Author Topic: Bhirudi Parv, Unique Diwali Uttarkashi-भिरुड़ी पर्व अनोखी है जौनसार की दीवाली  (Read 6561 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Dosto,

Bhirudi Parv (one kind of Diwali) is celebrated in Jaunsar area of Uttarkashi (Uttarakhand). This festival is celebrated exactly after one month of Diwali festival. It is sad that as per the mythology, this area being too far, the news of Lord Sri Ram returning to Ayodhyas reached almost one month late to the Villagers. So these villagers decided to celebrate this festival one month later . Ever since this Diwal is celebrated as Bhirudi Parv in Uttarkashi, exactly after one month of later of Diwali celebrated in rest part of the Country. More information is here :

अनोखी है जौनसार की दीवालीसम्पूर्ण भारत से अलग जोनसार-बाबर व सिरमौर में दीपावली का त्यौहार मनाने का विशिष्ट तरीका है। यहाँ बाकी देश से एक माह बाद दीवाली मनाई जाती है। किंवदन्ती है कि अयोध्या यहाँ से बहुत दूर होने के कारण भगवान रामचन्द्र के राज्याभिषेक का समाचार यहाँ एक माह बाद पहुँचा। लेकिन यह तर्क ज्यादा ठीक लगता है कि कार्तिक माह में फसल की कटाई और बुआई होने के कारण लोग बहुत अधिक व्यस्त रहते हैं। इसलिए एक माह बाद मंगसीर में यह त्योहार मनाते हैं। अमावस (अमावस्या) की रात्रि को सभी नर-नारी गाँव से कुछ दूर ’होला’ (मक्का) का पुंज तो कहीं पर लकड़ी का पुंज जलाते हैं। पांडवों तथा लोक देवता महासू के गीत गाये जाते हैं। पुरुष, खासकर बच्चे ’होलड़ा’ (होला) लेकर खेत के आस-पास हाथ में लेकर घुमाते हैं। दूसरे दिन गाँव के पुरुष गेहूँ, जौ की उगाई हरियाली लेकर आँगन में उतरते हैं। सर्वप्रथम औरतें कुल देवता को गोमूत्र व गंगाजल चढ़ाते हैं। इसके बाद पुरुष कान में हरियाली लगाते हैं और फिर नर-नारी आँगन में गीत गाते हैं। इस दिवस को ’भिरुड़ी’ कहते हैं। आपसी वैमनस्य और मतभेद भुलाकर जौनसारी नर-नारी एक-दूसरे के घर जाकर, गले से गले मिलकर अखरोट, मुवड़ा (गेहूँ को उबाल कर) तथा चिवडे़ (चावल उबले व कुटे हुए) का आदान-प्रदान करते हैं। सात दिनों के इस पर्व के अन्तिम दो दिनों में किसी गाँव में हिरण व हाथी बनाकर गाँव का स्याण बैठकर नाचता है। टोंस नदी की सीमा से लगे सिरमौर जिले में भी दीवाली मनाने की यह परम्परा है। उत्तरकाशी के अनेक हिस्सों में भी इस पर्व को धूमधाम से मनाया जाता हैं।
युवा पीढ़ी अब इस परम्परागत पर्व को मनाने में संकोच व शर्मिंदगी महसूस करती है। दफ्तरों व स्कूलों में छुट्टियाँ भी शहरी दीवाली पर होने के कारण उसे ही सर्वोपरि माना जाने लगा हैं। कहीं-कहीं पर अब भी दीवाली का बाँटा ( अखरोट, चिवडे़ व मुवड़ा) ससुराल गई लड़कियों को भेजने की परम्परा है, लेकिन अब वह टूट रही है। पहले ससुराल गई लड़कियाँ बेसब्री से इस मौके का इन्तजार करती थीं। अब पढ़-लिख जाने के बाद वे इसे ज्यादा महत्व नहीं देतीं। शायद समय के साथ यह बदलाव स्वाभाविक है। मगर सच्चाई यह है कि हम कितनी ही ऊँचाइयाँ क्यों न छूँ लें, अपनी पहचान तो अपनी ही सांस्कृतिक परम्पराओं से ही होती हैं। युवा पीढ़ी को इस धरोहर को युग-युगों तक सम्भालकर रखना चाहिए। (By खुशी राम शर्मा -Nainital Samachar)

M S Mehta


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Bhirudi Parv

जागरण प्रतिनिधि, चकराता: जौनसारी दीपावली के हिस्सा भिरुड़ी पर्व पर लोगों ने विभिन्न मंदिरों में देव दर्शन कर परिवार की सुख स्मृद्धि की मन्नतें मांगी। भिरुड़ी पर हर गांव में परिवार के मुखिया का मंदिर में दर्शन करना अनिवार्य माना जाता है, दर्शन न करने पर देवता का दोष लगने की बात कही जाती है। शुक्रवार को बारिश के बावजूद सिमोग के प्राचीन मंदिर में श्रद्धालुओं ने शिलगुर, विजट व चूडु देवताओं के दर्शन कर मन्नतें मांगी।


कालसी ब्लाक के प्राचीन मंदिर सिमोग में देव पर्व भिरुड़ी पर बारिश के बाद भी देवदर्शन को श्रद्धालुओं का आना शुक्रवार सुबह से ही जारी रहा। मन्नतें मांगने के साथ ही श्रद्धालुओं ने माली बाकियो से प्रश्न लगाकर अपनी समस्याओं के हल के उपाय जाने। डिमऊ गांव में परशुराम देवता के प्राचीन मंदिर में सैकड़ों श्रद्धालुओं ने देव दर्शन किए। देवलग्नानुसार देव डोरिया, पालकी मंदिर परिसर में दर्शन को रखी गई थी। बारिश के कारण बढ़ी ठंड में श्रद्धालु ठिठुरते हुए देव दर्शन को उमड़े। मंदिर समिति अध्यक्ष केदार सिंह के अनुसार मौसम खराब होने के बावजूद श्रद्धालुओं का दर्शन करने का क्रम घंटों तक चलता रहा।
अखरोट का प्रसाद पाने को मारामारी
  जौनसार के विभिन्न गांवों में भिरुड़ी पर्व पर गांव के स्याणा द्वारा फेंका जाने वाला प्रसाद पाने के लिए लोगों में काफी होड़ रही। परिवारों द्वारा मंदिरों में प्रसाद के रूप में चढ़ाए गए अखरोट जब गांव स्याणा ने अपनी छत से नीचे फेंके तो प्रसाद पाने के लिए लोगों में काफी मारामारी रही।(Source Dainik Jagran)

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यहाँ मनाते हैं मंगसीर में दीवाली
प्रस्तुति : कमलेश कुंवर
दीपावली का पर्व यमुना घाटी के जौनसार भाबर, जौनपुर व रवाँई के ग्रामीण अंचलों में एक विशिष्ट रूप में मनाया जाता है। पूरे देश से अलग यमुना घाटी में दीपावली मार्गशीर्ष माह में मनायी जाती है, इसलिये इसे मंगसीर की दीवाली भी कहा जाता है। इस त्यौहार के पीछे लोक मान्यता है कि भगवान रामचन्द्र के राज्याभिषेक का समाचार इस दूरस्थ जनजातीय क्षेत्र में एक महीने बाद पहुँचा और तभी यहाँ के लोगों ने यह त्यौहार हर्षोल्लास से मनाना प्रारम्भ किया। एक अन्य किंवदन्ती के अनुसार जब राम रावण का वध कर लौट रहे थे, उस समय इस जनजातीय क्षेत्र में एक राक्षस का आतंक था। उस समय इंद्र देवता ने इस राक्षस का वध करके क्षेत्र में शांति कायम की थी, जिसकी खुशी में यह त्यौहार मनाया जाता है।
दीपावली के इस पर्व को मंगसीर में मनाने का एक मुख्य कारण यहाँ का आर्थिक क्रियाकलाप एवं माधो सिंह भंडारी की स्मृति भी रही है। कार्तिक माह में लोग कृषि कार्यों में व्यस्त रहते हैं तथा इस त्यौहार को नहीं मना पाते। गढ़राज्य के सेनापति माधो सिंह भंडारी, जो उस समय तिब्बत में युद्धरत थे, कार्तिक माह की दीपावली को घर न पहुँच कर ठीक एक महीने बाद ही पहुँच पाये। इसलिये जौनपुर में एवं इससे सटे क्षेत्रों में यह त्यौहार उनके घर वापसी की खुशी में मनाया जाता है।
इस पर्व में लोग जंगलों से लकड़ी लाते हैं। युवक-युवतियों द्वारा भाँड (बावला) नामक घास की लम्बी रस्सी को अलग-अलग बाँटकर खींचा जाता है तथा शक्ति परीक्षण किया जाता है। कुछ लोग इसे समुद्र मंथन की घटना से जोड़ते हैं। किवदंतियों में इसे संगचूरणी सर्पणी का प्रतीक भी माना जाता है। बावला घास की इस रस्सी को संगचूरणी साँप के रूप में पूजा जाता है। यह खेल उस रस्सी के विभिन्न टुकड़ों में टूटने तक चलता रहता है। अंत में प्रसाद के रूप में लोग इसे घर ले जाते हैं। रात्रि को लकड़ी की मशाल बनाकर मेला खेला जाता है तथा लोकगीत व नृत्य प्रस्तुत किये जाते हैं। अमावस्या की रात्रि को गाँव के सभी नर-नारी आँगन में आकर होला जलाते हैं तथा स्थानीय देवी-देवताओं, महासू व पाण्डवों से संबंधित धार्मिक गीत गाये जाते हैं।
यमुना बेसिन के कुछ क्षेत्रों में दीवाली के दिन बाजगियों द्वारा सवेरा होने तक बाजार ‘नोमती’ (नौबती) बजाया जाता है, जिसकी आवाज सुनकर गाँव के बच्चे, युवा व वृद्ध जंगल से चीड़ या भीमल की सूखी लकड़ी लाते हैं तथा रात्रि को उसे जलाते हैं। पंचावती आँगन में वाद्ययंत्रों के साथ लोकगीत व नृत्य करते हैं। दूसरे दिन गाँव में पुरुण बाजार, जो कि हरियाली अपने कुल देवता को चढ़ाते हैं तथा उसे गाँव में वितरित करते हैं। इस दिन को ‘भिरूड़ी’ कहते हैं। इस अवसर पर हरियाली के गीत भी गाये जाते हैं और विभिन्न प्रकार के व्यंजन पूरी-पकौड़ी, पापड़ी, पिऊड़ा, दाल-चावल, खीर आदि बनाते जाते हैं। (source -http://www.nainitalsamachar.in/)

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भैलु जलाकर और छोलिया नृत्य कर मनाया पर्व

Uttar Kashi | December 14, 2012

उत्तरकाशी। जनपद के ग्रामीण इलाकों में मंगसीर की बग्वाल का पर्व हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। यहां दीपावली के एक माह बाद बग्वाल (दीपावली) मनाने की परंपरा है। नगर में अनघा माउंटेन एसोसिएशन की ओर से छोलिया नृत्य एवं भैलु प्रदर्शन की झांकी निकाली गई।

बृहस्पतिवार को गांवों में लोगों ने भैलु (देवदार के छिल्लों को भीमल के रेशों में बांध कर बनाई जाने वाली मशाल) जलाकर पारंपरिक पर्व को हर्षोल्लास के साथ मनाया। लुप्त होती जा रही परंपराओं को संरक्षित करने की मुहिम में जुटी अनघा माउंटेन एसोसिएशन ने नगर में झांकी निकाली।

भैरव चौक स्थित कंडार देवता से शुरू हुई झांकी नगर के मुख्य मार्गों से होते हुए गुजरी। इस दौरान विभिन्न चौराहों पर जागेश्वर कुमाऊं के छोलिया नृत्य तथा गढ़वाल के पारंपरिक भैलु का प्रदर्शन किया गया। (amar ujala)

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एक महीने बाद मनाई जाती है दीपावली

पूरे देश में रोशनी का त्योहार दीपावली जहाँ कार्तिक मास की अमावस्या को मनाई जाती है, वहीं उत्तराखंड में देहरादून जिले के जौनसार बावर और टिहरी, गढ़वाल एवं उत्तरकाशी जिले के रवांई क्षेत्र में एक महीने बाद मार्गशीष (अगहन) मास की अमावस्या को मनाई जाती है।[/color]भारत भूमि की उत्तर दिशा में बसा उत्तराखंड अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए दुनियाभर में विख्यात है। यहाँ स्थित देश के सिरमौर पहाड़ों के राजा हिमालय की बर्फ से ढँकी चोटियाँ, ऊँचे पर्वत शिखर तथा उनके बीच मौजूद गहरी घाटियाँ, कल-कल बहती नदियाँ सदैव हर किसी को आकर्षित करती हैं साथ ही यहाँ के रीति-रिवाज, खान-पान, मेले, त्योहार, रहन-सहन एवं बोली-भाषा हमेशा ही संस्कृति प्रेमियों के लिए शोध का विषय रहे हैं।[/color]देश के लोग जब कार्तिक मास की अमावस्या के दिन दीपावली का जश्न मनाने में मशगूल रहते हैं वहीं टिहरी, गढ़वाल और उत्तरकाशी के रवांई एवं देहरादून जिले के जौनसार बावर क्षेत्र के लोग सामान्य दिनों की भाँति अपने काम-धंधों में लगे रहते हैं। उस दिन यहाँ कुछ भी नहीं होता है।[/color]इसके ठीक एक महीने बाद मार्गशीष, अगहन, अमावस्या को यहाँ की दीपावली मनाई जाती है और यह चार-पाँच दिनों तक मनाई जाती है। इसे यहाँ पहाड़ी दीपावली देवलांग के नाम से जाना जाता है।[/color]इन क्षेत्रों में दीपावली का त्योहार एक महीने बाद मनाने का कोई ठीक इतिहास तो नहीं मिलता है, लेकिन इसके कुछ कारण भी लोग बताते हैं। कार्तिक महीने में किसानों की फसल खेतों और आँगन में बिखरी पड़ी रहती है, जिस कारण किसान अपने काम में व्यस्त रहते हैं और एक महीने बाद किसान सब कामों से फुरसत में होकर घर बैठता है। इसी कारण यहाँ दीपावली मनाई जाती है।

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कुछ लोगों का कहना है कि लंका के राजा रावण पर विजय प्राप्त कर रामचन्द्रजी कार्तिक महीने की अमावस्या को अयोध्या लौटे थे और इस खुशी में वहाँ दीपावली मनाई गई थी, लेकिन यह समाचार इन दूरस्थ क्षेत्रों में देर से पहुँचा इसलिए अमावस्या को ही केंद्र बिंदु मानकर ठीक एक महीने बाद दीपोत्सव मनाया जाता है।

एक अन्य प्रचलित कहानी के अनुसार एक समय टिहरी नरेश से किसी आदमी ने वीर माधोसिंह भंडारी की झूठी शिकायत की थी, जिस पर भंडारी को तत्काल दरबार में हाजिर होने का आदेश दिया गया। उस दिन कार्तिक मास की दीपावली थी।

रियासत के लोगों ने अपने प्रिय नेता को त्योहार के अवसर पर राज दरबार में बुलाए जाने के कारण दीपावली नहीं मनाई और इसके एक महीने बाद भंडारी के वापस लौटने पर अगहन के महीने में अमावस्या के दिन दीपावली मनाई गई।

ऐसा भी कहा जाता है किसी समय जौनसार-बावर क्षेत्र में सामूशाह नामक राक्षस का राज था जो बहुत निर्दयी तथा निरंकुश था। उसके अत्याचार से क्षेत्रीय जनता का जीना दूभर हो गया था। तब पूरे क्षेत्र की जनता ने अपने ईष्ट महासू देवता से उसके आतंक से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। महासू देवता ने लोगों की करुण पुकार सुनकर सामूशाह का अंत किया। उसी खुशी में यह त्योहार मनाया जाता है।

शिवपुराण एवं लिंग पुराण की एक कथानुसार एक समय प्रजापति ब्रह्मा और सृष्टि के पालनहार भगवान विष्णु में श्रेष्ठता को लेकर आपस में द्वंद्व होने लगा और वे एक दूसरे के वध के लिए तैयार हो गए। इससे सभी देवी-देवता व्याकुल हो उठे और उन्होंने देवाधिदेव शिवजी से प्रार्थना की।

शिवजी उनकी प्रार्थना सुनकर विवाद स्थल पर ज्योतिर्लिंग (महाग्नि स्तंभ) के रूप में दोनों के बीच खडे़ हो गए। उस समय आकाशवाणी हुई की तुम दोनों में से जो इस ज्योतिर्लिंग के आदि और अंत का पता लगा लेगा वही श्रेष्ठ होगा।

ब्रह्माजी ऊपर को उडे़ और विष्णुजी नीचे की ओर। कई सालों तक वे दोनों खोज करते रहे, लेकिन अंत में जहाँ से खोज में निकले थे वहीं पहुँच गए। तब दोनों देवताओं ने माना कि कोई हमसे भी श्रेष्ठ (बड़ा) है। जिस कारण दोनों उस ज्योतिर्मय स्तंभ को श्रेष्ठ मानने लगे।

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यहाँ महाभारत में वर्णित पांडवों का विशेष प्रभाव है। कुछ लोगों का कहना है कि कार्तिक मास की अमावस्या के समय भीम कहीं युद्ध में बाहर गए थे, इस कारण वहाँ दीपावली नहीं मनाई गई। जब वे युद्ध जीतकर आए तो खुशी में ठीक एक महीने के बाद दीपावली मनाई गई और यही परंपरा बन गई।

कारण कुछ भी हो, लेकिन यह दीपावली जिसे यहाँ नई दीवाली भी कहा जाता है, जौनसार, बावर के चार-पाँच गाँवों में मनाई जाती है। वह भी महासू देवता के मूल हनोल व अटाल के आसपास।

यहाँ एक परंपरा और है कि महासू देवता जो हमेशा भ्रमण पर रहते हैं तथा अपने निश्चित ग्रामीण ठिकानों में 10-12 सालों के बाद ही पहुँच पाते हैं। जिस गाँव में महासू देवता विश्राम करेंगे वहाँ उस साल नई दीवाली मनाई जाएगी, बाकी संपूर्ण क्षेत्र में बूढ़ी दीवाली ही मनाई जाएगी।

वैसे तो एक महीने बाद (मार्गशीष) अमावस्या को मनाई जाने वाली दीपावली उत्तराखंड के कई क्षेत्रों में यहाँ से लगे टिहरी के जौनपुर ब्लॉक, थौलधार, प्रतापनगर, उत्तरकाशी के रवांई, चमियाला, रूद्रप्रयाग तथा कुमाऊँ के कई इलाकों में मनाई जाती है। अन्य जगहों में दीपावली मनाने के जो भी कारण हों यहाँ बिलकुल भिन्न हैं।

यहाँ की दीपावली में न पटाखों का शोर, न बिजली के बल्बों व लड़‍ियों की चकाचौंध, न ही मोमबत्तियों की जगमगाहट होती है, बल्कि बिलकुल सामान्य तरीके से यहाँ आज भी दीपावली मनाई जाती है।

यह त्योहार वैसे तो अमावस्या से जुड़ा है, पर इसकी शुरुआत चतुर्दशी की रात से ही हो जाती है। इस रात सारे गाँव के लोग एक निश्चित जगह पर इकट्ठे होते हैं, वहाँ पर (ब्याठे) भीमल की छाल उतरी डंडिया, जलाकर पारंपरिक गीत गाते हैं जिन्हें (हुलियत) कहा जाता है।

बाजगी, गाँव में ढोल बजाने वाला अपने घर में कई दिन पहले जौ बोकर हरियाली तैयार करता है जिसे स्थानीय लोग दूब कहते हैं।

अमावस्या की रात को गाँव के सभी नर-नारी, बच्चे, बूढ़े़, पंचों को आँगन में इकट्ठा कर अपना पारंपरिक लोक नृत्य करते हैं तथा लोकगीत के माध्यम से अपने ईष्ट महासू देवता की आराधना करते हैं।

चतुर्दशी की भोर से प्रत्येक दिन चार बजे प्रातः जागकर अपने घर से व्याठे जलाकर निश्चित स्थान पर पहुँचते हैं तथा उजाला होने तक नृत्य एवं गीतों का दौर चलता रहता है। दीपावली के अंतिम दिन हमेशा की भाँति सुबह चार बजे सभी एकत्र होते हैं और उजाला होने पर अपने-अपने घरों को जाते हैं।

स्नान आदि से निवृत होकर सभी लोग एक जगह इकट्ठे होकर पूरे गाँव में बधाई देने को निकलते हैं। पुरुष, महिला, बालक, बालिका सभी अलग-अलग समूहों में निकलते हैं। इसी दिन यहाँ भिरूडी भी मनाया जाता है इसमें हर परिवार से 108 दाने अखरोट के माँगे जाते हैं। ये सभी को देने होते हैं।

जिनके घर में उस वर्ष लड़के का जन्म हुआ हो वह 200 दाने देगा ऐसा नियम है तथा उसका पालन भी होता है। यही दिन सर्वाधिक महत्व का होता है। दोपहर तीन बजे से ही लोग पंचों के आँगन में घिरने लगते हैं।

इसमें व्‍यवस्थानुसार बच्चे अलग, औरतें अलग, बूढ़ी महिलाएँ अलग तथा मर्द अलग रहते हैं। बूढ़ी महिलाओं को पहले ही उनका हिस्सा दिया जाता है। फिर अखरोटों की बरसात होती है और सभी लूटने के लिए उन पर टूट पड़ते हैं। चारों तरफ ऊँचे स्थानों से अखरोट फेंके जाते हैं। यह बेहद रोमांचकारी दृश्य होता है।

भिरूड़ी कार्यक्रम के बाद उसी स्थान पर बाजगी सभी लोगों के सिर में दूब लगाता है। इस क्रिया को हरिपाडी कहा जाता है। उसके पश्चात नृत्य किया जाता है। बीच में दो तलवारबाज एक-दूसरे पर प्रहार व बचाव करते हैं। यह इस समाज में युद्धप्रेमी होने की भावना को उजागर करता है। नृत्य में भी संघर्ष और बचाव यह साबित करता है कि यहाँ के लोग अपनी सुरक्षा के लिए सदैव संवेदनशील रहते हैं।

अँधेरा होने के बाद सभी लोग ढोल के साथ नाचते हुए गाँव के भ्रमण पर निकल पड़ते हैं। गाँव के चारों ओर होते हुए फिर उसी जगह पर पहुँचते हैं। इसे यहाँ मौव कहा जाता है। यहाँ पहुँचते ही सभी परिवारों के बडे़ भाई एक तरफ और छोटे भाई दूसरी तरफ खडे़ होते हैं और उनमें रस्साकशी होती है।

संघर्षपूर्ण वातावरण रहता है। फिर से नाच और गीतों का दौर चलता है। भोजन आदि के बाद फिर सभी एकत्र होते हैं और अब बारी आती है 20 फीट ऊँचे हाथी के नचाने की।


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इस विशालकाय हाथी पर गाँव का मुखिया सवार रहता है जिसके दोनों हाथों में तलवारें होती हैं जिन्हें वह रणक्षेत्र की भाँति घुमाता रहता है। हाथी को गाँव के 10-12 हट्टे-कट्टे नौजवान कंधों पर उठाए इधर-उधर पूरे आँगन में नचाते रहते हैं।

इनके थकने पर बीच-बीच में गाँव के ही कलाकार हास्य नाटक पेश कर मनोरंजन करते हैं। पूरी रात नृत्य, गीतों तथा संगीत को समर्पित रहती है जिसमें मुख्यतः ईष्ट महासू देवता की आराधना वीर रस और श्रृंगार रस के गीत होते हैं। इनमें एक गीत के बोल कुछ इस प्रकार हैं: वरमे ना जाई विरैसु वरमे जाई रै, सोडा तामी बहणो देया तु विरस छेवे लाइया।

पारंपरिक गीत में विरसू नामक महासू देवता का भंडारी यमुना नदी को पार करते समय बह जाता है जिसे एक मछली निगल लेती है और वह मछली दिल्ली में एक मछुआरे द्वारा पकड़ी जाती है।

वह उस मछली को एक व्यापारी को बेचता है लेकिन वह व्यापारी भी महासू देवता का भक्त था। हनोल स्थित मंदिर के लिए वह अनाज तथा नमक आदि भेजता था। उसकी संतानें आज भी इस परंपरा को निभाती हैं।

रातभर नृत्य के बाद आठ दिनों से भिगोए धान से तैयार च्यूडा को प्रसाद के रूप में सभी एक-दूसरे को देते हैं। आधुनिक युग की फटाफट जिंदगी का असर यहाँ भी पड़ा है, लेकिन फिर भी यहाँ अभी तक यह संस्कृति बची हुई है। नौकरीपेशा लोग इस दीपावली में आज भी सपरिवार घर पहुँच जाते हैं। (http://hindi.webdunia.com/n)

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जनजाति क्षेत्र जौनसार-बावर के कालसी व चकराता तहसील के ज्यादात्तार गांवों में बूढ़ी दीवाली को लेकर तैयारियों जोरों पर है। नए धान से व्यंजन बनाने के कारण हर घर से सौंधी महक उठने लगी है। तीन दिसबंर से पांच दिन तक चलने वाली जौनसारी दीवाली की खरीदारी के कारण बाजार में रौनक बढ़ गई है। बाड़वाला, विकासनगर, हरिपुर आदि क्षेत्रों में रहने वाले जौनसारी मूल के लोगों में भी बूढ़ी दीवाली को लेकर उत्साह नजर आ रहा है।

देश की दीपावली के ठीक एक माह बाद जौनसार क्षेत्र में बूढ़ी दीवाली मनाने की परंपरा है। 40 खतों में बंटे बावर की बावर, देवघार, मशक, लखौ, बाणाधार, फनार खतों के पांच दर्जन गांवों को छोड़ समूचे क्षेत्र में तीन दिसबंर को बूढ़ी दीवाली मनेगी। इसको लेकर जौनसार, कांडोई-बोंदूर, शिलगांव व कांडोई-भरम क्षेत्र के तीन सौ से ज्यादा गांवों में लोगों में उत्साह है। लोग पर्व के नजदीक आते ही खेती-बाड़ी का काम जल्द निपटाने में लगे हैं। ग्रामीण महिलाएं नए धान के व्यंजन बनाने में जुटी हैं। तैयार चिवड़ा को अखरोट-भंगजीरा के साथ मिलाकर खाया व परोसा जाता है।

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उत्तराखंड में 1 महीने बाद मनाई गई दिवालीयहां से 40 किलोमीटर दूर जनजातीय क्षेत्र जौनसार-बावर और रंवाई-जौनपुर में पिछले तीन दिन से जमकर दिवाली मनाई जा रही है। इस क्षेत्र में असली दिवाली (देश में मनाई जाने वाली आम दिवाली) के एक माह बाद दिवाली मनाई जाती है। दिवाली देशभर में भगवान राम के अयोध्या लौटने की खुशी में मनाई जाती है। यहां के लोगों का मानना है कि दूर दराज और बीहड़ होने के कारण इस क्षेत्र में यह खुशखबरी पूरे एक माह बाद पहुंची जिससे लोगों ने उसी समय दिवाली मनाई और वह परम्परा आज भी बदस्तूर जारी है।
 यह दिवाली कहीं दो दिन तो कहीं तीन दिन मनाई जाती है। इस दौरान शादी-शुदा महिलायें मायके आती हैं और घर में विभिन्न प्रकार के पकवान बनाये जाते हैं। रात को सारे गांव के लोग सामूहिक स्थल पर पहुंचकर भैलो (लकड़ी की मशाल) जलाते हैं और ढोल और दमाऊ की थाप पर महिलाएं और पुरुष नृत्य करते हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि ठंड का आगाज होते ही इस इलाके में खेती बाड़ी का कामकाज खत्म हो जाता हैं और इस दिवाली से इस इलाके में उत्सव और त्यौहारों व सामूहिक दावतों का दौर शुरू हो जाता है जिनमें शामिल होने के लिए हर शख्स कोशिश करता है। कड़ाके की ठंड के बावजूद लोग पूरी रात और दिनभर नाच गाकर जश्न मनाते हैं।



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