Author Topic: Poems By Vikam Negi 'Boond"- विक्रम नेगी "बूंद" की कवितायें तथा लेख  (Read 10240 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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पहाड़ के पलायन की व्यथा को  व्यक्त करती मैंने वर्तमान में इससे बेहतर कविता अभी तक नहीं पडी! युवा कवि
विक्रम नेगी की कुछ कविताये यहाँ पर पोस्ट कर रहा हूँ जो हमें सोचने को मजूर करती है आंखिर कब तक पहाड़
के दुःख पहाड़ जैसे रहंगे और वर्तमान में किस स्थिति से गुजर रहा है पहाड़ ! लेकिन यह कवि लिखता अंत में याद रखना "हमारा पहाड़ अभी मरा नहीं है वो जिंदा है...हमारा पहाड़ पलटकर तुम्हें जवाब देगा....इंतज़ार करो... "
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पहाड़ एक ही था,
तुमने दो कर दिए,
सीधे-सादे पहाड़ के ऊपर तुमने
अपना पहाड़ खड़ा कर लिया,
हमारे पहाड़ के कपड़े उतारकर
तुमने अपने पहाड़ को पहना दिए,
तुम्हारा पहाड़ मोटा होता गया
हमारा पहाड़ सिर्फ हाड़ रह गया
तुम्हारे पहाड़ के बोझ से
हमारे पहाड़ ज़मीन में धंस रहा है
तुमने खूब मजे किए
हमारे पहाड़ की बेचैनी को रिकॉर्ड करके
तुमने खूब मोटी-मोटी किताबें लिखी
हमारे पहाड़ के आंसुओं पर

याद रखना
हमारा पहाड़ अभी मरा नहीं है
वो जिंदा है...
हमारा पहाड़ पलटकर तुम्हें जवाब देगा....
इंतज़ार करो... (By Vikram Negi)
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पंकज सिंह महर

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यह कहावत आम है –
कि जितने टेढ़े-मेढे,
ऊबड़-खाबड़ होते हैं पहाड़-
उतने ही सीधे-सादे होते हैं पहाड़ी लोग.
और जितने सीधे होते हैं मैदान-
उतने ही टेढ़े होते हैं मैदानी लोग.
पहाड़ से पहली बार
मैदानों का सफ़र करने वाले
वापसी में अक्सर सुनाते हैं ऐसे किस्से-
छले जाने के,
लूटे जाने के,
ठगे जाने के...!

लूटे जाने, छले जाने, ठगे जाने के किस्से
कभी खत्म नहीं होते,
ठीक उसी प्रकार-
जैसे कुछ आदतें कभी नहीं बदलती...!
पहाड़ी लोग
पहाड़ को नंदीग्राम, सिंगूर या भुट्टा-पारसोल
बनाना नहीं चाहते..
इसलिए वे चुपचाप औने-पौने दामों में
लुटने देते हैं अपनी तराई की ज़मीनें
क्योंकि यह कहावत भी आम है-
कि पहाड़ी शांतिप्रिय होते हैं...!

और यह बात भी आम है-
कि जितनी ऊँची होती हैं पहाड़ियां
उतने ही नाटे कद के होते हैं पहाड़ी लोग.
ठीक उसी तरह
जिस तरह चमकते हैं पहाड़-
फ़िल्मी पर्दे पर
और रामू काका की तरह
किसी बड़े से रिजोर्ट में चौकीदारी करते हैं-
पहाड़ी लोग...!

पहाड़ी लोगों की नाक
प्राकृतिक रूप से नहीं
बल्कि सामाजिक रूप से ऊँची होती है
गरीब होकर भी
गरीब नहीं होते हैं पहाड़ी लोग
पहाड़ी भीख नहीं मांगते.
कहावत यह भी है...!

कोई घोड़े में चढ़ता है
तो पहाड़ी लोग छत में चढ़ जाते हैं
इसलिए मनोहर श्याम जोशी कहते हैं
कि पहाड़ियों की नज़र में
कोई भी चीज़ फर्स्ट क्लास नहीं होती
हर चीज़ सेकंड क्लास होती है...!

क्या यह अंतिम कहावत है-
कि पहाड़ी या तो पर्वतारोही होते हैं
या फिर सिर्फ़ दिल्ली में बर्तन धोते हैं...?
--
(बूंद)
15 अक्टूबर 2013
रात्रि 8: 23 (डीडीहाट)

पंकज सिंह महर

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क्या लिखें....?
यह कि लिखना जरुरी है.
या फिर यह लिखें
कि चुप रहना ज्यादा खतरनाक है.

लिखें
सिर्फ़ इसलिए कि पढ़ा जाएगा.
या फिर इसलिए
कि कोरे कागज़ असमर्थ हैं
बात कहने में.
लिखें इसलिए कि
लिखे हुए को कभी लड़ा जाएगा.

भावों की वो कौन सी इबारत है
जो स्याही से रंगने की साजिश में
अब तक पढ़ी नहीं गयी...?

शब्दों की वो कौन सी इमारत है
जो कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि की शक्ल में
अब तक गढ़ी नहीं गयी...?

क्यों लिखें..?
इसलिए कि कुछ है जो लिखा नहीं गया.
या फिर इसलिए
कि कुछ था जो पढ़ा नहीं गया.

लिखें इसलिए
कि अदब को एक और लेखक की जरुरत है.
या फिर लिखें इसलिए
कि विचार को वाहक की जरुरत है.

क्यों लिखें...?
इसलिए कि लीक से हटना जरुरी है
या फिर लिखें इसलिए
कि बड़ी कतार से छंटना जरुरी है.

(बूंद)
१४-१०-२०१३

पंकज सिंह महर

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जब घोर अँधेरा होता है, हम चुपके से रो लेते हैं.
सुबह सूर्य की किरणों से हम अपना मुँह धो लेते हैं.

हम आज में डूबे रहते हैं और कल की चिंता करते हैं,
सपनों के खेतों में अक्सर हम उम्मीदें बो देते हैं.

वो जंगल में-हम शहरों में, लड़ते हैं-बातें करते हैं,
संकट में वो, सुविधाओं में हम उनके संग हो लेते हैं.

हम विचारधारा के धागे में उनसे रिश्ता बुनते हैं.
वो गोली खाकर मरते हैं हम गोली खाकर सो लेते हैं.

(बूंद)
०८-१०-२०१३
प्रातः ०९-०९ मंगलवार

पंकज सिंह महर

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"सूर्य अस्त....पहाड़ी मस्त"
हों भी क्यों नहीं
मेहनतकश का मस्त होना कोई गुनाह है क्या...?
दिनभर की थकान के बाद थोड़े पल मस्ती के कौन नहीं चाहता.

अब कहावतें बनाना बंद कर दो पहाड़ियों के बारे में...!

विक्रम नेगी

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उदास है कमला
क्योँकि नहीँ बची है माँ के हाथोँ मेँ-
एक भी चूढ़ी।

पिछले साल,
बाबू के दिल्ली जाने बाद,
कितने जतन से खरीदी थी उसने-
वो लाल-लाल
काँच की चूढ़ियाँ...
पूरे दस रुपये ख़र्च हुए थे उसके-
उन चूढ़ियोँ को ख़रीदने मेँ।

याद है उसे...
पिछली कक्षा की वो किताबेँ,
बिना ज़िल्द लगी कापियोँ का ढेर,
जिन्हेँ संभालकर रखा था उसने
माँ के लिए ।

सुनाई दे रही है उसे
आज भी वो आवाज़....
जिसे सुनकर भटकती रही थी वो
पागलोँ की तरह
दिनभर
सारे गाँव मेँ।

एक टूटा कनस्तर,
कुछ शीशे की बोतलेँ,
एक जंग लगी हुई चाभी का पुराना गुच्छा,
और प्लास्टिक की बोतलोँ के कुछएक ढक्कन,
जिन्हेँ बटोरकर ले आई थी वो-
सारा दिन भूखी-प्यासी रहकर।

आज भी छाई हुई है
उसके चेहरे पर
उस दिन की हताशा....
जब उसके घर पहुँचने से पहले ही-
दूसरे गाँव मेँ जा चुका था
"चुड़ियाव"।

कई दिन बीत जाने के बाद-
उसे फ़िर सुनाई दी थी-
वो आवाज़....
जब वह खेल रही थी
घर के आंगन मेँ अड्डू।

याद है उसे वो दिन....
कैसे उसने अपनी वो
सारी टूटी-फूटी चीज़ेँ-
बिखरा दी थी
घर के आंगन मेँ।

एक-एक चीज़ की कीमत
अपने मनमुताबिक-
लड़-झगड़कर
वसूल की थी उसने-
चुड़ियाव से...।

पूरे दस रुपये लेकर-
दौड़ पड़ी थी वो माँ को बुलाने....
जो उस वक़्त लीप रही थी घर की देली।
खीँच ले आई थी वो माँ को-
मिट्टी सने हाथोँ सहित घर के आंगन मेँ।

चुड़ियाव ने एक-एक कर पहनाई थी-
माँ के हाथोँ मेँ
वो लाल-लाल चूढ़ियाँ।

माँ के मिट्टी सने हाथोँ मेँ
ऐसी चमक रहीँ थी वो चूढ़ियाँ,
जैसे खिल उठे होँ लाल बुराँश-
किसी सूखी टहनी पर।

कितनी खुश थी कमला उस दिन...
खूब नाची थी-
माँ के हाथोँ को पकड़कर,
जैसे खेल रही हो किसी सहेली के साथ-
"सैनदेवी-कैँचीमाला"

मगर आज फिर उदास है कमला,
क्योँकि गाँव मेँ अब नहीँ आता "चुड़ियाव"
जबकि पहले से ज़्यादा
ढेर लगा है गाँव मेँ-
शराब की बोतलोँ का...
और आज भी सूनी हैँ-
माँ की कलाईयाँ....।

"बूँद"
जनवरी 2010
पिथौरागढ़

विक्रम नेगी

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आज फिर उदास है कमला
चाची ने डांट दिया
सुबह-सुबह....

चाची कहती है- “बंद कर अब ये उछलकूद,
दिनभर अड्डू खेलना, गुट्टी खेलना,
इस उम्र में लड़कियों को ये सब शोभा नहीं देता,
घर के कामों में हाथ बंटा,
अब तू बड़ी हो गयी है,
पराये घर जायेगी, तो वहाँ क्या करेगी,
ये गुट्टी खेलना, अड्डू खेलना वहाँ नहीं चलेगा,
अभी से आदत डाल ले, कुछ घर के काम सीख...”

चाची कहती रही....
और कमला ऐसे सुनते रही
जैसे उसने कोई बहुत बड़ा अपराध किया हो
और उसे उसकी सजा सुनाई जा रही हो....

आज पहली बार उसने ये सब नहीं सुना था,
थोड़ा-थोड़ा सुनते आई थी वो बचपन से,
सैकड़ों बार उसके कानों में घोले गए थे
ये शब्द “कि वो बड़ी हो गयी है”

और हर बार
इन शब्दों को अनसुना करके
वो फिर मगन हो जाया करती थी
अपनी सहेलियों के साथ
सैनदेवी-कैचीमाला खेलने में.....

लेकिन आज उसे ऐसा लगा
जैसे उसकी आज़ादी छिन गयी है
माँ, चाची और आमा की डांट
उसे कभी भी इतनी बुरी नहीं लगी
जितनी आज उसने महसूस की....

याद है उसे वो दिन
जब पिछले साल
पहली बार वो अपनी सहेलियों के साथ
मेला देखने गयी थी
अपने वजीफे के जमा पैसों से
बहुत कुछ खरीदा था उसने मेले से...

माँ के लिए- एक बिंदी का पैकेट, एक जोड़ी बिच्छु, थोड़ा सिन्दूर, 
आमा के लिए- एक नया हुक्का, तीन तमाकू की पिंडी, कुछ बीड़ी के बण्डल
घर के लिए- आधा किलो मिसरी, पावभर जलेबी और एक सुप्पा......

उसने अपने लिए भी कुछ ख़रीदा था.....

शाम को जब वो घर पहुची
तो माँ के सामने उसने सारा सामान फैला दिया
सिवाय अपनी चीज़ों के...

माँ ने पूछा- अपने लिए क्या लायी..??
कमला ने डरते-डरते जवाब दिया- एक जोड़ी पैंट-कमीज का कपडा...
माँ ने एक जोर का चांटा मारा
कमला रो पड़ी....
उसने देखा था कई बार
अखबार के पन्नों में
लड़कियों को पैंट पहने....
उसे अच्छा लगता था......!

उसके छोटे-छोटे सपने
कब टूटते गए, उसे पता ही नहीं चला,
आज वो सब दिन फिर से याद कर रही है
जैसे कुछ हुआ ही न हो....

शाम का वक्त है.....
कमला उदास बैठी है,
चाची ओखल में धान कूट रही है,
आमा आज भी बाहर हुक्का गुडगुडा रही है,
माँ अभी नहीं लौटी खेतों से....!
---
“बूँद”
पिथौरागढ़

विक्रम नेगी

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जंग छिड़ी हुई थी,
पर मैदान खाली था...!
कौन लड़ा? किससे लड़ा? कब लड़ा?
कुछ पता ही नहीँ चला,
और फिर एक दिन.....
अचानक ख़बर मिली - पहाड़ मर गया....!

विश्वास नहीँ हुआ....
आँखेँ फाड़कर चारोँ ओर देखा-
पहाड़ तो खड़ा है,
ठीक वैसे ही, जैसे पहले था।
घाटी से चोटी तक
और बुग्याल से हिमाल तक
कहीँ भी चोट का कोई निशान नहीँ था।

मैँ सोच मेँ डूबा ही था....
इतने मेँ एक और ख़बर आई-
गाँव हार गया है....!

माथे पर बल पड़ गया...
ये कैसी लड़ाई है...
जो दिखाई नहीँ देती...?

फिर गाँव जाकर देखा
तो पता चला-

इस बार लड़ाई मेँ

मवेशी हार गए हैँ -
मोटरगाड़ियोँ से,
गाय का गोठ-
गाड़ी के ग़ैराज़ से,

दुबले पतले रास्ते हार गए हैँ-
मोटी-चौड़ी सड़कोँ से,
हार गई है पाथर की छत भी-
सीमेँट के लैँटर से।
इन सबके साथ-साथ हार गए हैँ-
मिट्टी के चूल्हे
और चीड़ की लकड़ियाँ भी-
गैस सिलेँडर से।
लड़ाई ख़त्म होने से पहले ही-
हार गया गाँव...!

तभी दूर की एक सड़क ने आवाज़ दी-
"ये हार नहीँ, जीत है - विकास की..."

मैँने ग़ौर से उसकी ओर देखा...
सड़क की जीभ पर
अभी भी लगा हुआ था-
पहाड़ का ख़ून....।

मैँने सड़क के इस तर्क के ज़वाब की आस मेँ
गाँव की ओर देखा....
लेकिन तब तक गाँव,
अपनी आख़िरी सांसेँ गिन रहा था.......।

"बूँद"
जुलाई 2009
(पिथौरागढ़

विक्रम नेगी

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हर चैनल पर ढोंगी बाबा टिका हुआ है.
लोकतंत्र का चौथा खम्भा बिका हुआ है.

सांई, आशा, निर्मल, रामू, सबको देखा,
मन पगला फिर भी बामन की शिखा हुआ है.

अब टीवी फोडें या माथा, कुछ नहीं होना,
"बेवकूफ हैं हम" माथे पर लिखा हुआ है.

(बूंद)
पिथौरागढ़

विक्रम नेगी

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मैं अब “मैं” होने का भार
अकेले सहन नहीं कर सकता
इसलिए मैं अब “हम” हूँ
और हम होना दायित्वों से बचने की सबसे आसान संज्ञा है
 
मैं को कठघरे में खड़ा किया जाता है अक्सर
और हम दायित्वों से परे है
हम पर कोई इलज़ाम भी नहीं लगा सकता
क़ानून से भी परे है हम
जेलों में जगह नहीं है
हमको कैद करने के लिए
इसलिए बेहतर है
हम हो जाना
 
एक सुरक्षा कवच हमारे पास भी है
कछुए और घोंघे के जैसा
हम से मैं
और मैं से हम तक का रास्ता
हमने खुद बनाया है
 
चाय की चुस्कियों के बीच
कैप्सटन, गोल्फ्लैक, खुखरी और बीड़ी का धुंआ उड़ाते हुए
बीच बहस में
मैं कभी भी तय कर लेता हूँ
कि मैं कब “मैं’ हूँ
और कब “हम”
 
हम और मैं कि बहस में हमेशा
शतरंज की मुहरों की तरह
सरकारें गिराने का खेल
हम अक्सर खेला करते हैं
चाय की दुकान में
 
बीच चौराहे पर
अक्सर प्रेस कांफ्रेंस होती है हमारी
आई.पी.एल., फीफा और सिनेमा से जुड़े मसलों को लेकर
 
हम नए दौर के मानव हैं
गुड मोर्निंग और गुड नाईट के बीच के
छोटे से अंतराल में ही
फेसबुक, ओर्कुट, ट्विटर पर हम बोलते हैं
लाईक और कमेन्ट के बीच बहुत सारे मसले हम
यों ही हल कर जाते हैं...
 
अब हम दो आँखों से नहीं देखते
दुनियां को देखने के लिए
हमारे पास हज़ारों आँखें हैं
 
फ्रायड, मार्क्स, गाँधी
अब हमसे अलग नहीं हैं
हम ही फ्रायड हैं
मार्क्स और गाँधी भी हम ही हैं
 
और गाँधी के बन्दर भी हम ही हैं
हम न तो बुरा देखते हैं
और न बुरा सुनते हैं
बुरे को बुरा कहना भी हमें अच्छा नहीं लगता
क्योंकि गाँधी कह गए थे-
बुरा मत बोलो..
 
हमें अब कुछ भी गलत नहीं लगता
गलत को सही साबित करने के तर्क
हमने ढूंढ लिए हैं
 
अब इतिहास हमारे लिए सतत विकास की प्रक्रिया नहीं है
इतिहास की जड़ें खोदना हमने सीख लिया है
अरस्तु, प्लेटो, सुकरात, सिकंदर,
रुसो, लेनिन, हिटलर, मुसोलिनी, माओ
अब इतिहास से नहीं झांकते
ये कैद हैं हमारे ही भीतर
 
इतिहास अब हमें विचलित नहीं करता
भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, आजाद,
हेडगेवार, जयचंद, गोलवलकर,
चारु मजुमदार, कानू सान्याल,
मुलायम, माया, कांशी राम,
मोदी, कसाब, लादेन, एंडरसन,
अब एक साथ रहते हैं हमारे भीतर,
बिना किसी मतभेद के
 
हम विचारधारा के पीछे नहीं चलते
विचारधारा का इस्तेमाल करते हैं
क्योंकि आमिर खान कहता है—आल इस वेल
 
हम सच्चे देशभक्त हैं
क्रिकेट की जीत हमारी सबसे बड़ी खुशी है
 
हम खुश हो जाते हैं जब कोई गरीब झुग्गियों के बच्चों को
स्लमडोग कहकर पुकारता है
 
एक ओस्कर हमारे तमाम गिले शिकवे दूर कर देता है
 
हम जान गए हैं कि
इस दौर में
मैं होना सबसे बड़ी भूल है.
क्योंकि कमज़ोर होता है
मैं होना
अहंकार के बावजूद
इस बड़ी दुनियां में
मैं अकेला पड़ जाता है अक्सर
हार को दावत देता है मैं होना
 
और यह भी कि
कभी-कभी फायदेमंद होता है मैं होना
मैं हिंदू हूँ
मैं मुस्लिम हूँ
मैं सिक्ख, ईसाई हूँ
मैं दलित हूँ, अल्पसंख्यक हूँ
जाट हूँ, गोरखा हूँ,
 
हम इस दौर के सबसे बड़े विचारक हैं
हमारी अपनी विचारधारा है
फायदे के लिए मैं हो जाना जरुरी है
लेकिन उतना ही ज़रुरी है
मैं से हम के भीतर छुप जाना
आपातकाल में
 
कहते हैं साधू सन्यासी, पीर फ़कीर
मैं को जान लेना ही मुक्ति का द्वार है
इसलिए मैं को जानकर
हम की आड़ लेने में ही सबकी मुक्ति है
 
हम अब रोते नहीं हैं
रोने का दिखावा करते हैं
हमें चीखना नहीं आता
हम परेशान नहीं होते
और न होना चाहते हैं
क्योंकि हम ये जानते हैं कि
दुनियां में पहले से ही बहुत परेशानियां हैं
और ये परेशानियां हमारे घर की दीवारों में
धब्बों की तरह फैली हुयी हैं
और इन्ही धब्बों में
आधुनिक चित्रकारी के कुछ नमूने खोजकर देखना हमने सीख लिया है
 
अखबार-टीवी हमारे लिए अब केवल समय गुज़ारने का जरिया मात्र हैं
हिंसा, बलात्कार, आगजनी,गरीबी के रंगों से रंगी तस्वीर
अब हमें विचलित नहीं करती.
क्योकि हमने सीख लिया है एक साथ
बहुत से नज़रियों को समेटकर सोचना
 
हमें पता है
और भी बहुत कुछ घटित हो रहा होता है दुनियां में
ठीक उसी वक्त,
जब हम किसी एक घटना के बारे में सोच रहे होते हैं
इसलिए अब हमारे लिए हर घटना केवल एक फिल्म की तरह है
 
हम रोज देखते हैं कि
कसाई बकरी और मुर्गे को कितनी शिद्दत से काटता है
हम रोज देखते हैं कि
बच्चे फूलों की तरह कितनी मनोरम मुस्कान बिखेरते हैं
 
हम आधुनिक कलाप्रेमी हैं
हमारी सोच की थैली में
एक साथ रहते हैं सभी रंग
 
अयोध्या, गोधरा, लालगढ़, दंतेवाडा,
अब हमें परेशान नहीं करते
निठारी कांड अब सनसनी नहीं फैलाता
यूनियन कार्बाईड से निकली जहरीली गैस
हमारे लिए परफ्यूम की तरह है
 
दंगों में मारे गए लोग
अब हमारी चिंता का विषय नहीं है
असहाय लोगों की दर्दनाक चीखों में
संगीत की सरगम पहचान लेने का हुनर
हमने सीख लिया है........
 
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विक्रम सिंह नेगी "बूँद"
२८ मार्च २०१२
(पिथौरागढ़)

 

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