भाई-बहन के असीम प्यार का प्रतीक है भिटौली
गणेश पाण्डेय, दन्यां (Jagaran) : पर्वतीय क्षेत्रों में चैत्र के माह में ससुराल रह रही बहनों से भेट-घाट करने, उन्हें नये वस्त्र और उपहार देने तथा मां के हाथों तैयार खाद्य सामग्री देने का रिवाज काफी पुराना है। मायके की मधुर यादों में बहनें विचलित न हों इस लिए बसन्त ऋतु के आगमन पर चैत्र माह में बहनों से मिलने को भिटौली देना कहते हैं। समूचे कुमाऊं में चैत्र माह की भिटौली भाई बहनों के बीच असीम प्यार की द्योतक मानी जाती है।
बसन्त ऋतु के आगमन पर चैत्र माह की संक्रान्ति फूलदेई के दिन से बहनों को भिटौली देने का सिलसिला शुरू हो जाता है। यह रिवाज काफी पहले से चला आ रहा है। चैत के महिने में विवाहिता लड़कियों को अपने मायके की मधुर यादें सताती हैं। बसन्त ऋतु के आगमन से छायी हरियाली, कोयल, न्योली व अन्य पक्षियों का मधुर कलरव, सरसों, फ्यूली, मटर, गेहूं आदि से लहलहाते खेत, घर घर जाकर बचपन में फूलदेई का त्यौहार मनाना, और भाभियों के संग रंगों के त्यौहार होली का अल्हड़ आनन्द लेना उसे बरबस याद आने लगता है। सुदूर ससुराल में विवाहिता लड़कियों को मायके का नि:श्वास न लगे इस लिए मायके वाले प्रतिवर्ष चैत माह में उनसे मुलाकात करने पहुंच जाते हैं। मां द्वारा तैयार किस्म किस्म के पकवान, नये वस्त्र और तरह तरह के उपहार बहनों को भेजने का प्रचलन है। कुमाऊं के ग्रामीण इलाकों में परम्परागत मान्यताओं का यह अनोखा रिवाज अभी भी जीवंत है। बहने मायके से आये पकवान और मिठाई को अपने आस पड़ोस बांट कर अपने मायके की कुशल क्षेम सबको बताती हैं। शहरों और कस्बों में इस परम्परा पर आधुनिकता की हवा लग गई है। अब मायके से बहनों को मनीआर्डर भेज कर भिटौली देने की रस्म अदायगी की जाने लगी है। शहरों में अब बहनें अपने लाड़ले भइया का इंतजार करने के बजाय पोस्टमैनों को इंतजार करती हैं। भिटौली देने का स्वरूप भले ही आधुनिकता की हवा के चलते बदल गया हो लेकिन अत्यंत व्यस्त और भागम-भाग जीवन शैली के बावजूद यह माता-पिता और भाई बैणियों की याद से अवश्य जुड़ा हुआ है।