मंडुवे की रोटी, गहथ का फाणु, उड़द का चैंसू, कौणी, झंगोरे की खीर व छन्छ््या, तिल की चटनी, रयांस, तोर की भरी रोटी। वाह! क्या बात है। ये पौष्टिक पहाड़ी व्यंजन गांवों से निकलकर अब महानगरों में डायनिंग टेबल के साथ ही होटलों, शादी-ब्याह के समारोहों, मेलों में खूब सज रहे हैं। रोजमर्रा के खानपान से ऊब चुके लोग टेस्ट चेंज करने के साथ ही स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए इन पौष्टिक व्यंजनों की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। पहाड़ के परंपरागत व्यंजन लंबे समय तक गांवों में ही सिमटे रहे, मगर इनकी अहमियत अब न केवल गांव बल्कि महानगरों के लोग भी समझने लगे हैं। अच्छा यह है कि हम इन पौष्टिक व्यंजनों को घरों से बाजार तक ले आए हैं और बाजार में इन्हें अच्छा रिस्पांस भी मिल रहा है। दिल्ली, मंुबई के पांच सितारा होटल हों या देहरादून के तमाम बड़े होटल सभी में पहाड़ी व्यंजन खूब सज रहे हैं। शादी-ब्याह समारोह, मेलों में भी पहाड़ी व्यंजनों की खासी डिमांड है। विवाह समारोह के मेन्यू में पहाड़ी व्यंजन शामिल हो गए हैं और वहां बाकायदा इनके अलग से स्टाल लगने लगे हैं। मेलों में भी पहाड़ी व्यंजनों की यही स्थिति है। इनमें मंडुवे की रोटीे, गहथ का फाणु, झंगोरे की खीर, अरसा, स्वाला, तिल की चटनी लोगों की पहली पसंद बने हुए हैं। राजधानी देहरादून में विरासत का आयोजन रहा हो या फिर इन दिनों परेड ग्राउंड में चल रहा खादी मेला व उत्तराखंड सांस्कृतिक महोत्सव, इसका प्रमाण हैं। दरअसल, रोजमर्रा के खान-पान से ऊब चुके लोग टेस्ट चेंज करने के साथ ही स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए भी पहाड़ी व्यंजनों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। विदित हो कि पहाड़ में उत्पादित मंडुवा, गहथ, झंगोरा, कौणी, उड़द, रयांस, भट, छीमी, सोयाबीन सभी कुछ तो जैविक हैं, जो स्वास्थ्य की दृष्टि से उत्तम हैं। परेड ग्राउंड में खादी मेले व सांस्कृतिक महोत्सव में पहाड़ी व्यंजनों का स्टाल लगाने वाले संजय रावत का कहना है कि पहाड़ी पकवान हमारी परंपराओं का हिस्सा रहे हैं। इन्हें बचाए रखना सभी का दायित्व है। लोग धीरे-धीरे इसके महत्व को समझ रहे हैं। यही वजह है कि लोग इन पौष्टिक व्यंजनों की ओर आकर्षित हो रहे हैं।