Author Topic: Footage Of Disappearing Culture - उत्तराखंड के गायब होती संस्कृति के चिहन  (Read 87199 times)

खीमसिंह रावत

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स्वांल-पथाई= Mahila Sangeet ho gaya hai

swang paitha... स्वांल-पथाई



Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Kuchh jyda hi Sual nahi paath diye :)

स्वांल-पथाई= Mahila Sangeet ho gaya hai

swang paitha... स्वांल-पथाई



खीमसिंह रावत

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अनुभव जी उस समय सुवाल ही आज के लड्डू बर्फी  हैं  / मेहमानों को घर के लिए सुवाल और लाडू ही दिए जाते थे / आज एक डिब्बा मिठाई/

 ;D   ;D    ;D    ;D

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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WOMEN WEARING A ORNAMENT IN THE UNDER PHOTO IS CALLED GALOBAND WHICH IS HARDLY WORN BY LADIES THERE NOW.


हेम पन्त

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शादी ब्याह के समय पैय्या और चीङ से सजाई जाने वाली डोली अब कम प्रयोग होती है...


खीमसिंह रावत

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chnadi ka jevar - paujii

हेम पन्त

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Source : Dainik Jagran

अल्मोड़ा: चंद राजाओं की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक परंपराओं व धरोहरों को समेटे अल्मोड़ा नगर कभी नौलों के नगर के नाम से जाना जाता था। घोड़े की पीठ के आकार में बसे इस नगर के दोनों ओर प्राकृतिक जल स्रोत के 110 छलकते स्वच्छ व निर्मल जल से परिपूर्ण नौले हुआ करते थे।

विकास की अंधी दौड़ व समय की मार ने अधिकांश नौले नेस्तनाबूद से कर दिए हैं। अब बमुश्किल पूरे नगर में 20 नौले शेष हैं। अधिकांश नौलों का पानी इतना दूषित हो चुका है कि वह पीने योग्य ही नहीं रहा है। ऐसा ही एक नौला है जो रम्फा नौला के नाम से जाना जाता था। जिसमें शैल ग्राम से पानी छोड़ा गया था। इसका निर्माण 1887 में बद्रेश्वर जोशी द्वारा बद्रेश्वर के शिव मंदिर के निर्माण के साथ किया गया था। इस बात का खुलासा पर्वतीय जल स्रोत के लेखक प्रफुल्ल कुमार पंत ने 1993 में नौलों पर लिखी गई पहली पुस्तक में किया है।

नगर के नौलों के शोधकर्ता प्रफुल्ल कुमार पंत का कहना है कि पूर्व में नगर के आसपास व नगर में प्राकृतिक रूप से संपन्नता थी। विभिन्न प्रजाति के पेड़-पौधे थे। जिसके कारण नगर के हर ढाल में प्राकृतिक जलस्रोत बिखरे हुए थे। जिनमें से कुछ नौलों का निर्माण तत्कालीन चंद राजाओं ने कराया। तो कुछ का निर्माण नगर के संपन्न परिवार के लोगों ने किया था। लेकिन वनों के कटान के साथ ही धीरे-धीरे जलस्रोत सूखने लगे। जिसके कारण नौले अनुपयोगी होते गए और लोग उन्हें भूल गए।

दूसरी ओर विकास की दौड़ के साथ जगह-जगह बने सीवरेज टैंक के कारण बचे नौलों का पानी दूषित हो रहा है। यदि नगर में विधिवत सीवरेज लाइन की निकासी बनाई जाए तो परीक्षण के बाद बचे नौलों का पानी पीने योग्य हो सकता है। उन्होंने कहा कि जब तक सीवरेज की विधिवत व्यवस्था नहीं की जाती तब तक नौलों के भविष्य के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। उनका कहना है कि घटते नदियों के जल स्तर को देखते हुए जरूरी होगा कि परंपरागत जलस्रोतों के संरक्षण के लिए प्रभावी कदम उठाया जाए।


पंकज सिंह महर

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एक संस्कृति जो आज लुप्त प्रायः है-



दोस्त को हमारे पहाड़ों में मिज्यू या दगड़िया कहा जाता है, पूरुषों में और महिलाओं में संज्यू कहा जाता है। पहले जमाने में तो लोग जब आपस में दोस्ती करते थे तो बकरी काटकर एक पूरी प्रक्रिया अपनाई जाती है और उस मित्रता को आगे की पीढियां भी निभाती थीं। पिताजी के इस प्रक्रिया के तहत बनाये गये मित्र को "मितबाज्य़ू" और उनकी पत्नी की "मितईजा" कहा जाता था और इन दोनों परिवारों में एक परिवार का भाव पैदा होता था। शादी-ब्याह और अन्य पारिवारिक कार्यों में भी इस परिवार को विशेष प्रिफरेंस दिया जाता था, इस परिवार को अपने परिवार में ही समाहित माना जाता था। इन परिवारों में शादी आदि के बाद अपने परिवार के अन्य सदस्यों की ही तरह दैज देने की भी परम्परा है, यदि मित्र परिवार ब्राह्मण हो और मेजबान राजपूत, तो भी ब्राह्मणॊं के लिये दी जाने वाली दक्षिणा की जगह दैज (शादी में प्राप्त वस्तु-गागर, परात आदि) या गोला दिये जाने का प्रचलन है।
      लेकिन आज स्वार्थ और भौतिकतावादी युग में यह सब कहां रह गया।  स्वयं सिद्ध है कि उत्तराखण्ड में मित्रता का बहुत पुराना और पारिवारिक नाता रहा है।

Rajen

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बिलकुल सच है.  मुझे याद है मेरे गाँव के एक ब्यक्ति ने जब दूसरे गाँव के ब्यक्ति को "मिज्ज्यु" बनाया था तो पूरे गाँव को खाना खिलाया पूरी धूम-धाम से.  लेकिन अब तो ऐसी किसी प्रथा से आज के बच्चे/नौजवान बिलकुल अनजान से हैं.


एक संस्कृति जो आज लुप्त प्रायः है-



दोस्त को हमारे पहाड़ों में मिज्यू या दगड़िया कहा जाता है, पूरुषों में और महिलाओं में संज्यू कहा जाता है। पहले जमाने में तो लोग जब आपस में दोस्ती करते थे तो बकरी काटकर एक पूरी प्रक्रिया अपनाई जाती है और उस मित्रता को आगे की पीढियां भी निभाती थीं। पिताजी के इस प्रक्रिया के तहत बनाये गये मित्र को "मितबाज्य़ू" और उनकी पत्नी की "मितईजा" कहा जाता था और इन दोनों परिवारों में एक परिवार का भाव पैदा होता था। शादी-ब्याह और अन्य पारिवारिक कार्यों में भी इस परिवार को विशेष प्रिफरेंस दिया जाता था, इस परिवार को अपने परिवार में ही समाहित माना जाता था। इन परिवारों में शादी आदि के बाद अपने परिवार के अन्य सदस्यों की ही तरह दैज देने की भी परम्परा है, यदि मित्र परिवार ब्राह्मण हो और मेजबान राजपूत, तो भी ब्राह्मणॊं के लिये दी जाने वाली दक्षिणा की जगह दैज (शादी में प्राप्त वस्तु-गागर, परात आदि) या गोला दिये जाने का प्रचलन है।
      लेकिन आज स्वार्थ और भौतिकतावादी युग में यह सब कहां रह गया।  स्वयं सिद्ध है कि उत्तराखण्ड में मित्रता का बहुत पुराना और पारिवारिक नाता रहा है।


Manu Bisht

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Pathak Ji,
Think I equipment displayed in the appended pics is DNYAWA! Used for eradication of weeds. And Moy is used for labeling of fields after plowing.



मोय (मय )



 

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