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उत्तराखंड में पशुबलि की प्रथा बंद होनी चाहिए !

हाँ
53 (69.7%)
नहीं
15 (19.7%)
50-50
4 (5.3%)
मालूम नहीं
4 (5.3%)

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Author Topic: Custom of Sacrificing Animals,In Uttarakhand,(उत्तराखंड में पशुबलि की प्रथा)  (Read 60332 times)

दीपक पनेरू

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मर्तोली गांव में 50 साल पहले तक होती थी पशुबलि

      सीमांत क्षेत्र में बसे लोग भी विकास की ओर कदम बढ़ा रहे हैं। अंधविश्र्वास   व रूढि़यों से मुक्त होकर नये समाज में प्रवेश हो रहा है। मर्तोली गांव के   लोग अब कुमाऊं में गहरी पैठ जमा चुके पशुबलि प्रथा पर खुद ही रोक लगा रहे   हैं। विडंबना यह है कि इस विकास की दौड़ में गांव वीरान हो गया है।    हल्द्वानी से 356 किलोमीटर दूर 3310 मीटर ऊंचाई पर बसे करीब एक दर्जन   मर्तोली गांवों में 350 परिवार निवास करते थे। यहां पर पांच हजार साल   पुराना देवी अवतार के सात बहनों में पंचम मां नंदा देवी की भव्य प्रतिमा   स्थापित है। अन्य गांवों की तरह यहां पर भी अपने इष्टदेव को प्रसन्न करने   के लिए नंदाष्टमी पर प्रतिवर्ष 600 से अधिक बकरे और 10 से अधिक भैंसों की   बलि दी जाती थी। विकास के साथ ही लोगों ने अंधविश्र्वास व रुढि़यों से   छुटकारा पाना के लिए 1959 में पुंडरिकाक्ष महाराज व ग्रामीणों के बीच बैठक   हुई और 1960 से इस मंदिर में बलि प्रथा पर रोक लग गयी। विकास के पथ पर   निरंतर अग्रसर होते हुए धीरे-धीरे लोग यहां से पलायन कर गये और देश-विदेश   में सफलता की नई कहानी गढ़ने लगे। इस विकास में गांव वीरान हो गया। 350   परिवारों में से केवल आठ से 10 परिवार ही गांव में रह रहे हैं। चीन से केवल   50 किलोमीटर की हवाई दूरी पर बसा यह गांव सामरिक दृष्टि से भी बेहद   संवेदनशील है। सरकार को इसकी परवाह तो नहीं है लेकिन, एक बार फिर देश-विदेश   में बसे मर्तोलिया लोगों को इसकी चिंता सताने लगी है। साथ ही अपने इष्टदेव   को अपने ही पारंपरिक गांव में पूजने की याद आयी है। इसके लिए नौ से 15   सितंबर तक मां नंदा देवी मंदिर परिसर में विशेष पूजा अर्चना होगी। श्रीमद्   भागवत कथा का आयोजन होगा। इस दौरान विशाल भंडारे का आयोजन किया जाएगा।   मर्तोली जन जागृति संगठन के अध्यक्ष सुंदर सिंह मर्तोलिया का कहना है कि 14   सितंबर को ही गांव में आम सभा होगी। इसमें नंदादेवी शिखर, नंदा कोट,   त्रिशूल, हरतोल आदि गगनचुंबी पर्वतों के गोद में बसे गांव को पर्यटन की   दृष्टि से विश्र्व मानचित्र में लाने का प्रयास किया जाएगा। साथ ही यहां पर   देश-विदेश से पर्यटकों की संख्या में लगातार इजाफा होते रहे और रहने,   खाने, चिकित्सा व अन्य सुविधायें भी मिलती रहे। इसके लिए सरकार से लगातार   मांग की जाएगी। उन्होंने बताया कि इस बार बलि प्रथा पर रोक लगा दी गई है।

Devbhoomi,Uttarakhand

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दीपक भाई ऐसे कई गाँव जहाँ पहले हमारे पूर्वजों कई वर्षों तक पशुओं की बलि देकर देवी देवताओं को खुश किया है ! लेकिन आज के इस दौर में से कई गांवों में ये पशु बलि बांध कर दी गई है !


Devbhoomi,Uttarakhand

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umeshbani

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पशु बलि प्राचीन काल से ही हमारी संस्कृति का अंग रही है, इसको बंद करवाना मुझे कोई जरुरी नही लगता है|  हमारे समाज में जब इंसानों के साथ कई तरह के जुल्म इंसान द्वारा किये जा रहे हैं तो ऐसे में केवल पशु बलि को मुद्दा बनाना एक ढोंगबाजी और सस्ती लोक्प्रियता प्राप्त करने  के जरिये के अलावा कुछ नहीं है| 
अगर गलत है तो यह की किसी को पशु बलि के लिए मजबूर किया जाये।  अगर कोई अपनी खुशी से मन्दिर में पशु बलि देता है तो इसमें क्या बुराई है।  अपने आप को पशु संरक्षण का मसीहा समझने वाली श्रीमति मेनका गांधी जी क्या जामा मस्जिद  के बाहर लगने वाले पक्षियों के बाजार को बंद करवा पाई? उनके संगठन के लोग खुले आम सीधे साधे लोगों को डरा धमकाकर उनसे वसूली करते हैं या बस अखबार में फ़ोटो खींचवाने के जुगाड़ में लगे रहते हैं। 
क्या मन्दिर में पशु बलि ना होने से बाजार में मांस की बिक्री बन्द हो जायेगी?
क्या बकरा ईद पर कुर्बानी रूक जायेगी?
क्या लोग मांस खाना छोड़ देंगे? 
जब कोई कुछ छोड़्ने को तैयार नही तो हम अपनी परंपरा क्यों त्यागें?
केवल इन ढोगी समाज सुधारकों की वजह से?
अगर कुछ करना है तो लोगों को मांसाहार से शाकाहार के लिए प्रेरित किया जाये।  नाकि इन ढोंगियों के साथ होकर इनके पुरस्कार लेने के जुगाड़ में इनका साथ दिया जाये। 
अगर सब शाकाहारी हो जायेंगे तो यह समस्या अपने आप हल हो जायेगी। 
अन्त में मैं यह भी बता देना चाहता हूं कि मैं खुद शाकाहारी हूं पर मुझे मन्दिरों में दी जाने वाली पशु बलि में कोइ बुराई नजर नही आती है।

मैं भी आप की बात से सहमत हूँ  अगर कोई कहे कि अपनी संस्कृति को भूल जाओ तो वो बिलकुल गलत है
अगर सभी हिन्दुस्तानी शिकार खाना छोड दे तो हम उत्तराखंडी भी बलिदान देना छोड देंगे . .................
ये तो प्रकर्ति का नियम है ............... 

ये तो फ़ूड चैन का हिस्सा है ..... इसको बदलना एक भूल होगी .......................   और इसका शिकार भी सबसे पहले उत्तराखंडी ही होगा

राजेश जोशी/rajesh.joshee

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उमेश जी,
मैं भी यही कहना चाहता हूं कि या तो हां या नही पशु वध ठीक नही है लेकिन जब तक इस देश में मांस की दुकानें चल रही हैं, लाखों स्लॉटर हाउस चल रहे हैं, बकरा ईद पर लाखों पशुओं की बलि दी जाती है तो फ़िर यह पाबंदी हमारी परंपरा पर ही क्यों?
केवल कोई अंतर्राष्ट्रीय नही तो राष्ट्रीय पुरस्कार और अपनी सामाजिक सेवा की दुकान चलाने के उद्देश्य से लोगों को बहलाना ठीक नही है।  हम गांधी, बुद्ध के देश में रहते हैं पर इस देश में गांधी केवल भाषण देने और फ़ोटो टांकने तक ही सीमित है। 

दीपक पनेरू

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बानी जी मैं आपके बिचारों से बिलकुल भी सहमत नहीं हूँ, आप इस बात को भूल जाईये की अच्छे कार्य के लिए कोई नंबर होना आवश्यक नहीं है, उत्तराखंडी किसी भी साजिश के शिकार नहीं होने वाले है, महात्मा गाँधी जी ने स्वदेशी कपडे अपनाने के लिए सबसे पहले खुद को खाकी मे लपेटा था, उन्होंने केवल लोगो तक अपने बिचार रखे थे, लोगो को अच्छे लगे उन्होंने उन बिचारों का अनुसरण किया, आप अपने बिचार प्रकट करने के लिए स्वतंत्र पर हमें आपका सहयोग चाहिए, लेकिन जहा तक पशुबलि और मांसाहारी होने वाली बात है दोनों अलग मुद्दे है, मांसाहारी होने को पशुबलि से नहीं जोड़ना चाहिए, क्योंकि आज तक किसी भैंसे को हिन्दू जाती के किसी भी व्यक्त ने भोजन के रूप में नहीं लिया होगा लेकिन उसी हिन्दू जाती ने भैसे को पशुबलि के रूप में प्रयोग किया है.......तो आप इस बात को समझने की कोशिश करनी होगी.....कि हम किस मुद्दे पर बात कर रहे है,
पशु बलि प्राचीन काल से ही हमारी संस्कृति का अंग रही है, इसको बंद करवाना मुझे कोई जरुरी नही लगता है|  हमारे समाज में जब इंसानों के साथ कई तरह के जुल्म इंसान द्वारा किये जा रहे हैं तो ऐसे में केवल पशु बलि को मुद्दा बनाना एक ढोंगबाजी और सस्ती लोक्प्रियता प्राप्त करने  के जरिये के अलावा कुछ नहीं है| 
अगर गलत है तो यह की किसी को पशु बलि के लिए मजबूर किया जाये।  अगर कोई अपनी खुशी से मन्दिर में पशु बलि देता है तो इसमें क्या बुराई है।  अपने आप को पशु संरक्षण का मसीहा समझने वाली श्रीमति मेनका गांधी जी क्या जामा मस्जिद  के बाहर लगने वाले पक्षियों के बाजार को बंद करवा पाई? उनके संगठन के लोग खुले आम सीधे साधे लोगों को डरा धमकाकर उनसे वसूली करते हैं या बस अखबार में फ़ोटो खींचवाने के जुगाड़ में लगे रहते हैं। 
क्या मन्दिर में पशु बलि ना होने से बाजार में मांस की बिक्री बन्द हो जायेगी?
क्या बकरा ईद पर कुर्बानी रूक जायेगी?
क्या लोग मांस खाना छोड़ देंगे? 
जब कोई कुछ छोड़्ने को तैयार नही तो हम अपनी परंपरा क्यों त्यागें?
केवल इन ढोगी समाज सुधारकों की वजह से?
अगर कुछ करना है तो लोगों को मांसाहार से शाकाहार के लिए प्रेरित किया जाये।  नाकि इन ढोंगियों के साथ होकर इनके पुरस्कार लेने के जुगाड़ में इनका साथ दिया जाये। 
अगर सब शाकाहारी हो जायेंगे तो यह समस्या अपने आप हल हो जायेगी। 
अन्त में मैं यह भी बता देना चाहता हूं कि मैं खुद शाकाहारी हूं पर मुझे मन्दिरों में दी जाने वाली पशु बलि में कोइ बुराई नजर नही आती है।

मैं भी आप की बात से सहमत हूँ  अगर कोई कहे कि अपनी संस्कृति को भूल जाओ तो वो बिलकुल गलत है
अगर सभी हिन्दुस्तानी शिकार खाना छोड दे तो हम उत्तराखंडी भी बलिदान देना छोड देंगे . .................
ये तो प्रकर्ति का नियम है ............... 

ये तो फ़ूड चैन का हिस्सा है ..... इसको बदलना एक भूल होगी .......................   और इसका शिकार भी सबसे पहले उत्तराखंडी ही होगा


पंकज सिंह महर

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पूजा प्रथा के अनुरुप होती हैं और प्रथायें हमारे समाज के तत्कालीन प्रबुद्ध लोगों द्वारा सोच-समझकर वैज्ञानिक ढंग से तैयार की गई। रही बात रुढिवादी होने की तो आज भी पर्वतीय समाज में इससे भी कई जटिल सामाजिक रूढियां हैं, जो समाज में समरसत्ता नहीं आने दे रही। हमें पहले इस पर सोचना चाहिये, मेनका गांधी जैसी हाशिये पर पड़े लोगों की बात पर हम सदियों से चली आ रही परम्परा को नहीं छोड़ सकते और यह सोचा जाना भी जरुरी है कि हम सिर्फ इसी मुद्दे पर, जो किसी समाज को तोड़ नहीं रहा, किसी को कुछ हानि नहीं पहुंचा रहा, बहस क्यों कर रहे हैं? जांत-पांत, छुआछूत जैसे मुद्दों पर हमें मुखर होना चाहिये, ताकि समाज उन्नति कर सके।

लोगों की आस्था का मजाक नहीं बनाया जाना चाहिये। क्या उत्तराखण्ड की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर को अब मेनका गांधी और कुछ नाम कमाने वाले एन०जी०ओ० के कन्सल्टेंसी की जरुरत है?
 अगर इसका कोई विकल्प तलाशना होगा तो हम स्वयं तलाशेंगे, हमारी जड़े बहुत गहरी हैं, जिस जिन हमारे प्रबुद्ध विद्वानों को ऐसा लगेगा कि पशुबलि के मायने नहीं है, तो वह स्वयं ही इससे समाज को विरत कर देंगे।

सत्यदेव सिंह नेगी

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मेरा व्यक्तिगत मत यानि मेरा वोट पशुबलि बंद न हो को जाता है . चूँकि यह हमारी पूजा व्यवस्था का एक हिस्सा है मुझे इसमें पूर्ण आस्था है और हर इंसान आस्तिक हो ऐसा जरुरी नहीं हिन्दू होने के नाते मै उस हर व्यवस्था को समर्थन देता रहूँगा जो मुझे उस परमात्मा में मेरे विश्वास को बनाये रखे अगर इस बारे में कभी भविष्य में संघर्ष भी होता है या यहाँ हम इस मुद्दे पर मत विभाजन तक आ पहुंचे हैं तो इसमें जरुर उन सांप्रदायिक ताकतों का षड्यंत्र होने का अंदेशा है जो हमेशा फिरका परस्त रहे हैं तथा जिन्होंने हमेशा भोले भले हिन्दूऔं को ढगा है और अब तो सत्ता भी उन तक पहुची है जब भी इनकी प्रशाशनिक कमजोरियां जग जाहिर होने लगती हैं तो इनके एजेंट जनता में ऐसा ही भ्रम फैलाते रहें हैं ताकि मूल मुद्दे से लोग भटक जाएँ
सच ही कहा यहाँ किसी मित्र ने कि चर्च ये होनी चाहिए थी कि पशु हत्या बाद हो या नहीं मांसभक्षण कितना मानवीय है, कृपया एक बार इस पहलू पर भी विचार कर लिया जाय ,अगर सब कुछ हमने ही तय करना है तो फिर भगवन क्यों अपने गाँव अपने क्षेत्र या जिले या प्रान्त के किसी अच्छे इंसान पर मतदान करा लिया जाय और फिर जिसे ज्यादा मत मिले सब उसको पूजें जैसा कि कई और धर्मों में होता आया है , मुझे लगता है कि अधिकतर लोग इसलिए हिंदूं हैं क्योंकि इस धर्म में नास्तिकों के लिए भी जगह है, किसी धार्मिक सीरियल में किसी किरदार ने भगवान् कृष्ण का अच्छा किरदार नहीं निभाया तो चर्चाएँ जोर पकड़ लेती हैं ईश्वर में विश्वास किसे कहते हैं उसको पूछिए जो कि कष्ट में है जिसपर कोइ दवा दारू अब असर नहीं डाल रही जिस पर संकटों का पहाड़ टूट पड़ा हो ,

dayal pandey/ दयाल पाण्डे

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दोस्तों इस आधुनिक युग में प्रथाओ का भी सुधार जरुरी है सती प्रथा को भी आस्था समझा जाता था उसका अंत हुवा, बलि प्रथा भी में समझता हु की एक कुप्रथा ही है जिसका अंत आवश्यक है भगवान् के नाम पर बलि देना अच्छा नहीं लगता हिंसा किसी भी समाज में बुरी समझी जाती है फिर वो भगवान् क्यों हिंसा कराते हैं माँसाहारी या शाकाहारी होना अलग बात है भगवान् को बलि चड़ना अच्छी बात नहीं है फिर तो शैतान और भगवान् में फर्क करना भी बड़ा मुस्किल हो जायेगा और अच्छाई और बुरे क्या है ये भी बड़ा मुस्किल होगा, अगर कुप्रथा को परिवर्तित करने कोई आगे आता है तो ठीक है चाहे वह मेनका गाँधी जी हो या आप उसका स्वागत करना चाहिए, में भी भगवान् के नाम पर बलि देने का बिरोध करता हूँ और आप से भी ये अनुरोध करता हूँ की एक बार बलि देने वाले दृश्य को सीधे देख लो अगर फिर भी आपका दिल कहता है की बलि प्रथा ठीक है तो फिर वहास यही ख़त्म हो जननी चाहिए,   

ranbeer

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HELLO NAMASTE TO ALL
 
in my point of view.............
 
main bhi bali partha ke khilap hun, pashuon ki bali nahi deni chahiye, jo ekdam galat hai, aur pashu bali nahi honi chahiye, main yahan iska explain nahi karna chahunga,
 
lekin question yahan pashu bali ka nahi hai, question hai hamare tradition aur culture ka, jo pata nahi kab se chali aa rahi hai, agar in baton ko deeply socha jai to mere point of view se ise koi band nahi kar sakta, agar aisa hota hai, I am sure iska bhuktan bhi uttaranchaliyon ko hi karna padega, ye sure hai, kyon ki ye hamare DEV BHUMI se juda huwa hai, jo DEVTAON ke liye kiya jata hai..........yahi mera kahna hai............main explain aur bhi kar sakta hun lekin aapke comment ke bad......

 

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