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  • चैत्र नवरात्र प्रारम्भ: April 04, 2011

Author Topic: Chaitra Navratras - चैत्र नवरात्र : नौर्त- मां दुर्गा के नौ रुपों  (Read 58536 times)

हलिया

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Re: चैत्र नवरत्र
« Reply #20 on: April 04, 2008, 02:50:15 PM »
पंत ज्यू म्यार ख्याल ले व्वि दिन एक "स्पेशल" थ्रेड खोलि दिया हो महाराज और पाठक ज्यू "औनलाइन" सम्बतसर सुणा द्याला, कसो रौलो?   ;D

दशौली का पाठक ज्यू बटी संवत्सर सुणनाकि मिल ग्यो.. हमार त भाग जागि ग्या...

पण्डितज्यू मेर राशि 'कर्क' छ. भलि-भलि राशिफल सुणाया
;D

हेम पन्त

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Re: चैत्र नवरत्र
« Reply #21 on: April 04, 2008, 02:55:56 PM »
Bahut sundar vichaar hai Raaju da

हलिया

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Re: कैसे मनाएं नवरात्र
« Reply #22 on: April 04, 2008, 03:04:17 PM »
ऐसे मनाएं नवरात्र

नवरात्र के दौरान उपवास रखने के समय एक बार ही भोजन लें और एक ही बार में पूरा खाना समाप्त करें। भोजन शुद्ध शाकाहारी होना चाहिए और इसे बनाने के समय लहसुन और प्याज का उपयोग नहीं करना चाहिए। सर्वप्रथम भक्तगण प्रार्थना कर सकते हैं और माता रानी को भोजन अर्पित कर फिर प्रसाद के रूप में इसे पा सकते हैं।

भोजन शुरू और अंत के समय जय माता दी का उच्चरण 9 बार करना चाहिए। ज्यादा अच्छा होता है कि भोजन सूर्यास्त के बाद ग्रहण किया जाए। पूरे दिन भक्तगण फलाहार, जूस और दूध  का सेवन कर सकते हैं।

हालांकि कुछ लोग पूरे दिनभर फल और तरल पदार्थो का सेवन कर ही रह जाया करते हैं। यह मामला पूरी तरह से भक्तों के विवेक पर ही निर्भर करता है।

>> नवरात्र के पूरे समय भक्तों को अपने दिमाग, शरीर और विचार को शुद्ध रखना आवश्यक होता है। प्रयास यह होना चाहिए कि भक्त रोज मां भवानी के मंदिर में जाए और प्रार्थना करे। प्रत्येक दिन आरती में शामिल होना भी अच्छा माना जाता है। आप प्रार्थना की शुरुआत गणेश जी का नाम लेकर गणेश वंदना के साथ कर सकते हैं।

>> मां की प्रतिमा या तस्वीर के सामने ज्योति अवश्य जलाएं। माता रानी को जोतांवाली भी कहा जाता है क्योंकि ज्वालामयी प्रकाश या आंच में उनका वास माना जाता है।

>> इस पूरी अवधि के दौरान जमीन पर दरी बिछाकर सोना श्रेयस्कर माना जाता है।

>> इस दौरान दाढ़ी, बाल या नाखून बनाना वर्जित माना जाता है।

>> उपवास के दौरान चमड़े और काले कपड़ों का प्रयोग निषिद्ध है।

>> इन्द्रिय विषयक विकारों और जनन या प्रसव से दूर रहना चाहिए।

>> माता रानी को प्रसाद के रूप में हलवा, पूरी और चने का भोग लगाना चाहिए।

>> अगर संभव हो तो कन्या को इस दौरान रोज खिलाना चाहिए। उपवास के अंत में 9 कन्याओं को एक साथ भी खिलाया जा सकता है। अगर ये दोनों संभव ना हो तो कन्याओं के बीच में ताजे फलों और ड्राई फ्रूटस का वितरण कर देना चाहिए।

>> मांस, मदिरा और अंडों से दूर रहना चाहिए। अगर आपको स्वास्थ्य संबंधी कुछ शिकायतें हैं तो किसी प्रकार की दवा या भोजन से परहेज नहीं करना चाहिए।


जय माता दी




हलिया

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Re: चैत्र नवरत्र
« Reply #23 on: April 04, 2008, 03:11:54 PM »



ॐजयंती मङ्गलाकाली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधानमोऽस्तुते॥

देहिसौभाग्यमारोग्यंदेहिमेपरमंसुखम्॥
रूपंदेहिजयंदेहियशोदेहिद्विषोजहि।

Risky Pathak

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Re: चैत्र नवरत्र
« Reply #24 on: April 04, 2008, 03:18:59 PM »
Jai Maata Ki...

हलिया

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Re: चैत्र नवरत्र : जय माता की
« Reply #25 on: April 04, 2008, 04:03:18 PM »

जय माता की



प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्॥3॥

पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्॥4॥
नवं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:

पंकज सिंह महर

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चैत्र शुक्ल नवरात्र प्रारंभ 6 अप्रैल से : शक्ति से शक्ति की कामना का पर्व
 
       शक्ति की आराधना का पर्व है नवरात्रि। शक्ति के बिना शिव भी शव के समान हैं। इस शक्ति से समूचा ब्रह्मांड संचालित होता है। शक्ति की आराधना के यह नौ दिन अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण होते हैं। कहते हैं कि इन नौ दिनों में ब्रह्मांड की समूची शक्तियाँ जाग्रत हो जाती हैं। इसी शक्ति से विश्‍व का सृजन हुआ, यही शक्ति दुष्‍टों का संहार करती है और इसी शक्ति की आराधना का पर्व है नवरात्रि।

      नवरात्रि अर्थात महाशक्ति की आराधना का पर्व। नवरात्रि में माँ दुर्गा के नौ रूपों की तिथिवार पूजा-अर्चना की जाती है। देवी दुर्गा के यह नौ रूप हैं- शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्‍मांडा, स्‍कंदमाता, कात्‍यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री।

पंकज सिंह महर

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संवप्सर प्रतिपदा

चैत शुक्ल पड़वा वर्ष के आरंभ में होती है। इस दिन कहीं-कहीं नवदुर्गा की मूर्ति स्थापित की जाती है। हरेला भी बोया जाता है। देवी के उपासक नवरात्र-व्रत करते हैं। चंडी का पाठ होता है। संवप्सर प्रतिपदा को पंडितों से पंचांग का शुभाशुभ फल सुनते हैं।

पंकज सिंह महर

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यह चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा से लेकर रामनवमी तक मनाया जाता है ।  इन दिनों भगवती दुर्गा पूजा तथा कन्या पूजन का विधान है ।

प्रतिपदा के दिन घट-स्थापना एवं जौ बोने की क्रिया की जाती है ।  नौ दिन तक ब्राहमण द्घारा या स्वयं देवी भगवती दुर्गा का पाठ कराने का विधान है ।

कथा : प्राचीन समय में सुरथ नाम के राजा थे ।  राजा प्रजा की रक्षा में उदासीन रहने लगे थे ।  परिणामस्वुप पड़ोसी राजा ने उस पर चढ़ाई कर दी ।  सुरथ की सेना भी शत्रु से मिल गई थी ।  परिणामस्वरुप राजा सुरथ की हार हुई और वह जान बचाकर जंगल की तरफ भाग गया ।

उसी वन में समाधि नामक एक वणिक अपनी स्त्री एवं संतान के दुर्व्यवहार के कारण निवास करता था ।  उसी वन में वणिक समाधि और राजा सुरथ की भेंट हुई ।  दोनों में परस्पर परिचय हुआ ।  वे दोनों घूमते हुए महर्ष मेघा के आश्रम में पहुँचे ।  महर्ष मेघा ने उन दोनों के आने का कारण जानना चाहा तो वे दोनों बोले कि हम अपने ही सगे-सम्बन्धियों द्घारा अपमानित एवं तिरस्कृत होने पर भी हमारे हृदय में उनका मोह बना हुआ है, इसका क्या कारण है ।

महर्षि मेघा ने उन्हें समझाया कि मन शक्ति के आधीन होता है और आदि शक्ति के विघा और अविघा दो रुप है ।  विघा ज्ञान-स्वरुप है और अविघा अज्ञान स्वरुपा ।  जो व्यक्ति अविघा (अज्ञान) के आदिकरण रुप में उपासना करते है, उन्हें वे विघा स्वरुपा प्राप्त होकर मोक्ष प्रदान करती है ।

इतना सुन राजा सुरथ ने प्रश्न किया – हे महर्षि ।  देवी कौन है ।  उनका जन्म कैसे हुआ ।  महर्ष बोले – आप जिस देवी के विषय में पूछ रहे है वह नित्य स्वरुपा और विश्व व्यापिनी है ।  उसके बारे में ध्यानपूर्वक सुनो ।  कल्पांत के समय विष्णु भगवान क्षीर सागर में अनन्त शैय्या पर शयन कर रहे थे, तब उनके दोनों कानों से मधु और कैटभ नामक दो दैत्य उत्पन्न हुए ।  वे दोनों विष्णु की नाभि कमल से उत्पन्न ब्रहमाजी को मारने दौड़े ।  ब्रहमाजी ने उन दोनों राक्षसों को देखकर विष्णुजी की शरण में जाने की सोची ।  परन्तु विष्णु भगवान उस समय सो रहे थे ।  तब उन्होंने विष्णु भगवान को जगाने हेतु उनके नयनों में निवास करने वाली योगनिद्रा की स्तुति की ।

परिणामस्वरुप तमोगुण अधिष्ठात्री देवी विष्णु भगवान के नेत्र, नासिका, मुख तथा हृदय से निकलकर ब्रहमा के सामने उपस्थित हो गई ।  योगनिद्रा के निकलते ही विष्णु भगवान उठकर बैठ गये ।  भगवान विष्णु और उन राक्षसों में पाँच हजार वर्षों तक युद्घ चलता रहा ।  अन्त में मधु और कैटभ दोनों राक्षस मारे गये ।

ऋषि बोले – अब ब्रहमाजी की स्तुति से उत्पन्न महामाया देवी की वीरता तथा प्रभाव का वर्णन करता हूँ, उसे ध्यानपूर्वक सुनो ।

एक समय देवताओं के स्वामी इन्द्र और दैत्यों के स्वामी महिषासुर में सैंकड़ो वर्षो तक घनघोर संग्राम हुआ ।  इस युद्घ में देवराज इन्द्र की पराजय हुई और महिषासुर इन्द्रलोक का स्वामी बन बैठा ।

अब देवतागण ब्रहमा के नेतृत्व में भगवान विष्णु और भगवान शंकर की शरण में गये ।

देवताओं की बातें सुनकर भगवान विष्णु तथा भगवान शंकर क्रोधित हो गये ।  भगवान विष्णु के मुख तथा ब्रहमा, शिवजी तथा इन्द्र आदि के शरीर से एक तेज पुंज निकला जिससे समस्त दिशाएँ जलने लगी और अन्त में यही तेज पुंज एक देवी के रुप में परिवर्तित हो गया ।

देवी ने सभी देवताओं से आयुद्घ एवं शक्ति प्राप्त करके उच्च स्वर में अट्टहास किया जिससे तीनों लोकों में हलचल मच गई ।

महिषासुर अपनी सेना लेकर इस सिंहनाद की ओर दौड़ा ।  उसने देखा कि देवी के प्रभाव से तीनों लोक आलोकिक हो रहे है ।

महिषासुर की देवी के सामने एक भी चाल सफल नहीं हुई और वह देवी के हाथों मारा गया ।  आगे चलकर यही देवी शुम्भ और निशुम्भ राक्षसों का वध करने के लिये गौरी देवी के रुप में अवतरित हुई ।

इन उपरोक्त व्याख्यानों को सुनाकर मेघा ऋषि ने राजा सुरथ और वणिक से देवी स्तवन की विधिवत व्याख्या की ।

राजा और वणिक नदी पर जाकर देवी की तपस्या करने लगे ।  तीन वर्ष घोर तपस्या करने के बाद देवी ने प्रकट होकर उन्हें आर्शीवाद दिया ।  इससे वणिक संसार के मोह से मुक्त होकर आत्मचिंतन में लग गया और राजा ने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके आपना वैभव प्राप्त कर लिया ।

पंकज सिंह महर

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नवरात्र: शक्ति की उपासना का उत्तम काल

या देवी सर्वभूतेषू शक्ति रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥


जो देवी संसार के समस्त प्राणियों में शक्ति के रूप में स्थित हैं, उस शक्ति स्वरूपा पराम्बा माता दुर्गा को बारम्बार नमस्कार है।

संसार में जितनी वस्तुएं दिखाई देती हैं। सभी के अधिष्ठात्र देवता बतलाए गए हैं, परंतु अति महत्वपूर्ण है, शक्ति एवं शक्ति का उपयोग। शक्ति के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। यदि यह कहा जाए कि शक्ति का प्रयोग न जानने वाला शक्ति होते हुए भी शक्ति विहीन है। परिणामस्वरूप श्री दुर्गा सप्तशती में मधु कैटभ, चामुण्ड, इत्यादि ऐसे भयंकर असुरों का वर्णन आता है, जिनके पास अथाह शक्ति थी। परंतु उस शक्ति का उपयोग अति निकृष्ट था। श्री दुर्गा सप्तशती के प्रथम अध्याय में दो ऐसे असुरों का वर्णन मिलता है, जिन्होंने भगवान विष्णु से कई वर्ष तक युद्ध किया। भगवान विष्णु ने चिंतन किया कि इन्हें शक्ति प्राप्त है। युद्ध से जीता नहीं जा सकता। महामाया  की प्रेरणा से बुद्धिरूप में स्थित देवी का ध्यान किया और उन दैत्यों से कहा कि हम तुमसे अति प्रसन्न हैं, वर मांगो। दैत्यों ने हंस कर कहा की वर तुम नहीं हम देंगे, क्योंकि हमारे पास शक्ति है। मांगो क्या मांगते हो। भगवान विष्णु ने कहा कि यदि तुम दोनों हमसे प्रसन्न हो तो मुझे यह वर दो कि तुम दोनों मेरे हाथों मारे जाओ। और उन्हें वर देना पड़ा तथा वरदान के बाद उनका बध हो गया। शक्ति का उपयोग शक्तिमान व्यक्ति उचित तरीके से नहीं करता है, तो उसका विनाश शीघ्र हो जाता है। परंतु शक्ति अर्जित कैसे की जाए, यह विचारणीय प्रश्न है। 

वर्ष में चार नवरात्रों का वर्णन मिलता है। दो गुप्त एवं दो प्रत्यक्ष। प्रत्यक्ष दो नवरात्रों में एक को शारदीय नवरात्र व दूसरे को वासन्तिक नवरात्र कहा जाता है। शारदीय अर्थात शरद ऋतु में पड़ने वाला नवरात्र। नवरात्र में नव शब्द संख्यावाची भी है तथा नवीनता का द्योतक भी। नवदुर्गा: प्रकीर्तिता: के अनुसार माता दुर्गा के नव स्वरूपों का व‌र्णन मिलता है और ये स्वरूप नवीन है, नए-नए हैं। अर्थात् माता दुर्गा के नवों स्वरूपों में उल्लास के साथ रत हो जाना, लग जाना, ध्यानावस्थित हो जाना, नवरात्र की एक परिभाषा हो सकती है।

अब किसी नवीनता को प्राप्त करने के लिए प्राचीनता को बदलना होगा, इस पर विचार करना होगा। इस परिपे्रक्ष्य में पौरोहित्य शास्त्र पहला सूत्र देता है, संकल्प का। संकल्प का अर्थ है सम्यक् तरीके से कल्पना की जाए। आज कल्पना ही सम्यक् नहीं है। सम्यक् शब्द का अभिप्राय उचित है। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति को शक्ति के अर्जन में प्रथम पीढ़ी के रूप में संकल्प लेना चाहिए।

नवरात्र की पूर्व संध्या में मन में साधक यह संकल्प लेता है कि मुझे शक्ति की उपासना करनी है। उसके बाद बनाई गई योजनाओं को कार्यान्वित करना होगा। मानव मस्तिष्क की यह व्यवस्था है कि योजनाओं को किस प्रकार मूर्तरूप प्रदान किया जाए। शक्ति पूजक को चाहिए कि वह रात्रि में शयन ध्यानपूर्वक करें। प्रात: काल उठकर भगवती का स्मरण कर ही नित्य क्रिया प्रारम्भ करनी चाहिए। नीतिगत कार्यो से जुड़कर अनीतिगत कार्यो को उपेक्षित करनी चाहिए। सत्य का आचरण करना चाहिए। आहार संबंधी पवित्रता का ध्यान रखना चाहिए। दूसरे के अपकार का चिंतन न करें। नवरात्र में सम्यक् प्रकार से सत्याचरण करते हुए व्यक्ति शक्ति का अर्जन कर सकता है।

 

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