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  • चैत्र नवरात्र प्रारम्भ: April 04, 2011

Author Topic: Chaitra Navratras - चैत्र नवरात्र : नौर्त- मां दुर्गा के नौ रुपों  (Read 64734 times)

पंकज सिंह महर

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श्री दुर्गा चालीसा   

नमो नमो दुर्गे सुख करनी । नमो नमो अम्बे दुःख हरनी ।।

निराकार है ज्योति तुम्हारी । तिहूं लोक फैली उजियारी ।।

शशि ललाट मुख महा विशाला । नेत्र लाल भृकुटी विकराला ।।

रुप मातु को अधिक सुहावे । दरश करत जन अति सुख पावे ।।

तुम संसार शक्ति लय कीना । पालन हेतु अन्न धन दीना ।।

अन्नपूर्णा हुई जग पाला । तुम ही आदि सुन्दरी बाला ।।

प्रलयकाल सब नाशन हारी । तुम गौरी शिव शंकर प्यारी ।।

शिव योगी तुम्हरे गुण गावें । ब्रहृ विष्णु तुम्हें नित ध्यावें ।।

रुप सरस्वती को तुम धारा । दे सुबुद्घि ऋषि मुनिन उबारा ।।

धरा रुप नरसिंह को अम्बा । प्रगट भई फाड़कर खम्बा ।।

रक्षा कर प्रहलाद बचायो । हिरणाकुश को स्वर्ग पठायो ।।

लक्ष्मी रुप धरो जग माही । श्री नारायण अंग समाही ।।

क्षीरसिन्धु में करत विलासा । दयासिन्धु दीजै मन आसा ।।

हिंगलाज में तुम्हीं भवानी । महिमा अमित न जात बखानी ।।

मातंगी धूमावति माता । भुवनेश्वरि बगला सुखदाता ।।

श्री भैरव तारा जग तारिणि । छिन्न भाल भव दुःख निवारिणी ।।

केहरि वाहन सोह भवानी । लांगुर वीर चलत अगवानी ।।

कर में खप्पर खड्ग विराजे । जाको देख काल डर भाजे ।।

सोहे अस्त्र और तिरशूला । जाते उठत शत्रु हिय शूला ।।

नगर कोटि में तुम्ही विराजत । तिहूं लोक में डंका बाजत ।।

शुम्भ निशुम्भ दानव तुम मारे । रक्तबीज शंखन संहारे ।।

महिषासुर नृप अति अभिमानी । जेहि अघ भार मही अकुलानी ।।

रुप कराल कालिका धारा । सेन सहित तुम तिहि संहारा ।।

परी गाढ़ सन्तन पर जब जब । भई सहाय मातु तुम तब तब ।।

अमरपुरी अरु बासव लोका । तब महिमा सब रहें अशोका ।।

ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी । तुम्हें सदा पूजें नर नारी ।।

प्रेम भक्ति से जो यश गावै । दुःख दारिद्र निकट नहिं आवे ।।

ध्यावे तुम्हें जो नर मन लाई । जन्म-मरण ताको छुटि जाई ।।

जोगी सुर मुनि कहत पुकारी । योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी ।।

शंकर आचारज तप कीनो । काम अरु क्रोध जीति सब लीनो ।।

निशिदिन ध्यान धरो शंकर को । काहू काल नहिं सुमिरो तुमको ।।

शक्ति रुप को मरम न पायो । शक्ति गई तब मन पछतायो ।।

शरणागत हुई कीर्ति बखानी । जय जय जय जगदम्ब भवानी ।।

भई प्रसन्न आदि जगदम्बा । दई शक्ति नहिं कीन विलम्बा ।।

मोको मातु कष्ट अति घेरो । तुम बिन कौन हरै दुःख मेरो ।।

आशा तृष्णा निपट सतवे । मोह मदादिक सब विनशावै ।।

शत्रु नाश कीजै महारानी । सुमिरों इकचित तुम्हें भवानी ।।

करौ कृपा हे मातु दयाला । ऋद्घि सिद्घि दे करहु निहाला ।।

जब लगि जियौं दया फल पाऊँ । तुम्हरो यश मैं सदा सुनाऊँ ।।

दुर्गा चालीसा जो नित गावै । सब सुख भोग परम पद पावै ।।

देवीदास शरण निज जानी । करहु कृपा जगदम्ब भवानी ।।

Risky Pathak

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Navraatro ki aap sab ko haardik shubh KaamNaaye....

Maa Bhagwati aap sab par apni kripa bnaaye rakhe

पंकज सिंह महर

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प्रथम शैलपुत्री

भगवती दुर्गा का प्रथम स्वरूप भगवती शैलपुत्रीके रूप में है। हिमालय के यहां जन्म लेने से भगवती को शैलपुत्रीकहा गया। भगवती का वाहन वृषभ है, उनके दाहिने हाथ में त्रिशूल और बायें हाथ में कमल का पुष्प है। इस स्वरूप का पूजन आज के दिन किया जाएगा।

आवाहन, स्थापना और विसर्जन ये तीनों आज प्रात:काल ही होंगे। किसी एकांत स्थल पर मृत्तिका से वेदी बनाकर उसमें जौ, गेहूं, बोयें। उस पर कलश स्थापित करें। कलश पर मूर्ति स्थापित करें, भगवती की मूर्ति किसी भी धातु अथवा मिट्टी की हो सकती है। कलश के पीछे स्वास्तिकऔर उसके युग्म पा‌र्श्व में त्रिशूल बनायें। जिस कक्ष में भगवती की स्थापना करें, उस कक्ष के उत्तर और दक्षिण दिशा में दो-दो स्वास्तिकपिरामिड लगा दें।

ध्यान:-वन्दे वांछितलाभायाचन्द्रार्घकृतशेखराम्।

वृषारूढांशूलधरांशैलपुत्रीयशस्विनीम्।

पूणेन्दुनिभांगौरी मूलाधार स्थितांप्रथम दुर्गा त्रिनेत्रा।

पटाम्बरपरिधानांरत्नकिरीठांनानालंकारभूषिता।

प्रफुल्ल वंदना पल्लवाधंराकातंकपोलांतुगकुचाम्।

कमनीयांलावण्यांस्मेरमुखीक्षीणमध्यांनितम्बनीम्।


स्तोत्र:-प्रथम दुर्गा त्वंहिभवसागर तारणीम्।

धन ऐश्वर्य दायनींशैलपुत्रीप्रणमाम्हम्।

चराचरेश्वरीत्वंहिमहामोह विनाशिन।

भुक्ति मुक्ति दायनी,शैलपुत्रीप्रणमाम्यहम्।

कवच:-ओमकार: मेशिर: पातुमूलाधार निवासिनी

हींकारपातुललाटेबीजरूपामहेश्वरी।

श्रींकारपातुवदनेलज्जारूपामहेश्वरी।

हुंकार पातुहृदयेतारिणी शक्ति स्वघृत।

फट्कार:पातुसर्वागेसर्व सिद्धि फलप्रदा।


शैलपुत्रीके पूजन से मूलाधार चक्र जाग्रत होता है, जिससे अनेक प्रकार की उपलब्धियां होती हैं।
 

पंकज सिंह महर

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या देवी सर्वभू‍तेषु माँ शैलपुत्री रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।। 
 

अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और शैलपुत्री के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ।
इसी प्रकार रक्षा कवच भी है, जिसकी आराधना से आपकी दसों दिशाओं से रक्षा होती है और अनेक दुर्घटनाओं और बलाओं से आप बचे रहेंगे।

पंकज सिंह महर

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माँ दुर्गा का पहला स्वरूप 'शैलपुत्री' है। पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण इनका यह नाम पड़ा था। वृषभ-स्थिता इन माताजी के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएँ हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित है। पूर्व जन्म में माता ने प्रजापति दक्ष के घर में कन्या 'सती' के रूप में जन्म लिया था। इनका विवाह भोलेनाथ से हुआ था।

एक बार दक्ष ने बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन किया। इसमें उन्होंने सारे देवताओं को तो निमंत्रण दिया लेकिन शंकरजी को बुलावा नहीं भेजा। सती को जब पिताजी द्वारा कराए जा रहे यज्ञ की जानकारी मिली तो वह भी इसमें शामिल होने के लिए लालायित हो उठीं।

शंकरजी के मना करने पर भी सती की इच्छा कम नहीं हुई क्योंकि भगवन् का कहना था कि जब हमें निमंत्रण नहीं मिला है तो हमारा जाना उचित नहीं। लेकिन सती तो सती ठहरीं, वह तो अपने निर्णय से टस से मस नहीं हुईं। अंतत: महादेव ने उन्हें जाने की आज्ञा दे दी।

पिता के घर पहुँचने पर सती का ठीक से आदर-सत्कार भी नहीं किया गया। इसके विपरीत उनके पिता प्रजा‍पति दक्ष ने शंकरजी को अनाप-शनाप बकना शुरू कर दिया। इससे सती बहुत दु:खी हुईं। उनका हृदय दु:ख और विशाद से भर गया। अत्यंत क्रोध भी आया और मन ही मन उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ कि आखिर उन्होंने शंकरजी की बात क्यों नहीं मानी और क्यों यहाँ आईं।

सती ने क्रोध और दु:ख की अग्नि में जलते हुए वहाँ हो रहे यज्ञ की अग्नि में स्वयं को भस्म कर लिया। इसके बाद शंकरजी ने क्रोधित होकर यज्ञ का पूरी तरह से विध्वंस कर दिया। अगले जन्म में सती ने शैलराज हिमालय की पुत्री 'पार्वती' के रूप में जन्म लिया और तपस्या कर शिवजी को प्रसन्न कर उन्हें अपने पति के रूप में पाने का वर माँगा।

शैलपुत्री, हेमवती नाम से भी उन्हें जाना गया। नवरा‍त्रि पर्व में प्रथम दिन इन्हीं की पूजा-अर्चना की जाती है। इस दिन ऐसी महिलाओं की जिनकी नई-नई शादी हुई हो उनका घर बुलाकर पूजन करने के बाद वस्त्र, आभूषण और सुहाग आदि की वस्तुएँ भेंट करना चाहिए।

हलिया

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हलिया

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धन्यबाद हो महर ज्यू, बढि़या जानकारी द्यो आफ़ुले.
जय माता की.

पंकज सिंह महर

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या देवी सर्वभूतेषु,
विद्या रूपेण संस्थिता:,
नमस्त्स्यै, नमस्त्स्यै, नमस्त्स्यै, नमो नमः.


"प्रथमं शैलपुत्री" के बाद माँ का दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी का है अर्थात " द्वितीयं ब्रह्मचारिणीं "।
माँ श्वेत धवल वस्त्रों मे अत्यंत तेजोमयी प्रतीत होती हैं। उनके दाहिने हाथ मे माला और बांये हाथ में कमंडलु सुशोभित है। वे धरती पर खड़ी हैं। माँ का यह रुप भक्तों और सिद्धों को अनंत फल देने वाला है। इनकी उपासना से मनुष्य मे तप,वैराग्य ,सदाचार और संयम की वृद्धि होती है। माँ की कृपा से उसे सर्वत्र सिद्धि और विजय की प्राप्ति होती है।

सर्वमंगलमाङ्ल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके ,
शरण्ये त्रयम्बके गौरी नारायणी नमोऽस्तु ते।


नारायणी ! तुम सब प्रकार का मंगल प्रदान कराने वाली मंगलमयी हो। कल्याणकारिणी शिवा हो। सब पुरुषार्थ को सिद्ध करने वाली , शरणागत वत्सला , तीन नेत्रों वाली एवं गौरी हो। तुम्हें नमस्कार है.[/b][/color]

पंकज सिंह महर

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सप्‍तश्र्लोकी दुर्गा  
 
देवि त्वं भक्तसुलभे सर्वकार्यविधायिनी।
कलौ हि कार्यसिद्धयर्थमुपायं ब्रूहि यत्रतः॥

देव्युवाच

श्रृणु देव प्रवक्ष्यामि कलौ सर्वेष्टसाधनम्‌।
मया तवैव स्नेहेनाप्यम्बास्तुतिः प्रकाश्यते॥

विनियोगः

ॐ अस्य श्रीदुर्गासप्तश्लोकीस्तोत्रमन्त्रस्य नारायण ऋषिः अनुष्टप्‌ छन्दः, श्रीमह्मकाली महालक्ष्मी महासरस्वत्यो देवताः, श्रीदुर्गाप्रीत्यर्थं सप्तश्लोकीदुर्गापाठे विनियोगः।

ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हिसा।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति॥

दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।

दारिद्र्‌यदुःखभयहारिणि त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता॥

सर्वमंगलमंगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते॥

शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तुते॥

सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तुते॥

रोगानशोषानपहंसि तुष्टा रूष्टा तु कामान्‌ सकलानभीष्टान्‌।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्माश्रयतां प्रयान्ति॥

सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्र्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्यद्वैरिविनाशनम्‌॥

॥ इति श्रीसप्तश्लोकी दुर्गा संपूर्णम्‌ ॥
 
 

हलिया

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तू है एक रूप अनेक तेरे गुणन की गिनती नहीं:










 

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