Author Topic: Delicious Recepies Of Uttarakhand - उत्तराखंड के पकवान  (Read 177810 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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Arsa(ITS TYPE OF GARHWALI DESSERT)


 Ingredients:

Qty. Rice 200 Gms. Jaggery 500 Gms. Mustard Oil 300 Mls. (to deep-fry) Water As required

Method:

Make a thick syrup of Jaggery. Grind Rice into fine powder. Mix Jaggery syrup and Rice well. Heat oil in a pan. Make balls out of the mixture and roll them into the shape of puries and deep-fry in hot oil.

Devbhoomi,Uttarakhand

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Baadi(Garhwali dessert)


Baadi is made from Kwada ka Aata (also known as Choon or Mandua flour and is black in color) Baadi is best eaten with Gahat ki dal or Phaanu.Hot Baadi and hot Phanu is very popular food in Uttarakhand.

Ingredients

Kwada ka Aata - 1-2 cup
Water - as required
Ghee - 1-2 tbsp

Method

1. Heat water in a pan till it boils.
2. Now mix Choon (kwada flour) in water and cook for 2 minutes.

3. Add ghee to it and serve ho[/b]

हलिया

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मडुवे की रोटी, गहत की दाल, कोणी की खीर, झंगोरे का भात, चैस्या, अरसा, मालपुवा, पटोडे, भंग्जीरे की चटनी, जख्या का तडका, कन्डाली की सब्जी, चुव्वे का हलवा, कोदे का हलवा, बड़े नीबू की चटनी, सेल (सिंगल), माणा (चावल के आटे की रोटी जो पराठों की तरह बनाई जाती है), चावल का हलवा (सया).

  आहा! महाराज, आ गया ना मुंह में पानी.  क्या ब्यंजन बनते थे हमारे देश (उत्तराखंड) में.  खाते रहो पेट भर जाएगा लेकिन महाराज मन नहीं भरने वाला ठैरा!  स्वाद की तो मत ही कहो हो, ये सारे के सारे ब्यंजन पूरे के पूरे औषधि ही ठैरे, तभी तो हमारे यहाँ बीमारियाँ बिलकुल नहीं के बराबर ठैरी हो.  अब आप ही बताओ जितनी बीमारियाँ शहरों में लोगों को होती हैं उतनी हमारे यहाँ भी होती तो?  महाराज! डर लग रहा है हो, सोचो तो शहर में तो हर कदम पर एक से एक अस्पताल ठैरे, और हमारे यहाँ?  अर्रे महाराज, 20-25 मील तक तो आम बात हुई हो.  अब ऐसे में इतनी बिमारियौं से तो आजतक पहाड़ का क्या हाल हो जाता?  शोच कर भी डर लगता है हो.  लेकिन महाराज कुदरत का कमाल देखो हो, हमारे पुराने खान-पान से और ईष्ट देवता की कृपा से, ऐसा कुछ नहीं था (?)  कुछ नहीं था मतलब? मतलब कि नहीं था.  तो क्या अब.....?   हाँ, यही तो मेरा कहने का मतबल है|  वो गोपाल बाबू गोस्वामी   का गाना याद है आपको,

शहर न्है गो पहाड़ में,
पहाड़ शहर में......

हां, पहाड़ में भी अब अपनी खान-पान की पुरानी आदत को छोड़ कर शहर की तरह खाना शुरू कर दिया है.  परेसर कुकर में बनेगा हो खाना चाहे दाल हो भात हो या बाजार से लाई हुई शब्जी.  अब उसमें औषधि गुण कहाँ से आयेंगे?  तो क्या हो रहा है, ब्लड प्रेशर, दमा, हार्ट पिरोब्लेम और न जाने क्या क्या हो.  अस्पताल एक तो दूर ठैरे दुसरे वहां भी जगह नहीं, ठसाठस ठैरे हो.  और देखो दिल्ली के शहर में, महाराज लोग मडुवा का आटा, गहत की दाल, कोणी, झंगूरा पता नहीं क्या-क्या जो पहाडों में खूब मिलता है, वो भी फ्री, बहुत ही मंहगे दामों में खरीदते हैं.  क्योँ? क्यूंकि डाक्टर ने ये खाने को कहा है.  

मेरे एक मित्र हैं दिल्ली मैं, कहते हैं राजुदा, आपकी सेलाम ठैरी हो, जैसे भी हो, जितनी भी हो गहत की दाल और मडुवे का आटा किसी न किसी के हाथ भेज ही दिया करो.  एक दिन मैंने पूछ ही लिया यार! अब यहाँ पहाड़ में हमने तो मडुवा, गहत बोना बंद कर दिया है क्यूंकि कोइ खाता ही नहीं लेकिन आप लोग दिल्ली जैसे शहर में ये चीजें खाते हो?  वो बोले अरे, राजुदा, आपको मालुम नहीं ये कोदा (मडुवा) और गहत कितने काम की हैं, मडुवे से तो ब्लड प्रेस्सर एक दम नोर्मल हो जाता है और गहत से स्टोन (पथरी)  एक दम साफ़.  आप तो राजुदा एक काम करो कोदा और गहत की ही खेती करो.  यहाँ दिल्ली में ये कितनी महँगी है जानते हो?  मैंने कहा भई मुझे क्या करना है जान कर, आपको जितना चाहिए मैं भेज दूंगा. 

हलिया

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मेरे मित्र ने बताया तो  मुझे बड़ी हैरानी हुई हो जानकार.  अकेले दिल्ली में सैकडों कुंतल कोदे का आटा और गहत की दाल बिकती है और वो भी बहुत ही मंहगे दामों पर.  ये सब आता कहाँ से है? मैंने हैरानी से पूछा तो पता चला कि आता है हमारे उत्तराखंड से ही है.  हे भगवान्! इतना मडुवा, इतना गहत खाली दिल्ली मैं ही बिक रहा है तो और जगह पर भी तो बिक ही रहा होगा.  हाँ, याद आया, दो रुपया किलो मडुवा, जितना भी है देदो......... छह..सात रुपया किलो गहत, जितना भी है देदो.......अर्रे, ये तो हमारे साथ चीटिंग हो रही है, मेरा दिमाग खनक गया हो.  देखो तो ये बाहर के लोग जिनका उत्तराखंड  से कोइ नाता रिश्ता नहीं, हमारी भाषा भी नहीं बोल सकते... बाप रे बाप... इतनी दूर दूर गाँव में आकर कोदा और गहत और न जाने क्या-क्या इतना सस्ता ले जाते हैं और वही चीज हमारे ही भाई-बंधू शहरों में इतने मंहगे दामों पर खरदते हैं... ये क्या हो रहा है......?


मैं तो कहता हूँ, दिल्ली हो बंबई हो या बिलायत, अपने सब उत्तराखंडी भाई लोग उत्तराखंडी भोजन को अपनी आदत बनायें और डाक्टरों के चक्कर लगाने से बचें.  और जो भाई बिजनिस करते हैं वो इन चीजों को यहाँ से अच्छी कीमत देकर खरीदें और खूब पैसा कमायें.  इस से मेरे जैसे हालिया लोगों की भी दशा सुधर जायेगी और हमारे भैयौं की शहत भी ठीक रहेगी.

तो महाराज, लाख टके की बात ठैरी कि उत्तराखंडी ब्यंजनों को अपनी आदत बनायें और उनको अपने रोज के भोजन में शामिल करें यही नहीं हो सके तो शादी, ब्याह, बर्थडे और किसी और भी पार्टी में कम से कम एक-दो ब्यंजन तो उत्तराखंड के शामिल करें ही|



पंकज सिंह महर

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आजकल अमिया मिल रही होंगी बजार में सब लोग अमचूर की चटनी जो पहाड़ों में बनाई जाती है, उसका आनन्द उठा सकते हैं।

इसके लिये आपको अमिया के छिलके उतारकर एक भगोने में थोड़े पानी में डालकर गलने तक उबालनी हैं और जब यह आधी गल जायें तो गुड़ मिक्स करना है, अंत में जब यह लटपटा हो जाये तो उसमें नमक, नारियल(कसा हुआ), सौंफ, काजू-किशमिश(आप्शनल) डालकर अच्छी तरह मिला लें और अंत में लाल मिर्च का छौका घी से लगा लें।
अब................................शुरु हो जाओ और क्या :D ;D

पंकज सिंह महर

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गर्मियों के मतलब की एक और रेसिपी ठैरी महाराज

पुदीने की पत्ति्यां,धनिये की पत्तियां,  कुछ हरी मिर्च और एक-दो प्याज काटकर सबको मिक्सी में डालकर चला दें और यदि उपलब्ध हो तो चूख (खट्टा तरल, जिसे जामीर, बड़े नींबू या दाड़िम के रस से तैयार किया जाता है) मिला लें नहीं तो नींबू से ही काम चला लें। अब इसमें थोड़ा सा नमक मिला लीजिये, चाहें तो थोड़ा भांग से दाने भी भूनकर, पीसकर डाल सकते है, लीजिये साहब गर्मी भगाने और लू न लगने का पहाड़ी तरीका तैयार है। चाहे रोटी के साथ खायें या भात के....।

हेम पन्त

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दीपा पाठक जी के ब्लोग "हिसालु-काफल" से साभार Copy Paste
पसन्द आने पर कृपया निम्न लिंक पर जाकर टिप्पणी जरूर करें........

http://deepapathak.blogspot.com/2008/08/blog-post.html

रिमझिम बारिश के बीच पहाङी खाना


इन दिनों पहाङ झमाझम बारिश में भीग रहे हैं। हर तरह के पेङ-पौधे अपने सबसे सुंदर हरे रंग को ओढे हुए हैं। बादल आसमान से उतर कर खिङकियों के रास्ते घर में घुसे आ रहे हैं। आप छोटे-छोटे खिङकी-दरवाजों वाले एक पुराने लेकिन आरामदायक घर के अंदर बैठे छत की पटाल (स्लेट) पर लगातार पङ रही बूंदों की टापुर-टुपुर का आनंद ले रहे हों तो इस भीगे-भीगे से मौसम में खाने का ख्याल आना स्वाभाविक ही है। खाने की शौकीन होने के कारण मेरे लिए अच्छा मौसम भी एक बढिया बहाना है कुछ खाने का या कम से कम खाने को याद करने का :)। कभी-कभी मुझे आश्चर्य होता है की पहाङी खाना इतना विविधतापूर्ण, स्वादिष्ट और पौष्टिक होने के बावजूद पहाङ से बाहर लोकप्रिय होने में कामयाब क्यों नहीं रहा ? शायद रंगरूप और नामों का खांटी भदेस होना इसकी एक वजह रही हो।

बहरहाल, आजकल खेतों में अरबी, सेम (beans), शिमला मिर्च, मूली, हरी मिर्च, बैंगन, करेला, तोरी, लौकी, कद्दू, खीरे, टमाटर, राजमा लगा हुआ है। अरबी मेरी पसंदीदा सब्ज़ी है। अरबी को स्थानीय भाषा में पीनालू कहा जाता है और मुझे नहीं लगता कि पहाङ के अलावा कहीं और इसका इतना विविधतापूर्ण इस्तेमाल होता होगा। इसका मुख्य हिस्सा जङ यानि अरबी तो खाई ही जाती है, , इसकी बिल्कुल कमसिन नन्हीं रोल में मुङी पत्तियों को तोङ कर, काट कर सुखा लिया जाता है, जिन्हें गाब या गाबा कहा जाता है। अरबी के के तनों को काट कर सुखा लिया जाता है, जिन्हें नौल कहते हैं। नौल और गाबे की सब्ज़ियों का लुत्फ सर्दियों में उठाया जाता है जब ठंड की वजह से खेतों में सब्ज़ियां बहुत कम होती हैं। इनकी तरी वाली सब्ज़ी चावल के साथ खाई जाती है।

मूली को आमतौर पर सलाद के रूप में खाया जाता है लेकिन कुमाऊंनी खाने में (मोटी जङ वाली मटियाले रंग की पहाङी मूली) यह इतनी गहरी रची-बसी है कि बरसात और जाङों में खाई जाने वाली लगभग सारी सब्ज़ियों चाहे वह राई या लाई की पत्तियां हों या आजकल खेत में हो रही ऊपर लिखी हुई कोई भी सब्ज़ी के साथ मिला कर पकाई जाती है। मूली के साथ इन सब्ज़ियों का मेल बहुत अजीब सा सुनाई देता है न? लेकिन यकींन मानिए खाने में ये लाजवाब होती है। दरअसल पहाङी मूली मैदानी इलाकों में उगने वाली सफेद, सुतवां, नाजुक सी दिखने वाली रसीली मूलियों से न केवल रंगरूप में बल्कि स्वाद में भी बिल्कुल अलग होती हैं। सिर्फ मूली को सिलबट्टे में हल्का सा कुटकुटा कर मेथीदाने से छौंक कर बना कर देखिए, इसे थचुआ मूली कहते है, न कायल हो जाएं स्वाद के तो कहिएगा। मूली को दही के साथ भी बनाया जाता है।


पहाङी जीवन-शैली की तरह ही यहां का खाना भी सादा और आडंबररहित होता है। यही इसकी खासियत भी है। किसी भी सब्ज़ी को किसी के साथ भी मिला कर बनाया जा सकता है, पिछले हफ्ते मैं नैनीताल गई थी, रात को उमा चाची ने मुंगोङी आलू की रसेदार सब्ज़ी के साथ बींस, शिमला मिर्च और मूली की मिली-जुली सब्ज़ी खिलाई, आनंद आ गया। सब्ज़ियों का यह तालमेल केवल एक पहाङी घर में ही बनाया जा सकता है। कुछ सब्ज़ियां मेरे ख्याल से केवल पहाङ में ही होती हैं जैसे गीठी और तीमूल। बेल में लगने वाले गीठी भूरे रंग की आलूनुमा सब्ज़ी होती है जिसे एक खास तरीके से पकाया जाता है। तीमूल को पहले राख के पानी के साथ उबाल लेते हैं और उसके बाद उसे किसी भी अन्य सब्ज़ी की तरह छौंक कर सूखी या तरीवाली सब्ज़ी बना लेते हैं, बहुत ही स्वादिष्ट बनती है। एक और सब्ज़ी होती है पहाङ में जो खूब बनाई-खाई जाती है वो है गडेरी, मैदानी इलाकों के लोग उसे शायद कचालू के नाम से पहचानेंगे। भांग के बीजों को पीस कर उसके पानी को गडेरी के साथ पकाया जाए तो इसका स्वाद कुछ खास ही होता है।

लोकप्रिय पहाङी खानों में भट्ट (काला सोयाबीन) की चुङकानी, जंबू और धुंगार जैसे मसालों से छौंके आलू के गुटके, कापा (बेसन भून कर बनाया गया पालक का साग), दालें पीस कर बनाई गई बेङुआ रोटी इत्यादि शामिल हैं। पहाङी व्यंजनों में डुबकों का अपना खास मुकाम है। यह भट्ट, चना और गहद की दाल से बनते है, डुबके बनाने के लिए दाल को रात भर भिगा कर सुबह पीस लेना होता है और फिर इसे खास तरह का तङका लगा कर हल्की आंच में काफी देर तक पकाया जाता है। इसके अलावा उङद की दाल को पीस कर चैंस बनाई जाती है।

पहाङी खाने में चटनी की खास जगह है, चाहे वह शादी ब्याह में बनने वाली मीठी चटनी सौंठ हो या भांग के बीजों (इनमें नशा नहीं होता, गांजा भांग की पत्तियों से बनाया जाता है) को भून कर पीस कर बनाई गई चटपटी चटनी। इन दिनों पेङों पर दाङिम (छोटा, खट्टा अनार) लगा हुआ है, धनिया और पुदीना के पत्तों के साथ इसकी बहुत स्वादिष्ट चटनी बनती है। पहाङों में बङा नींबू जिसे मैदानी इलाकों में गलगल भी कहा जाता है बहुतायत से होता है। सर्दियों की कुनकुनी धूप में नींबू सान कर खाना एक अद्भभुत अनुभव होता है। इसके लिए नींबू को छील कर इसकी फांकों के छोटे-छोटे टुकङे कर लेते हैं, साथ में मूली को धो-छील कर लंबे पतले टुकङों में काट कर नींबू के साथ ही मिला लेते हैं। भांग के बीजों को तवे पर भून कर सिलबट्टे पर हरी मिर्च और हरी धनिया पत्ती, नमक के साथ पीस लेते हैं। अब इस पीसे हुए भांग के नमक को नींबू और मूली में मिला लेते हैं। अब एक कटोरा दही को इसमें मिला लेते हैं। स्वाद के मुताबिक थोङी सी चीनी अब इसमें मिला लीजिए और सब चीजों को अच्छी तरह से मिला लीजिए। इसके लाजवाब स्वाद के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं खुद जायका ले कर देखें।

इन दिनों यहां खीरे हो रहे हैं, पहाङ में खीरे को ककङी कहा जाता है और यह आमतौर पर मिलने वाले खीरे से आकार में दो-तीन गुना बङा होता है। जब खीरे नरम होते है तो उन्हें हरे नमक यानी धनिया, हरी मिर्च और नमक के पीसे मिश्रण के साथ खाया जाता है। खीरे जब पक जाते हैं तो उनका स्वाद हल्का सा खट्टा हो जाता है अब यह बङियां बनाने के लिए बिल्कुल तैयार है। इसे कद्दूकस करके रात भर भिगाई गई उङद की दाल की पीठी में हल्की सी हल्दी, हींग इत्यादि मिला कर छोटी-छोटी पकौङियों की शक्ल में सुखा लिया जाता है। बाद में आप इसे मनचाहे तरीके से बना सकते हैं।

मुझे खाने का शौक है और खास तौर पर पहाङी खाना बहुत ही ज्यादा पसंद है उसमें भी सबसे ज्यादा पसंद है रस-भात। रस दरअसल बहुत सारी खङी दालों से बनता है। इसके लिए पहाङी राजमा, सूंठ (पहाङ में होने वाली सोयाबीन की एक किस्म), काला और सफेद भट्ट, उङद, छोटा काला चना, गहत इत्यादि दालों को अच्छी तरह से धो कर रात में ही भिगा दिया जाता है। सुबह उसी पानी में मसाले डाल कर चूल्हे की हल्की आंच में काफी देर तक उसे पकाया जाता है जब सारी दालें पक जाती हैं तो पानी को निथार कर अलग कर लिया जाता है। दालों का यही पानी रस कहलाता है जिसे शुद्ध घी में हल्की सी हींग, जम्बू और धूंगार के पहाङी मसालों का तङका लगा कर गरमा-गरम चावलों के साथ खाया जाता है।

फिलहाल इतना ही, फिर किसी और दिन करेंगे चर्चा कुछ और पहाङी व्यंजनों की। बाहर बारिश तेज़ हो गई है।

हेम पन्त

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Chainsoo

Chainsoo is prepared by using black gram daal. Normally due to the high protein content in this daal it is difficult to digest. However it is said that the bad effect gets nullified by roasting. Similar preparation with slight variation is made out of black bhat (a varity of soyabeen), but in that case it is called bhatwani.

Ingredients

Black Gram seeds(Kali Urd whole) - 1 cup
Oil - 1/2 cup ( preferably mustard oil)
Garlic - 4 to 5 cloves
Cummin seeds - 1 tsp
Black pepper - 4 nos.
Red chillies whole - 4 to 5
Asafoetida - a pinch
Dry coriander powder - 1/2 tsp
Turmeric powder - 1/4 tsp
Red chillies powder - 1/2 tsp
Water - 3 cups
Salt - 3 tsp or to taste
garam masala-1/2 tsp

Method

Place an iron frying pan (kadhai) on a moderate flame. Put Sabut Urad (black gram) in it and roast it without oil for about 3 to 5 minutes or till the pleasant aroma of roasted seeds comes. Do not over cook it. Take off the flame. Grind the roasted seeds into a coarse powder.

Heat oil in the Kadahi and add garlic cloves. When the garlic turns lightl brown, add cumin seeds, red chillies,black pepper, and heeng (asafoetida)

Immediately add the daal powder and fry it for 1-2 minute or so. Add turmeric powder, dry coriander powder, red chillies powder, salt and water. Bring it to boil.

Cover and Cook till the daal becomes very soft. Simmer for 20-30 minutes. Before taking off the heat, sprinkle garam masala over chainsoo.

Garnish with pure ghee and chopped coriander leaves. Serve with hot steamed rice.

Source: http://walktohimalayas.com/local_taste/chainsoo.html

mu_cool

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gr8 work done by u all...but maharaz jo maz lasand noo (garlic salt)dagad rot main cha kak main nahatin....

Devbhoomi,Uttarakhand

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Garhwali kadi(made with jhangora)

Ingredents: 
 cup jhingora (a kind of millet)* - soaked for 3-4 hours, drained and ground to a paste1 cup sour yogurt diluted with 2 cups water1/8 tsp asafoetida? tsp turmeric? tsp chilli powder2 tsp salt1 tsp powdered coriander seeds2 tbsp oil1 tsp cumin seeds*the local people often substitute rice. In fact they even use wheat flour many a times

Method:
 Dissolve the ground paste into the water and yogurt mixture. Add the asafoetida, turmeric, chilli powder, salt and coriander powder. Heat the oil and add the cumin seeds. When they splutter, add the yogurt mixture and bring to a boil, stirring to avoid scorching. Simmer for 5 minutes or so, till it thicken a bit. Serve ho

 

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