Author Topic: Delicious Recepies Of Uttarakhand - उत्तराखंड के पकवान  (Read 177764 times)

Bhishma Kukreti

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    उत्तराखंडियों के कुछ पारम्परिक  व चेहते  पकोड़ों की  रस्याण     
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   रुसाळ --  भीष्म  कुकरेती
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 पंडित  नेहरू , श्रीमती इंदिरा गांधी के बाद श्री नरेंद्र मोदी ही ऐसे प्रधान मंत्री हुए हैं जिनके हर शब्द आम भारतीयों के पास पंहुच जाते हैं और ये शब्द जनमानस में अपना    प्रभाव छोड़ने में कामयाब हुए हैं।श्री नरेंद्र मोदी  के शब्द डिजिटल क्रान्ति के कारण अधिक खलबली मचाने में अधिक कामयाब हुए हैं। मोदी जी के शब्द चाय पर चर्चा , पहले देवालय   फिर शौचालय ; पकोड़े  शब्दों  ने वास्तव में हर तबके  के भारतीयों को  सोचने पर  मजबूर किया है।

    आजकल ऑफलाइन ऑन लाइन में पकोड़े चर्चे में हैं  . मैं इतिहास पर कलम चलाता हूँ तो  मुझे पकोड़े के इतिहास व पकोड़ों  की किस्मों हेतु आदेस आने लगे हैं।  अभी परसों ही गाँव से व ऋषिकेश  से कुछ रिस्तेदार  एक शादी में सम्मलित होने मुंबई आये तो चर्चा पकोड़े पर अटक गयी . आश्चर्य यह है कि गाँवों में भी पकोड़ों पर नई नई कहावतें गढ़ी जा रहे हैं . ब्वारी सवोर पकोड़ा बणाण से भी प्रयोग होने लगे हैं . एक और आश्चर्य कि गाँव व ऋषिकेश या भानियावाला या थानों भोगपुर में बन वनस्पति से पकोड़े बनाने पर भी चर्चा होने लगी है और कुछ ने अभी अभी वन बनस्पति के पकोड़े भी तले व खाए .

  इसका साफ़ साफ़ अर्थ है कि जनमानस में पकोड़ों के प्रति अधिक जिज्ञासा जागी है .

  इस श्रृंखला में मैं उन पहाड़ी पकोड़ों की छ्वीं लगाउंगा जो सामान्य हैं ,  कुछ प्राचीन पकोड़े हैं  और कुछ आधुनिक पकोड़े हैं –

                      दाल के मस्यट का  गोला बनाकर भूड़ा  (पकौड़े , भजिया ) बनाना

  1-आम भूड़े  (पकोड़े , भजिया )

-

उड़द के भूड़े  (पकोड़े , भजिया )

सूंटके भूड़े  (पकोड़े , भजिया )

गहथ के भूड़े  (पकोड़े , भजिया )

मूँग के भूड़े  (पकोड़े , भजिया ) – भूतकाल में बिरले अब प्रचलन में हैं

2- पट्यूड़ /पटुड़ी(अधिकतर तवे में या फाणु बनाते वक्त )

गहथ के पट्यूड़

उड़द के पट्यूड़ बिरला

कच्चे मक्का के दानों से पट्यूड़ किन्तु इसे लगुड़ कहते हैं किन्तु है यह पट्युड़ ही या इन्हें टिकिया या कटलेट भी  कहा जा सकता है

-

 3-  पत्तियां , डंठल व आलण (आटा) के साथ बनने वाले पकोड़े , पत्यूड

-

  अ – गेंहू , मकई , जौ के आटे के आलणसे बनाये जाने वाली पत्यूड़

पिंडालू के पत्तों को काटकर

पिंडालू के पत्ते व कद्दू के पत्तों के पत्यूड़

कद्दू , ओगळ, या अन्य  वन बनस्पति के पत्तों से पत्यूड़

 ब – बेसन के आलण से बनने वाले पत्यूड़

पिंडालू के पत्तों को काटकर

पिंडालू के पत्ते व कद्दू के पत्तों के पत्यूड़

कद्दू , ओगळ, या एनी वन बनस्पति के पत्तों से पत्यूड़

कई फूलों  से भी पत्यूड़ बनाये जाते  हैं

स – गहथ के मस्यट से बनाये जाने वाले पत्यूड़ व पट्यूड़

विभिन्न पत्तियों, फूलों  से बनाये जाने वाले पत्यूड़ व पट्यूड़

-

   4 ----बेसन की  पकोड़ियाँ (भजिया )

 

         अ ---फूल की  पकोड़ियाँ (भजिया )

कचनार की  पकोड़ियाँ (भजिया )

कद्दू के फूल की  पकोड़ियाँ (भजिया)

 केला फूल की  पकोड़ियाँ (भजिया )

 ड्रमस्टिक फूल की  पकोड़ियाँ (भजिया )

सरसों फूल की  पकोड़ियाँ (भजिया )

गोभी फूल की  पकोड़ियाँ (भजिया )

बन बनस्पति फूलों  की  पकोड़ियाँ (भजिया )

ड्रमस्टिक फूल की  पकोड़ियाँ (भजिया )

धनिया अदि के फूलों पकोड़े (भजिया )

    ब- फल के पकोड़े  (भजिया )

बैंगन फल के पकोड़े  (भजिया )

मिर्च के फल के पकोड़े  (भजिया )

शिमला मिर्च के फल के पकोड़े  (भजिया )

कच्चा केला के फल के पकोड़े  (भजिया )

कटहल के फल के पकोड़े  (भजिया )

तेंडुल  के फल के पकोड़े  (भजिया ) (बिरला )

करेला के फल के पकोड़े  (भजिया )

भिन्डी के फल के पकोड़े  (भजिया )

  स –पत्तियों , डंठल के  पकोड़े (भजिया )

पालक पत्तियों के  पकोड़े (भजिया)

मेथी पत्तियों के  पकोड़े (भजिया)

राई पत्तियों के  पकोड़े (भजिया)

आलू पत्तियों के  पकोड़े (भजिया) बिरला

धनिया पत्तियों के  पकोड़े (भजिया)

प्याज पत्तियों के  पकोड़े (भजिया)

पिंडालू पत्तियों के  पकोड़े (भजिया)

कद्दू के पत्तियों के  पकोड़े (भजिया)

मूला /मूली के पत्तियों के  पकोड़े (भजिया)

ओगळ पत्तियों के  पकोड़े (भजिया)

फूलगोभी पत्तियों के  पकोड़े (भजिया)

तैडू की पत्तियों के पकौड़े , भजिया

छीमी के पत्तों के  पकौड़े

 गाँठ  गोभी पत्तियों के  पकोड़े (भजिया)

गंद्यल /कड़ी पत्ते के पकौड़े

 

दसियों वन बनस्पति की पत्तियों के  पकोड़े (भजिया)

   द- कंद मूल ,जड़ों के पकोड़े ( भजिया )

आलू

प्याज

अन्य कंद बंद  के  पकोड़े (भजिया)

   ध-मांसाहारी पकोड़े (भजिया )

अण्डों के पकोड़े (भजिया)

मच्छी पकोड़े (भजिया )

प्राऊन पकोड़े (भजिया )

 च -अन्य पकोड़े

 

 

 

पनीर

मशरूम

   5-  विभिन्न टिकया

आलू टिकिया

पिंडालू टिकिया

 6- बिना आलण के तली पकोड़ी या फ्राई

आलू फ्राई

पिंडालू फ्राई

मिर्च फ्राई

लहसुन फ्राई

गोभी फ्राई

अंडा फ्राई

मछली फ्राई

प्राऊन फ्राई

 

 

 

 

में सम्मलित होने मुंबई आये तो चर्चा पकोड़े पर अटक गयी . आश्चर्य यह है कि गाँवों में भी पकोड़ों पर नई नई कहावतें गढ़ी जा रहे हैं . ब्वारी सवोर पकोड़ा बणाण से भी प्रयोग होने लगे हैं . एक और आश्चर्य कि गाँव व ऋषिकेश या भानियावाला या थानों भोगपुर में बन वनस्पति से पकोड़े बनाने पर भी चर्चा होने लगी है और कुछ ने अभी अभी वन बनस्पति के पकोड़े भी तले व खाए .

  इसका साफ़ साफ़ अर्थ है कि जनमानस में पकोड़ों के प्रति अधिक जिज्ञासा जागी है .

  इस श्रृंखला में मैं उन पहाड़ी पकोड़ों की छ्वीं लगाउंगा जो सामान्य हैं व कुछ प्राचीन पकोड़े हैं –

                      दाल के मस्यट का  गोला बनाकर भूड़ा  (पकोड़े , भजिया ) बनाना

  1-आम भूड़े  (पकोड़े , भजिया )

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उड़द के भूड़े  (पकोड़े , भजिया )

सूंटके भूड़े  (पकोड़े , भजिया )

गहथ के भूड़े  (पकोड़े , भजिया )

मूँग के भूड़े  (पकोड़े , भजिया ) – भूतकाल में बिरले अब प्रचलन में हैं

2- पट्यूड़ /पटुड़ी(अधिकतर तवे में या फाणु बनाते वक्त )

गहथ के पट्यूड़

उड़द के पट्यूड़ बिरला

कच्चे मक्का के दानों से पट्यूड़ किन्तु इसे लगुड़ कहते हैं किन्तु है यह पट्युड़ ही या इन्हें टिकिया या कटलेट भी  कहा जा सकता है

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 3-  पत्तियां , डंठल व आलण (आटा) के साथ बनने वाले पकोड़े , पत्यूड

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  अ – गेंहू , मकई , जौ के आटे के आलणसे बनाये जाने वाली पत्यूड़

पिंडालू के पत्तों को काटकर

पिंडालू के पत्ते व कद्दू के पत्तों के पत्यूड़

कद्दू , ओगळ, या अन्य  वन बनस्पति के पत्तों से पत्यूड़

 ब – बेसन के आलण से बनने वाले पत्यूड़

पिंडालू के पत्तों को काटकर

पिंडालू के पत्ते व कद्दू के पत्तों के पत्यूड़

कद्दू , ओगळ, या एनी वन बनस्पति के पत्तों से पत्यूड़

कई फूलों  से भी पत्यूड़ बनाये जाते  हैं

स – गहथ के मस्यट से बनाये जाने वाले पत्यूड़ व पट्यूड़

विभिन्न पत्तियों, फूलों  से बनाये जाने वाले पत्यूड़ व पट्यूड़

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   4 ----बेसन की  पकोड़ियाँ (भजिया )

 

         अ ---फूल की  पकोड़ियाँ (भजिया )

कचनार की  पकोड़ियाँ (भजिया )

कद्दू के फूल की  पकोड़ियाँ (भजिया)

 केला फूल की  पकोड़ियाँ (भजिया )

 ड्रमस्टिक फूल की  पकोड़ियाँ (भजिया )

सरसों फूल की  पकोड़ियाँ (भजिया )

गोभी फूल की  पकोड़ियाँ (भजिया )

बन बनस्पति फूलों  की  पकोड़ियाँ (भजिया )

ड्रमस्टिक फूल की  पकोड़ियाँ (भजिया )

धनिया अदि के फूलों पकोड़े (भजिया )

    ब- फल के पकोड़े  (भजिया )

बैंगन फल के पकोड़े  (भजिया )

मिर्च के फल के पकोड़े  (भजिया )

शिमला मिर्च के फल के पकोड़े  (भजिया )

कच्चा केला के फल के पकोड़े  (भजिया )

कटहल के फल के पकोड़े  (भजिया )

तेंडुल  के फल के पकोड़े  (भजिया ) (बिरला )

करेला के फल के पकोड़े  (भजिया )

भिन्डी के फल के पकोड़े  (भजिया )

  स –पत्तियों , डंठल के  पकोड़े (भजिया )

पालक पत्तियों के  पकोड़े (भजिया)

मेथी पत्तियों के  पकोड़े (भजिया)

राई पत्तियों के  पकोड़े (भजिया)

आलू पत्तियों के  पकोड़े (भजिया) बिरला

धनिया पत्तियों के  पकोड़े (भजिया)

प्याज पत्तियों के  पकोड़े (भजिया)

पिंडालू पत्तियों के  पकोड़े (भजिया)

कद्दू के पत्तियों के  पकोड़े (भजिया)

मूला /मूली के पत्तियों के  पकोड़े (भजिया)

ओगळ पत्तियों के  पकोड़े (भजिया)

फूलगोभी पत्तियों के  पकोड़े (भजिया)

 बंद गोभी पत्तियों के  पकोड़े (भजिया)

 

 

दसियों वन बनस्पति की पत्तियों के  पकोड़े (भजिया)

   द- कंद मूल ,जड़ों के पकोड़े ( भजिया )

आलू

प्याज

अन्य कंद बंद  के  पकोड़े (भजिया)

   ध-मांसाहारी पकोड़े (भजिया )

अण्डों के पकोड़े (भजिया)

मच्छी पकोड़े (भजिया )

प्राऊन पकोड़े (भजिया )

 च -अन्य पकोड़े

 

 

 

 

 

पनीर

मशरूम

   5-  विभिन्न टिकया

आलू टिकिया

पिंडालू टिकिया

 6- बिना आलण के तली पकोड़ी या फ्राई

आलू फ्राई

पिंडालू फ्राई

मिर्च फ्राई

लहसुन फ्राई

गोभी फ्राई

अंडा फ्राई

मछली फ्राई

प्राऊन फ्राई

 

 


Bhishma Kukreti

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 पकौड़ों की प्रशंसा से भड़कीं 60 किस्मों की चटनियां

Chutneys liked by Uttarakhandis

चटोरा : भीष्म कुकरेती
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  आजकल पकौड़ों  में गर्माहट छायी है , पकौड़ा गर्मी के मारे भूरा हो रहा है तो कॉमरेड भी लाल पीले हो रहे हैं कि  बजट का कुहाल देखो बल स्टॉक मार्किट भी ठंडा हो रहा   है। पकौड़ों में स्वाद छिरकाने वाली चटनी की बात ही नहीं हो रही है।  चटनी पकौड़े उद्यम को नीच कहने वालों के पास भी गयी किन्तु उन्होंने चटनी को जीब तो छोड़ो ट्वीटर में भी नहीं धरा जी।   चटनी मारे मारे फिर रही है -- पकौड़े में नहीं है दम , बल नहीं है दम और बल मैं जो नहीं तो स्वाद  है कम. कल मेरे पास भी आयी और  गढ़वाली में बोली  "  बल फेसबुक में पकोड़ों को तो डड्या  दिया है  मुझ पर कब लगाओगे आग ?"
 मैं बोला  बल तू तो ठहरी  हमेशा की ठंडी तेरे पर आज लगा के क्या करूंगा ?
 चटनी चट से पसर गयी और बोली - पुराने जमाने की हैलन हूँ, बिंदू , अरुणा ईरानी हूँ जिनके बगैर फिल्म नहीं सरकती थी जैसे आज  जांघ दिखाओ आइटम सांग बगैर  फिल्म नहीं चलती तो बगैर चटनी के खाना ऐसा लगता जैसे  जैसे कोई दस्त का मरीज खाना खा रहा है।  तुम ऐसा करो फेसबुक में मुझे भी जोर से डड्या दे जरा। 
 बेचारी की डड्याणे  की प्रार्थना सुन मेरे दिमाग में कुछ कुछ होने लगा और मैंने चटनी की चटनी  आप लोगों को परोसने की ठान ही ली।
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      चटनी निखालिस भारतीय है
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हमे गर्व है कि चटनी विशुद्ध भारतीय व्यंजन है।  मुझे गर्व है कि चटनी प्रयोग भारत में कम से कम 2500 वर्ष पहले शुरू हो चुका था।  श्री मोहन भागवत को गर्व है कि हमने , हम हिन्दुओं (सभी धर्मावलम्बी ) ने चटनी की खोज की और फिर तब से लेकर आज तक चटनी में कोई अधिक फेर बदल नहीं किया।  और आज भी चटनी में जो भी परिवर्तन आ रहे हैं , जितना भी परिवर्तन आ रहे हैं वे बहुराष्ट्रीय कंपनियां ला रहे हैं।  जै  हो बाबा रामदेव की ! वे भी चटनी में परिवर्तन के सख्त विरोधी हैं जैसे मणि शंकर मोदी विरोधी हैं।  यहां तक कि चटनी पीसने की मशीन भी पहले भारत में ब्लेंडर के नाम से बाहर की कंपनियां लाईं  और बाद में निखालिस भारतीय सुमित कम्पनी मिक्सर , एक ड्राई व वेट गरिन्द्र जार व चटनी जार लेकर आयी।  थैंक्स टु इंजीनियर सत्य प्रकाश।  उसके बाद सभी मिक्सर कंपनियां मिक्सी बेचने के लिए चटनी जारों की संख्या बढ़ा रहे हैं पर बेशरम बिलंच भारतीय व्यापारी चटनी पीसने में कोई न्य अन्वेषण नहीं कर रही हैं।
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                    उत्तराखंड में चटनी शब्द था ही नहीं
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       चटनी शब्द का जनक चाटना है।  किन्तु गढ़वाली में चूँकि प्रसाद या हलवा को भी चाटा जाता था तो चटनी शब्द की जगह विभिन्न लूण  व खटाई शब्द था।  चूँकि हिंदी को गढ़वाली -कुमाउँनी की जगह माता कहने के कारण खटाई में बस्याण आने लगी तो हमने देश हिट में खटाई को चटनी कहना शुरू कर दिया।  चूँकि ठंडे मुल्क होने के कारण हम चटनी को रत्यां क्या दिन्यां  भी नहीं चाट सकते थे तो हमने खटाई व लूण को कुछ सीमित कर रखा था।  किन्तु जब हमने देखा कि ग्वील के अमेरिका में बसे उमेश कुकरेती 0 डिग्री ठंड में चिल्ली सॉस खाते हैं , मिर्चोड़ा के पाराशर गौड़ कनाडा में -23 डिग्री में भी आइस क्रीम खाते हैं और केरल में नेवी के कमांडर भरपूर के परमजीत बिष्ट नारियल की चटनी की प्रशंसा अपनी पत्नी से अधिक करने लगे तो हमने भी दुनिया के सभी चटनियों को अपने घर में औरवैदिक चूर्ण की जगा बिठा दिया है। तो अब हम कह ही नहीं सकते कि सालसा चटनी उत्तराखंडियों की चटनी नहीं है। 
                     मौलिक उत्तराखंडी चटनियाँ
 चटनियों के नाम वास्तव में कई अवयवों से पद जाते हैं तो यह कहना कठिन है कि इस चटनी का नाम यह है।
 १-खट्ट्या - छांछ को नमक मसालों के साथ खिटाकर बनाया जाता है।
२- अल्मोड़ा की चटनी -अल्मोड़ा पत्तियां व मसाले पीसकर
३- दाड़िम की चटनी
४-भांग की चटनी
५- भंगजीरा की चटनी
६- पद्या लूण की चटनी
७- मुर्या लूण की चटनी
८- जम्बू लूण के साथ चटनी
९-डम्फू , चुख  आदि की चटनी -मसाले नाम बदल देते हैं
१०- आम की चटनी -नाना प्रकार
११- नीम्बू की चटनी - नाना प्रकार
१२- भट्ट की चटनी
१३-किल्मोड़ा की चटनी
१४- इमली की विभिन्न चटनी - मसालों व अवयव से नाम बदल जाते हैं।  जैसे सूंटिया बहुत प्रसिद्ध चटनी है -अदरक , सौंफ, गुड़  आदि भूनकर बनाया जाता है।
१५- टमाटर की चटनी -नाना प्रकार की चटनी -मैलाओं व अवयव से नाम बदल जाता है
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          मसाले व अवयव के अनुसार चटनियों के नाम
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१६- कच्चे आम की चटनी
१७- अमचूर की चटनी
१८- धनिया चटनी
१९- तिल  की चटनी
२०- पोदीना की चटनी
२१ - गंगूरा की चटनी
२२- दही की चटनियाँ
२३- मूंगफली की चटनी
२४- काजू की चटनी
२५- बादाम की चटनी
२६- गंद्यल याने करी पत्ते की चटनी
२७- ड्रम स्टिक पत्तियों की चटनी
२८- प्याज की चटनी
२९- प्याज के पत्तियों की चटनी
३०- ककड़ी /खीरा की चटनी
३१- कद्दू पकाकर बनी चटनी
३२- लौकी पकाकर बनी  चटनी
३३- बेसन की चटनी
३४-टेंडुली  की चटनी
३५- पपीता की चटनी
३५- मूली की चटनी (बहुत कम )
३६-कच्चे सेव की चटनी
३६ A -पके सेव चटनी
३७-पक्के सेव की चटनी
३८-पालक की चटनी
३९- राई पट्टी की चटनी
४०- भुने टमाटर की चटनी
४१- कच्चे टमाटर की चटनी
४२-पके टमाटर की चटनी
४३- उबाले टमाटर चटनी
४४- अनन्नास की चटनी
४५ - उबाले बसिंगू की दही चटनी
४६- आड़ू की इमली वाली चटनी
४७-करेला की चटनी
४८- पत्ता गोभी चटनी
४८- गाजर चटनी
४९- चुकंदर चटनी
५०-लाल मिर्च लहसुन चटनी
५१- नारियल की विभिन्न चटनियां
५२-डोसा पॉउडर चटनी (उत्तराखंडियों मध्य मुंबई में मशहूर )
५३- इडली पॉउडर चटनी
५४- कई सब्जियों की चटनी
५५-मराठी थेचा सूखी चटणी
५६- कोन्कणी थेचा चटनी
५७-कच्चे कीवी चटनी शुरुवाती दौर
५८- आजकल चीनी , थाई चटनियाँ जैसे सोया सॉस , चिल्ली सॉस जैसी कई चटनियाँ  हैं जिन्हे उत्तराखंडी पसंद करते हैं
५९- बैंगन चटनी
६०- गुड़ , शहद या चीनी मिलकर चटनियों के स्वाद में व नाम में अंतर् ा जाता है



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Bhishma Kukreti

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  पकौड़े ने पूछा " समोसा क्यों नहीं खाया ? जूता क्यों नहीं पहना ? "
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 उत्तराखंड में कृषि व खान -पान -भोजन का इतिहास --   82

   History of Agriculture , Culinary , Gastronomy, Food, Recipes  in Uttarakhand - 82

खव्वाबीर - भीष्म कुकरेती
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    एक समय देहरादून में समोसा संस्कृति थी (संक्षिप्त समोसा इतिहास की चटनी )
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 मोदी जी ने पकौड़ों में जान डाल दी है।  कोई जल रहा है तो कोई जला रहा है।  भाजपा -कॉंग्रेस के पास  लकड़ी कम होने से या LPG  मंहगी होने से उत्तराखंड फेसबुक संसार में पकौड़ों का तलना  बंद  हुआ पर श्री मनोज इष्टवाल और भीष्म कुकरेती फिर भी अपनी अपनी रसोई में कुछ न कुछ पका ही  रहे हैं। 
       पकौड़ा रोजगार की खिल्ली उड़ाने वाले एक मेरे FB मित्र ने मेरी  खिल्ली उड़ाई कि अब तो पकौड़ों की गरमाहट खत्म हो गयी है फिर मैं चटनी पर क्यों आ गया।  मुझे खिन्न होकर उत्तर देने पड़ा कि भाई उनके ! हम सूंघने -चखने के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील होते हैं और तभी FB सरीखे माध्यम में भोजन पर सबकी नजर पड़ती है , सदस्य पढ़ते हैं। मनोज इष्टवाल जी अवश्य मेरा साथ देंगे।
        आज पकौड़ों से मुझे मेरा सबसे पसंदीदा शहर (तब का ) देहरादून याद आ गया जहां  एक समय समोसा राज करते थे।  चाय या मिठाईओं की दूकान की असली पहचान समोसे से होती थी।  सन 72 -74 में कई चाय दुकानों ने अपने होटल में केवल चाय व समोसे तक सीमित कर दिया था और ग्राहक की पसंद के गाने रिकॉर्ड से सुनवाते थे व गाने के पैसे लेते थे।  जनता टी स्टाल पलटन बजार (कॉंग्रेस नेता सुरेंद्र अग्रवाल की मिठाई की दुकान के बगल में ) व शायद जनता टी स्टाल ही नाम था  चकरोता रोड डा चांदना के बगल में दो ही मेरे फेवरेट टी हाउस थे जहाँ तकरीबन रोज ही हम दोस्त लोग चाय समोसे के साथ दूसरों की पसंदीदा फ़िल्मी गानों का स्वाद लेते थे।  जब मणि राम भाई याने  मनी ऑर्डर आता था तो उस दिन या दो एक दिन में या तो नेपोलियन या क्वालिटी होटल में समोसा कॉफी पीनी जाते थे। हम क्वालिटी या नेपोलियन रेस्टोरेंट में समोसे का स्वाद लेने नहीं जाते थे अपितु देखने सीखने जाते थे कि सभ्रांत -सभ्य व कल्चर्ड लोग कैसे व्यवहार करते हैं।  पर 80 प्रतिशत लोग हमारे जैसे सभ्यता सीखने ही आते थे इन दोनों होटलों में। 
'मेहमानों का स्वागत समोसों से हो ' कई कारणों से ही चलती थी।             
     गढ़वाली जनानी तब समोसे घर में नहीं बनाती थीं।  कारण साफ़ था कि गढ़वाली समोसा संस्कृति में पले  बढ़े नहीं होते थे फिर समोसा तलने में कई ताम झाम करने पड़ते हैं तो समोसा आज भी  (मिठाई ) दुकान से लेने में ही आर्थिक व परिश्रम बचत होती है।
          मुंबई आने पर समोसा खाने की इच्छा कम ही हो गयी , यद्यपि घर में आज भी हर हफ्ते समोसे आते हैं किन्तु मैं कम ही खाता हूँ।  मुझे सन 74 -75 में समोसों का वह स्वाद नहीं मिल सका  जो देहरादून में था।  हाँ गेलॉर्ड होटल (मंहगा ) चर्चगेट में मुझे वह  स्वाद मिलता था।  गेलॉर्ड में मटन समोसा बहुत ही स्वादिस्ट होता था। अब मुझे बटाटा बड़ा समोसे के मुकाबले अधिक भाता है।  मतलब अब मैं सही माने में महाराष्ट्रियन हो चुका हूँ।
         देहरादून या मुंबई में वास्तव में समोसा संस्कृति पंजाबी -सिंधियों ने प्रचारित -प्रसारित किया।  जी हाँ इसमें दो राय नहीं सकती कि मुंबई में या देहरादून में समोसा संस्कृति प्रचार प्रसार में पंजाबी -सिंधियों का हाथ है।  आज भी मुंबई के नजदीक उल्हासनगर जो सिंधियों का सबसे बड़ा शर है वहां समोसा संस्कृति व वही देहरादून वाला स्वाद बचा है. मैं जब भी व्यापारिक विजिट पर उल्हासनगर गया हूँ मेरे डीलर मित्रों ने मेरा स्वागत संसा -गुलाब जामन या आलू टिकिया से किया।  सिंधी लोग भोजन के मामले में बड़े खव्वा बीर होते  हैं व खातिरदारी भी बड़ी तबियत  से करते हैं। पर अब कुछ बदल गया है अब उल्हासनगर व्यापरी मेरा स्वागत  होटल में ले जाकर दिन में जिन व मटन चिकन कबाब से करते हैं।
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                  समोसे का भारत में इतिहास
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             मुझे नहीं पता आज देहरादून में समोसा संस्कृति कितनी ज़िंदा है पर यह पता है कि समोसा भारत में नहीं जन्मे।  पर हम जब भारत की कल्पना करते हैं तो हमें आज का भारत ही याद आता है।  कभी भारत बहुत बड़ा क्षेत्र था। 
   कहा जाता है कि समोसे का जन्म मिडल ईस्ट में हुआ।  बात में दम है समोसे में नमक कम है  क्योंकि अमूनन आम भारतीय आज भी मैदे से दूर रहता है केवल विशेष  पकवान छोड़कर।
  कहा जाता है कि ईरान में यह पकवान 9 या 10 सदी में  सम्बुसक ,  या सम्बोसाग के नाम से जानता जाता है।  ईरानी साहित्य में संबोसग , संबोसाग , सम्बुसक का सबसे पहले संदर्भ 10 वीं सदी में मिलता है।  ईरानी इतिहासकार की किताब 'तारीख -ए -बेयहागी ' ( दसवीं सदी ) में मिलता है।  और माना जाता है कि घुमन्तु व्यापारियों ने इस तिकोने  मीठे भोज्य पदार्थ को दुनिया के अन्य कोनों में पंहुचाया। 
 भारत में समोसा शायद 12 वीं या 13 वीं में व्यापारी या खानसामों द्वारा भारत में  आय व सुल्तान के रसोई के शान बन गया।  मोरोका यात्री इब्न बटाटा ने अपनी यात्रा वृत्तांत में लिखा है कि सुलतान बिन तुगलक के शाही भोजन गृह में उसे तिकोने सम्बुसक भोजन में दिए गए जिसके अंदर मस्यट , मटर , पिस्ता , बादाम व अन्य स्वादिस्ट पदार्थ भरे थे।
 तेरवीं सदी में महान सूफी विद्वान् अमीर खुसरो ने लिखा है कि समोसा भद्र लोग खाते थे। मटन , मसालों व अन्य पदार्थों से समोसा बनता था।
               अमीर खुसरों ने एक पहेली भी दी -
    समोसा क्यों नहीं खाया ? जूता क्यों नहीं पहना ? ताला न था।  (जूते  के सोल  ताला कहा जाता है )

              अकबर के रत्न अबुल फजल ने 'आइना -ए -अकबरी में लिखा है कि बादशाह अकबर को समोसे पसंद थे।
                       ब्रिटिश या यूरोपियन लोगों को भी समोसा  गया तो उन्होंने भी समोसे को गले नहीं लगाया अपितु गले में उतार दिया। 
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               गढ़वाल -कुमाऊं में समोसा
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      गढ़वाल कुमाऊं इतिहास में समोसे का जिक्र नहीं मिलता है। हरिद्वार पर  कभी इतिहास लिखा ही नहीं गया तो हमे हरिद्वार में समोसा विकास की कहानी नहीं पता है।  मुझे लगता है कि यदि गढ़वाल कुमाऊं में समोसा आया भी होगा तो रोहिला ही दक्षिण उत्तराखंड में लूट के समय लाते होंगे  और चूँकि वे जल्दीबाजी में रहे होंगे तो लोट समय समोसा नहीं पकाया गया होगा।  यही कारण है कि समोसा गढ़वाल कुमाऊं का खाद्य पदार्थ ब्रिटिश काल से पहले नहीं बन सका होगा।   
                            श्रीनगर में मुसलमान थे किन्तु गढ़वाल राजा केवल सर्यूळों के हाथ का बना भोजन खाते थे तो  मुस्लिम खानसामों ने समोसा बनाये भी होंगे तो भी यह भोज्य पदार्थ जगह नहीं बना सका।  फिर गढ़वाल कुमाऊं में स्वाळ संस्कृति विद्यमान थी तो समोसा संस्कृति पलने का सवाल ही पैदा नहीं होता। 
      श्री गुरु राम राय दरबार आने वाले यात्रीय भी शायद समोसे नहीं खाते थे तभी समोसा का जिक्र देहरादून के इतिहास में नहीं मिलता।  सिख लुटेरे देहरादून व हरिद्वार को ऐसे लूटते थे जैसे रोहिला , इतिहास में उत्तराखंड के लुटेरे सिख समोसे खाते थे का जिक्र नहीं मिलता है।
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                     ब्रिटिश काल में उत्तराखंड में समोसा   प्रवेश
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  यदि समोसे ने  उत्तराखंड में प्रवेश किया होगा तो ब्रिटिश शासन में प्रवेश किया होगा।  हरिद्वार भी समोसे का प्रवेश द्वार हो सकता है।  सबसे पहले देहरादून , मसूरी , नैनीताल या लैंसडाउन में समोसे बने होंगे।  ब्रिटिश राज में समोसे में आलू ने प्रवेश किया।
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                  उत्तराखंड में   पंजाबी -सिंधियों शरणार्थियों ने समोसा प्रचार -प्रसार किया
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  इसमें इतिहास  पुस्तकें खंगालने की आवश्यकता नहीं है कि स्वतंत्रता बाद उत्तराखंड में समोसा संस्कृति को पंजाबी -सिंधी मिठाई दुकानदारों ने सर्वाधिक पचार प्रसार किया ,
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     आज समोसा उत्तराखंड ही नहीं पूरे  भारत में फ़ैल चुका  है।  हाँ प्रत्येक क्षेत्र में समोसा बनाने की पद्धति व स्वाद अलग अलग है। 



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समोसे का उत्तराखंड में इतिहास ;  समोसे का गढ़वाल ,उत्तराखंड में इतिहास ;  समोसे का कुमाऊं ,उत्तराखंड में इतिहास ;  समोसे का हरिद्वार , उत्तराखंड में इतिहास ;  समोसे का उत्तराखंड , उत्तरी भारत में इतिहास ; Samosa History , Uttarakhand , north India ;  Samosa History , Garhwal, Uttarakhand , north India ; Samosa History , Kumaon, Uttarakhand , north India ; Samosa History , Haridwar Uttarakhand , north India ;




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 परांठा याने  दल भरी या भरीं रोटी  :इतिहास के आईने से

 
 उत्तराखंड में कृषि व खान -पान -भोजन का इतिहास --   85

  History of Agriculture , Culinary , Gastronomy, Food, Recipes  in Uttarakhand -85

 आलेख -भीष्म कुकरेती (वनस्पति व सांस्कृति शास्त्री )

    भारत की कुछ विशेषताएं हैं कि  हम भारत में जन्मी वस्तुओं का कम से कम वर्णन करते हैं। अब पराठे को ही ले लीजिये , भारतीय पुराणों में परांठा के  बारे में पुराण रचनाकार मौन ही रहे।

 प्रसिद्ध भोजन इतिहास शास्त्री के  टी आचार्य अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'द स्टोरी ऑफ अवर फ़ूड (पृष्ठ 85 ) में लिखते हैं  कल्याण(बिदुर , कर्नाटक )  के राजा सोमेश्वर III (लगभग  1130 ) ने संस्कृत में 'मानसोल्लास ' पुस्तक की रचना की , मानसोल्लास में एक अध्याय भोजन को समर्पित है।  मानसोल्लास  में कई प्रकार पूरण पोली ,(मराठी नाम ) या हिलंगे (कन्नड़ी )  बनाने की विधि लिखी है। मानसोल्लास में लिखा है कि पूरण पोली बनाने के लिए गुंदे आटे के अंदर गुड़ व पिसी भीगी दाल, सुगंधित मसालों  को भरा जाता है और घी में पकाया जाता है।  पूरण पूरी वास्तव में उत्तराखंड में भरी रोटी का ही रूप है।  अंतर आकार का है। पूरण पूरी दो इंच डायमीटर की दल भरी घी में पकी रोटी है तो उत्तराखंडी दल भरी रोटी बड़ी होती है और उत्तराखंडी भरी रोटी या गैबण  रोटी को तवे में घी में पकाओ या न पकाओ का बंधन नहीं है।  उत्तराखंडी भरी रोटी /गैबण रोटी में गुड़ भी नहीं डाला जाता है।   

 Johan Platts (1884 ) की पुस्तक' ए डिक्सनरी ऑफ उर्दू , क्लासिकल हिंदी ऐंड इंग्लिश ( पृष्ठ 235) में लिखा है कि  पराठा शब्द संस्कृत के दो शब्दों से बना है पर या परा +स्थ: या स्थिर।   

   रोटी  विशुद्ध भारतीय है किंतु मुगलाई कुक बुक (पृष्ठ 87 ) की लेखिका लिखती हैं कि सुलतान व मुगल काल से पहले नान व परांठा /पराठा भारत में नहीं पकाये जाते थे।  नीरा वर्मा लिखती हैं कि पराठा दो शब्दों के मेल से बना है - पर्त +आटा  याने जो रोटी परतों से बनी हो। 

 मुझे लगता है पराठे का इजाद 'खौत बौड़ाओ ' (अवशेस बचाओ, सेविंग द वेस्ट  ) के कारण हुआ होगा।  जब दाल बच गयी होगी तो उसे या तो आटे के साथ गूंद कर  इस्तेमाल किया गया होगा या सूखी दाल को गुंदे आटे में भरकर बनाया गया होगा।



                  उत्तराखंडी लोक साहित्य में भरी रोटी /पराठे का जिक्र



इस लेखक को लोक गीतों , लोक कहावतों में दल भरी रोटी का जिक्र तो नहीं मिला किन्तु इस लेखक ने दो लोक कथाओं का संकल अवश्य  किया है जो दल भरी रोटी से संबंधित हैं (सलाण बिटेन लोक कथा ) . 

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                        उत्तराखंड में दल भरी रोटी का अनुमानित इतिहास

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   सामन्यतया मैदानी हिस्सों में पराठा को बनाते समय आटा गूंदते वक्त या आटा गूंदने के बाद घी में गूंदा जाता है जिससे कि रोटी की तह बनकर पराठा या कई तह वाली भरी रोटी बन जाय।  कई मायनों में उत्तराखंड में बनने वाला रोट भी कुछ कुछ सादा परांठा ही है।

   अधिकतर रोट काटना क्षेत्रीय देवताओं के पूजन का महत्वपूर्ण कर्मकांड है।  इसका अर्थ है कि भूमिपालों या क्षेत्र पालों को रोट को भेंट देने का रिवाज शायद घंटाकर्ण देव पूजन से शुरू हुआ होगा।  याने रोट या आधुनिक पराठे का रिवाज उत्तराखंड में 2000  साल पहले से ही रहा होगा।

      उत्तराखंड में घी भरा रोट तो घी  प्रोयग के साथ ही शुरू हुआ होगा और तेल में बना रोट तेल प्रयोग के साथ शुरू हुआ होगा। पहले यदि पत्थरके ऊपर  रोटी /ढुंगळ पकाये भी  जाते थे तो भी ढुंगळ तेल -घी में तला जा सका होगा।

 एक समय सत्तू पराठा भी प्रचलन में था।

   रोट मीठे और नमकीन  या सादा तीनो किस्म के होते हैं

             भरी रोटी /गैबण रोटी /पराठा का प्रचलन सबसे पहले भीगी गहथ की कच्ची  दाल को पीसकर भरवां रोटी के रूप में हुआ होगा।

    आज तो उत्तराखंडियों के घर सौ से अधिक किस्मों   दल भरी रोटी या पराठे बनते हैं किन्तु पारम्परिक दल भरी रोटियां गहथ , भट्ट , सूंट , रयांस , लुब्या दाल की ही बनती थीं। प्राचीन उत्तराखंड में शायद उबाले गए बसिंगू छोड़ किसी अन्य सब्जी की भरी रोटी या पराठे का प्रचलन नहीं रहा होगा।  उसी तरह गेंहू , मंडुआ , जौ, मकई  या अन्य अनाजों से सब तरह के पराठे बनते थे।बसिंगू छोड़  सब्जी भरकर रोटी /पराठा बनाने का रिवाज अंग्रेजी शासन काल में आया व स्वतंत्रता के बाद बहुत शीघ्र प्रचलित हुआ।

        उत्तराखंड में निम्न तरह के पराठे प्रचलन में हैं

१-  नमक या गुड़ मिलाई हुयी सादी रोटी /रोट अथवा मनक /गुड़ मिलाई तेल में तली रोट  /पराठा

२-  बची हुयी दाल , सब्जी आदि को आटे में मिलाकर बनी सूखी या घी /तेल में पकी रोटी /पराठा

३- कच्ची भिगोई दाल (गहथ , मटर ) पीसकर भरी रोटी /तली भरी रोटी

३अ  -  सादी उबली दाल पीसकर बनी दल भरी/गैबण  रोटी

४ - उबली दाल पीसकर बनी दल भरी/गैबण  घी तेल में तली रोटी /पराठा

५ - कच्ची सब्जी (मूली , गोभी , मेथी /प्याज /मटर   आदि ) भरी सादी रोटी /पराठा

६ -  कच्ची सब्जी (मूली , गोभी/पपीता  आदि ) भरी तेल /घी तली  रोटी /पराठा

७- पकी  सब्जी (आलू , आदि )  भरी सादी रोटी /पराठा

८- पकी सब्जी (आलू  आदि  )  भरी तेल /घी में तली  रोटी /पराठा

९- पनीर /चीज भरी सादी रोटी

१०-  पनीर /चीज।/मशरूम भरी तेल /घी में तली  रोटी/पराठा

११- लच्छेदार पराठा

१२- नॉन वेज पराठा





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 उत्तराखंड में जलेबी का इतिहास माने जलेबी जैसी कुंडलीका युक्त उत्तर   
   
  उत्तराखंड में कृषि व खान -पान -भोजन का इतिहास --  86

  History of Agriculture , Culinary , Gastronomy, Food, Recipes  in Uttarakhand -86
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 आलेख -भीष्म कुकरेती (वनस्पति व सांस्कृति शास्त्री ) -

 जलेबी गढ़वाल कुमाऊं व हरिद्वार सब जगह  प्रसिद्ध है तभी तो 'जलेबी तरां सीदी ' कहावत गढ़वाल में आम है।  फिर यीं घिरळि पुटुक मिठु कैन भौर जैसे कथ्य भी जलेबी की महत्ता बतलाते हैं। शायद दो एक पहेली भी गढ़वाल कुमाऊं में जलेबी संबंधित हैं।
                      भारत में जलेबी
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      हमें जलेबी व इमरती का जिक्र सबसे पहले 1886 में प्रकाशित हॉबसन -जॉनसन के Jeelaubee में मिलता है और पता चलता है कि जलेबी नाम अरबी भाषा में जलाबिया और ईरानी /फ़ारसी भाषा के शब्द जिलेबिया का अपभ्रंस है।  (दिलीप पडगांवकर , 2010, टाइम्स ऑफ इण्डिया )
 एक दसवीं सदी की रसोई किताब में जलेबी बनाने की किस्मों का उल्लेख है।  तेरहवीं सदी में इरानी लेखक मुहम्मद बिन हसन बगदादी की रसोई किताब में जलेबी बनाने की विशियों का उल्लेख है ( ऑक्सफोर्ड कम्पेनियन टु फूड , 2014 ).   
सत्य प्रकाश सांगर की पुस्तक 'फूड्स ऐंड ड्रिंक्स इन मुग़ल इंडिया (1999 ) में उल्लेख है कि जलेबी मुगलों को पसंद थी।
   माना जाता है कि पंद्रहवीं सदी से पहले या इस सदी में तुर्क जलेबी को भारत लाये और जलेबी भारतीयों की जीव की पसंदीदा मिठाई बन गयी।
 पंद्रहवीं सदी में जलेबी का नाम भारत में कुंडलीका या जलवालिका था।  जैन साहित्य के लेखक जैनसुर के पुस्तक प्रियंकरनृपकथा (1450 ) में उल्लेख है कि सभ्रांत लोग जलेबी कहते थे।
       सोलहवीं सदी की भारतीय पुस्तक  'गुणयागुणबोधनी' में भी जलेबी बनाने का जिक्र है (पी की गोडे। 1943  ,दि न्यू इंडियन एंटीक्यूटि , ) .

                       उत्तराखंड में जलेबी

      उत्तराखंड की पहाड़ियों में जलेबी का इतिहास गायब है।  हाँ हरिद्वार के बारे में 1808 में रेपर की यात्रा वृतांत बहुत कुछ कहा डालता है। रेपर उल्लेख करता है   (The Spectator ,1986,  vol 256 ) कि  हरिद्वार में हर चौथी दूकान मिठाई की दूकान है और यहां लगता है भगवया रंग सबको पसंद आता है।  साधू भगवया कपड़ों में और जलेबी भी भगवैया रंग की।
        लगता है कुम्भ मेले के कारण जलेबी सोलहवीं सदी में हरिद्वार में बननी शुरू हुयी होगी।  और यदि जलेबी हरिद्वार सोलहवीं या सत्रहवीं सदी में पंहुच गयी थी तो देहरादून वासियों ने अवश्य जलेबी चखी होगी। उदयपुर व ढांगू वालों ने भी अवश्य जलेबी चखी होगी। 
        फिर कुछ यात्री जलेबी को हो सकता है बद्रीनाथ यात्रा मार्ग में ले गए होंगे और किसी चट्टी निवासी को खिलाया भी होगा।  वैसे यात्री जलेबी को महादेव चट्टी तक  ही ले जा सकता था आगे तो जलेबी में दुर्गंध ने लग जाती होगी।
                           पर्वतीय उत्तराखंड में जलेबी का प्रचलन अंग्रेजी शासन में ही हुआ होगा और उसमे सैनकों व जो मैदानों में नौकरी करते थे उनका ही  अधिक हाथ रहा होगा।  तो  कह सकते हैं कि लैंसडाउन के स्थापना बाद जलेबी का प्रचलन शुरू हुआ होगा।
     वैसे पीलीभीत , नजीबाबाद व हरिद्वार के बणिये जो भाभर क्षेत्र व रानीखेत , टनकपुर , दुगड्डा में दुकानदारी करने (उन्नीसवीं सदी अंत व बीसवीं सदी ) आये होंगे वे ही जलेबी लाये होंगे।   उन्होंने ही जलेबी तलने का काम शुरू किया होगा और मेलों में जाकर जलेबी को घर घर पंहुचाया होगा।
          देहरादून में स्वतंत्रता से पहले जलेबी बणियों की दुकानों में तली जातीं थी तो स्वतंत्रता बाद सिंधी स्वीट शॉप , कुमार स्वीट शॉप भी मैदान में आये।  गढ़वालियों में बडोनी लोगों की बंगाली स्वीट शॉप के अलावा कोई ख़ास नाम 1975 तक न था। 
           
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  पेठा का उत्तराखंड परपेक्ष में इतिहास     
 
  उत्तराखंड में कृषि व खान -पान -भोजन का इतिहास --   87

  History of Agriculture , Culinary , Gastronomy, Food, Recipes  in Uttarakhand -87

 आलेख -भीष्म कुकरेती (वनस्पति व सांस्कृति शास्त्री )
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   पहाड़ी उत्तराखंड में मैदानी हिस्सों में बसावत न होने से गन्ना पैदा नहीं होता था तो पहाड़ी उत्तराखंड में मिष्ठान ना के बराबर ही रहे हैं।  अरसा , हलवा, खीर  को छोड़ दें तो कोई विशेष मिष्ठान  नहीं मिलते हैं।  अधिसंख्य मिष्ठान अंग्रेजी शासन के बाद ही प्रचलित हुए हैं।  पहले मीठे के लिए शहद का प्रयोग किया जाता था। 
     पेठा एक ऐसा मिष्ठान है जो आज उत्तराखंड में प्रसिद्ध है किंतु यह पारम्परिक मिष्ठान नहीं है।  यहां तक कि हरिद्वार , रुड़की का भी यह पारम्परिक मिष्टान नहीं कहलाया जाता है।  यद्यपि हरिद्वार में यात्रियों हेतु खूब पेठा बिकता है।
      पेठा भुज्यल के फल से बनाया जाता है। 

                      भारत में पेठे का इतिहास

     स्वाति दफ्तौर द हिंदू, ( 9  जून 2012  )     में लिखती हैं कि  पेठा  मिठाई का जन्म  शाहजहां के रसोई में हुआ।  एक दिन बादशाह शाहजहां   ने अपने रसोइयों से मांग की कि मुझे ऐसी मिठाई दो जो ताजमहल जैसा सफेद हो मीठा हो। रसदार हो।  रसोइयों ने कुछ दिन बाद पेठे फल से पेठा मिठाई बनाकर बादशाह को पेश किया और इस तरह पेठे का जन्म हुआ।
                पेठा जन्म की दूसरी कथा भी बादशाह से ही शाहजहां से जुडी है।  ताजमहल बनाते वक्त 22000 मजदूर दाल रोटी खाते खाते ऊब गए।  बादशाह ने अपने मुख्य इंजीनियर उस्ताद इसा ईफेंडी से यह चिंता जाहिर की।  उस्ताद इसा ने पीर नस्कबंद साहिब से बात की।  नस्कबंद ध्यान में गए और खुदा से पेठा मिष्ठान बनानी की विधि  प्राप्त की।
      कुछ सालों में ही आगरा के पेठे सारे भारत में  गए। 

          उत्तराखंड में पेठा प्रवेश
  पेठा ने कब उत्तरखंड में प्रवेश किया होगा के बारे में कोई रिकॉर्ड नहीं है।  रेपर ने 1808 में हरिद्वार में जलेबी का वर्णन किया है किन्तु अन्य मिठाइयों का जिक्र नहीं किया है।  यदि तब जलेबी हरिद्वार में मिलती थी तो अवश्य  ही पेठा भी मिलता होगा।
    शाहजहां का पोता सुलेमान सिकोह जब भागकर श्रीनगर आया तो क्या अपने साथ भेंट में पेठा मिठाई भी लाया होगा ?
     हाँ यह तय है कि मैदानी यात्री चार धाम यात्रा करते वक्त अवश्य ही पेठा लाते रहे होंगे और पेठा देकर चट्टियों में कुछ स्थानीय वस्तुएं खरीदते रहे होंगे।
    अंग्रेजी शासन में ही पेठे का प्रचार उत्तराखंड में अधिक हुआ होगा।  स्वतन्त्रता बाद पेठे का अधिक प्रसार हुआ और आज हर शहर में पेठा उपलब्ध है। 
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   उत्तराखंड परिपेक्ष में हलवा का इतिहास : हिल जाओगे !     
 
  उत्तराखंड में कृषि व खान -पान -भोजन का इतिहास -- 88   

  History of Agriculture , Culinary , Gastronomy, Food, Recipes  in Uttarakhand -88

 आलेख -भीष्म कुकरेती (वनस्पति व सांस्कृति शास्त्री )
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  हलुवा /हलवा /हलुआ के बगैर हिन्दुस्तानी हिन्दू कोई पूजा कार्य समझ ही नहीं सकता।  जब पंडीजी गणेश (पूजा स्थल ) के सामने नैवेद्यम कहते हैं तो सबकी नजर हलवा पर जाती है।  जब कथा या कीर्तन समाप्ति बाद पंडीजी कहते हैं " हां अब चरणामृत और प्रसाद बांटो " तो चरणामृत , आटा या सूजी की पंजरी  , और सूजी का हलवा ही मतलब होता है। व्याह शादियों में पहले जीमण का अर्थ होता था पूरी परसाद। 
     हलवे पर न जाने कितने कहावतें मशहूर हैं धौं।  एक कहावत मेरे चचा जी बहुत प्रयोग करे थे -" अफु स्यु उख हलवा पूरी खाणु अर इख बुबा लूंग लगैक पुटुक पळणु " (लूंग =न्यार बटण ) . हलवा पूरी खाएंगे खुसी व सम्पनता का सूचक है।  पहाड़ियों में मृतक शोक तोडना याने बरजात तोड़ने पर भूड़ा और सूजी तो बनती ही है।  आजकल कहावत भी चल पड़ी है --" एक मोदी तो क्रिकेट लोटत कर से लन्दन में हलवा खा रहा है , दूसरा बैंक लूट कर अमेरिका में हलवा खा रहा है और बेचारा नरेंद्र मोदी व्रत रख रहा है " .
    याने हम हलवा बगैर जिंदगी समझ नहीं सकते हैं।  हलवा याने किसी वस्तु को घी में भूनकर गुड़ /शक़्कर के साथ बाड़ी।  आज दस से अधिक हलवा बनते हैं , खाये जाते हैं और नई नई किस्मे ईजाद हो रहे हैं
   
               अनाज के आटे से बने हलवा

गेंहू , रवा /सूजी ; मकई , चावल , मंडुआ , जौ , मर्सू (चूहा , राजदाना , चौलाई ) , आदि
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              दालों से बगैर आटा बनाये बना हलवा
 
     मूंग , अरहर व चना
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              सब्जियों से बना हलवा

गाजर , लौकी , आलू , जिमीकंद , चुकुन्दर आदि
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      फलों का हलवा

कच्चे पपीते का हलवा , कच्चे केले का हलवा , कद्दू को उबालकर  हलवा , अनन्नास , आम , तरबूज , भुज्यल /पेठा , खजूर , कटहल को मिलाकर
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     अति स्थानीय हलवा

  राजस्थान आदि में मिर्ची या हल्दी का हलवा
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     सूखे मेवों  हलवा
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    नथ -बुलाक जैसे ही हलवा हिन्दुस्तानी नहीं है

     सुनकर आपके हलक में हलवा फंस जाएगा कि जैसे नथ -बुलाक गहने हिन्दुस्तानी ओरिजिन के नहीं हैं वैसे ही हलवा   का जन्म हिन्दुस्तान में नहीं हुआ।  हवा संट हो जायेगी कई हिन्दुओं की जब जानेंगे कि हिंदुस्तान में हलवा सबसे पहले किसी हिन्दू पाकशाला  में नहीं अपितु मुगल रसोई में बनी थी।
      जी हाँ और इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है।  जरा तर्क से काम लें तो पाएंगे कि हमारे पुराने मंदिरों में हलवा नैवेद्य चढ़ाने की संस्कृति नहीं है , ना ही किसी ग्रह , नक्षत्र या राशि को प्रसन्न करने के लिए ज्योतिषी किसी विशेष हलवे की सिफारिश करते हैं ।  प्राचीन संस्कृत में हलवा शब्द ही नहीं है।  जातक कथाओं , जैन कथाओं व आधुनिकतम पुराणों में हलवा जैसे भोजन का नाम नहीं आता है। लपसी का नाम सब जगह आता है।
                 गढ़वाल -कुमाऊं -हरिद्वार में ही देख लीजिये तो पाएंगे कि मंदिरों में अधिकतर भेली चढ़ाई जातीं हैं ना कि हलवा चढ़ाया जाता है।  गढ़वाल -कुमाऊं में क्षेत्रीय देव पूजन में रोट काटा जाता है ना कि गुड़जोळी (आटे का हलवा ) या हलवा।  डा हेमा उनियाल ने भी केदारखंड या मानसखंड में कहीं नहीं लिखा कि फलां मंदिर में हलवा ही चढ़ाया जाता है।  यदि किसी मंदिर में हलवा चढ़ाया भी जाता है तो समझ लो यह मंदिर अभी अभी का है और पुजारी ने अपनी समझ से हलवा को महत्व दिया होगा।  तो अब आप सत्य नारायण व्रत कथा की बात कर रहे हैं ? जी तो इस व्रत कथा का प्रचलन प्राचीन नहीं है जी। लगता है हलवा आने के बाद ही सत्य नारायण व्रत कथा का प्रचलन भारत में हुआ होगा। 
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         तुर्की हलवे का जन्म दाता है

 यद्यपि तुर्की के आस पास के कई अन्य देश भी तकरीर देते हैं कि हलवा उनके देश में जन्म किन्तु अधिसंख्य भोजन इतिहास कार तुर्की को होला का जन्मस्थल मानते हैं।  इस्ताम्बुल वाले तो अभी भी ताल थोक कर कहते हैं हमने हलवाह का अविष्कार किया।  कुछ कहते हैं कि हलवाह तो 5 000 साल पुराना खाद्य है। हो सकता है गोंद , गुड़ , आटे , तेल से बना कोई खाद्य पदार्थ रहा हो।
    लिखित रूप में सबसे पहले तेरहवीं सदी में रचित 'किताब -अल -ताबीख ' में हलवाह की छह डिसेज का उल्लेख है।  उसी काल की स्पेन की एक किताब में भी इसी तरह के खाद्य पदार्थ का किस्सा है।ऑटोमान के सुल्तान महान  सुल्तान सुलेमान (1520 -1566 ) ने तो अपने किले के पास हलवाहन नामक किचन ही मिठाईयाँ पकाने के  लिए बनाया और वहां  कई मिष्ठान  बनते थे।
 लिली  स्वर्ण 'डिफरेंट ट्रुथ ' में बताती हैं कि हलवाह सीरिया से चलकर अफगानिस्तान आया और फिर सोलहवीं सदी में मुगल बादशाओं की रसोई की शान बना और फिर सारे भारत  गया। देखते देखते मिष्ठान निर्माता 'हलवाई ' बन बैठे।  वैसे हलवाई को लाला भी कहा जाता है तभी तो तमिल में लाला का हलवा कहा जाता है।  याने लाला लोग उत्तरी भारत से हलवा को दक्षिण भारत ले गए।  आश्चर्य नहीं होना चाहिए।  तभी तो बंगलौर शहर में मिठाई व्यापार में अग्रवालों का एकाधिकार है।
    हाँ किन्तु उत्तरी भारत के हलवाइयों को इतना भी गर्व नहीं करना चाहिए।  केरल में हलवा प्राचीन अरबी व्यापारी लाये थे। 
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      उत्तराखंड में हलवा

उत्तराखंड में हलवा ने यात्रीयों  द्वारा प्रवेश किया होगा। यात्री अपने साथ या तो सूजी लाये होंगे और चट्टियों में बनवाया होगा या उत्तराखंडी हरिद्वार , बरेली , मुरादाबाद गए होंगे और इस मिष्ठान की बनाने की विधि सीख लिए होंगे।  सूजी का प्रचलन तो सम्पनता के साथ ही आया होगा। सन 1960  तक तो सूजी भी जो कभी कभार बनती थी भी  सौकारों का ही भोजन माना जाता था।  हाँ अब ग्रामीण युवा पूछते हैं बल गुड़जोळी किस खाद्यान या पेय को कहते हैं। 
           
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 ( उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; पिथोरागढ़ , कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;चम्पावत कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; बागेश्वर कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; नैनीताल कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;उधम सिंह नगर कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;अल्मोड़ा कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; हरिद्वार , उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;पौड़ी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;चमोली गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; रुद्रप्रयाग गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; देहरादून गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; टिहरी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; उत्तरकाशी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; हिमालय  में कृषि व भोजन का इतिहास ;     उत्तर भारत में कृषि व भोजन का इतिहास ; उत्तराखंड , दक्षिण एसिया में कृषि व भोजन का इतिहास लेखमाला श्रृंखला ) 

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  उत्तराखंड परिपेक्ष में गुलाब जामुन का इतिहास     
 
  उत्तराखंड में कृषि व खान -पान -भोजन का इतिहास -- 89 

  History of Agriculture , Culinary , Gastronomy, Food, Recipes  in Uttarakhand -89

 आलेख -भीष्म कुकरेती (वनस्पति व सांस्कृति शास्त्री )
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  गुलाब जामुन आज उत्तराखंड का मुख्य मिष्ठानों में गिना जाता है।  लेकिन गुलाब जामुन के अर्थ में ना तो गुलाब है ना ही जामुन।  गुलाब जामुन तीन फ़ारसी शब्दों के मेल से बना है।  गोल /गुल +अब +जामुन।  गोल का अर्थ है फूल , अब माने पानी और जामुन माने फळिंड।  याने जो जामुन जैसे दिखे और स्वाद में गुलाब जल जैसा। गुलाब जामुन कुछ कुछ अरबी मिष्ठान ' लुक़मत अल -कादी ' जैसा है किन्तु अवयव अलग अलग।  'लुक़मत  अल -कादी ' के लिए लोट के गोलियों  को तलकर  शहद की चासनी में छोड़ा जाता है जब कि गुलाब जामुन खोया के लोट के तले गोलियों को गुड़ या चीनी की चासनी में छोड़ा जाता है।  भोजन इतिहासकार माइकल क्रोंड का कहना है कि 'लुक़मत अल -कादी'  और गुलाब जामुन दोनों फ़ारसी शब्द हैं और दोनों का जन्म स्थान ईरान है। गुलाब जामुन ईरान से हिंदुस्तान पंहुचा।
     क्रोंडल के अनुसार लोककथा है कि बादशाह शाहजहां के फ़ारसी शाही रसोइये ने गलती से  अकस्मात गुलाब जामुन  (लुक़मत अल -कादी की जगह ? )  बनाया और शाह जहां के रसोई की शान बनकर हिन्दुस्तान के जिव्हा प्रिय मिष्ठान बन गया।  या हो सकता है बादशाह शाहजहां ने मुमताज महल के किसी बच्चे  होने की ख़ुशी में खानशामाओं को कोई नई मिठाई बनाने का आदेश दिया हो और गुलाब जामुन का जन्म हो गया हो। 
          अधिकांश इतिहासकार यही कहते हैं की गुलाब जामुन बादशाह शाह जहां के समय भारत में आया या जन्म लिया और आज भारत ही नहीं कई देशों में गुलाब जामुन मिष्ठान एक उद्यम है।
                                उत्तराखंड में गुलाब जामुन

      वैसे हो सकता है कि मंदिरों के पंडे , धर्माधिकारी जब जाड़ों में जजमानों को मिलने मैदानों में निकलते रहे होंगे तो किसी जजमान ने उन्हें गुलाब जामुन खिलाया होगा ही।  पर हमें  कहीं  यह वृत्तांत नहीं मिलता है।
                  जहां तक उत्तराखंड का प्रश्न है हरिद्वार में सबसे पहले गुलाब जामुन हलवाइयों ने बनाना शुरू किया होगा फिर धीरे धीरे सरकते सरकते गढ़वाल पंहुचा होगा।  हो सकता है गुलाब जामुन ने मुरादाबाद या पीलीभीत से अल्मोड़ा की ओर रुख किया हो।  एक बात तय है कि जब पहाड़ी उत्तराखंड में गुड़ या चीनी खरीदने की तागत आयी होगी तभी गुलाब जामुन को भी पंख लगे होंगे।
      गढ़वाल राइफल , कुमाऊं रेजिमेंट का गुलाब जामुन प्रसारण में हाथ रहा होगा किन्तु  कितना हाथ  रहा है यह खोज का विषय है।
                            कोटद्वार  , भाभर , दुगड्डा , डाडामंडी में तो तय है कि बिजनौर से आये  बनियों  ने ही गुलाब जामुन बनाना शुरू किया होगा।  श्रीनगर में तो तय है जैन व्यापारियों ने गुलाब जामुन का परिचय गढ़वालियों को कराया होगा। 
             
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उत्तराखंड परिपेक्ष में  जंगली लहसुन / डोंडो/ जिमु / डंडू   का   मसाला व औषधि उपयोग व इतिहास 
History, Origin, Introduction,  Uses  of  Garlic Chives/Chinese Chives  as   Spices ,  in Uttarakhand
 
उत्तराखंड  परिपेक्ष में वन वनस्पति  मसाला , औषधि  व अन्य   उपयोग और   इतिहास - 1                                             
  History, Origin, Introduction Uses  of    Wild Plant  Spices ,  Uttarakhand -   1                       
         
  उत्तराखंड में कृषि व खान -पान -भोजन का इतिहास --   90
History of Agriculture , Culinary , Gastronomy, Food, Recipes  in Uttarakhand -90

 आलेख -भीष्म कुकरेती (वनस्पति व सांस्कृति शास्त्री )
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वनस्पति शास्त्रीय नाम - Allium tubersum
सामन्य अंग्रेजी नाम - Garlic  Chives or Chines Chives
हिंदी नाम -जंगली लहसुन
नेपाली नाम -डुंडू
उत्तराखंडी नाम - दोणो , जिमू  (हिमाचल )
 जंगली लहसुन  या जंगली दोणो कुछ ही क्षेत्रों जैसे मुनसियारी में मसाले के रूप में उपयोग होता है किन्तु औषधि रूप में अधिक होता है।  यह पौधा 2300 -2600 मीटर की ऊंचाई पर हिमालय व चीन हिमालय में उगता है। इसकी एक सेंटीमीटर चौड़ी व बीस सेंटीमीटर लम्बी पत्तियां गुच्छों में उगती हैं और अपने भार से झुक जाती हैं।  फूल सफेद व गुलाबी होते हैं 
जन्मस्थल संबंधी सूचना - जंगली लहसुन के जन्म के बारे में वनस्पति शास्त्री एकमत नहीं हैं किंतु इस पौधे का जन्म हिमालय में ही हुआ इसमें दो रे नहीं हैं।
संदर्भ पुस्तकों में वर्णन - चीन व  तिब्बत में जंगली लहसुन पिछले तीन हजार साल से उपयोग हो रहा है।  चीनी औषधि विज्ञानं की सोलहवीं सदी के पुस्तक में उल्लेख है।  भारत के निघंटु साहित्य में इस स्पेसीज से मिलते जुलते पौधों का जिक्र हुआ है
औषधि उपयोग -
 विटामिन सी से भरपूर , इसका उपयोग उत्तराखंड से बाहर कोलस्ट्रोल कम करने  , रतौंधी , नपंसुकता ,  आदि कष्टों में उपयोग होता है। बालों की आयु बढ़ाने , बुढ़ापा कम करने के लिए भी औसधि उपयोग होता है। पत्तियों के रस  फंगस आदि अवरोधक के रूप में प्रयोग होते हैं।
कुमाऊं विश्वविद्यालय  के फरहा सुल्ताना , ए . शाह व रक्षा मंत्रालय हल्द्वानी के मोहसिन जैसे वैज्ञानिकों ने सलाह दी है की जंगली लहसुन का उत्तराखंड में बड़े स्तर पर कृषिकरण होना चाहिए
                               मसालों में उपयोग

  उत्तराखंड , हिमाचल , नेपाल व मणिपुर जहां जहां तिब्बती संस्कृति का प्रभाव है वहां वहां जंगली लहसुन की पत्तियों व फूलों , मूल का लहसुन जैसे उपयोग होता है याने छौंका , सब्जी -दाल-मांश -अंडे ,  में सलाद व नमक के साथ पीसकर , अचार बनाकर उपयोग होता है।


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उत्तराखंड में  वन अजवाइन , अजमोड़ / राधुनी   मसाला , औषधि उपयोग  इतिहास

   History, Origin, Introduction,  Uses  of  Wild Celery  as   Spices ,  in Uttarakhand
 
उत्तराखंड  परिपेक्ष में वन वनस्पति   का मसाला , औषधि  व अन्य   उपयोग और   इतिहास -  2                                             
             

  History, Origin, Introduction Uses  of    Wild Plant  Spices ,  Uttarakhand -  2                     
         
  उत्तराखंड में कृषि व खान -पान -भोजन का इतिहास --  91
History of Agriculture , Culinary , Gastronomy, Food, Recipes  in Uttarakhand -91

 आलेख -भीष्म कुकरेती (वनस्पति व सांस्कृति शास्त्री )
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वनस्पति शास्त्रीय नाम - Trachyspermum roxburghianum
सामन्य अंग्रेजी नाम - Wild Celery
संस्कृत नाम -अजमोड़ / वन यवनक
हिंदी नाम -अजमोदा  /बंगाली राधुनी
नेपाली नाम -  वन जवानो
उत्तराखंडी नाम -वण अजवाइन , बण अज्वैण
  वास्तव में कृषि जनित अजवाइन में और वन अजवाइन में कुछ ही अंतर् है और दिखने भी कम ही अंतर् है। सुगंध में कुछ अंतर् है।
जन्मस्थल संबंधी सूचना - अधिकतर वैज्ञानिकों की एकमत राय है कि वन अजवाइन का जन्मस्थल इजिप्ट /मिश्र क्षेत्र है।
संदर्भ पुस्तकों में वर्णन - अजमोदा  का उल्लेख चरक संहिता , शुश्रुता संहिता , अमरकोश , मंदपाल निघण्टु , कैयदेव निघण्टु , सातवीं सदी के बागभट्ट का अष्टांग हृदयम , ग्यारवहीं सदी के चक्र दत्त , बारहवीं सदी के गदा संग्रह , तेरहवीं सदी के सारंगधर संहिता , सत्रहवीं सदी के योगरत्नकारा , अठारवीं सदी के भेषजरत्नावली ,  आदि में हुआ है। 

       वन अजवाइन का औषधि उपयोग

वास्तव में घरलू या जंगली अजवाइन दोनों का मुख्य उपयोग औषधि रूप में ही होता है , उत्तराखंड के हर घर में जंगली या घरेलू अजवाइन अनिवार्य मसाला या औषधि होती ही है।  पेट दर्द या बुखार में लोग अपने आप अजवाइन भूनकर या बिना भुने फांक लेते हैं।  लोग परम्परागत रूप से अदरक , गुड़ या शहद व जंगली या घरेलू अजवाइन बीज या पीसी अजवाइन का क्वाथ सर्दी -जुकाम भगाने हेतु उपयोग करते हैं।

बच्चों के गले में कपड़े के ताजिब में भी जंगली या घरेलू अजवाइन बीज बाँधने का रिवाज तो उत्तरखंडियों के मध्य मुंबई में भी है। 

     वन अजवाइन मसाले के रूप में

 आम लोग अजवाइन बीज को गरम  तासीर , वातनाशक , कफ नाशक मानते हैं और जाड़ों में तो दिन में एक बार भोज्य पदार्थ में चुटकी भर अजवाइन डाल ही  देते हैं विशेषकर उड़द  दाल जैसे भोज्य पदार्थ में।  वास्तव में अजवाइन अन्य मसालों की सहेली है। 
  जाड़ों में चाय में भी डालने का रिवाज है।  मिठाईयों में विशेष स्वाद हेतु वन अजवाइन प्रयोग की जाती है।   



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