कैसे बुझेगी प्यास?[/b][/b]
जल संकट के समाचार नित्य पढ़ने को मिल रहे हैं. बहुधा दोष मौसम को दिया जता है. क्या पहले मौसम ऐसा नहीं था? क्या पहले सूखा नहीं पडता था? यदि हाँ तो कैसे लोग जल प्रबंधन करते थे? कैसे बुझती थी प्यास?
मौसम तो हमेशा से छल करता आया है. तभी तो किसी शायर ने लिखा, ‘यार तुम बदल ना जाना मौसम की तरह...’ मौसम का क्या अभी नर्म और अभी गरम. इसीलिये जब मानव ने कृषि प्रारम्भ की जल-संचयन के उपाय भी प्रारम्भ कर लिए. पिछले 4500 वर्षों के इतिहास को देखें तो भारत व दक्षिणी एशिया के अनेक देशों में वर्षा जल-संचयन के उपायों के अनेक साक्ष्य मिलते हैं.
पृथ्वी के इतिहास का अंतिम अध्याय ‘होलोसीन’ लगभग 11000 वर्ष पुराना है. इन 11000 वर्षों में विश्व भर के मौसम में अनेक उतार-चढाव आए जिनसे वर्षों तक सूखे,बाढ़, चक्रवात, तूफ़ान के साथ अतिवृष्टि एवं प्रति हजार वर्ष में मौसम के बदलाव को हमारी पृथ्वी झेलती आ रही है. इन सब के साक्ष्य परोक्ष-अपरोक्ष रूप में आज भी मौकूद हैं. मानव का चहुमुखी विकास इसी युग में हुआ और इस दौरान मौसम के उतार-चढाव जरी रहे.
एक ओर जहाँ हिमालय में स्थित हिमनदों के ‘आईस कोर’ के विश्लेषण से दखिनी एशिया में 1230, 1280, 1330, 1530, 1590 व 1640 के दशकों में कम वर्षा व सूखे के निशान मिले तो वहीं दूसरी ओर सन 1300 से 1850 के दौरान उत्तर भारत के अनेक भाग 400 वर्ष तक हिमाच्छादित रहे. इस दौरान कटिबन्धीय क्षेत्रों के समुद्र का सतही तापमान तीन से चार डिग्री सेल्सियस कम हो गया. प्रत्यक्ष है कि इस प्रकार के बदलाव का असर प्रभावित क्षेत्रों के निवासियों, सभ्यताओं, एवं रहन-शन के तरीकों पर भी पड़ा.
‘ग्लोबल वार्मिंग’ के कारणों एवं कारकों पर मत भेद हो सकता है, पर यह एक कटु सत्य है कि हिमयुग की समाप्ति (18000 वर्ष पूर्व) के पश्चात शनैः शनैः पृथ्वी गर्माती जा रही है. 1901 से 2000 तक प्रति दस वर्षमें पृथ्वी का तापमान अव्स्त्न करीब 0.07 डिग्री सेल्सियस की दर से बढा है. इस वृद्धि गो कि हमारे कार्बन उत्सर्जन का भी काफी योगदान रहा है, पर मौसम का यह बदलाव प्रकृति की फितरत है, और उस से कोई बचाव नहीं है.
‘बदलते मौसम ने ही हमारे पूर्वजों को जल संचयन के लिए प्रेरित किया.’, कहते हैं भारतीय वन-प्रबंधन संस्थान के प्रो. ए.के. गुप्ता व अमेरिका के कोलोरेडो विश्वविद्यालय के डेविड एम्. एंडरसन. इतिहास के पनी पलटते जाइए और पाएंगे हर युग में हर साम्राज्य में भारत में सिंचाई के लिए बंधे, तालाब, कुएं बावडियां बनाने की प्रथा रही है. आज भी भारत में सिंचाई के लिए 660,000 गाँवों में 15 लाख बंधे जल-संचयन के लिए प्रयोग में हैं. पर लगता है जल-संचयन की प्रथा जल की कमी के साथ समाप्त सी होती जा रही है!
जल की कमी ऐतिहासिक युग में कब कब हुई इसका पता इतिहासकारों के वर्णनों से तो चलता ही है साथ हे अन्य तरीके भी हैं जिनका प्रयोग भूविज्ञानी करते हैं-जैसे अरब सागर की तलहटी में किये गए ‘ड्रिल होल’ अतिसूक्ष्माकार ‘ग्लोबिजेरिना’ के पुराजिवाश्मों की कम हटी प्रतिशत से पश्चिमी भारत के बड़े भाग में कम वर्षा या सूखे का पता चला. शोध से मालूम पड़ा कि ई पू 1500, 800, 300 तथा सन 550 व 1148 में सूखा पड़ा था. कमाल की बात यह है कि इन्ही वर्षों में ऋग्वेद (ई पू 1500), अथर्ववेद (ई पू 800), कौटिल्य का अर्थशास्त्र (ई पू 300), वराहमिहिर की वृहत्संहिता (सन 550) एवं कलहन की राजतरंगिणी (सन 1148-1150) में बदलते मौसम के कारण जल संचयन विधियों को अपनाने पर जोर दिया गया है. कौटिल्य ने तो जल संचयन करने वालों को कर मुक्त करने का और नहीं करने वालों पर अधिक कर लगाने का प्रावधान तक किया था.
उष्णकटिबंधीय देश होने के कारण आने वाले समय में भारत में कम वर्षा व सूखे की सम्भावनाएं अधिक हैं. पूर में भी 1790 दशक में तथा 1876-77 में लम्बे समय तक जबर्दस्त सूखा पड़ चुका है. पर उस दौरान भी राजस्थान व मध्य प्रदेश में किये गए वर्षा जल-संचयन के उपाय आज भी एक मिसाल हैं.
हमारे आपके घरों में बेशक जल का स्रोत जल बोर्ड द्वारा लगाया हुआ नल होगा, पर पृथ्वी के लिए एकमात्र जल का स्रोत है वर्षा. इस बदलते मौसम में जल की एक एक बूँद बेशकीमती है-जितना अधिक स अधिक जल सिंचित किया जायेगा उतना ही मानवता को प्यासे मरने से बचा जा सकेगा. इस बात को जानते हुए हमारे पूर्वजों ने जल संचयन पद्धतियाँ अपनाईं. आज भी जो देश इस बात का महत्व समझ चुके हैं वे इस दिशा में पूरी तैय्यारी से जुटे हैं. उदाहरणार्थ, हमारे देश की भांति चीन व इजरायल भी आदिकाल से सूखे की मार झेलते आये हैं. पर दोनों देशों ने परम्परागत वर्षा जल संचयन के तरीकों को आज की तकनीकी से ‘रीमिक्स’ कर इस दिशा में क्रांति ला दी है. इजरायल ने तो अपने पथरीले ‘नेगे’ रेगिस्तान में ‘मायिक्रोकैच्मेंट’ में वर्षा जल-संचयन के प्रति हेक्टेयर 95000 लीटर पानी सिंचित कर क्षेत्र को सम्पन्न बना दिया.
हमारे देश में भी इस दिशा में काफी कुछ किया जा सकता है बशर्ते सरकार अपनी जल-नीति एवं मौसम नीति में वर्षा जल-संचयन पर जोर दे और समाज के लोग आगे बढ़ कर जल संचयन विधियं को अपनाएँ.
यदि इस दिशा में कुछ ठोस कदम ना उठाये गए तो हो सकता है कि हमारी गगनचुंबी अट्टालिकाओं से पटे महानगर ‘माया’ व ‘इंका’ सभ्यताओं के खंडहरों की भांति वीरान हो जाएँ!
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