Author Topic: Footage Of Disappearing Culture - उत्तराखंड के गायब होती संस्कृति के चिहन  (Read 87137 times)

Risky Pathak

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हेम पन्त

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हाथ से बना जनेऊ (यज्ञोपवीत)
« Reply #121 on: July 21, 2009, 04:49:00 PM »
’तकली’ की मदद से हस्तनिर्मित और अभिमन्त्रित जनेऊ बनाने में ३-४ दिन लग जाते हैं. इस प्रकार की जनेऊ बनाने में एक-एक रेशे को बुनना होता है, और यदि एक भी ताना टूट जाये तो जनेऊ अशुद्ध मानी जाती है. अब इस तरह की जनेऊ बनाने वाले कम ही बुजुर्ग रह गये हैं. बाजार में उपलब्ध जनेऊ से ही काम चलाना पड़ता है.


Risky Pathak

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Pahado me hast nirmit janeyu KATTU ke dwara bnaya jata tha.

Janeyu bhi khane se phle kata/bnaya jata tha. Khane ke baad ya bina nhaye dhoye is karya karne per janeyu ko ashudh mana jata hai.

I have this tool(Kattu) at my home. and i know how to create janeyu using this :)
Very tedious work.

’तकली’ की मदद से हस्तनिर्मित और अभिमन्त्रित जनेऊ बनाने में ३-४ दिन लग जाते हैं. इस प्रकार की जनेऊ बनाने में एक-एक रेशे को बुनना होता है, और यदि एक भी ताना टूट जाये तो जनेऊ अशुद्ध मानी जाती है. अब इस तरह की जनेऊ बनाने वाले कम ही बुजुर्ग रह गये हैं. बाजार में उपलब्ध जनेऊ से ही काम चलाना पड़ता है.


हेम पन्त

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साभार - दैनिक जागरण 23 जुलाई 2009

वक्त के बदलाव ने पहाड़ की कला संस्कृति, रहन सहन, खानपान के साथ ही यहां के ठौर ठिकानों और आशियानों में भी भारी तब्दीली ला दी है। मिट्टी, गारे, लकड़ी, पत्थर और पाथर की जगह ईट, सीमेंट और लोहे का प्रचलन आम होने से पहाड़ में कंक्रीट का जंगल बढ़ता जा रहा है। जहां पहले लोग संयुक्त रूप से बाखली में रहते थे, अब प्रथक से कम्पाउंड और लाज का प्रचलन बढ़ गया है। पहाड़ में यहां की भौगोलिकता के अनुरूप सदियों से यहीं के संसाधनों पर भवन निर्माण होता था। नक्काशीदारी और मौसम के लिहाज से बनने वाले इन आशियानों की रंगत देखते ही बनती थी। अधिकांश गांवों में लोग बाखली में रहते थे। पत्थर, लकड़ी, पाथर और गारे से बने इन मकानों की खास विशेषता यह होती थी कि ये गर्मियों में शीतलता और सर्दियों में गर्माहट देते थे। छतें पाथर की ढ़ालदार होती थी जिसमें बर्फबारी के मौसम में भी छतों पर बर्फ रूकती नहीं थी। स्वास्थ्य के नजरिये से आशियाने अनुकूल थे। वैसे आज भी पहाड़ के कई हिस्सों में ये पुराने मकान उसी रंगत और ठसक के साथ खडे़ है। इनकी सबसे बड़ी विशेषता इनके दीर्घकालिक होने की है आज भी ऐसे कई मकान है जो पिछले पांच सौ साल से कई पीढि़यों को आसरा देते आये हैं। उस जमाने में इन मकानों को बनाने में लंबा समय लगता था। जहां आजकल दो तीन महीने में भवन बन जाते है उन दिनों छोटे मकान के लिए तीन चार वर्ष लग जाते थे। मकानों के निर्माण में सामूहिकता की मिशाल देखने को मिलती थी पूरे गांव वाले हर तरह से मदद करते थे और यही वजह होती थी कि अधिकांश पर्वतीय इलाकों में रहने वाला चाहे वह कितना ही गरीब क्यों न हो अपना पक्का मकान बना ही लेता था। जमाने की बयार ने पहाड़ के इन ठौर ठिकानों और आशियानों में भी जबरदस्त तब्दीली ला दी है। अब मकान यहां के संशाधनों पर कम बाहर से आने वाली सामग्री पर ज्यादा बन रहे है। ईट, सीमेंट के साथ ही रेता बजरी भी मैदानी हिस्सों से आता है। सरिया का भी इस्तेमाल कालम बीम के साथ ही स्लैब (लिंटल) में जरूरी है। टाइल्स मार्बल भी बाहर से आता है यहां तक की मकान निर्माण में पहाड़ के अधिकांश क्षेत्रों में बाहरी और बिहारी मिस्त्रियों और मजदूरों का ही राज है। अब आधुनिकता की दौड़ में लाज व कम्पाउंडों का प्रचलन बढ़ गया है और पहाड़ में भी अब मकान नही अपितु अच्छी खासी कोठियां खड़ी होने लगी है और इसकी देखादेखी पुराने आशियानों को तोड़कर गांवों और कस्बों में लोग सीमेंट कंक्रीट के मकान बना रहे है। स्वास्थ्य की दृष्टि से इनका असर प्रतिकूल ही है। ये गर्मियों में जहां ज्यादा गर्मी देते है, वहीं ठण्डे दिनों में कोल्ड स्टोर से कम नही है। जिससे लोगों में तमाम बीमारियों का होना भी इसकी बड़ी वजह माना जा रहा है। बहरहाल आधुनिकता के दौर में पहाड़ में पुराने ठौर ठिकानों में आया बदलाव यहां कंक्रीट व सीमेंट के जंगल खड़ा कर रहा है।

खीमसिंह रावत

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मै जब भी गाँव जाता हू तो पुराने मकानों में लकडी के संगाड (चौखट ) पर उकेरी गइ कला को देखकर ठगा सा रहा जाता हूँ सोचता हूँ की आज की तरह आई आई टी जैसे संस्थान नहीं थे न ही आज की तरह कम्पूटर डिजाइन न ही वे कारीगर पढ़े लिखे थे / बिलकुल अनपढ़, अभावों की जिंदगी /

कारीगरी को देखकर मन को विश्वास नहीं होता है कि क्या ये अनपढ़ शिल्पियों ने बनाये होगें /
सचमुच ये सूरदास के वात्सल्य प्रेम कि तरह लगता है/

खीम

Devbhoomi,Uttarakhand

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आज के दौर में भी गड़वाल का भारतीय संस्कृति के संरक्षक के तौर पर देखा जा सकता है। अगर हम दार्शनिक ज्ञान के विकास-क्रम तथा मंदिर वास्तुकला में शास्त्रीय प्रकृतियों पर वेदों और महाकाव्यों के प्रभाव, प्रतिमा विज्ञान एवं भक्तिपरक नृत्यों,  जिनकी हिमालय की कंदराओं में रहने वाले महान ऋषियों ने व्याख्या की है, पर विचार करें तो यह कहना अतिशयोक्ति न होगी। यह भारतीय संस्कृति एवं दर्शन का प्रतीक है।

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आज के दौर में भी गड़वाल का भारतीय संस्कृति के संरक्षक के तौर पर देखा जा सकता है। अगर हम दार्शनिक ज्ञान के विकास-क्रम तथा मंदिर वास्तुकला में शास्त्रीय प्रकृतियों पर वेदों और महाकाव्यों के प्रभाव, प्रतिमा विज्ञान एवं भक्तिपरक नृत्यों,  जिनकी हिमालय की कंदराओं में रहने वाले महान ऋषियों ने व्याख्या की है, पर विचार करें तो यह कहना अतिशयोक्ति न होगी। यह भारतीय संस्कृति एवं दर्शन का प्रतीक है।

देवभूमि का कल्चर और संस्किर्ति का वर्णन


[youtube]http://www.youtube.com/watch?v=6KVUeZItQsU

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सांस्कृतिक रुप से उत्तरांचल को एक समृद्घ एवं गुन्जायमान विरासत प्राप्त हुई है। यहाँ पर अनेकों स्थानीय मेले एवं त्यौहार मनाये जाते हैं।
जैसे- झन्डा मेला (देहरादून), सरकन्डा देवी मेला (टिहरी गढवाल), माघ मेला (उत्तरकाशी), नन्दा देवी मेला (नैनीताल), चैती मेला (ऊधम सिंह नगर), पूर्णागिरि मेला (चम्पावत), पिरान कलियर मेला (हरिद्वार), जोलिजवी मेला (पिथौरागढ), उत्तरायणी मेला (बागेश्वर), कुम्भ एवं अर्द्ध कुम्भ मेला (हरिद्वार) इत्यादि। ये मेले एवं त्यौहार उत्तरांचल में सांस्कृतिक पर्यटन के लिए अपार सम्भावनाओं की ओर संकेत करते हैं।
 पर्वतों की रानी मसूरी, भारत का झील जिला नैनीताल, कोसानी, पौडी, लैंसडाउन, रानीखेत, अल्मोडा, पिथौरागढ, मुन्सयारी एवं अन्य बहुत से आकर्षक पर्यटन स्थल उत्तरांचल के भाग हैं।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Bahut cheeje jo pahad se gayab ho gayee hai, Jaise :

 -   Alchi - one kind of spice
 

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जौनपुरी संस्कृति की है खास पहचान

नैनबाग (टिहरी गढ़वाल)। पिछड़ी, अनुसूचित जाति व जनजाति समिति का 26वां चार दिवसीय क्रीड़ा एवं सांस्कृतिक विकास समारोह मेला शुक्रवार से शुरू हो गया।

शुक्रवार को राइंका नैनबाग के खेल मैदान में क्रीड़ा एवं विकास समारोह का शुभारंभ करते हुए आपदा प्रबंधक एवं समाज कल्याण राज्यमंत्री खजानदास ने परेड की सलामी ली।

इस दौरान राइंका नैनबाग, गुरू रामराय, प्राथमिक विद्यालय, सरस्वती शिशु मंदिर व विद्या मंदिर के छात्रों द्वारा बैंड की धुन पर मार्चपास्ट किया। राज्यमंत्री खजानदास ने कहा कि इस तरह के आयोजन से ग्रामीण क्षेत्र में छिपी प्रतिभा उभरकर सामने आती है। उन्होंने कहा कि जौनपुर की लोक संस्कृति की खास पहचान है।

 इस मौके पर उन्होंने टीवाई रोड से यमुना ब्रिज तक विधायक निधि से रेलिंग लगाने की घोषणा की। जिला पंचायत उपाध्यक्ष मीरा सकलानी शौचालय के लिए एक लाख रुपये व ब्लाक प्रमुख गीता रावत ने प्राथमिक विद्यालय के सौंदर्यीकरण के लिए 50 हजार रुपये देने की घोषणा की।

 इस अवसर कनिष्ठ उप प्रमुख रेशा नौटियाल, जिपं सदस्य रेखा डंगवाल, समारोह के संरक्षक गजेन्द्र पंवार, सचिव किशन सिंह कैंतुरा आदि ने विचार रखे। समारोह समिति के अध्यक्ष डा. वीरेन्द्र सिंह रावत ने अतिथि का अभार जताया।

 

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