रस्वाड़ी
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प्रस्तुत च गढ़वाल की प्राचीन रस्वाड़ी (रसोईघर) कु एक दृश्य लोकभाषा गढ़वाली कविता मा।
A Garhwali Traditional Kitchen of Old Time
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By Mahenda Bartwal
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वबरा भितर धुंयाळ लंगी च,
डेळी भेर रस्यांण आयीं च।
कर्त -बर्त द्युराण कनी च,
रस्वाड़ा मा बड़ी जेठाण बैठीं च।।
कुटुंबदरियू अधाण धरियूँ च,
फूळु पुत्यायूँ भात धरियूँ च।
भड्डू पर त्वौरे दाळ धरीं च,
ऐंच मा काँसे बाठुळि धरीं च।।
वबरा भितर धुंयाळ लंगी च,
डेळी भेर रस्यांण आयीं च।
कर्त -बर्त द्युराण कनी च,
रस्वाड़ा मा बड़ी जेठाण बैठीं च।।
साग-पात कू भदयाळू भरियूं च,
तैं मा तवाळो डट्टा धरियूँ च।
डाडुळी दाळ घुमोंण लंगी च,
भातौ पौंळू भि त्यार ह्वयूं च।।
वबरा भितर धुंयाळ लंगी च,
डेळी भेर रस्यांण आयीं च।
कर्त -बर्त द्युराण कनी च,
रस्वाड़ा मा बड़ी जेठाण बैठीं च।।
बन्ठा, गागर पाणि भरियूं च,
ट्वोखुणु तौंका मुंड धरियूँ च।
झंगरवळया घ्यू की कमोळि भरीं च,
नौणी ग्वन्दगी परियळि धरीं च।।
वबरा भितर धुंयाळ लंगी च,
डेळी भेर रस्यांण आयीं च।
कर्त -बर्त द्युराण कनी च,
रस्वाड़ा मा बड़ी जेठाण बैठीं च।।
खित -खित दै कू परवठु भरियूँ च,
लतपत छाँसिन पर्या ह्वयूं च।
माँदण- न्यौतण साज सज्यों च,
कापण पर्ये खाँप अड्यूं च।।
वबरा भितर धुंयाळ लंगी च,
डेळी भेर रस्यांण आयीं च।
कर्त -बर्त द्युराण कनी च,
रस्वाड़ा मा बड़ी जेठाण बैठीं च।।
चुलखंदा दूधे बाट्टी भरीं च,
तै मा बकळी कापड़ि लंगी च।
घ्यू गलायूँ च मयडु बच्यों च,
चौंळू कणकूँ राळ रळायूँ च।।
वबरा भितर धुंयाळ लंगी च,
डेळी भेर रस्यांण आयीं च।
कर्त -बर्त द्युराण कनी च,
रस्वाड़ा मा बड़ी जेठाण बैठीं च।।
सिल्वटा घर्यो ल्वोंण पिस्यूँ च,
खदरा धरयूँ अर क्वसुडु भरियूँ च।
खारियूं क्वडूँ, कुठार भरियूं च,
डल्वणु, पाथु, स्यौर धारियों च।।
वबरा भितर धुंयाळ लंगी च,
डेळी भेर रस्यांण आयीं च।
कर्त -बर्त द्युराण कनी च,
रस्वाड़ा मा बड़ी जेठाण बैठीं च।।
( रचनाकार: महेन्द्र सिंह बर्त्वाल)
स्वरचित एवं सर्वाधिकार सुरक्षित: महेंद्र सिंह बर्त्वाल, स्यूपुरी ( वीरजवाँणा) सतेराखाल, रुद्रप्रयाग। रचना कु मूल उद्देश्य लोकभाषा गढ़वाली का प्राचीन शब्दों कु रिवाज कु संरक्षण च आप सभ्यों कु आशीर्वाद की अपेक्षा मा।