ना करेनीना ने. हाँ, एक बात और. पर्वतीय अंचल में तब भी इजा का एक रूप महादेवी यानिकि सती का भी देखने को मिलता था जब जीवन की कठिनाइयों और आसन्न विपरीत अवस्थाओं को सहन करने की शक्ति उसके अन्दर बची नहीं रहती थी तब वह अपनी जीवनलीला भी समाप्त ही कर डालती थी, ठीक माँ सती की ही तरह !

 

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