Author Topic: Articles On Environment by Scientist Vijay Kumar Joshi- विजय कुमार जोशी जी  (Read 26373 times)

VK Joshi

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जोशी जी निर्माण से पृथ्वी का अपरदन तो होता ही है, साथ ही बड़े निर्माणों (जैसे बांध आदि) के दौरान ब्लास्टिंग की जाती है. जिसके फलस्वरूप पर्वतों के गर्भ में चट्टानों पर असर पडता है. गो की बाँध और सुरंग बनाते समय इन बातो का बेहद ख्याल रखा जाता है-पर अक्सर सड़क बनाते समय किये गए विस्फोटों से सतहो पर बहुत नुक्सान होता है. अक्सर एक सड़क के निर्माण से नीचे वाली सड़क के किनारे बसे गाँवों के ऊपर भूस्खलन हो जाता है. मतलब यह की मानवीय छेडछाड से पर्वतों को नुक्सान तो होता ही है. पर दिक्कत यह है की विकास के लिए छेड़छाड़ भी करनी पडती है. पर यदि इस कार्य को दक्ष इंजीनियर करे तो कोई समस्या नहीं है-पर अफ़सोस हमारे देश में सारे कार्य ठेकेदार करते हैंअभियंता सिर्फ बिल पास करते हैं.

VK Joshi

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कैसे बुझेगी प्यास?
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जल संकट के समाचार नित्य पढ़ने को मिल रहे हैं. बहुधा दोष मौसम को दिया जता है. क्या पहले मौसम ऐसा नहीं था? क्या पहले सूखा नहीं पडता था? यदि हाँ तो कैसे लोग जल प्रबंधन करते थे? कैसे बुझती थी प्यास?
मौसम तो हमेशा से छल करता आया है. तभी तो किसी शायर ने लिखा, ‘यार तुम बदल ना जाना मौसम की तरह...’ मौसम का क्या अभी नर्म और अभी गरम. इसीलिये जब मानव ने कृषि प्रारम्भ की जल-संचयन के उपाय भी प्रारम्भ कर लिए. पिछले 4500 वर्षों के इतिहास को देखें तो भारत व दक्षिणी एशिया के अनेक देशों में वर्षा जल-संचयन के उपायों के अनेक साक्ष्य मिलते हैं.
पृथ्वी के इतिहास का अंतिम अध्याय ‘होलोसीन’ लगभग 11000 वर्ष पुराना है. इन 11000 वर्षों में विश्व भर के मौसम में अनेक उतार-चढाव आए जिनसे वर्षों तक सूखे,बाढ़, चक्रवात, तूफ़ान के साथ अतिवृष्टि एवं प्रति हजार वर्ष में मौसम के बदलाव को हमारी पृथ्वी झेलती आ रही है. इन सब के साक्ष्य परोक्ष-अपरोक्ष रूप में आज भी मौकूद हैं. मानव का चहुमुखी विकास इसी युग में हुआ और इस दौरान मौसम के उतार-चढाव जरी रहे.
एक ओर जहाँ हिमालय में स्थित हिमनदों के ‘आईस कोर’ के विश्लेषण से दखिनी एशिया में 1230, 1280, 1330, 1530, 1590 व 1640 के दशकों में कम वर्षा व सूखे के निशान मिले तो वहीं दूसरी ओर सन 1300 से 1850 के दौरान उत्तर भारत के अनेक भाग 400 वर्ष तक हिमाच्छादित रहे. इस दौरान कटिबन्धीय क्षेत्रों के समुद्र का सतही तापमान तीन से चार डिग्री सेल्सियस कम हो गया. प्रत्यक्ष है कि इस प्रकार के बदलाव का असर प्रभावित क्षेत्रों के निवासियों, सभ्यताओं, एवं रहन-शन के तरीकों पर भी पड़ा.
‘ग्लोबल वार्मिंग’ के कारणों एवं कारकों पर मत भेद हो सकता है, पर यह एक कटु सत्य है कि हिमयुग की समाप्ति (18000 वर्ष पूर्व) के पश्चात शनैः शनैः पृथ्वी गर्माती जा रही है. 1901 से 2000 तक प्रति दस वर्षमें पृथ्वी का तापमान अव्स्त्न करीब 0.07 डिग्री सेल्सियस की दर से बढा है. इस वृद्धि गो कि हमारे कार्बन उत्सर्जन का भी काफी योगदान रहा है, पर मौसम का यह बदलाव प्रकृति की फितरत है, और उस से कोई बचाव नहीं है.
‘बदलते मौसम ने ही हमारे पूर्वजों को जल संचयन के लिए प्रेरित किया.’, कहते हैं भारतीय वन-प्रबंधन संस्थान के प्रो. ए.के. गुप्ता व अमेरिका के कोलोरेडो विश्वविद्यालय के डेविड एम्. एंडरसन. इतिहास के पनी पलटते जाइए और पाएंगे हर युग में हर साम्राज्य में भारत में सिंचाई के लिए बंधे, तालाब, कुएं बावडियां बनाने की प्रथा रही है. आज भी भारत में सिंचाई के लिए 660,000 गाँवों में 15 लाख बंधे जल-संचयन के लिए प्रयोग में हैं. पर लगता है जल-संचयन की प्रथा जल की कमी के साथ समाप्त सी होती जा रही है!
जल की कमी ऐतिहासिक युग में कब कब हुई इसका पता इतिहासकारों के वर्णनों से तो चलता ही है साथ हे अन्य तरीके भी हैं जिनका प्रयोग भूविज्ञानी करते हैं-जैसे अरब सागर की तलहटी में किये गए ‘ड्रिल होल’ अतिसूक्ष्माकार ‘ग्लोबिजेरिना’ के पुराजिवाश्मों की कम हटी प्रतिशत से पश्चिमी भारत के बड़े भाग में कम वर्षा या सूखे का पता चला. शोध से मालूम पड़ा कि ई पू 1500, 800,  300 तथा सन 550 व 1148 में सूखा पड़ा था. कमाल की बात यह है कि इन्ही वर्षों में ऋग्वेद (ई पू 1500), अथर्ववेद (ई पू 800), कौटिल्य का अर्थशास्त्र (ई पू 300), वराहमिहिर की वृहत्संहिता (सन 550) एवं कलहन की राजतरंगिणी (सन 1148-1150) में बदलते मौसम के कारण जल संचयन विधियों को अपनाने पर जोर दिया गया है. कौटिल्य ने तो जल संचयन करने वालों को कर मुक्त करने का और नहीं करने वालों पर अधिक कर लगाने का प्रावधान तक किया था.
उष्णकटिबंधीय देश होने के कारण आने वाले समय में भारत में कम वर्षा व सूखे की सम्भावनाएं अधिक हैं. पूर में भी 1790 दशक में तथा 1876-77 में लम्बे समय तक जबर्दस्त सूखा पड़ चुका है. पर उस दौरान भी राजस्थान व मध्य प्रदेश में किये गए वर्षा जल-संचयन के उपाय आज भी एक मिसाल हैं.
हमारे आपके घरों में बेशक जल का स्रोत जल बोर्ड द्वारा लगाया हुआ नल होगा, पर पृथ्वी के लिए एकमात्र जल का स्रोत है वर्षा. इस बदलते मौसम में जल की एक एक बूँद बेशकीमती है-जितना अधिक स अधिक जल सिंचित किया जायेगा उतना ही मानवता को प्यासे मरने से बचा जा सकेगा. इस बात को जानते हुए हमारे पूर्वजों ने जल संचयन पद्धतियाँ अपनाईं. आज भी जो देश इस बात का महत्व समझ चुके हैं वे इस दिशा में पूरी तैय्यारी से जुटे हैं. उदाहरणार्थ, हमारे देश की भांति चीन व इजरायल भी आदिकाल से सूखे की मार झेलते आये हैं. पर दोनों देशों ने परम्परागत वर्षा जल संचयन के तरीकों को आज की तकनीकी से ‘रीमिक्स’ कर इस दिशा में क्रांति ला दी है. इजरायल ने तो अपने पथरीले ‘नेगे’ रेगिस्तान में ‘मायिक्रोकैच्मेंट’ में वर्षा जल-संचयन के प्रति हेक्टेयर 95000 लीटर पानी सिंचित कर क्षेत्र को सम्पन्न बना दिया.
हमारे देश में भी इस दिशा में काफी कुछ किया जा सकता है बशर्ते सरकार अपनी जल-नीति एवं मौसम नीति में वर्षा जल-संचयन पर जोर दे और समाज के लोग आगे बढ़ कर जल संचयन विधियं को अपनाएँ.
यदि इस दिशा में कुछ ठोस कदम ना उठाये गए तो हो सकता है कि हमारी गगनचुंबी अट्टालिकाओं से पटे महानगर ‘माया’ व ‘इंका’ सभ्यताओं के खंडहरों की भांति वीरान हो जाएँ!

 
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VK Joshi

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मित्रों आज बहुत दिनों के बाद कुछ पोस्ट किया है, आशा है आप लोगों को अच्छा लगेगा! लिखना तो बहुत कुछ चाहता हूँ पर अनेक कामों में हाथ डाल दिया है इस लिए समय कम मिलता है.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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जोशी जी स्वागत है एक बार पुनः मेरापहाड़ फोरम में.

आपने काफी विशिष्ठ जानकारी दी है जल संचयन के बारे में!

. आशा है हमारे पाठको को पसंद आयेगी यह जानकारी!   

VK Joshi

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धन्यवाद मेहता जी. कोशिश करूँगा कि कुछ कुछ जानकारी देता रहूँ.

Himalayan Warrior /पहाड़ी योद्धा

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Sir.. really wonderful information .

Thanks a lot for sharing with us.



कैसे बुझेगी प्यास?
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जल संकट के समाचार नित्य पढ़ने को मिल रहे हैं. बहुधा दोष मौसम को दिया जता है. क्या पहले मौसम ऐसा नहीं था? क्या पहले सूखा नहीं पडता था? यदि हाँ तो कैसे लोग जल प्रबंधन करते थे? कैसे बुझती थी प्यास?
मौसम तो हमेशा से छल करता आया है. तभी तो किसी शायर ने लिखा, ‘यार तुम बदल ना जाना मौसम की तरह...’ मौसम का क्या अभी नर्म और अभी गरम. इसीलिये जब मानव ने कृषि प्रारम्भ की जल-संचयन के उपाय भी प्रारम्भ कर लिए. पिछले 4500 वर्षों के इतिहास को देखें तो भारत व दक्षिणी एशिया के अनेक देशों में वर्षा जल-संचयन के उपायों के अनेक साक्ष्य मिलते हैं.
पृथ्वी के इतिहास का अंतिम अध्याय ‘होलोसीन’ लगभग 11000 वर्ष पुराना है. इन 11000 वर्षों में विश्व भर के मौसम में अनेक उतार-चढाव आए जिनसे वर्षों तक सूखे,बाढ़, चक्रवात, तूफ़ान के साथ अतिवृष्टि एवं प्रति हजार वर्ष में मौसम के बदलाव को हमारी पृथ्वी झेलती आ रही है. इन सब के साक्ष्य परोक्ष-अपरोक्ष रूप में आज भी मौकूद हैं. मानव का चहुमुखी विकास इसी युग में हुआ और इस दौरान मौसम के उतार-चढाव जरी रहे.
एक ओर जहाँ हिमालय में स्थित हिमनदों के ‘आईस कोर’ के विश्लेषण से दखिनी एशिया में 1230, 1280, 1330, 1530, 1590 व 1640 के दशकों में कम वर्षा व सूखे के निशान मिले तो वहीं दूसरी ओर सन 1300 से 1850 के दौरान उत्तर भारत के अनेक भाग 400 वर्ष तक हिमाच्छादित रहे. इस दौरान कटिबन्धीय क्षेत्रों के समुद्र का सतही तापमान तीन से चार डिग्री सेल्सियस कम हो गया. प्रत्यक्ष है कि इस प्रकार के बदलाव का असर प्रभावित क्षेत्रों के निवासियों, सभ्यताओं, एवं रहन-शन के तरीकों पर भी पड़ा.
‘ग्लोबल वार्मिंग’ के कारणों एवं कारकों पर मत भेद हो सकता है, पर यह एक कटु सत्य है कि हिमयुग की समाप्ति (18000 वर्ष पूर्व) के पश्चात शनैः शनैः पृथ्वी गर्माती जा रही है. 1901 से 2000 तक प्रति दस वर्षमें पृथ्वी का तापमान अव्स्त्न करीब 0.07 डिग्री सेल्सियस की दर से बढा है. इस वृद्धि गो कि हमारे कार्बन उत्सर्जन का भी काफी योगदान रहा है, पर मौसम का यह बदलाव प्रकृति की फितरत है, और उस से कोई बचाव नहीं है.
‘बदलते मौसम ने ही हमारे पूर्वजों को जल संचयन के लिए प्रेरित किया.’, कहते हैं भारतीय वन-प्रबंधन संस्थान के प्रो. ए.के. गुप्ता व अमेरिका के कोलोरेडो विश्वविद्यालय के डेविड एम्. एंडरसन. इतिहास के पनी पलटते जाइए और पाएंगे हर युग में हर साम्राज्य में भारत में सिंचाई के लिए बंधे, तालाब, कुएं बावडियां बनाने की प्रथा रही है. आज भी भारत में सिंचाई के लिए 660,000 गाँवों में 15 लाख बंधे जल-संचयन के लिए प्रयोग में हैं. पर लगता है जल-संचयन की प्रथा जल की कमी के साथ समाप्त सी होती जा रही है!
जल की कमी ऐतिहासिक युग में कब कब हुई इसका पता इतिहासकारों के वर्णनों से तो चलता ही है साथ हे अन्य तरीके भी हैं जिनका प्रयोग भूविज्ञानी करते हैं-जैसे अरब सागर की तलहटी में किये गए ‘ड्रिल होल’ अतिसूक्ष्माकार ‘ग्लोबिजेरिना’ के पुराजिवाश्मों की कम हटी प्रतिशत से पश्चिमी भारत के बड़े भाग में कम वर्षा या सूखे का पता चला. शोध से मालूम पड़ा कि ई पू 1500, 800,  300 तथा सन 550 व 1148 में सूखा पड़ा था. कमाल की बात यह है कि इन्ही वर्षों में ऋग्वेद (ई पू 1500), अथर्ववेद (ई पू 800), कौटिल्य का अर्थशास्त्र (ई पू 300), वराहमिहिर की वृहत्संहिता (सन 550) एवं कलहन की राजतरंगिणी (सन 1148-1150) में बदलते मौसम के कारण जल संचयन विधियों को अपनाने पर जोर दिया गया है. कौटिल्य ने तो जल संचयन करने वालों को कर मुक्त करने का और नहीं करने वालों पर अधिक कर लगाने का प्रावधान तक किया था.
उष्णकटिबंधीय देश होने के कारण आने वाले समय में भारत में कम वर्षा व सूखे की सम्भावनाएं अधिक हैं. पूर में भी 1790 दशक में तथा 1876-77 में लम्बे समय तक जबर्दस्त सूखा पड़ चुका है. पर उस दौरान भी राजस्थान व मध्य प्रदेश में किये गए वर्षा जल-संचयन के उपाय आज भी एक मिसाल हैं.
हमारे आपके घरों में बेशक जल का स्रोत जल बोर्ड द्वारा लगाया हुआ नल होगा, पर पृथ्वी के लिए एकमात्र जल का स्रोत है वर्षा. इस बदलते मौसम में जल की एक एक बूँद बेशकीमती है-जितना अधिक स अधिक जल सिंचित किया जायेगा उतना ही मानवता को प्यासे मरने से बचा जा सकेगा. इस बात को जानते हुए हमारे पूर्वजों ने जल संचयन पद्धतियाँ अपनाईं. आज भी जो देश इस बात का महत्व समझ चुके हैं वे इस दिशा में पूरी तैय्यारी से जुटे हैं. उदाहरणार्थ, हमारे देश की भांति चीन व इजरायल भी आदिकाल से सूखे की मार झेलते आये हैं. पर दोनों देशों ने परम्परागत वर्षा जल संचयन के तरीकों को आज की तकनीकी से ‘रीमिक्स’ कर इस दिशा में क्रांति ला दी है. इजरायल ने तो अपने पथरीले ‘नेगे’ रेगिस्तान में ‘मायिक्रोकैच्मेंट’ में वर्षा जल-संचयन के प्रति हेक्टेयर 95000 लीटर पानी सिंचित कर क्षेत्र को सम्पन्न बना दिया.
हमारे देश में भी इस दिशा में काफी कुछ किया जा सकता है बशर्ते सरकार अपनी जल-नीति एवं मौसम नीति में वर्षा जल-संचयन पर जोर दे और समाज के लोग आगे बढ़ कर जल संचयन विधियं को अपनाएँ.
यदि इस दिशा में कुछ ठोस कदम ना उठाये गए तो हो सकता है कि हमारी गगनचुंबी अट्टालिकाओं से पटे महानगर ‘माया’ व ‘इंका’ सभ्यताओं के खंडहरों की भांति वीरान हो जाएँ!

 
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VK Joshi

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Than you Himalayan warrior

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नदी पर्यटन बनाम सामाजिक-पर्यावरणीय जोखिम

गंगा सदैव से पूजनीय, पापविमोचिनी माता समान मानी गई है. एक डुबकी मात्र से समस्त पाप धुल जाते हैं ऐसी मान्यता है. आज भी ऋषिकेश में देश-विदेश से लाखों यात्री गंगा में डुबकी लगाने आते हैं.

पिछले चालीस वर्षों में गंगा के किनारे हिमालय में बियासी तथा मैदान में ऋषिकेश में पर्यटन का एक नया आयाम देखने में आया है. नदी पर्यटन अथवा रिवर टूरिज्म आज पर्यावरणविदों एवं समाजशास्त्रियो दोनों के लिए चिंता का विषय बन चुका है. इन दो स्थानों के बीच की जगह अब रिवर राफ्टिंग और कैम्पिंग दोनों ही कामों के लिए प्रयोग में लाई जाती है. नदी के एकदम किनारे पर टेंट कॉलोनी बनाई जाती है. नदी पर इन सबका क्या असर पडता होगा-आइये एक नजर डालें.

गोविन्दबल्लभ पन्त इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन इनवायरमेंट एंड डेवेलपमेंट के श्रीनगर,  गढवाल केन्द्र के एन ए फारुकी, टी के बुदाल एवं आर के मैखुरी ने इस प्रकार के पर्यटन का गंगा के पर्यावरण एवं क्षेत्र के सामाज व संस्कृति पर पड़ने वाले प्रभाव पर शोध किया. अपने शोध को इन्होने करेंट साईंस में प्रकाशित किया था. इनकी रिपोर्ट से इस पर्यटन के अनेक पहलुओं पर ज्ञान प्राप्त होता है.

पहाड़ के खूबसूरत ढलान, हरे-भरे वन, नदिया, झरने आदि पर्यटकों को अनायास ही मोह लेते हैं. हमारे पहाड़ स्वदेशी एवं विदेशी दोनों प्रकार के पर्यटकों को सदियों से आकर्षित करते रहे हैं. इधर हाल के कुछ वर्षों में पर्यटन एक उद्योग रूप ले चुका है. विश्व में पिछले ४० वर्षों से पर्यटन एक बेहद सफल उद्योग रहा है मानते हैं फारुखी व उनके सह्शोधकर्ता. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देखा जाये तो पर्यटन का जी एन पी में योगदान 5.5% तथा रोजगार में 6% योगदान रहा है.

प्रश्न यह है कि यदि यह इतना कमाऊ उद्योग है तो समस्या कहाँ है?
दरअसल पर्यटन को बढ़ावा मिलने के कारण लोग अचानक एक स्थान विशेष पर आ पहुंचते हैं. पर इस प्रकार हजारों या लाखों लोगों के आने से उस स्थान की संस्कृति या पर्यावरण पर क्या प्रभाव पडता है इस पर कभी गहराई में शोध नहीं किया गया. फारुखी आदि को इस दिशा शोध कर समस्याओं को उजागर करने में अग्रणी माना जा सकता है.
पर्यटन जहां एक ओर पर्वतीय युवाओं को रोज़गार देता है तो दूरी ओर सामाजिक तालमेल बिगाड़ भी देता है. मसलन तलहटी में कहती करने वाले युवा टूरिस्ट कैम्प में सामान ढोने के कुली का काम अधिक लाभकारी समझते हैं. चमकदमक के लालच में अपना पुश्तैनी रोजगार छोडकर कुलीगिरी करने वाले यह युवा बहुधा शराब आदि की लत के भी शिकार हो जाते हैं-जिसका परिणाम होता है पारिवारिक कलह.

गो कि स्थानीय समाज एवं सरकार पर्यटन को एक अच्छा उद्योग मानते हैं क्योंकि इसके कारण लोगों की आय में अंतर आया है. पर इस अच्छाई के साथ जो बुराई आती है उसे नज़रंदाज़ कर दिया गया है. गंगा एक पूजनीय नदी है, उस पर नदी राफ्टिंग करना क्या नदी का अपमान नही है-इस बात पर किसी ने विचार नहीं किया. ना ही इस दिशा में कोई शोध हुआ है. नदी के किनारे 36 कि मी तक कौडियाला से ऋषिकेश तक अनके पर्यटक कैम्प लगाए जाते हैं. फारुखी एवं उनके सहयोगियों ने इस क्षेत्र का विशेष अध्ययन किया.

फारुखी आदि ने देखा कि इन कैंपों के 500 मी के दायरे में लगभग 500 गाँव हैं. ब्रह्मपुरी एवं शिवपुरी (ऋषिकेश के निकट) 1994 में दो निजी कैम्प स्थल थे. इसके अतिरिक्त 1996 के पूर्व गढवाल मंडल विकास निगम के शिवपुरी व बियासी में मात्र दो कैम्प स्थल हुआ करते थे. 1997 के बाद से अचानक इन कैम्पों की बाढ़ सी आ गई है. अब यह 45 कैम्प गंगा के किनारे 183510 वर्ग मीटर के क्षेत्र पर फैले हैं. सबसे अधिक कैम्प सिंग्ताली और उसके बाद शिवपुरी में हैं. इस लेखक को याद है कि 1979 में सर्वे के दौरान शिवपुरी में ऋषिकेश में अधिकारीयों से गंगा के किनारे एक टेंट लगाने की इजाजत नहीं मिली थी-क्योंकि अधिकारियों को भय था कि गंगा गंदी हो जायेगी! अब तो इन कैम्पों में प्रति कैम्प 15 से 35 पर्यटक प्रति कैम्प रहते हैं. इसके अतिरिक्त वहाँ काम करने वाले लोग अलग से. इन स्थानों पर प्रति कैम्प औसत शौचालय 4 से 10 तक हैं, तथा हर कैम्प की अपनी रसोई एवं भोजनालय अलग से है.

पर्यटकों से पैसा कमाने की होड़ में अनेक स्थानीय लोगों ने भी नदी के किनारे अपनी जमीन पर कैम्प लगा लिए तथा बहुतों ने अपनी जमीन टूर ऑपरेटरों को बेच दी. यही कारण है कि इस क्षेत्र में टेंट कालोनियों की भरमार हो चुकी है. फारुखी ने यह डाटा 2006 में एकत्रित किया था. बढते हुए उद्योग को देखते हुए प्रतिवर्ष इसमें 10% इजाफे को नकारा नहीं जा सकता.

स्थानीय लोगों में इस उद्योग के प्रति मिली जुली प्रतिक्रिया व्यक्त की है. कुछ को लगता है कि इसुद्योग से उनकी माली हालत सुधरी है तो कुछ का कहना है बाहरी लोगों के आने से उनमें सामाजिक सांस्कृतिक असुरक्षा की भावना बढ़ी है. सरकार का नदी पर्यटन को बढाने का रवय्या तो ठीक है, पर टूरिज्म के नाम पर होने वाले गतिविधियों पर नजर रखनी जरूरी है. गोवा में टूरिज्म के नाम पर खुली छोट मिलने के बाद क्या हुआ यह बात किसी से छिपी नहीं है. इसलिए कितनी स्वतंत्रता देनी चाहिए यह तो सरकार ही तय कर सकती है.
 
गंगा के किनारे इन टूरिस्ट कैम्पों का प्रयोग रिवर राफ्टिंग के लिए भी खूब होता है. फारुखी के अनुसार 2004-5 के दौरान 12726 पर्यटकों ने इन स्थानों का प्रयोग किया. इन कैम्पों के लिए सरकार ने पाबन्दिया ठीकठाक लगाई हैं, जैसे जितना क्षेत्र कैम्प के लिए आवंटित है उसके बाहर टेंट नहीं लगा सकते, शाम 6 बजे के बाद राफ्टिंग की सख्त मनाही है, कैम्प में खाना बनाने के लिए लकड़ी जलाना मना है, कैम्प फायर केवल राजपत्रित अवकाशों एवं रविवारों में ही की जा सकती है, उस पर भी जमीन में लकड़ी रख कर नहीं जला सकते, उसके लिए विशेष प्रकार की लोहे की ट्रे का प्रयोग करना होता है. कैम्प फायर के लिए लकड़ी केवल वन विभाग से ही ली जायेगी ऐसे भी आदेश हैं. कैम्प फायर के बाद राख को बटर कर नियत स्थान पर ही फेकना होता है, नदी में डालने पर एकदम मनाही है. कैम्प में सोलर लाईट का प्रयोग किया जा सकता है रात नौ बजे तक. तेज आवाज का संगीत एवं पटाखों पर सख्त पाबंदी है. शौचालय नदी से कम से कम 60 मी की दूरी पर होने चाहिए, जिनके लिए सूखे टाईप के सोक पिट आवश्यक हैं.

इतना ही नही वन अधिकारी को किसी भी समय कैम्प का मुआयना करने का अधिकार होगा तथा यदि किसी भी शर्ट का उल्लंघन पाया गया तो कैम्प के मालिक को जुर्म के हिसाब से जुर्माना या सजा तक हो सकती है.

पर काश यह सब कायदे माने जा रहे होते! फारुखी के अनुआर कैम्प नियत से अधिक क्षेत्र में लगाये जाते हैं तथा अन्य सभी नियमों का खुलेआम उल्लंघन होता है. सबसे खराब है नदी से एकदम सता कर शौच टेंट लगाना. बरसात में इनके गड्ढे पानी से भर जाते हैं तथा मल सीधे नदी में पहुँच जाता है. कैम्प फायर जब भी मांग होती है कि जाती है, तथा उसकी राख सीधे नदी में झोंक दी जाती है.

स्थानीय लोगों और टूर ऑपरेटरों को इन कैम्पों से जितना फायदा होता है उस से अनेक गुना अधिक पर्यावरण का नुक्सान होता है. फारुखी के अनुसार 1970 से 2000 के बीच जैव-विविधता में 40% की गिरावट आई है, जबकि आदमी का पृथ्वी पर दबाव 20% बढ़ गया. विकास कुछ इस प्रकार हुआ है कि अमीर अधिक अमीर हो गए और गरीब अधिक गरीब. ऐसी अवस्था में फारुखी व उनके साथी कहते हैं कि जब झुण्ड के झुण्ड अमीर टूरिस्ट आते हैं तो सभी स्थानीय वस्तुओं की मांग कई गुना अधिक बढ़ जाती है. इनमे सबसे अधिक मांग बढती है लकड़ी की. गरीब गाँव वाले टूरिस्ट कैम्पों को लकड़ी बेचने में कुताही नही करते-उनको भी लालच रहता है. लकड़ी की मांग इतनी बढ़ चुकी है कि स्थानीय लोगों को सीजन में मुर्दा फूकने तक को लकड़ी नहीं मिल पाती. दूसरी ओर स्थानीय लड़कियों एवं स्त्रियों को नहाने के लिए नित्य नए स्थान ढूँढने पड़ते हैं क्योंकि उनके क्षेत्रों पर कैम्प वालों का कब्जा हो चुका होता है.   

इसलिए समय की मांग है कि नदी पर्यटन को और अधिक बढ़ावा देने के पूर्व सरकार उस क्षेत्र का इनवाईरौन्मेंट इम्पैक्ट एस्सेस्मेंट करवा ले-ताकि क्षेत्र के सांस्कृतिक और सामाजिक व पर्यावरणीय बदलाव का सही आंकलन हो सके. इन कैम्पों से कितना कचरा नित्य निकलता है उसका सही आंकलन कुछ उसी प्रकार हो सके जैसा सागर माथा बेस कैम्प में एवरेस्ट जा रहे पर्वतारोहियों के लिए किया जाता रहा है.

हिमालय में और विशेषकर गंगा के किनारे एडवेंचर टूरिज्म एवं नदी टूरिज्म को हम बढ़ावा दे रहे हैं-यह पश्चिमी देशों की नकल है-कोई बुराई नहीं है, केवल ध्यान इस बात का रखना जरूरी है कि उन देशों ने इस प्रकार के टूरिज्म को बढ़ावा अपनी संस्कृति, सामाजिक परिस्थति या पर्यावरण को दांव पर लगा कर नहीं किया. उलटे कैम्प में आने वाले पर्यटकों को यह बार बार बतलाया जाता है कि वह केवल वहाँ की प्रकृति का आनंद लें न कि वहाँ की पर्यावरणीय एवं सामाजिक पवित्रता को अपवित्र करें.






एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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जोशी जी.. बहुत सुंदर और ज्ञान वर्धक सूचना है!

आपके बातो से पूर्ण रूप से सहमत हूँ !

where eagles dare

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very informative details, thanks Joshi jee for sharing and enlightening us the pros n cons  of commercialization... very valid & crucial issues you have pointed out..

 

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