Author Topic: Journalist and famous Photographer Naveen Joshi's Articles- नवीन जोशी जी के लेख  (Read 71880 times)

नवीन जोशी

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आज-कल जागेश्वर मैं श्रवन का मेला लगा हुआ है, रास्ते में देवदार के खूबसूरत सुरम्य वन का आनंद भी लें..... j


barsaat main gandalee huyee kosi aur kheton main jutee mahilaayen..





Nainital ka talli tal se poora panorama view...



Jageshwar ke aage Naini (chaugarkha) ke raaste mai yah ek saath "double" pesh karte cheed ke ped dilchasp hain...



Nainital waise hee itna khoobsurat hai, mansoon main to iskee sundarta main char chaand hee lag jaate hain....



Black & White kee bhee apnee khoobsooratee hai....



Pahaadee gaaon kee khoobsooratee ke kahne hee kya...Purane gaon main abhee bhhee kahin kahin chhotee hee sahee "baakhaliyan" dikh hee jaatee hain...



Briddh Jageshwar ke paas se najar aane waale Saryu ghaatee ke ek nazar main kayee pahaadee gaon..

हेम पन्त

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जोशी जी सादर प्रनाम,
बहुत खुशी की बात है कि अब आपकी फोटो और लेख "मेरापहाड़" के माध्यम से भी पूरी दुनिया के सामने आयेंगे... आपके सैकड़ों-हजारों लेख और फोटो देखने और पढने की आशा के साथ आपका धन्यवाद..

नवीन जोशी

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आगामी 20  अगस्त से 1 सितम्बर तक देवीधूरा में आषाड़ी कौतिक लगने जा रहा है, इसी दौरान 24  अगस्त को देश-दुनियां की अनूठी बग्वाल परंपरा यानी पत्थर युद्ध खेला जाएगा. आइये विस्तृत रूप से जानते हैं बग्वाल के बारे में.....


देवीधूरा की बग्वाल: जहाँ लोक हित में पत्थरों से अपना लहू
बहाते हैं लोग


कहा जाता है कि जब पृथ्वी पर मानव सभ्यता की शुरुआत हुई तो तत्कालीन आदि मानव के हाथ में एकमात्र वास्तु 'पाषाण' यानी पत्थर था, तभी उस युग को पाषाण युग कहा गया। पत्थर से ही आदि मानव ने घिसकर नुकीले औजार बनाये, उदर की आग को बुझाने के लिए जानवर मारे और पत्थरों को ही घिसकर आग जलाई और पका हुआ भोजन खाया, बाद में पत्थर से ही गोल पहिये बनाए और जानवरों पर सवारी गांठकर खुद को ब्रह्मा की बनाई दुनियां का सबसे बुद्धिमान शाहकार साबित किया। आज जहाँ एक ओर अपनी तरक्की से हमेशा असंतुष्ट रहने वाला मानव पृथ्वी से भी ऊँचा उठकर चाँद  व मंगल तक पहुँच गया है, वहीँ दूसरी ओर वही मानव आज भी मानो उसी पाषाण युग में पत्थरों को थामे हुए भी जी रहा है। जातीय व धार्मिक दंगो से कहीं दूर देवत्व की धरती देवभूमि उत्तराखंड के देवीधूरा नामक स्थान पर, वह अपने ही भाइयों पर पत्थर मारता है, पर खुशी उसे उनका लहू बहाने से अधिक
उनके पत्थरों से अपना लहू बहने पर होती है। वर्ष में कुछ मिनटों के लिए यहाँ होने वाले पत्थर युद्ध में लोक-लाभ की भावना से लोग अपने थोड़े-थोड़े रक्त का योगदान देते हुए पूरे एक मनुष्य के बराबर रक्त बहाते हैं। लेकिन वर्षों से चली आ रही इस परंपरा ने आज तक किसी की जान नहीं ली है, वरन किसी की जान ही बचाई है। यह मौका है जब सवाल-जबाबों से परे होने वाली आस्था के बिना भी अपनी जड़ों और अतीत को समझने का प्रयास किया जा सकता है।
यूँ उत्तराखंड के कुमाऊं अंचल में यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है, "नौ नौर्त, दस दशैं, बिस बग्वाल, ये कुमू फुलि भंग्वाल, हिट कुमय्या माल..।" अर्थात शारदीय नवरात्रि व विजयादशमी के बाद भैया दूज को बीस स्थानों पर बग्वाल खेलकर कुमाऊंवासी माल प्रवास में चले जाते थे। लेकिन अब केवल देवीधूरा में ही बग्वाल खेली जाती है। देवीधुरा यानी "देवी के वन" नाम का छोटा सा कश्बा उत्तराखंड के चंपावत ज़िले में कुमाऊं मंडल के तीन जिलों अल्मोडा, नैनीताल और चंपावत की सीमा पर समद्रतल से लगभग 2,400 मीटर (लगभग 6,500 फिट) की ऊंचाई पर लोहाघाट से 45 किमी तथा चम्पावत से 61 किमी की दूरी पर स्थित है । यहाँ ऐतिहासिक, आध्यात्मिक और नैसर्गिक सौंदर्य की त्रिवेणी के रूप में मां बाराही देवी का मंदिर स्थित है, जिसे शक्तिपीठ की मान्यता प्राप्त है। कहा जाता है कि चंद राजाओं ने अपने शासन काल में इस सिद्ध पीठ में चम्पा देवी और महाकाली की स्थापना की थी। महाकाली को महर और फर्त्याल जाति के लोगों द्वारा बारी-बारी से प्रतिवर्ष नियमित रुप से नरबलि दी जाती थी। बताया जाता है कि रुहेलों के आक्रमण के दौरान कत्यूरी राजाओं द्वारा मां बाराही की मूर्ति को घने जंगल के मध्य एक भवन में स्थापित कर दिया गया था। धीरे-धीरे इसके चारों ओर गांव स्थापित हो गये और यह मंदिर लोगों की आस्था का केन्द्र बन गया। इस स्थान का महाभारतकालीन इतिहास भी बताया जाता है, कहते हैं कि यहाँ पहाड़ी के छोर पर खेल-खेल में भीम ने शिलायें फेंकी थी। ग्रेनाइट की इन विशाल शिलाओं में से दो आज भी मन्दिर के निकट मौजूद हैं। इनमें से एक को राम शिला कहा जाता है। जन श्रुति है कि यहां पर पाण्डवों ने जुआ खेला था, दूसरी शिला पर हाथों के भी निशान हैं। निकट ही स्थित भीमताल और हिडिम्बा मंदिर भी इस मान्यता की पुष्टि करते हैं। वैसे अन्य इतिहासकर इस परंपरा को आठवीं-नवीं सदी का तथा कुछ खस जाति से भी सम्बिन्धित मानते हैं । दूसरी ओर पौराणिक कथाओं के अनुसार जब राक्षक्षराज हिरणाक्ष व अधर्मराज पृथ्वी को अपहरण कर पाताल लोक ले गए, तब पृथ्वी की करुण पुकार सुनकर भगवान विष्णु ने बाराह यानी सूकर का रूप धारण कर पृथ्वी को बचाया, और उसे अपनी बांयी ओर धारण किया। तभी से पृथ्वी वैष्णवी बाराही कहलायी गईं ।कहा जाता हैं कि तभी से मां वैष्णवी बाराही आदिकाल से गुफा गह्वरों में भक्तों की मनोकामना पूर्ण करती आ रही हैं। इन्हीं मां बाराही की पवित्र भूमि पर उल्लास, वैभव एवं उमंग से भरपूर सावन के महीने में जब हरीतिमा की सादी ओढ़ प्रकृति स्वयं पर इठलाने लगती हैं, आकाश में मेघ गरजते हैं, दामिनी दमकती है और धरती पर नदियां एवं झरने नव जीवन के संगीत की स्वर लहरियां गुंजा देते हैं, बरसात की फुहारें प्राणिमात्र में नव स्पंदन भर देती हैं तथा खेत और वनों में हरियाली लहलहा उठती है। ऐसे परिवेश में देवीधूरा में प्राचीनकाल से भाई-बहन के पवित्र प्रेम के पर्व रक्षाबंधन से कृष्ण जन्माटष्मी तक आषाड़ी कौतिक (मेला) मनाया जाता है, वर्तमान में इसे बग्वाल मेले के नाम से अधिक प्रसिद्धि प्राप्त है। कौतिक के दौरान श्रावणी पूर्णिमा को ‘पाषाण युद्ध’ का उत्सव मनाया जाता है। एक-दूसरे पर पत्थर बरसाती वीरों की टोलियां,  वीरों की जयकार और वीर रस के गीतों से गूंजता वातावरण, हवा में तैरते पत्थर ही पत्थर और उनकी मार से बचने के लिये हाथों में बांस के फर्रे लिये युद्ध करते वीर। सब चाहते हैं कि उनकी टोली जीते, लेकिन साथ ही जिसका जितना खून बहता है वो उतना ही ख़ुशक़िस्मत भी समझा जाता है. इसका मतलब होता है कि देवी ने उनकी पूजा स्वीकार कर ली। आस-पास के पेड़ों, पहाड़ों औऱ घर की छतों से हजारों लोग सांस रोके पाषाण युद्ध के इस रोमांचकारी दृश्य को देखते हैं। कभी कोई पत्थर की चोट से घायल हो जाता है तो तुरंत उसे पास ही बने स्वास्थ्य शिविर में ले जाया जाता है। युद्धभूमि में खून बहने लगता है, लेकिन यह सिलसिला थमता नहीं। साल-दर-साल चलता रहता है, हर साल हजारों लोग दूर-दूर से इस उत्सव में शामिल होने आते हैं। आस-पास के गांवों में हफ़्तों पहले से इसमें भाग लेने के लिये वीरों और उनके मुखिया का चुनाव शुरू हो जाता है. अपने-अपने पत्थर और बांस की ढालें तैयार कर लोग इसकी बाट जोहने लगते हैं।
बग्वाल यानी पाषाण युद्ध की यह परंपरा हजारों साल से देवीधूरा में चली आ रही है। पौराणिक कथाओं के अनुसार यह स्थान गुह्य काली की उपासना का केन्द्र था, सघन व्न में बावन हजार वीर और चौंसठ योगनियों का आतंक था, उन्हें प्रसन्न करने के लिये नरबलि की प्रथा थी। देवीधूरा के आस-पास वालिक, लमगड़िया, चम्याल और गहड़वाल खामों (ग्रामवासियों का समूह, जिनमें महर और फर्त्याल जाति के लोग ही अधिक होते हैं) के लोग रहते थे, इन्हीं खामों में से प्रत्येक वर्ष एक व्यक्ति की बारी-बारी से बलि दी जाती थी। एक बार चम्याल खाम की एक ऐसी वृद्धा के पौत्र की बारी आई, जो अपने वंश में इकलौता था। अपने कुल के इकलौते वंशज को बचाने के लिये वृद्धा ने देवी की आराधना की तो देवी ने वृद्धा से अपने गणों को खुश करने के लिये कहा। वृद्धा को इस संकट से उबारने के लिये चारों खामों के लोगों ने इकट्ठे होकर युक्ति निकाली कि एक मनुष्य की जान देने से बेहतर है कि आपस में पाषाण युद्ध “बग्वाल” लड़ (खेल) कर एक मानव के बराबर रक्त देवी व उसके गणों को चड़ा दिया जाए। इस तरह नर बलि की कुप्रथा भी बंद हो गयी। तभी से बग्वाल का एक निश्चित विधान के साथ लड़ी नहीं वरन खेली जाती है । मेले के पूजन अर्चन के कार्यक्रम यद्यपि आषाड़ी कौतिक के रुप में लगभग एक माह तक चलते हैं लेकिन विशेष रुप से श्रावण माह की शुक्लपक्ष की एकादशी से प्रारम्भ होकर भाद्रपद कृष्ण पक्ष की द्वितीया तक परम्परागत पूजन होता है । श्रावण शुक्ल एकादशी के दिन चारों खामो के लोगों द्वारा सामूहिक पूजा-अर्चना, मंगलाचरण, स्वस्तिवान, सिंहासन-डोला पूजन और सांगी पूजन विशिष्ट प्रक्रिया के साथ किये जाते हैं। इस बीच अठ्वार का पूजन भी होता है, जिसमें सात बकरों और एक भैंसे का बलिदान दिया जाता है।  पूर्णमासी के दिन चारों खामों व सात तोकों के प्रधान आत्मीयता, प्रतिद्वन्द्विता व शौर्य के साथ बाराही देवी के मंदिर में एकत्र होते हैं, जहां पुजारी सामूहिक पूजा करवाते हैं । बग्वाल खेलने वाले बीरों (स्थानीय भाषा में द्योंकों) को घरों से महिलाएँ आरती उतार, आशीर्वचन और तिलक-चंदन लगाकर व हाथ में पत्थर देकर ढोल-नगाड़ों के साथ बग्वाल के लिए भेजती हैं। द्योंके युद्ध से पहले एक महीने तक संयम तथा सदाचार का पालन करते हैं, और सात्विक भोजन करते हैं।पूजा के बाद पाषाण युद्ध में भाग लेने वाले चारों खामों के योद्धाओं की टोलियाँ अपने घरों से परम्परागत वेश-भूषा में सुसज्जित होकर ढोल, नगाड़ो के साथ सिर पर कपड़ा बाँध, हाथों में लट्ठ तथा फूलों से सजे व रिंगाल की बनी हुई छन्तोली कही जाने वाली छतरियों (फर्रों) के साथ धोती-कुर्ता या पायजामा पहन व कपड़े से मुंह ढंक कर अपने-अपने गाँवों से भारी उल्लास के साथ देवी मंदिर के प्रांगण दुर्वाचौड़ मैदान में पहुँचती  हैं, और दो टीमों के रुप में मैदान में बंट जाती हैं। सर्वप्रथम मंदिर की परिक्रमा की जाती है। इसमें बच्चे, बूढ़े, जवान सभी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं । सबका मार्ग पहले से ही निर्धारित होता है । मैदान में पहुचने का स्थान व दिशा हर खाम की अलग होती है । उत्तर की ओर से लमगड़िया, दक्षिण की ओर से चम्याल, पश्चिम की ओर से वालिक और पूर्व की ओर से गहड़वाल खोलीखाण दूर्वाचौड़ मैदान में आते हैं । दोपहर तक चारों खाम देवी के मंदिर के उत्तरी द्वार से प्रवेश करती हुई परिक्रमा करके मंदिर के दक्षिण-पश्चिम द्वार से बाहर निकलते हैं, और देवी के मंदिर और बाजार के बीच के खुले दूर्वाचौड़ मैदान में दो दलों में विभक्त होकर अपना स्थान घेरने लगते हैं । दोपहर में जब मैदान के चारों ओर आस्था का सैलाब उमड़ पड़ता है, तब एक निश्चित समय पर मंदिर के पुजारी बग्वाल प्रारम्भ होने की घोषणा करते हैं। इसके साथ ही खामों के प्रमुखों की अगुवाई में पत्थरों की वर्षा दोनों ओर से प्रारम्भ हो जाती है। ढोल का स्वर ऊँचा होता चला जाता है, छन्तोली से रक्षा करते हुए दूसरे दल पर पत्थर फेंके जाते हैं। धीरे-धीरे बग्वाली एक दूसरे पर प्रहार करते हुए मैदान के बीचों बीच बने ओड़ (सीमा रेखा) तक पहुँचने का प्रयास करते हैं। फर्रों की मजबूत रक्षा दीवार बनायी जाती है। जिसकी आड़ से वे प्रतिद्वन्दी दल पर पत्थरों की वर्षा करते हैं। पुजारी को जब अंत:करण से विश्वास हो जाता है कि एक मानव के रक्त के बराबर खून बह गया होगा तब वह ताँबें के छत्र और चँवर के साथ मैदान में आकर बग्वाल सम्पन्न होने की घोषणा शंखनाद से करते हैं। तब एक दूसरे के प्रति आत्मीयता प्रदर्शित कर आपस में गले मिल, अपने क्षेत्र की समृद्धि की कामना करते हुए द्योंके धीरे-धीरे मैदान से बिदा होते हैं। श्रद्धालुओं में प्रसाद वितरण किया जाता है। इसके बाद भी मंदिर में पूजार्चन चलता रहता है। देवी की पूजा का दायित्व विभिन्न जातियों का होता है। फुलारा कोट के फुलारा जानी के लोग मंदिर में पुष्पों की व्यवस्था करते हैं । मनटांडे और ढोलीगाँव के ब्राह्मण श्रावण की एकादशी के अतिरिक्त सभी पर्वों पर पूजन करवा सकते हैं । भैंसिरगाँव के गहढ़वाल राजपूत बलि के भैंसों पर पहला प्रहार करते हैं। लोक विश्वास है कि क्रम से महर और फर्त्याल जातियों द्वारा चंद शासन तक यहाँ श्रावणी पूर्णिमा को प्रतिवर्ष नर बलि दी जाती थी। कहा जाता है कि पहले जो बग्वाल आयोजित होती थी उसमें फर्रों का प्रयोग नहीं किया जाता था, परन्तु सन् 1945 के बाद से फर्रे प्रयोग किये जाने लगे। बगवाल में आज भी निशाना बनाकर पत्थर मारना निषेध है । रात्रि में मंदिर में देवी जागरण होता है। खोलीखांड-दूर्वाचौड़ मैदान के सामने बने मंदिर की ऊपरी मंजिल में तांबे की पेटी में मां बाराही, मां सरस्वती और मां महाकाली की मूर्तियां हैं। ऐसा माना जाता है कि खुली आंखों से इन मूर्तियों को आज तक किसी ने नहीं देखा है। मां बाराही की मूर्ति कैसी और किस धातु की है यह आज भी रहस्य है। कहा जाता है कि मूर्तियों को खुली आंखों से देखने नेत्र की ज्योति चली जाती है। इसलिए मूर्तियों को स्नान कराते समय पुजारी भी आंखों पर काली पट्टी बांधे रहते हैं। इन मूर्तियों की रक्षा का भार लमगड़िया खाम के प्रमुख को सौंपा जाता है, जिनके पूर्वजों ने पूर्व में रोहिलों के हाथ से देवी विग्रह को बचाने में अपूर्व वीरता दिखाई थी। गहढ़वाल प्रमुख श्री गुरु पद से पूजन प्रारम्भ करते है। श्रावणी पूर्णिमा के दूसरे दिन बक्से में रखे देवी विग्रह की डोले के रुप में शोभा यात्रा भी सम्पन्न होती है। भक्तजनों की जय-जयकार के बीच डोला देवी मंदिर के प्रांगण में रखा जाता है। चारों खाम के मुखिया पूजन सम्पन्न करवाते हैं। कई लोग देवी को बकरे के अतिरिक्त अठ्वार-सात बकरे तथा एक भैंस की बलि भी अर्पित करते हैं।

नवीन जोशी

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Rajbhawan Nainital main mere chaayachitron kee pradarshani lagee, is par mujhe rajypal smt. margret alwa ne sammanit kiya.



Miss India Earth Manasvi Mamgain ke saath main




Commonwealth games kee queen's baton ke saath main:



एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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जोशी जी बहुत-२ बधाई!

आने वाले समय मे भी आपको इसी प्रकार से सम्मान मिलते रहे!

नवीन जोशी

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कुमाउनी गद्याक बार में लेख... इमें म्यर थ्वड़ कृतित्व लै शामिल करी जैरौ.[/color][/font][

नवीन जोशी

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उत्तराखण्ड चलना सीख गया है `बल´[/color][/b]

नवीन जोशी, नैनीताल। उत्तराखण्ड राज्य को नौ साल हो गऐ। जल्द 10वीं सालगिरह मनाई जाने वाली है बल। सब औपचारिक ठैरा,  चलो हम भी मनाएंगे, जैसे पन्द्र अगस्त या छब्बीस जनवरी मनाते हैं। इस बार तो राष्ट्रगीत गाने जैसी कोई औपचारिकता भी नहीं ठैरी। दो कर्मचारी आपस में बात कर रहे ठैरे।
उत्तराखण्ड इन आठ सालों में कितना बदला, उनकी बातें इस दिशा में मुड़ीं और बात सरोकारों तक भी गई। एक कहने लगा, यूपी और उत्तराखण्ड में वैसे भौत फर्क हो गया है। उत्तराखण्ड चलना सीख गया है बल, इसलिए चलने से पहले कोई सोच बिचार नहीं करता। कई अपनी चीजें भुलाकर पुराने यूपी की सीख ली हैं बल, ऐसे में कई चीजें सीखने की जरूरत भी नहीं रह गई ठैरी, हालांकि ऐसे में पहाड़ से गिरने का खतरा भी ठैरा, पर कौन सोचता है। ग्राम प्रधान सीख सीख कर मंत्री विधायक बन गऐ हैं बल। बाबू, फोर्थ क्लास वाले सैक्रेटरिऐट पहुंच गऐ हैं। जिसकी जहां जुगाड़ लगी फिट हो गया। हर घर, चूले तक की मंत्रियों से पहुंच हो गई है। सब ने जुगाड़ बैठाने सीख लिऐ हैं। राज्य ऊर्जा, पर्यटन, जैविक, उद्योग, कृषि जाने कौन कौन प्रदेश और देवभूमि बनने की ओर भी चल पड़ा है बल, यह अलग बात है कि पहुंचा कहीं नहीं। यह अपने पैरों पर चलने की निशानी ही तो ठैरी। अब तो किसी को भी धोंस दिखानी या हिस्सा मांगने से पहले सौ बार सोचना पड़ता है। पता नहीं वह किस बड़े से मोबाइल पर धमकवा दे। उनको भी कोई काम थोड़े ही है, और काम उनके पल्ले पड़ते नहीं। अब कुछ लोगों को देखो राजधानी गैरसैंण बनाओ कह रहे हैं। अरे उल्टे बांस बरेली क्या करोगे। अपने `गिरदा´ कभी कभी ठीक कहते हैं, देहरादून को कम बरबाद कर लिया जो अब और जगहों को बरबाद करोगे। पहाड़ की पहाड़ों के घरों जैसी छोटी सी राजधानी अपनी औकात के हिसाब से बनानी हो तो ठीक भी है कि गैरसेंण बनाओ, वर्ना यही रौकात करनी है, वहां भी लखनऊ देहरादून ही बना देना है तो फिर ऐसी राजधानी दून से भी दूर कहीं बाहर ही चला ले जाओ। राज्य के गांवों का वैसे भी पड़ावों, शहरों और बाहर के प्रदेशों की ओर जाना थमा नहीं है। जो बाहर काम कर रहे बिचारे राज्य बनने पर यहां लौट आऐ थे, कहीं के नहीं रहे। यहां तो जिसकी चल जाऐ वाला हिसाब हो रहा ठैरा। अपनी मिट्टी, जंगल, जवानी पानी नीचे को बहती जा रही है। गांवों में अब बचा ही क्या है। जब गांव ही नहीं बचे तो महिलाओं के सिर से बोझ उतारने की चिन्ता क्या करनीं, वह तो खुद ही उतर जाऐगा। स्कूलों में मास्साब और उनके मित्र (शिक्षक मित्र) नहीं आ रहे तो क्या हुआ, उनके बनाऐ मित्रों को तो रोजगार मिल ही गया है। कल बच्चे से पूछ रहा था, दूध देने वाले दो पशुओं का नाम बताओ। पहला डेरी बताया दूसरा सोचता सोचता थैली....दूधवाला कहने लगा। उसे क्या पता। उसके लिए तो दूध दूधवाला या डेरी वाला ही देता है। उसके लिए अनाज खेतों पर नहीं उगता, बनिऐ की दुकान पर मिलता है। दाल, भात, सब्जी, नून, तेल सब वहीं पैदा होता है, बस पैंसे से काटना पड़ता है। अब किसी खेत में कम या ज्यादे पैदावार नहीं होती। अच्छी उपजाऊ सिमार या बंजर जमीन में अब कोई फर्क नहीं रहा। उपजाऊ जमीन में सिडकुल के उद्योग लग गऐ हैं। अब चिन्ता करनी है तो इस पर करो कि फलाना बनिया कुछ सस्ता दे देता है और फलाना बेईमान है, हर समान महंगा लगाता है। पर यह सारा झाड़ कुछ ही समय की बात है। जितना दूध पीना हो पी लो। जितना खाना है खा लो, जल्दी ही टूथपेस्ट जैसे ट्यूब से एंजाइम चूसने हैं उसकी तैयारी करो। कुछ बेवकूफ ही लोग हैं जो सरोकारों की बात करते हैं, हमारे लिऐ तो यही सरोकार हैं और यही सरकार। सरकार रोजगार, स्वरोजगार नहीं देती तो क्या, लोगों ने ठेकेदारी, मिट्टी जंगल बेचने का धंधा सीख ली लिया है। ठेकेदारी में गुड़ गोबर चाहे जो करो, कोई देखने वाला नहीं है। एक ही सड़क, गूल चाहे पांच पांच बार बना लो, यहां सब चलता है। दूसरा धंधा अभी जमीन का बचा है। पहाड़ में भौत जमीन है, नीचे गांवों में अब पानी या जंगल की जरूरत भी क्या है। जैसा सौदा पटा बेच डालो, सब चलता है। राज्य बनने के बाद इतना फायदा तो हुआ ही कि जमीन की कीमतें आसमान पहुंच गई हैं। धरना, जनान्दोलन राज्य ने बहुत किऐ, अब बात बेबात जाम लगाना भी सीख लिया है। भ्रष्टाचार, अपराध में भी अब सीखने को कुछ खास बचा नहीं। ...आंखिर राज्य अपने पैरों पर चलना जो सीख गया है।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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जोशी जी बहुत सुंदर लेख..

मुझे नहीं नहीं लगता विकास के हिसाब से उत्तराखंड अभी भी घुटने के बल चलने लायक है! बच्चे को एक साल का करीब समय लगता है चलने के लिए हमारा राज्य तो १० साल का बूडा होने वाला है!

क्या विकास क्या होता है बल ? 

पता नहीं...... सब देहरादून ही है. .




उत्तराखण्ड चलना सीख गया है `बल´[/color][/b]

नवीन जोशी, नैनीताल। उत्तराखण्ड राज्य को नौ साल हो गऐ। जल्द 10वीं सालगिरह मनाई जाने वाली है बल। सब औपचारिक ठैरा,  चलो हम भी मनाएंगे, जैसे पन्द्र अगस्त या छब्बीस जनवरी मनाते हैं। इस बार तो राष्ट्रगीत गाने जैसी कोई औपचारिकता भी नहीं ठैरी। दो कर्मचारी आपस में बात कर रहे ठैरे।
उत्तराखण्ड इन आठ सालों में कितना बदला, उनकी बातें इस दिशा में मुड़ीं और बात सरोकारों तक भी गई। एक कहने लगा, यूपी और उत्तराखण्ड में वैसे भौत फर्क हो गया है। उत्तराखण्ड चलना सीख गया है बल, इसलिए चलने से पहले कोई सोच बिचार नहीं करता। कई अपनी चीजें भुलाकर पुराने यूपी की सीख ली हैं बल, ऐसे में कई चीजें सीखने की जरूरत भी नहीं रह गई ठैरी, हालांकि ऐसे में पहाड़ से गिरने का खतरा भी ठैरा, पर कौन सोचता है। ग्राम प्रधान सीख सीख कर मंत्री विधायक बन गऐ हैं बल। बाबू, फोर्थ क्लास वाले सैक्रेटरिऐट पहुंच गऐ हैं। जिसकी जहां जुगाड़ लगी फिट हो गया। हर घर, चूले तक की मंत्रियों से पहुंच हो गई है। सब ने जुगाड़ बैठाने सीख लिऐ हैं। राज्य ऊर्जा, पर्यटन, जैविक, उद्योग, कृषि जाने कौन कौन प्रदेश और देवभूमि बनने की ओर भी चल पड़ा है बल, यह अलग बात है कि पहुंचा कहीं नहीं। यह अपने पैरों पर चलने की निशानी ही तो ठैरी। अब तो किसी को भी धोंस दिखानी या हिस्सा मांगने से पहले सौ बार सोचना पड़ता है। पता नहीं वह किस बड़े से मोबाइल पर धमकवा दे। उनको भी कोई काम थोड़े ही है, और काम उनके पल्ले पड़ते नहीं। अब कुछ लोगों को देखो राजधानी गैरसैंण बनाओ कह रहे हैं। अरे उल्टे बांस बरेली क्या करोगे। अपने `गिरदा´ कभी कभी ठीक कहते हैं, देहरादून को कम बरबाद कर लिया जो अब और जगहों को बरबाद करोगे। पहाड़ की पहाड़ों के घरों जैसी छोटी सी राजधानी अपनी औकात के हिसाब से बनानी हो तो ठीक भी है कि गैरसेंण बनाओ, वर्ना यही रौकात करनी है, वहां भी लखनऊ देहरादून ही बना देना है तो फिर ऐसी राजधानी दून से भी दूर कहीं बाहर ही चला ले जाओ। राज्य के गांवों का वैसे भी पड़ावों, शहरों और बाहर के प्रदेशों की ओर जाना थमा नहीं है। जो बाहर काम कर रहे बिचारे राज्य बनने पर यहां लौट आऐ थे, कहीं के नहीं रहे। यहां तो जिसकी चल जाऐ वाला हिसाब हो रहा ठैरा। अपनी मिट्टी, जंगल, जवानी पानी नीचे को बहती जा रही है। गांवों में अब बचा ही क्या है। जब गांव ही नहीं बचे तो महिलाओं के सिर से बोझ उतारने की चिन्ता क्या करनीं, वह तो खुद ही उतर जाऐगा। स्कूलों में मास्साब और उनके मित्र (शिक्षक मित्र) नहीं आ रहे तो क्या हुआ, उनके बनाऐ मित्रों को तो रोजगार मिल ही गया है। कल बच्चे से पूछ रहा था, दूध देने वाले दो पशुओं का नाम बताओ। पहला डेरी बताया दूसरा सोचता सोचता थैली....दूधवाला कहने लगा। उसे क्या पता। उसके लिए तो दूध दूधवाला या डेरी वाला ही देता है। उसके लिए अनाज खेतों पर नहीं उगता, बनिऐ की दुकान पर मिलता है। दाल, भात, सब्जी, नून, तेल सब वहीं पैदा होता है, बस पैंसे से काटना पड़ता है। अब किसी खेत में कम या ज्यादे पैदावार नहीं होती। अच्छी उपजाऊ सिमार या बंजर जमीन में अब कोई फर्क नहीं रहा। उपजाऊ जमीन में सिडकुल के उद्योग लग गऐ हैं। अब चिन्ता करनी है तो इस पर करो कि फलाना बनिया कुछ सस्ता दे देता है और फलाना बेईमान है, हर समान महंगा लगाता है। पर यह सारा झाड़ कुछ ही समय की बात है। जितना दूध पीना हो पी लो। जितना खाना है खा लो, जल्दी ही टूथपेस्ट जैसे ट्यूब से एंजाइम चूसने हैं उसकी तैयारी करो। कुछ बेवकूफ ही लोग हैं जो सरोकारों की बात करते हैं, हमारे लिऐ तो यही सरोकार हैं और यही सरकार। सरकार रोजगार, स्वरोजगार नहीं देती तो क्या, लोगों ने ठेकेदारी, मिट्टी जंगल बेचने का धंधा सीख ली लिया है। ठेकेदारी में गुड़ गोबर चाहे जो करो, कोई देखने वाला नहीं है। एक ही सड़क, गूल चाहे पांच पांच बार बना लो, यहां सब चलता है। दूसरा धंधा अभी जमीन का बचा है। पहाड़ में भौत जमीन है, नीचे गांवों में अब पानी या जंगल की जरूरत भी क्या है। जैसा सौदा पटा बेच डालो, सब चलता है। राज्य बनने के बाद इतना फायदा तो हुआ ही कि जमीन की कीमतें आसमान पहुंच गई हैं। धरना, जनान्दोलन राज्य ने बहुत किऐ, अब बात बेबात जाम लगाना भी सीख लिया है। भ्रष्टाचार, अपराध में भी अब सीखने को कुछ खास बचा नहीं। ...आंखिर राज्य अपने पैरों पर चलना जो सीख गया है।


नवीन जोशी

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कुमाउनी नाटक "जैल थै वील पै" (श्री नंदा स्मारिका 2009 में प्रकाशित)


नवीन जोशी

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देवभूमि के कण-कण में देवत्व
देवभूमि के कण-कण में देवत्व होने की बात यूँ ही नहीं कही जाती, अब इन दो स्थानों को ही लीजिये, यह नैनीताल जिले में हल्द्वानी के निकट खेड़ा गौलापार से अन्दर सुरम्य बेहद घने वन में स्थित कालीचौड़ मंदिर है. यहाँ महिषासुर मर्दिनी मां काली की आदमकद मूर्ति सहित दर्जनों मूर्तियाँ मंदिर के स्थान से ही धरती से निकलीं. कहते हैं कि आदि गुरु शंकराचार्य अपने देवभूमि उत्तराखंड आगमन के दौरान सर्वप्रथम इस स्थान पर आये थे. उन्होंने यहाँ आध्यात्मिक ओजस्वा प्राप्त हुआ, जिसके बाद उन्होंने यहाँ काफी समय तक आध्यात्मिक चिंतन किया. बाद में कोलकाता के एक महंत ने यहाँ मंदिर बनवाया. इसके आगे की कथा भी कम रोचक नहीं, हल्द्वानी के एक मुस्लिम चूड़ी कारोबारी को इस स्थान से ऐसा अध्यात्मिक लगाव हुआ कि बर्षों तक उन्होंने ही इस मंदिर की व्यवस्थाएं संभालीं. इधर किच्छा के एक सिख (अशोक बावा के) परिवार ने अपने मृत बच्चे को यहाँ मां के दरबार में यह कहकर समर्पित कर दिया कि मां चाहे जो करे, अब वह मां का है. वह बच्चा फिर से जी उठा, आज करीब 30 वर्षीय वही बालक और उसका परिवार मंदिर में पिछले कई वर्षों से भंडार चलाये हुए है.Kalichaur Mandir
यह दूसरा स्थान नैनीताल जिले का अल्मोड़ा रोड पर काकडीघाट नाम का स्थान है. इस स्थान के बारे में स्वामी विवेकानंद ने लिखा है कि यहाँ आकर उन्हें लगा कि उनके भीतर की समस्त समस्याओं का समाधान हो गया, और उन्हें पूरे ब्रह्माण्ड के एक अणु में दर्शन हुए. महान तत्वदर्शी सोमवारी बाबा ने भी यहाँ लम्बे समय तक तपस्या की.Somvaaree Baba Ashram Kaakadeeghat, Nainital

 

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