Author Topic: Folk Stories - किस्से, कहानिया, लोक कथाये  (Read 51732 times)

खीमसिंह रावत

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हेम जी च्याउ बरसात में अपनेआप उग जाता है किन्तु यह बिषैला है या अच्छा पहचानना ज़रा मुसकिल सा होता है एक पत्थर च्याऊ भी होता जिसकी सब्जी भी बनाई जाती है/ 


मशरूम (कुमाऊंनी शब्द - च्यो) पहाड़ों में जंगलों में बहुतायत से मिलते हैं. नमी वाले जंगलों में बरसात के दिनों में जहाँ-तहाँ मशरुम बिखरे हुए मिल जाते हैं. मैदानी इलाकों में सब्जी के तौर पर भारी कीमत पर मशरूम खरीदे जाते हैं लेकिन पहाड़ के अधिकांश इलाकों में उच्च जाति के लोग इसे नहीं खाते. इसके पीछे 2 कहानियां प्रचलित हैं

1. ऐसा कहा जाता है कि एक बार किसी सार्वजनिक भोज में मशरूम की सब्जी में लापरवाही के कारण कुछ जहरीले मशरुम (च्यो) पड़ गये थे. और गांव के कुछ लोग  मर गये कुछ बिमार हो गये. इसके बाद "च्यो" की सब्जी का सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया.

2. दूसरी कहानी भी इससे मिलती जुलती ही है. इसके अनुसार सार्वजनिक भोज में बनी मशरूम की सब्जी एक कोने में धरी रह गई और किसी का ध्यान उस तरफ़ न जाने के कारण लोगों में बंट नही पाई. उस दिन से लोगों ने मसरूम की सब्जी खाना ही बन्द कर दिया.

कारण जो भी रहा हो लेकिन हम लोग एक सुलभ और स्वादिष्ट सब्जी से वंचित रह गये.




Rajen

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तनुज जी:

बाबा हो!  गजब ठैरा हो महाराज. बहुत दिनों के बाद इतनी ध्यान से कोई कहानी सुनी (पढी).  
आजि कौ धें .

Risky Pathak

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Haan Chyo ki sabji aamtor pe nahi bnaayi nahi jaati. Ise khana acha nahi mana jata Par ye gaay bakri ka swaadisht aahaar hai..

हेम जी च्याउ बरसात में अपनेआप उग जाता है किन्तु यह बिषैला है या अच्छा पहचानना ज़रा मुसकिल सा होता है एक पत्थर च्याऊ भी होता जिसकी सब्जी भी बनाई जाती है/ 


मशरूम (कुमाऊंनी शब्द - च्यो) पहाड़ों में जंगलों में बहुतायत से मिलते हैं. नमी वाले जंगलों में बरसात के दिनों में जहाँ-तहाँ मशरुम बिखरे हुए मिल जाते हैं. मैदानी इलाकों में सब्जी के तौर पर भारी कीमत पर मशरूम खरीदे जाते हैं लेकिन पहाड़ के अधिकांश इलाकों में उच्च जाति के लोग इसे नहीं खाते. इसके पीछे 2 कहानियां प्रचलित हैं

1. ऐसा कहा जाता है कि एक बार किसी सार्वजनिक भोज में मशरूम की सब्जी में लापरवाही के कारण कुछ जहरीले मशरुम (च्यो) पड़ गये थे. और गांव के कुछ लोग  मर गये कुछ बिमार हो गये. इसके बाद "च्यो" की सब्जी का सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया.

2. दूसरी कहानी भी इससे मिलती जुलती ही है. इसके अनुसार सार्वजनिक भोज में बनी मशरूम की सब्जी एक कोने में धरी रह गई और किसी का ध्यान उस तरफ़ न जाने के कारण लोगों में बंट नही पाई. उस दिन से लोगों ने मसरूम की सब्जी खाना ही बन्द कर दिया.

कारण जो भी रहा हो लेकिन हम लोग एक सुलभ और स्वादिष्ट सब्जी से वंचित रह गये.




Devbhoomi,Uttarakhand

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मशरूम (कुमाऊंनी शब्द - च्यो) पहाड़ों में जंगलों में बहुतायत से मिलते हैं. नमी वाले जंगलों में बरसात के दिनों में जहाँ-तहाँ मशरुम बिखरे हुए मिल जाते हैं. मैदानी इलाकों में सब्जी के तौर पर भारी कीमत पर मशरूम खरीदे जाते हैं लेकिन पहाड़ के अधिकांश इलाकों में उच्च जाति के लोग इसे नहीं खाते. इसके पीछे 2 कहानियां प्रचलित हैं

1. ऐसा कहा जाता है कि एक बार किसी सार्वजनिक भोज में मशरूम की सब्जी में लापरवाही के कारण कुछ जहरीले मशरुम (च्यो) पड़ गये थे. और गांव के कुछ लोग  मर गये कुछ बिमार हो गये. इसके बाद "च्यो" की सब्जी का सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया.

2. दूसरी कहानी भी इससे मिलती जुलती ही है. इसके अनुसार सार्वजनिक भोज में बनी मशरूम की सब्जी एक कोने में धरी रह गई और किसी का ध्यान उस तरफ़ न जाने के कारण लोगों में बंट नही पाई. उस दिन से लोगों ने मसरूम की सब्जी खाना ही बन्द कर दिया.

कारण जो भी रहा हो लेकिन हम लोग एक सुलभ और स्वादिष्ट सब्जी से वंचित रह गये.




हेम दाजू , मशरूम को (चूँ) केवल कुमाउनी मैं ही नहीं बल्कि पूरे उत्तराखंड यानी कुमाउनी और गढ़वाली मैं इसे (चूँ) ही कहा जाता है! इसकी सब्जी बहुत बढ़िया होती, और पहाडो मैं लोग उन मशरूमों की सब्जी बनाते थे जो की आसमान मैं बिजली कड़कने से वणों मैं उगते हैं! लेकिन अब लोग लोग नहीं खाते है चूँ की सब्जी समय परिवर्तन होने के साथ लोगों का स्वाद भी बदल गया है, और गांवों तो लोग अभी भी इसकी सब्जी खाते हैं, मुझे तो बहुत पसंद है चूँ की सब्जी !

Ravinder Rawat

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excellent story Tanuj ji....
maja aa gaya padhne me...

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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नरु-बिजुला: रची अद्भुत प्रेमकहानी


उत्तरकाशी। पहली नजर का प्यार, इकरार, प्यार को पाने की कोशिश, दो इलाकों की परंपरागत दुश्मनी, रार और फिर प्यार करने वालों की जीत, यानी हर वो मसाला इस कहानी में है, जो बालीवुड फिल्मों के लिए अनिवार्य माना जाता है। अंतर है तो सिर्फ इतना कि बालीवुड में बनने वाली फिल्में काल्पनिक कहानियों पर आधारित होती हैं, जबकि यह एक सच्ची कहानी है। बात हो रही है उत्तरकाशी के दो भाइयों नरु और बिजुला की। इन दोनों ने आज से करीब छह सौ साल पहले प्यार की खातिर कुछ ऐसा किया, जो प्रेम डगर पर पग धरने वालों के लिए नजीर बन गया।

कहानी शुरू होती है पंद्रहवीं सदी से। उत्तरकाशी के तिलोथ गांव में रहने वाले दो भाई नरु और बिजुला गंगा घाटी में अपनी वीरता के लिए विख्यात थे। उन दिनों गंगा घाटी और यमुना घाटी के लोगों में परस्पर परंपरागत तौर पर दुश्मनी थी। इस बीच बाड़ाहाट के मेले ने नरु और बिजुला की जिंदगी बदलकर रख दी। दरअसल दोनों भाई मेले में गए थे, यहां उन्हें एक युवती दिखी, नजरें मिली और दोनों भाई उसे दिल दे बैठे। आंखों ही आंखों में युवती भी इकरार का इजहार कर वापस लौट गई। भाइयों ने युवती के बारे में पूछताछ की तो पता चला कि युवती यमुना पार रवांई इलाके के डख्याट गांव की रहने वाली थी। इसके बाद दोनों भाई डख्याट गांव पहुंचे तथा युवती को तिलोथ लेकर आए।

उधर, डख्याट से युवती को उठाने की सूचना मिलते ही यमुना घाटी रवांई के कई गांवों के लोग इकट्ठा हो गए। उन्हें यह मंजूर नहीं था कि गंगा घाटी वाला उनकी बेटी को उठा ले जाए। सैकड़ों लोग हथियार लेकर नरु- बिजुला को तलाशने लगे। उनका पीछा करते हुए यह लोग ज्ञानसू पहुंचे और रात को यहीं विश्राम किया। ज्ञानसू में रवांई के लोगों के जमा होने की सूचना मिलते ही नरु-बिजुला ने अपने गांव की महिलाओं को अन्न-धन के भंडार समेत डुण्डा के उदालका गांव की ओर रवाना कर दिया और दोनों खुद ही रवांई वालों से लोहा लेने ज्ञानसू पहुंच गए। बताया जाता है कि इस लड़ाई में नरु-बिजुला ने रवांई घाटी के सैकड़ों लोगों की पिटाई कर उन्हें भागने पर विवश कर दिया। इसके बाद दोनों ने अपनी पत्नी के साथ सुखद जीवन जिया। नरु-बिजुला की पीढि़यां आज भी तिलोथ गांव में रहती हैं। इस परिवार के बुजुर्ग बलदेव सिंह गुसाई ने जब यह कहानी सुनाई, तो उनकी आंखों की चमक और चौड़ा होता सीना गवाही दे रहा था कि उन्हें नरु-बिजुला का वंशज होने पर उन्हें गर्व है। उन्होंने बताया कि ज्ञानसू की लड़ाई गंगा-यमुना घाटी की अंतिम लड़ाई थी। एक खास बात यह कि तिलोथ में नरु-बिजुला का छह सौ साल पुराना चार मंजिला भवन आज भी सुरक्षित है। आठ हाल व आठ छोटे कक्ष वाले भवन की हर मंजिल के चारों ओर खूबसूरत अटारियां बनी हैं। इसकी मजबूती का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उत्तरकाशी में 1991 में आया भीषण भूकंप भी इसे नुकसान नहीं पहुंचा सका। हालांकि सरकार इस हवेली के संरक्षण को कुछ नहीं कर रही है



Source : Dainik jagran - http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_5872814.html

हेम पन्त

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हमारा इलाका (पिथौरागढ) नेपाल सीमा के पास पड़ता है, नेपाल के लोग बहुत सीधेसादे होते हैं. गरीबी के कारण उत्तराखण्ड के सीमान्त इलाकों में कुल्ली बनकर या खेतों में काम करके कुछ पैसे कमा लेते हैं. इन पर भी लोगों ने कई किस्से गढे हैं-

1. एक नेपाली किसी बड़े सेठ या अफसर के घर पर काम करता था. जब वो अपने गांव गया तो बड़ी ऎंठ दिहाने लगा, लोगों से बात भी नहीं करता था. एक बार उसके पुराने दोस्त ने कहा- भाई तू हमसे तो अब बात भी नहीं करता तो वो नेपाली बोला - "सैब सित बात करन्या खापड़ि, तुम संग कि बात करन्या" (मैं बड़े साहब के साथ बात करने वाले इस मुंह से तुम जैसे तुच्छ लोगों से कैसे बात करूँ?)

2. एक नेपाली बिचारा पहली बार भारत आया, उसको जलेबी खिलाई गई तो वह आश्चर्यचकित रह गया और बोला- "धन्य हो भारत सरकार, कनका का धुला भितर मो कस्सै कोच्या को हो?" (भारत सरकार तू धन्य है. भला तूने गेहूँ के आटे के अन्दर शहद कैसे घुसेड़ दिया?)

हेम पन्त

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पहाड़ में कई धार्मिक मिथक प्रचलित हैं. कुछ मिथक या मान्यताएं इतनी गहराई तक लोगों के मन में बसी हैं कि इन कहानियों को विभिन्न जगहों पर  लोगों ने अपने इलाके से जोड़कर काल्पनिक घटनाएं रच दी हैं.

1. एक कहानी बहुत प्रचलित है - एक ग्वाले की गाय ने दूध देना कम कर दिया तो उसने गाय का जंगल में पीछा किया. ग्वाले ने देखा कि गाय एक शिवलिंगनुमा आक्रुति के ऊपर खड़ी हो जाती है और उसका दूध शिवलिंग पर स्वत: गिरने लगता है. ग्वाला गुस्से में आकर कुल्हाड़ी से प्रहार करके उस शिवलिंग को तोड़ना चाहता है लेकिन उससे खून निकलने लगता है और उस जगह देवता की उपस्थिति का आभास होने पर वहाँ मन्दिर का निर्माण किया जाता है. यह कहानी अल्मोड़ा जिले के झांकर सैम मन्दिर के बारे में प्रचलित है. इससे मिलती-जुलती कहानियां दर्जनों अन्य जगहों पर सुनाई जाती हैं.

2. एक अन्य लोकमान्यता शिवलिंग के ऊपर गिरने वाली प्राकृतिक जलधाराओं के बारे में बहुत अधिक सुनी जाती है. पिथौरागढ जिले के "पाताल भुवनेश्वर" गुफा में शिवलिंग के ऊपर सफेद पत्थर से टपकता हुआ जल गिरता रहता है. ऐसा कहा जाता है कि पहले इस जगह से दूध टपकता था लेकिन एक साधू ने उस दूध से खीर बना कर खा ली थी. उसके बाद यह दूध पानी बनकर गिरने लगा.
यह कहानी भी विभिन्न जगहों पर कई  रूपों में सुनने को मिलती है.

3. कुछ मन्दिरों की स्थापना के बारे में यह मिथक प्रचलित है कि देवता को स्थापित करने के लिये एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जा रहा था, कुछ देर सुस्ताने के उद्देश्य से प्रतिमा/लिंग को नीचे रखा गया तो उसके बाद उसे उठाना सम्भव नहीं हुआ. अन्तत: उसी जगह मन्दिर का निर्माण कर दिया गया.

हेम पन्त

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फेसबुक में "Pahadi Classes" पेज पर भरत लोहनी जी द्वारा उपलब्ध करायी गयी एक हास्यप्रधान लोककथा...

jagmohan singh jayara

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"जुन्याळि रात की बात"
(कथाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")  

बचपन की बात छ, उबरि रात मा दादी  जी का दगड़ा, रात मा सेण कू मजा कुछ हौर ही होन्दु थौ.  नाती नतणा ओर-पोर अर प्यारी दादी जी बीच मा.  बचपन मा  जब पीठि मा खाज ऊठ्दि  थै त दादी जी कु बोल्दा था,  दादी-दादी जरा खाज कन्येदि.    दादी बड़ा प्यार सी सब्बि नाती नतणौ की पीठी की खाज कन्यौन्दि थै.  दादी जी जब  अपणा हाथन खाज कन्यौन्दु- कन्यौन्दु तंग ह्वैगि  त ऊँका मन मा एक बात  आई.   दादी  जी एक मुंगरी कू मुंगरेठु अपणा दगड़ा रखण लगि, जनि सब्बि नाती नतणौ की पीठी  मा खाज ऊठदि त मुंगरेठान प्यारी दादी जी सब्यौं की खाज कन्यौन्दि थै.  ह्युन्द का मैना  दादी जी सी कथा सुणदा अर  कथा सुणदु-सुणदु  से जाँदा था.  सुबेर जब बिज्दा त  ख्याल औन्दु थौ कि ब्याळि ब्याखना दादी जी की कथा पूरी नि सुणि,  फेर हैक्का दिन रात मा दादी जी की कथा, जथगा रै जान्दि थै सुणदा था. आज बग्त बद्लिगी, दादी की कथा अब क्वी नि सुणदु.  लोग टेलीविजन देखदा छन, जू वेमा दिखेंदु छ, देखदा छन.   आज आपस मा संवाद हीनता पैदा ह्वैगि, पर स्वर्गवासी दादी जी का मुख सी सुणि रोचक कथा अजौं तक मन मा कालजयी  ह्वैक बसिं छन.

      ह्युंद पूस का मैना कि बात छ, ऊँचि डाँडी-काँठ्यौं मा ह्यूँ पड़्युं थौ अर ठँड का मारा कंपकंपी छुटण लगिं थै.   रात मा जब सब्बि नाती-नतणा दादी जी का ओर पोर सेण पड़्यन, दादी जी कू सब्यौन बोलि,  दादी-दादी आज एक भूतू की कथा सुणैदि.  नाती नतणौ कि फर्मेश फर दादीजिन कथा सुणौणु शुरू करि अर सब्बि टक्क लगैक सुण्न लग्यन.   असूज का मैना "जुन्याळि रात की बात" छ,  धाण काज की भारी राड़ धाड़ होयिं थै. उबरि लोग सुबेर राति ऊठिक पुंगड़ौं  चलि जान्दा था अर काम कन्न मा बिळम्यां रन्दा था.  एक दिन रात मा हम जनु ही सेण पड़्यौं, झट सी हम तैं  निंद ऐगी.   तुमारा दादा जी, वीं रात कू थोड़ी देर ही स्ये होला, अचाणचक्क उंकी निंद टूटिगी.  उबरी आज की तरौं घड़ी नि होन्दि थै, पता कनुकै लगण थौ रात कथगा ह्वैगी. तुमारा दादाजिन मैकु बोलि, "हे भाई! खड़ु  उठ साट्टी मांडण जौला", मैन  भी समझि, रात खुन्न  वाळि होलि.  तुमारा दादा जी अर मैं झट-पट्ट लाठी, सुप्पू, मांदरी  लीक बर्ताखुण्ड की सारी गौं का ऐंच साट्टी मांडण चलिग्यौं. जुन्याळि रात का ऊजाळा मा दूर-दूर तक दिख्दा डाँडा शांत अर सेयाँ सी लगण लग्याँ था. हम्न बर्ताखुन्ड की सारी पौन्छिक पैलि पुंगड़ा मा मांदरी बिछाई अर कोंड्गा बिटि साट्टी निकाळिक मंड्वार्त कन्न लग्यौं.  तुमारा दादा जी "स्वर्ग तारा जुन्याळि रात" गीत गुण-मुण अफुमा गुमणाण लग्याँ था.

 

         मंड्वार्त करदु-करदु कुछ देर ह्वै होलि, तुमारा दादा जी की नजर दूर बाटा फर पड़ि.   बाटा फुन्ड भूतू की बारात लंगट्यार लगैक गाजा-बाजौं समेत औणि थै.  ऊ भूत गीत लगान्दु-लगान्दु गाजा-बाजौं समेत  हाथ मा जगदा राँका अर काँधी मा एक पालिंग लीक औण लग्याँ था.  तुमारा ददाजिन मैकु सरक मा बोलि, "हे देख! भूतू की बारात औणि छ".   मैं त डौर का मारा कौंपण लग्यौं.  तुमारा दादाजिन बोलि, "चल हे! कोंड्गा पेट लुकि जौला फटाफट्ट".  तुमारा दादाजी अर मैं  फटाफट्ट कोंड्गा का पेट लुकिग्यौं अर भूतू की चाल देखण लग्यौं.  मेरा ज्युकड़ा मा धक्कदयाट होण लगि अर बदन मा कंपनारू छुटिगी.    दादी जी की यथगा कथा सुणिक सब्बि नाती नतणा ढिक्याण का पेट डन्न लगिन.

     

         कुछ देर बाद सब्बि भूत पालिंग भ्वीं मा धरिक नजिक ही  एक पुंगड़ा मा अपणा सरदार का ओर पोर बैठिग्यन.  हम डौर का मारा हबरी कौम्पण लग्यौं अर कोंडगा पेट  न्यूँ च्यूँ  ह्वैग्यौं.  तुमारा दादा जी सरक मा बोन्न बैठ्यन "आज कुजाणि क्या  ह्वै मेरी मति मा", "जू मेरी निंद टूटिगी अर त्वै सने भी परेशान कर दिनि".   "रात  अजौं भौत छ",  "यनु छ मैकु लगणु पर क्वी बात निछ", "देख आज तू भि भूतू कू तामाशु ".  कुछ भूत-भूतणि झुंगटा मारिक गीत लगौण लगिन, कुछ ऊचड़ी ऊचड़िक कौंताळ मचौण लग्यन.  कथगा प्यारा गीत था ऊ लगौणा, क्या बोन्न.  कुछ भूत चुल्ला लगै अर जगैक भाडौं फर खाणौं बणौण लग्यन.  भूतू कू सरदार बीच मा बैठिक ह्वक्का पेण लग्युं थौ अर हबरि कुछ बोन्न लग्युं थौ.

 

       सब्बि नाती-नतणौन दादी जी सी पूछि, दादी-दादी फेर क्या ह्वै अगनै? ददिजिन बताई, अरे! मेरा नाती-नतणौ क्या बोन्न, जब भूतू कू नाच ख़त्म ह्वे, ऊ सब्बि गोळ घेरा बणैक बैठिग्यन.  खाणौं बणौण वाळौंन अपणा हाथुन खाणौं का हार लगैन.  भूतू का सरदारन द्वी भूत बुलैन अर हम जथैं शान करिक कुछ बोलि.  हमारी त दशा ख़राब ह्वैगि, हम्न सोचि आज हमारू काल ऐगी, ऊ भूतू कू सरदार हम जथैं किलै छ शान कन्नु? थोड़ी देर मा द्वी भूत हाथु मा द्वी हार लीक हमारी तरफ औण लग्यन.  तुमारा दादाजिन मैकु बोलि, "हे आँखा बन्द कर, ऊ हमारी तरफ छन औणा".  हम्न अपणा आँखा बन्द कर्यन पर थोड़ी देर जब ह्वैगि त हम्न देखि,  द्वी भूत वापस चलिगे था.    रात मा दूर धार ऐंच रतबेणु औण ही वाळु थौ, खाणौं खाण का बाद  भूतू की बारात पैटि अर गाजा-बजा बजौंदु जै बाटा बिटि ऐ थै वापिस लौटिगी.  थोड़ी देर बाद धार ऐंच रतबेणु चमकण लगिगि अर हम्न चैन की सांस लिनि.  जब सुबेर ह्वै पोथला बासण लगिन अर  हम्न पुंगड़ा मा देखि, द्वी हार  भूत जू हमारा खातिर ल्हे था, ऊँ  फर पिंगळी खिचड़ी रखिं थै, जै हेरिक हम हक्क-बक्क ह्वैग्यौं.  हम्न सैडु  कोंड्गु साट्यौं कू माण्डी अर फेर घौर अयौं.   घौर पौन्छिक हम्न वीं "जुन्याळि रात की बात" अपणा घौर अर गौं-गौळा वाळौं तैं बताई. सब्बि लोग हमारी बात सुणिक हक्क-बक्क रैगिन. आज भी मेरा मन मा वा "जुन्याळि रात की बात" बसिं छ. 
     

पता: ग्राम-बागी-नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी, टेहरी गढ़वाळ,उत्तराखंड.
पत्रव्यवहार: एफ.आई.सी.सी., ८वीं मंजिल, सेवा भवन, आर.के.पुरम, नई दिल्ली-६६.
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
दूरभास: 09868795187
E-Mail: j_jayara@yahoo.com
दिनांक: २०.१२.२०१०

 

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