Author Topic: Kumauni Holi - कुमाऊंनी होली: एक सांस्कृतिक विरासत  (Read 238655 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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बलमा घर आयो फागुन में -२
जबसे पिया परदेश सिधारे,
आम लगावे बागन में, बलमा घर…
चैत मास में वन फल पाके,
आम जी पाके सावन में, बलमा घर…
गऊ को गोबर आंगन लिपायो,
आये पिया में हर्ष भई,
मंगल काज करावन में, बलमा घर…
प्रिय बिन बसन रहे सब मैले,
चोली चादर भिजावन में, बलमा घर…
भोजन पान बानये मन से,
लड्डू पेड़ा लावन में, बलमा घर…
सुन्दर तेल फुलेल लगायो,
स्योनिषश्रृंगार करावन में, बलमा घर…
बसन आभूषण साज सजाये,
लागि रही पहिरावन में, बलमा घर…

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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शिव के मन माहि बसे काशी -२
आधी काशी में बामन बनिया,
आधी काशी में सन्यासी, शिव के मन
काही करन को बामन बनिया,
काही करन को सन्यासी, शिव के मन…
पूजा करन को बामन बनिया,
सेवा करन को सन्यासी, शिव के मन…
काही को पूजे बामन बनिया,
काही को पूजे सन्यासी, शिव के मन…
देवी को पूजे बामन बनिया,
शिव को पूजे सन्यासी, शिव के मन…
क्या इच्छा पूजे बामन बनिया,
क्या इच्छा पूजे सन्यासी, शिव के मन…
नव सिद्धि पूजे बामन बनिया,
अष्ट सिद्धि पूजे सन्यासी, शिव के मन…

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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जल कैसे भरूं जमुना गहरी -२
ठाड‌ी भरूं राजा राम जी देखें
बैठी भरूं भीजे चुनरी
जल कैसे…
धीरे चलूं घर सास बुरी है
धमकि चलूं छलके गगरी
जल कैसे…
गोदी में बालक सिर पर गागर
परवत से उतरी गोरी
जल कैसे…

Pawan Pahari/पवन पहाडी

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पैलागों कर जोरी, श्याम मोसे खेलो न होरी,
मैं यमुना जल भरन चली हूं,
सास ननद की चोरी,
पैलागों कर जोरी..............
सारी चुनर मोरी रंग न भिजाबो,
इतनी अरज सुनु मोरी,
जाहु घर लाल बहोरी,
पैलागों कर जोरी...........
छीन लई मोरी हाथ से गागरी,
हठ कर बइयां मरोरी,
जी धड़कत है, सांस चलत है,
क्यों रोकत राह मोरी,
अरज करुं कर जोरी,
पैलागों कर जोरी...........
अबीर गुलाल मलो न मिख पर,
ना डारो रंग गोरी,
सासु हजारन गारी देंगी,
बालम जीता न छोरी,
कहो विष खाय मरोरी,
पैलागों कर जोरी...........
फाग खेलके तू मनमोहन,
का गति कीन्ही मोरी,
सखियन बीच में लाज गंवाई,
आज करत बरजोरी,
आऊं कैसे ब्रज की खोरी,
पैलागों कर जोरी...........।


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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ली की न्याँत लोक बटी चोरि राखी ....
मन मारी , तन मारी दिल लैगो सँय्या
कैसे रहूँगी मनै मारी ...
हाँ हाँ कैसे रहूँगी मनै मारी ...
हाँ जी , अकबर बादशाह की काबुलि घोड़ी ~
चाबुक दे , हाँ हाँ चाबुक दे , हो हो चाबुक दे
मन जै रो रे सँय्यां कैसे रहूँगी मनै मारी ...
मैं तो कैसे रहूँगी मनै मारी ...
अकबर बादशाह को कुंजर हाथी ~~
अंकुश दे , हाँ हाँ अंकुश दे , हो हो अंकुश दे
मन जै रो रे संय्याँ कैसे रहूँगी मनै मारी
मैं तो कैसे रहूँगी मनै मारी ....
नौ गज कपड़ो को लँहगा मँगायो ~~
छोटो भयो , हाँ हाँ छोटो भयो , हो हो छोटो भयो
मन जै रो रे सँय्यां कैसे रहूँगी मनै मारी
मैं तो कैसे .....
.... आगे आप भी जोड़ लगा सकते हैं जैसे
नौ मन आटे की रोटी पकायी ~~
मोटी भयी , हाँ हाँ .....
......

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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प्रयाग पाण्डे
13 hrs
बहुत कठिन है डगर पनघट की ,
कैसे मैं भर लाऊं मधवा से मटकी ,
पनिया भरन को मैं जो गई थी ,
दौड़ झपट मोरी मटकी पटकी?
खुसरो निजाम के बल बल जइये,
लाज रखो मोरे घूंघट पट की॥

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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तू करि ले अपनों व्याह देवर हमरो भरोसो झन करिये।
मैलै बुलाये एकिलो हो एकिलो ,
तू ल्याये जन चार ,देवर हमरो भरोसो झन करिये।
तू करि ले अपनों व्याह देवर हमरो भरोसो झन करिये।
मैलै बुलाये बागा में हो बागा में ,
तू आये घर बार ,देवर हमरो भरोसो झन करिये।
तू करि ले अपनों व्याह देवर हमरो भरोसो झन करिये।
मैलै मंगायो लहंगा रे लहंगा ,
तू लाये बेसनार ,देवर हमरो भरोसो झन करिये।
तू करि ले अपनों व्याह देवर हमरो भरोसो झन करिये।
झन करिये एतवार ,देवर हमरो भरोसो झन करिये।।
होली है. .....

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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बहू चादर दाग कहाँ लायो ?
तोसे पूंछू बात बहू चादर दाग कहाँ लायो ?
स्योनी तेरी अजब बनी है ,ओढ़िया खूब सुहाय ,
बहू चादर दाग कहाँ लायो ?
कपोलिय तेरी अजब बनी है ,विंदिया खूब सुहाय ,
बहू चादर दाग कहाँ लायो ?
अंखिया तेरी अजब बनी है ,कजरा खूब सुहाय ,
बहू चादर दाग कहाँ लायो ?
नकिया तेरी अजब बानी है ,बेसना खूब सुहाय ,
बहू चादर दाग कहाँ लायो ?

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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कविता में होली: ‘रही यह एक ठिठोली’
लेखक : नैनीताल समाचार ::अंक: 16 || 15 मार्च से 31 मार्च 2016:: वर्ष :: 39:

tah
हरीश चन्द्र पाण्डे
होली की उत्सकथा प्रह्लाद, हिरण्यकश्यप और होलिका से मानी जाती रही है और इसका उत्सवधर्मी स्वरूप ब्रजमण्डल से आ रही तरंगों से अपनी खुराक लेता रहा है। इसकी उत्सवधर्मिता में अपनी माटी की गंध लिये, गायन या व्यवहार के कुछ अपने स्थानीय संस्करण देखे जा सकते हैं। होली गीतों के रचयिताओं ने इसे काल व धर्म के दायरों के पार कराया। वह त्रेता के अवध में खेली गई तो उसी अवध में वाजिद अली शाह द्वारा अभिनीत भी की गई. नजीर अकबराबादी ने होली को कुछ यूँ देखा-
गुलजार खिले हों परियों के
और मजलिस की तैयारी हो
कपड़ों पर रंग के छीटों से
खुश रंग अलग गुलकारी हो
मुँह लाल गुलाबी आँखें हों और
हाथों में पिचकारी हो
इस रंग भरी पिचकारी को
अंगिया पर तक कर मारा हो
सीनों से रंग ढुलकते हों,
तब देख बहारें होली की।
होली पर बहुत पहले से बहुत कुछ कहा-लिखा जा रहा है। अनाम लोक रचनाएं भी हैं। और शायद इसकी लोकप्रियता का कारण भी यही है कि इसमें लोक रंगत के विभिन्न शेड्स देखने को मिलते हैं। अगर इसके समावेशी रूप को सामाजिक दृष्टि से देखें तो यह समाज में वर्ण, जाति व वर्गगत रुतबों के कारण आए बिखरावों का एक सांस्कृतिक समाहार-प्रयास था। समय के साथ होली का रूप ही नहीं बदला है वरन होली-भावना भी बदल गई है। अबीर-गुलाल की होली अब कैमिकल युक्त रंगों और कीचड़ तक पहुँच गई है। पिछले बैर-भाव मिटा देने वाली उत्सव भावना को अब बदला लेने के उत्तम अवसर के रूप में देखा जाने लगा है। यह सब अचानक नहीं हुआ। दर असल यह हमारे सामाजिक और राजनैतिक व्यवहारों के क्षरण का प्रतिबिम्बन है। समाज द्वारा आयोजित उत्सवों की जगह बाजार प्रायोजित उत्सव ले रहे हैं।
कविता में भी होली का स्थान धीरे-धीरे कम होता हुआ अब लगभग बंद-सा हो गया है। अपने जीवन के तमाम विकट अनुभवों व जटिल जीवन संग्राम के चलते निराला ने व्यवस्था के ढाँचों पर प्रहार किया तो राग-अनुराग की अन्यतम रचनाएं भी दीं। उनकी कविताओं में ‘सरोज स्मृति’, ‘तोड़ती पत्थर’ जैसी रचनाएं हैं तो ‘जूही की कली’ और ‘बाँधो न नाव इस ठाँव बंधु’ जैसी भी। भला होली उनसे कैसे छूट सकती थी ? होली पर उनकी कई रचनाएं हैं-
‘फूटे हैं आमों में बौर भौंर बन-बन टूटे हैं… आंखें हुई हैं गुलाल, गेरू के ढेले कूटे हैं’ या ‘खेलूंगी कभी न होली, उससे जो न हमजोली’
या फिर यह प्रसिद्ध गीत-
‘नयनों के डोरे लाल गुलाल भरे,
खेली होली
जागी रात सेज प्रिय पति-संग
रति सनेहदृरंग घोली
दीपित दीप प्रकाश,
कंज छवि मंजु-मंजु हंस खोली
पत्नी मुख चुम्बन-रोली
मधु ऋतु रात,
मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खो ली
खुले अपलक, मुद गए पलक-दल,
श्रम सुख की हद हो ली
बनी रति की छवि भोली
बीती रात सुखद बातों में
प्रात पवन प्रिय डोली
उठा कोमल बल मुख लट पट,
दीप बुझा हंस बोली-
रही यह एक टिठोली
आगे भी कई कवियों ने होली केंद्रित कविताएं, गीत लिखे। हरिवंश राय बच्चन लिख रहे थे-
तुम अपने रंग में रंग लो तो होली है
देखी है मैंने बहुत दिनों तक,
दुनिया की रंगीनी
किंतु रही कोरी की कोरी,
मेरी चादर झीनी
कवि केदार नाथ अग्रवाल होली को वसंत और कविता से जोड़ते हुए कहते हैं-
मैं भी फूलों की होली में
खेल रहा हूँ जी भर होली
रंगों को आकार मिला है
मेरी कविता की कलियों में
रंग बिरंगी चमक रही है
ललित कला की चूनर चोली
वहीं शमशेर बहादुर सिंह कविता ‘होली रू रंग और दिशाएं’ में अपनी विशिष्ट शैली में एक ‘एब्सट्रेक्ट पेण्टिग’ (बकौल शमशेर) रच रहे थे-
जंगले जालियांँ स्तम्भ
धूप के संगमर्मर के
ठोस तम के कंटीले तार हैं
गुलाब, धूप केसर, आरसी बाहें
गुलाल, धूल में फैली सुबहें
मुखरू सूर्य के टुकड़े
सघन घन में खुलेदृ से
या ढके मौन अथवा प्रखर किरणों से
कवियों ने ही नहीं, कथाकार- उपन्यासकार फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ ने भी होली पर कविता लिखी-
साजन होली आई है सुख से हँसना
जी भर गाना-मस्ती से,
मन को बहलाना
पर्व हो गया आज-साजन होली आई है
इसी बहाने क्षण भर गा लें
दुखमय जीवन को बहला लें
ले मस्ती की आग
हम देखते हैं कि होली-कविताएं रागों से होते हुए धीरे-धीरे दुःखमय जीवन को बहलाने की एक तदर्थ कार्रवाई तक पहुँच गई। ऐसा नहीं कि होली पर कविताएं बाद में बिल्कुल नहीं लिखी गईं पर यह कम से कमतर होता गया. इधर व्यंग्य के व्यावसायिक विशेषांकों के इतर वह नगण्य ही है। इसका कारण शायद सामूहिकता को जन्म देने वाली परिवार संस्था का लोप होते जाना और हमारी सामाजिक-धार्मिक बहुलता के ताने-बाने का बिखरना भी है जिसने एक ओर मनुष्य विरोधी कार्यों के लिए तो आदमी को एकत्र करना आसान कर दिया है पर हृदय और बुद्धि को चैनलों पर प्रसारित विकृत उत्सवों के भरोसे छोड़ दिया है। वर्ना कौन नहीं चाहेगा व्यस्त, आपाधापी और संत्रास भरे जीवन में कुछ गुलाल-पल हों, नया रस संचारित हो, कुछ गाएं-गुनगुनाएं।
सच तो यह है कि उत्सवों को कविता नहीं, लोक मानस रचता है। कवि निलय उपाध्याय के शब्दों में भोजपुरी फाग को संदर्भित करते कहा जाए तो-
भोजपुर का यह फाग
स्वरलिपि के दीवारों में नहीं अटने वाला
दो योजन पर पानी
चार योजन पर बानी में बदलता जाता
अपनी सीमाओं को हर बार तोड़ता
लोकरंग का यह बासंती हास
इसे इसके कवियों से अधिक उसके लोगों ने रचा है……

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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डगर मोरी छोड़ो श्याम,
बिंध जाओगे नैनन में
कन्हैया बिंध जाओगे नैनन में
जो तेरे मन में होरी खेलन की
ले चलो कुंजन में
कन्हैया, मोको ले चलो कुंजन में,
डगर मोरी…
जो तुम मेरी डगर न छोड़ो,
डगर न छोड़ो
मोहन, मैं तो मारूंगी सैनन में
कन्हैया, मैं तो मारूंगी सैनना में,
डगर मोरी…
तुम धीरे चलो राधे लटकै
स्योंनि में डंडिया भाल में बिंदिया,
कजरा नैन अलग झलकै
नक बेसर दामिनि सों दमके,
गोरि उमंग जोवन लटकै
जात चतुर सखि गजगामिनि सी, जिसकी चाल चसक मटकै
गल मोतियन को हार बिराजे,
मखमल की अंगिया चमकै
बिछुवा की झनकार पड़त है,
सांवलि सूरत पर अटकै.

 

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